भारतवर्ष एवं संघीय शासन व्यवस्था


भारतीय संविधान ने देश में केन्द्र की प्रधानता वाली एकल नागरिकता, एकल संविधान, एकल ध्वज युक्त संघीय शासन व्यवस्था को‌ अंगीकार किया है। यद्यपि भारतवर्ष राज्यों का समूह नहीं है तथापि भारतवर्ष राज्यों के अधिकारों की रक्षा करता है। भारतवर्ष को एक संघ कहा जाता है। भारतवर्ष में दो प्रकार के राज्य है - प्रथम पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त राज्य - जहाँ राज्य तथा समवर्ती सूची पर कानून बनाने की स्वाधीनता राज्यों के पास है। द्वितीय केन्द्रशासित प्रदेश है -  जहाँ केन्द्र सरकार कानून बनाती है लेकिन दिल्ली व पांडुचेरी में विधानसभा भी‌ केन्द्र सरकार के दिशा निर्देश में कार्यशील है। भारतवर्ष की संघीय व्यवस्था से परिचित होने के बाद हम 'भारतवर्ष एवं संघीय शासन व्यवस्था' नामक विषय की ओर चलते हैं। 

भारतवर्ष देश ही नहीं अपितु एक आदर्श सभ्यता है - जहाँ विश्व कल्याण का चिन्तन विद्यमान है। भारतवर्ष को‌ लोकतंत्र की जननी भी कहा गया है। यहाँ की रगों में रगों में संघ व लोकतंत्र व्यवस्था समाई हुई। ऋग्वेद में संघच्छध्वम्‌ की वाणी है तथा जैन व बौद्ध मत‌ की रचना संघ प्रथा से हुई है। आज भी संघ प्रथा जनगणमन की आस्था एवं‌ सहभागिता का प्रतीक है। हमारे ग्रंथ तो संघ को कलयुग की शक्ति मानता है। इसलिए 'भारतवर्ष एवं संघीय व्यवस्था'‌ का अध्ययन प्रासंगिक है। 

भारतवर्ष का‌ अपना चिन्तन - 'केन्द्रित राजनैतिक व्यवस्था एवं विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था' है। राजनैतिक व्यवस्था का केन्द्रित रहना मजबूत एवं सुदृढ़ राष्ट्र का प्रतीक है। जबकि विकेन्द्रित राजनैतिक व्यवस्था कमजोर एवं दिशाहीन राष्ट्र का प्रतीक है। हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने इस बात ध्यान रखकर मजबूत एवं सशक्त केन्द्र सरकार की अवधारणा का संविधान में स्थान दिया। लेकिन राज्यों की अवधारणा में‌ राजनैतिक स्वरूप बिठा कर एक ऐतिहासिक भूल की जो भारतवर्ष की सभ्यता एवं संस्कार के अनुकूल नहीं है।  राजतंत्र में भी संघ व्यवस्था होती थी, लेकिन विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का स्वीकृत आधार नहीं था। राजतंत्र में व्याप्त संघ व्यवस्था में सुबेदार राज का प्रतिनिधि होता था, उसे राजभक्ति प्रथम दिखानी होती थी। आर्थिक विकेन्द्रीकरण के अभाव में राजतंत्र एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण नहीं कर‌ पाये। प्राचीन भारत में  विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था थी लेकिन मजबूत राजनैतिक व्यवस्था नहीं होने के कारण काल की महत्वाकांक्षा के हाथों से अपने को सुरक्षित नहीं रख पाया। आर्यावर्त एवं दक्षिणावर्त नाम दो अवधारणा मजबूत राजनैतिक एकता का संकेत देते हैं लेकिन राजनैतिक मजबूतता का प्रमाण नहीं देते हैं। इतिहास के अवलोकन के बाद पुनः मूल विषय पर आते हैं। भारतवर्ष का अपना चिन्तन एक मजबूत एवं सशक्त राजनैतिक व्यवस्था एवं विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था में निहित इसलिए राज्यों का संगठन पर पुनः विचार की आवश्यकता है। 

