भारतवर्ष में एकादशी, अमावस्या एवं पूर्णिमा को उपवास के लिए चुना गया था। कुछ इसे आस्था का प्रतीक तो कुछेक इसे अंधविश्वास भी कहते हैं। भारतवर्ष का आध्यात्मिक शास्त्र मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रगति का चिन्तन प्रस्तुत करता है। उसे विज्ञान एवं धर्म की कसौटी पर रखकर परखना ही विश्वास एवं मान्यताओं का सम्मान है। भारतवर्ष का आदर्श कभी भी मनुष्य को अंधभक्त बनने की सलाह नहीं देता है। वह सदैव मनुष्य को विवेकी एवं जागरूक बनाता है। इसलिए आज हम एकादशी का उपवास एवं विज्ञान समझने की कोशिश करते है।
उपवास विशेषज्ञ श्री श्री आनन्दमूर्ति जी अपनी पुस्तक आनन्द मार्ग चर्याचर्य तृतीय खंड में बताते है कि "अमावस्या एवं पूर्णिमा के समीपवर्ती दिनों में देखा जाता है कि शरीर के जलील और गैसीय पदार्थ ऊपर की ओर उठकर छाती तथा सिर में असुखप्रद अवस्था की सृष्टि करते हैं। इसलिए उस समय पाकस्थली में भोजन नहीं पहुँचने से ऊपर के पदार्थ नीचे की ओर उत्तर जाते हैं, तथा शारीरिक असुखप्रद अवस्था भी दूर हो जाती है।" उनका यह कथन गैस, अम्लता एवं अपच के रोगियों के उपवास को एक उपचार के रूप प्रस्तुत करता तथा इस रोग अग्रसित लोगों को इन रोगों से बचने की क्रिया बताते हैं। उन्होंने बताया कि सन्यासी को एकादशी एवं अमावस्या पूर्णिमा मिलाकर महिने के चार निर्जला उपवास करने चाहिए तथा गृही को कम से कम दो दिन अर्थात एकादशी का उपवास करना ही चाहिए। उन्होंने बताया कि उपवास स्वस्थ्य व्यक्ति के लिए है। अर्थात स्वस्थ व्यक्ति को एकादशी का उपवास करना ही चाहिए। उन्होंने यह भी रेखांकित किया है कि अस्वस्थ व्यक्ति के लिए उपवास अनिवार्य नहीं है। इसका अर्थ यह है कि अस्वस्थ व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति उसका साथ दे तो उपवास कर सकता है। लेकिन इस क्षेत्र में अंधा जोश उचित नहीं है।
उपवास विशेषज्ञ श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने बताया कि उपवास का संबंध व्यक्ति के लैगिक जीवन से भी है। वह उसके चरित्र एवं व्यक्तित्व निर्माण में सहायक है। उन्हीं के शब्दों में "हमलोग जो खाद्य ग्रहण करते है, वही परिवर्त्तित होते होते सार भाग शुक्र में परिणत होता है। शुक्र मस्तिष्क का भोजन है, तथा उसी से जीव मन की चित्त धातु उत्पन्न होती है। नियमानुसार उपवास करने पर अतिरिक्त शुक्र मन की हीन प्रवृत्तियों का उद्रेक न कर मन को उन्नत वृत्ति की ओर परिचालित करता है।" अत: उपवास नैतिकवान आध्यात्मिक सिपाही तैयार करने लिए अनिवार्य घटक है।
उपवास के एक अन्य महत्व को चित्रित करते हुए उपवास विशेषज्ञ श्री श्री आनन्दमूर्ति जी लिखते है कि "उपवास के फलस्वरूप शरीर के अनावश्यक दूषित पदार्थ नष्ट हो जाते हैं तथा अतिरिक्त खाये हुए भोजन को पचाने के लिए शरीर की जो शक्ति लगती है उसे दूसरे कार्य में लगाया जा सकता है।" उपवास पाचनतंत्र के सुचारू संचालन का एक आवश्यक घटक है। उसे सुव्यवस्थित रखने एवं उसकों आराम देने के लिए भी उपवास का योगदान है। उपवास के शारीरिक महत्व के साथ मानसिक एवं आध्यात्मिक महत्व भी है।
उपवास विशेषज्ञ श्री श्री आनन्दमूर्ति जी बताते हैं कि "उपवास का समय ही साधना के लिए उपयुक्त समय है।" तथा उपवास शब्द का अर्थ बताते हुए लिखते है कि "ईश्वर के निकट उपवेशन करना अर्थात मन को ईश्वर के भाव में विभोर रखना।"
महात्मा गाँधी जी ने भी उपवास को मन शुद्धि के साधन के रुप में अंगीकार किया। उन्होंने उपवास की एक विधा अनशन को अन्याय के प्रतिकार के रुप में भी विश्वपटल के समक्ष रखा।
उपवास एवं यौगिक चिकित्सा और द्रव्य गुण विशेषज्ञ श्री प्रभात रंजन सरकार लिखते है कि कतिपय रोग में औषधि के साथ चिकित्साचार्य की सलाह अनुसार सजला एवं निर्जला उपवास कर निदान किया जाता है। उनके अनुसार रोग के आधिक्य अवस्था में फलाहार अथवा सागाहार पर रहकर उपवास करने पर रोगी को फायदा होता है।
उपवास अभ्यासी बताते है कि उपवास नई ऊर्जा, नव संकल्प एवं नव विश्वास का संचार करते हैं तथा शरीर में ताजगी, तंदरुस्ती तथा स्फूर्ति पैदा करते है।
उपवास करने से अन्न जल की महत्ता का चित्रण होता है तथा सामाजिक जिम्मेदारी के बोध का जागरण होता है। इसलिए विश्व सभी महापुरुषों ने उपवास के महत्व को स्वीकार किया है।
आओ मिलकर ऋषि मुनियों द्वारा खोजी हमारी प्राचीन विधा उपवास के महत्व को समझे तथा विश्वजन को समझाए।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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