हमारा समाज आंदोलन-03 (उत्तर भारतीय समाज)

हमारा समाज आंदोलन विश्व में विवेकपूर्ण (न्यायपूर्ण) वितरण का स्थापित करने का सशक्त माध्यम है। विकास की दौड़ अविवेकपूर्ण सोच से  संचालित होने के कारण संसार आर्थिक विषमता का कुरुक्षेत्र बन गया है।   अत: हमारा समाज आंदोलन सही दिशा देने का संकल्प पत्र है। इसी क्रम में भारतीय समाज आंदोलन का एक अंग उत्तरी भारतीय समाज आंदोलन है। यह उत्तराखण्ड, हिमांचल प्रदेश, लद्दाख व जम्मू कश्मीर का हिमालय क्षेत्र है। 

             1. कुमाऊँ समाज  
 उत्तराखंड का पूर्वी भाग पिथौरागढ, बघेश्वर, चमोली, अलमोडा, नैनीताल, उधमसिंह नगर व चम्पावत नामक सात जिल  कुमाऊँ समाज है। कुमाऊँ हिमालय, हिमालय पर्वत श्रंखला के चार क्षैतिज विभाजनों में से एक है। सतलुज नदी से काली नदी के बीच फैली लगभग ३२० किलोमीटर लम्बी हिमालय श्रंखला को ही कुमाऊँ हिमालय कहा जाता है। उत्तराखण्ड तथा हिमाचल प्रदेश में स्थित इस पर्वत श्रंखला के पूर्व में नेपाल हिमालय तथा पश्चिम में कश्मीर हिमालय स्थित हैं। कुमाऊँ हिमालय चारों विभाजनों में सबसे छोटा है। यह अपनी झीलों तथा प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रसिद्ध है। नन्दा देवी, कामेत, त्रिशूल, केदारनाथ, बद्रीनाथ, दूनागिरी तथा गंगोत्री इत्यादि कुमाऊँ हिमालय की प्रमुख पर्वत चोटियाॅं हैं। गंगा, यमुना तथा रामगंगा नदियों का उद्गम कुमांऊँ हिमालय में ही होता है। नैनीताल, भीमताल, नौकुचियाताल तथा सात ताल इत्यादि यहाँ की प्रसिद्ध झीलें हैं। यहाँ कई महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल भी स्थित हैं, जिनमें चार धाम, पंच प्रयाग तथा पंच केदार प्रमुख हैं। इस क्षेत्र में नरेंद्र नगर में सबसे अधिक वर्षा होती है तथा उत्तरायणी मेला इस क्षेत्र का सबसे बड़ा व्यापारिक मेला है। यहाँ के लोग उसकी बेसब्री से इंतजार करते है। कुमाऊँ समाज के उत्तर में पूर्व में नेपाल, उत्तर में चीन, पश्चिम में गढ़वाल तथा दक्षिण में उत्तर प्रदेश है। 

