शंभूलिंग एवं स्वयंभूलिंग
(कुलकुंडलीनी)
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श्री आनन्द किरण "देव"
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भैरवी शक्ति का आरंभिक बिन्दु शंभूलिंग तथा भवानी शक्ति का शेष बिन्दु स्वयंभूलिंग कहलाता है। शंभूलिंग परम धनात्मक एवं स्वयंभूलिंग परम ऋणात्मक है। चूंकि कुलकुंडलिनी का वास भवानी शक्ति के शेष प्रांत में है इसलिए कुलकुंडलिनी शक्ति ऋणात्मक सुप्त जीवभाव है। जीवभाव को जागृत कर शिवभाव मिलाना अथवा शिवभाव में परिणत करना मनुष्य की साधना है। तंत्र में इसे शिवशक्ति का मिलन तथा वैष्ववीय शास्त्र में राधा कृष्ण का मिलन बताया गया है। साधना मनुष्य का व्यक्तिगत आध्यात्मिक अभ्यास है। इसलिए सार्वजनिक चर्चा उचित नहीं है। लेकिन शंभूलिंग व स्वयंभूलिंग की चर्चा की जा सकती है।
शंभूलिंग भैरवी शक्ति का प्रथम बिन्दु है। बताते है कि इसके नाद एवं कला का विकास होता है। भैरवी शक्ति से पहले की अवस्था को शिवानी अथवा कौषिकी शक्ति कहा गया है। इसके साक्षी अथवा मध्य बिन्दु को शिव कहते हैं। वास्तव में शिव धनात्मक एवं ऋणात्मक की सीमा रेखा से उपर है। क्योंकि शिवानी शक्ति की अवस्था सृष्टि निर्माण के पहले की है। यह सृष्टि की पूर्णतया सैद्धांतिक अवस्था है। यहाँ सृष्टि अथवा शक्ति अव्यक्त होती है। जबकि पुरुष व्यक्त होता है। सृष्टि के सिद्धांत से व्यवहार में बदलने के प्रथम भाव में प्रकृति की व्यक्ता अवस्था होती है तथा पुरुष भी व्यक्त अवस्था में होता है। इस प्रदेश को भैरवी शक्ति कहते हैं, इसके साक्षी पुरुष भैरव नाम से उपमित है। सृष्टि की यह गति पूर्णतया सरल रेखा में है, इसलिए यहाँ विभिन्नता का अभाव है। शंभूलिंग इस प्रदेश का प्रथम बिन्दु है। शंभूलिंग के उपर शिवानी शक्ति प्रदेश है। उसके केन्द्र बिन्दु शिव है। शंभूलिंग की नजदीक इस प्रदेश के है इसलिए शिव को धनात्मक बिन्दु कह देते हैं। लेकिन शिव धनात्मक एवं ऋणात्मक की सीमा से परे परम एवं चरम लक्ष्य है।
भैरवी शक्ति का प्रदेश एकदम सरल रेखा है। यह सहस्त्रार चक्र से आज्ञा चक्र तक की अवस्था है। महत्त, अहम एवं चित्त के विकास की अवस्था है। आज्ञा चक्र से सहस्त्रार चक्र के बीच का साक्षी पुरुष भैरव है।
स्वयंभूलिंग भवानी शक्ति का शेष बिन्दु है। जिसे सकल ऋणात्मक बिन्दु कहा गया है। भवानी शक्ति का क्षेत्राधिकार आज्ञा चक्र से मूलाधार चक्र के बीच है। जहाँ आकाश महाभूत से पृथ्वी महाभूत का प्रकाश है। इसके साक्षी पुरुष को भव नाम दिया गया है। इससे ही भव सागर बना है। भवानी शक्ति का शेष प्रांत कुलकुंडलिनी शक्ति है। जो मूलाधार में साढ़े तीन सर्पिल बनाकर बैठी है। ऐसा तत्वदर्शी पुरुष कहते हैं। साधक साधना द्वारा इसका जागरण करता है।
कुलकुंडलिनी शक्ति स्वयंभूलिंग की छत्रछाया छोड़कर सर्व प्रथम भवानी शक्ति के प्रदेश में ही विचरण करती है। कुलकुंडलिनी के मूलाधार चक्र से सहस्त्रार चक्र तक का प्रगति को वैष्णव साधना में ब्रजभाव, गोपभाव एवं राधा भाव के रूप में समझा गया है। कुलकुंडलिनी शक्ति की भवानी शक्ति के प्रदेश में क्रमशः मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर, चक्र, अनाहत चक्र एवं विशुद्ध चक्र है। आज्ञा चक्र में जाकर भवानी शक्ति का क्षेत्राधिकार समाप्त हो जाता है तथा कुलकुंडलिनी भैरवी शक्ति के क्षेत्राधिकार में प्रवेश पाती है। चूंकि भवानी शक्ति में गति ऋजु रेखीय है। इसलिए कुलकुंडलिनी की गति भी प्रभावित होती है। विभिन्नता से भर इस प्रदेश में अलग-अलग साधक अपने अलग-अलग अनुभव बताते हैं। इसलिए इष्ट एवं गुरु मंत्र सबके लिए समान नहीं होते है। कुलकुंडलिनी का भैरवी शक्ति के संस्पर्श में सरल रैखिक गति के कारण साधकों के अनुभवों एकरूपता देखी जाती है। आज्ञा चक्र से सहस्त्रार चक्र के बीच के भैरवी शक्ति के प्रदेश का अतिक्रमण कर जब सहस्त्रार में शिवानी के प्रदेश में पहुंचती है। शिवानी प्रदेश जाने पूर्व कुलकुंडलिनी अंतिम बार वस्तु जगत बिन्दु शंभूलिंग के संस्पर्श में रहती है। अंत में वह शिव में विलिन हो जाती है।
मातृका शक्ति का अशेष देखा गया है। जो त्रिगुणात्मक स्वरूप परिणाम के रूप त्रिभुज रुप में देखी गई है। इसके साक्षी पुरुष परमशिव पुरुषोत्तम है।
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