भारतवर्ष की संघीय व्यवस्था को आर्थिक लोकतंत्र से परिपूर्ण करना ही भारतवर्ष के अपने चिन्तन का सम्मान है। भारतवर्ष को राज्यों में नहीं 'समाज' में विभक्त करना, शुद्ध भारतीय चिन्तन की देन हैं। यहाँ समाज शब्द किसी जाति समुदाय अथवा क्षेत्रवाद का द्योतक नहीं है। समाज शब्द जाति विहिन सामाजिक व्यवस्था एवं आत्मनिर्भर आर्थिक इकाई का प्रतीक है। यह समाज समान भौगोलिक परिस्थिति, समान भावनात्मक एकता तथा समान आर्थिक हित  इत्यादि तत्वों को लेकर संगठित  है। जहाँ व्यक्ति अपने भावनात्मक संबंधों एवं सामाजिक आर्थिक हितों के एकजुट होकर एक ऐसी व्यवस्था द्वारा संचालित होते हैं, जो सर्वजन हित व सर्वजन सुख को स्थापित करते हैं। ऐसी व्यवस्था का युग ने प्रगतिशील उपयोग तत्व नाम दिया है। अत: व्यक्ति एवं समाज प्रगतिशील उपयोग तत्व के माध्यम से अपने समाज में सुरक्षित महसूस करना तथा समाज से अपनी न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी पाकर अपने सर्वात्मक उत्थान में लगकर एक अखंड अविभाज्य वैश्विक मानव समाज की रचना में सहयोग देता है। यह समाज अपने नागरिकों को आर्थिक कारणों से सामाजिक हितों की बलि देने नहीं देते हैं। यद्यपि वैवाहिक संबंध के लिए विश्व मंच के द्वार हमेशा खुले रखता है लेकिन आर्थिक कारण से पिता पुत्र एवं भाई भाई की दूरी कभी होने नहीं देता है। आर्थिक कारणों से बिखरे लोगों में सामाजिक समानता नहीं होने के कारण जाति, नस्ल इत्यादि संघर्ष देखे जाते हैं। इन सबसे महत्वपूर्ण स्थानीय लोगों किसी भी कारण से अपने अधिकारों से वंचित होते है तो वे एक दिन अस्थानियों के अस्तित्व को तीन तार करने उतरते है। इसलिए संघीय व्यवस्था का समाज स्वरूप आवश्यक है। 

समाज व्यवस्था दल विहिन आर्थिक लोकतंत्र पर आधारित है। यहाँ व्यक्ति शासन के लिए नहीं सेवा के लिए आता है, सेवा में सर्वस्व अर्पण कर बदले में कुछ नहीं चाहता है। समाज व्यवस्था एक बड़ी खुबसूरती यह भी है कि यहाँ शहर अथवा विशेष क्षेत्रों का ही विकास नहीं होता है। अपितु प्रत्येक गाँव व सभी क्षेत्रों का विकास होता है। सर्वत्र खुशहाली की गंगा बहती है इसलिए इसकी आधारशिला प्रखण्ड (block) स्तर के प्लान पर रखी गई है। व्यक्ति एवं समाज के विकास का प्लान राजधानी के बंद वातानुकूलित कमरों में नहीं, प्रखण्ड पर कठोर माटी पर बैठकर बनाया जाता है। वह योजना ही जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन देता है।‌

एक सशक्त राष्ट्र के लिए विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था एवं केन्द्रित राजनैतिक व्यवस्था की नितांत आवश्यकता है। अत: भारतवर्ष की संघ व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है। इसके अभाव में योजना आयोग का नीति आयोग बनाने से विकास मॉडल नहीं बनाया जा सकता है। भारतवर्ष का विकास मॉडल विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था युक्त दल विहिन आर्थिक लोकतंत्र में निहित है। जो समाजों के समूह भारतवर्ष में निहित है। भारतवर्ष की एक राष्ट्रीय सरकार होगी जो भारतवर्ष बाहरी एवं आन्तरिक सुरक्षा प्रदान करेंगी तथा अर्थव्यवस्था का सम्पूर्ण भार समाज इकाइयों के कंधों पर होगा। भारत सरकार के संचालन के लिए उत्तर, ईशान, पूर्व आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य एवं मध्य नामक नौ गर्वनर व्यवस्था द्वारा राष्ट्र को पूर्ण सुरक्षा एवं सेवा प्रदान कर सकता है। श्री प्रभात रंजन सरकार के सर्वे के अनुसार वर्तमान भारतवर्ष में 44 सामाजिक आर्थिक इकाई सशक्त राष्ट्र के निर्माण के लिए बनाई जा सकती है।
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       करण सिंह की कलम से
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