भक्ति एवं मन (Devotion and Mind)

       
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 ‌ श्री आनन्द किरण "देव"
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भक्ति भगवत भावना का नाम है। जिसका स्तुति एवं अर्चना से कोई संबंध नहीं। भगवान की भावना लेना ही भक्ति है। दुख व बाधाओं से बचने के लिए अथवा अपने स्वार्थ सिद्धी के लिए ईश्वर से प्रार्थना, अर्चना व आराधना करना अपने आप भ्रमित करना है। यह सब भ्रम मूलक है। बाधाओं के विरुद्ध संग्राम करने से लक्ष्य में स्थापित होना। साधना मार्ग प्रकृत पक्ष आने वाले बाधाएं हमारी शत्रु नहीं वरन मित्र हैं। इसलिए बाधाओं से डरकर एवं घबराकर भागना नहीं है। नहीं बाधाओं से बचाने की ईश्वर को प्रार्थना करनी है। मनुष्य को गुरु के बताए रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए। उसी में मनुष्य का कल्याण है। क्योंकि मनुष्य के गुरु स्वयं ब्रह्म ही होते हैं। ब्रह्म के व्यतिरेक किसी को मनुष्य का गुरु होने का अधिकार नहीं है। मनुष्य को गुरु की खोज में इधर उधर भटकने जरूरत नहीं है। जब मनुष्य के मन में मुक्ति की तीव्र आकांक्षा जगती है‌ तब उसके बल पर सदगुरु की प्राप्ति स्वत: ही‌ हो जाती है। मनुष्य के मन मुक्ति की आकांक्षा उसके अंदर उपस्थित ब्रह्म की हितेषणा के कारण जगती है‌। यह ब्रह्म एषणा ही मनुष्य को अपवर्ग में प्रेषित करती है। मनुष्य के अपवर्ग देवत्व, ब्रह्मत्व प्राप्ति का है। जब तक मनुष्य को यह पथ नहीं मिलता है। मनुष्य आवागमन के चक्र में घूमता रहता है। क्योंकि भूत प्रेत नाम की कोई मध्यमा अवस्था नहीं है। यह अभि भावना के अनुसार चित्ताणु के भावित होने दृष्टिभ्रम के कारण निकली कुधारणा है। विदेही मन कोई कर्तव्य नहीं कर सकता है तथा न ही वह सुख दुःख का अनुभव कर सकता है। अत: श्राद्ध इत्यादि के द्वारा आत्मा तृप्ति एक अंधविश्वास है। मनुष्य को अपने कर्म के अनुसार कर्मफल भोगना ही होता है। कर्म एवं कर्मफल के इस विज्ञान के कारण विकृत चित्त पूर्व अवस्था प्राप्त करता है। मृत्यु के बाद यह संयोग नहीं मिलने के कार विपाक संस्कार बनकर विदेही मन के साथ रहते हैं। उसी अनुसार वह नव देह की खोज करता है। उपयुक्त सुयोग मिलिते ही नव देह को धारण कर लेता है। मृत्यु वास्तव कारण मन की दीर्घ निद्रा है। उसके जागरण को ही पुनर्जन्म कहते हैं। 

मनुष्य का अणु मन ब्रह्म के भूमामन के समान ही है। मात्र अवस्थागत पार्थक्य के कारण इन्हें अलग अलग दिखाया गया है। ब्रह्म मन भू, भव, स्व: , मह: जन: तप: व सत्य नामक सप्त लोक है। सत्य अहम् व महत् सत्य लोक है। इसे कारण देह भी कहा जाता है। इसके साक्षी पुरुष पुरुषोत्तम नाम से जाने जाते हैं। हिरण्यमय कोष तप लोक, विज्ञानमय कोष जन लोक, अतिमानसमय कोष महलोक है। इसे कारण मन‌ कहा जाता है। इसे साक्षी पुरुष अणु मन में विश्व तथा भूमामन में वैश्वानर अथवा विराट कहलाते हैं। स्वलोक मनोमय कोष है। जो सूक्ष्म मन कहलाता है। इसके साक्षी पुरुष को अणु एवं भूमा में क्रमशः तैजस एवं हिरण्यगर्भ कहलाते हैं। काममय कोष भव व भूलोक है। यह स्थूल मन है। इसका साक्षी पुरुष को प्राज्ञ एवं ईश्वर नाम दिये गए हैं। अणु में पंच कोष मिलकर सूक्ष्म देह जबकि भूमा में मनोमय कोष उर्ध्व कोष सूक्ष्म देह है। अणु मन में स्थूल देह अन्नमय कोष है। जबकि भूमामन में भव व भूलोक है। ब्रह्म मन को सप्तलोकात्मक तथा जैवी पंचकोषात्मक बताया है, जो कदली के पुष्प के समान है। 

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