           2. गढ़वाली समाज
पश्चिम उत्तराखण्ड के रुद्र प्रयाग, उत्तरकाशी, पौड़ी गढ़वाल, टिहरी गढ़वाल, देहरादून व हरिद्वार जिलों का क्षेत्र गढ़वाली समाज है। गढ़वाल भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक प्रमुख क्षेत्र है। यहाँ की मुख्य भाषा गढ़वाली  है। गढ़वाल का साहित्य तथा संस्कृति बहुत समृद्ध हैं। लोक संस्कृत भी अत्यंत प्राचीन और विकसित है। गढ़वाली लोकनृत्यों के २५ से अधिक प्रकार पाए जाते हैं इनमें प्रमुख हैं- १. मांगल या मांगलिक गीत, २. जागर गीत, ३. पंवाडा, ४. तंत्र-मंत्रात्मक गीत, ५. थड्या गीत, ६. चौंफुला गीत, ७. झुमैलौ, ८. खुदैड़, ९. वासंती गीत, १०. होरी गीत, ११. कुलाचार, १२. बाजूबंद गीत, १३. लामण, १४. छोपती, १५. लौरी, १६. पटखाई में छूड़ा, १७. न्यौनाली, १८. दूड़ा, १९. चैती पसारा गीत, २०. बारहमासा गीत, २१. चौमासा गीत, २२. फौफती, २३. चांचरी, २४. झौड़ा, २५. केदरा नृत्य-गीत, २६. सामयिक गीत, २७. अन्य नृत्य-गीतों में - हंसौड़ा, हंसौडणा, जात्रा, बनजारा, बौछड़ों, बौंसरेला, सिपैया, इत्यादि। इन अनेक प्रकार के नृत्य-गीतों में गढ़वाल की लोक-विश्रुत संस्कृति की झलक स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। गढ़वाल में अनेकों त्यौहार मनाए जाते हैं। इन में से बहुत से त्यौहारों पर प्रसिद्ध मेले भी लगते हैं। ये मेले सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण बनाए रखने में भरपूर सहयोग देते हैं। इसके साथ ही यहां की संस्कृति को फलने फूलने एवं आदान प्रदान का भरपूर अवसर देते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख मेले इस प्रकार से हैं - बसंत पंचमी मेला, कोटद्वार, पूर्णागिरी मेला, टनकपुर देवीधूरा मेला, कुंभ एवं अर्धकुंभ मेला प्रमुख है। चाँदी के समान श्वेत पर्वत शिखर कल-2 करती चमकदार सरिताएं, हरी भरी घाटियाँ एवं यहाँ की शीत जलवायु ने शान्ति एवं स्वास्थय लाभ हेतु एक विशाल संख्या में पर्यटकों को गढ़वाल के पर्वतों की ओर आकर्षित किया है। यह एक सौन्दर्यपूर्ण भूमि है जिसने महर्षि बाल्मिकी एवं कालीदास जैसे महान लेखकों को प्रेरणा प्रदान की है। इन सभी ने पेन्टिंग एवं कला के साथ-2 गढ़वाल की शैक्षिक सम्पदा को अन्तिम नीव प्रदान की है। पत्थर पर नक्काशी की यहाँ की मूल कला धीरे-2 समाप्त हो गई है। परन्तु लकड़ी पर नक्काशी आज भी यहाँ उपलब्ध है। यहाँ पर केवल अर्द्धशताब्दी पूर्व तक के गृहों के प्रत्येक दरवाजे पर लकड़ी की नक्काशी का कार्य देखा जा सकता है इसके अतिरिक्त लकड़ी की नक्काशी का कार्य सम्पूर्ण गढ़वाल में स्थित सकडों मन्दिरों में देखा जा सकता है। वास्तुशिल्प कार्य के अवशेष गढ़वाल में निम्न स्थलों पर पाये जा सकते हैं। चान्दपुर किला, श्रीनगर-मन्दिर, बद्रीनाथ के निकट पाडुकेश्वर, जोशीमठ के निकट देवी मादिन एवं देवलगढ मन्दिर उपरोक्त सभी संरचनाएं गढ़वाल में एवं चन्डी जिले में स्थित है। गढ़वाली समाज के पूर्व में कुमाऊँ समाज, उत्तर में चीन व हिमाचल प्रदेश, पश्चिम में हिमाचल प्रदेश व उत्तर प्रदेश तथा दक्षिण में उत्तर प्रदेश है। 

            3. सिरमौर समाज
 समाज - हिमाचल प्रदेश का सिरमौर जिला अपनी प्राकृतिक विशेषताओं के कारण एक समाज कहलाता है। यह जिला पहाड़ी रियासतों मे अपनी अहम् भुमिका रखने के कारण सभी जिलो का सिर का ताज था जिस कारण सिरमौर कहा गया था। स्थानीय भाषा के सिरमौरी शब्द का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि लोग आज भी इसे ठेठ पहाड़ी में 'सरमऊर' बोलते है जिसकी उत्पति 'सर' यानि कि तालाब और 'मऊर' यानि महल से हुई है अर्थात तालाब के किनारे महल। बाद मे वर्ण व शब्द परिवर्तन से सरमऊर का सिरमौर नाम पड़ा। सिरमौर में नाहन, पाँवटा साहिब, राजगढ़, शिलाई, रेणुकाजी, पच्छाद, ददाहू, नौहराधार, कमरऊ, रोनहाट, नारग, पझौता, हरिपुरधार,  माजरा नामक 14 तहसीलें है।  यहाँ 6 उपमंडल व 6 विकास मंडल व 259 पंचायतें है। सिरमौर बाहरी हिमालय में स्थित है, जिसे सामान्यता शिवालिक रेंज के रूप में जाना जाता है। इसके उतर में पहाड़ी समाज का जिला शिमला, पूर्व में राज्य उतराखंड, दक्षिण में राज्य हरियाणा और उत्तर-पश्चिम में पहाड़ी समाज के सिलोन जिले की सीमायें लगती है। यहाँ की भाषा व संस्कृति सिरमौरी है। 

          4. पहाड़ी समाज
  दक्षिण हिमाचल प्रदेश के शिमला, बिलासपुर, कुल्लू, मंडी व सोलन नामक पांच जिलों का क्षेत्र पहाड़ी समाज कहलाता है। इसके उत्तर पूर्व में किन्नोरी समाज, उत्तर पश्चिम में डोगरी, दक्षिण पश्चिम में  पंजाब, दक्षिण में सिरमौर व दक्षिण पूर्व में उत्तराखण्ड है। पहाड़ी भाषा एवं संस्कृति का यह बिम्ब आर्थिक विकास की एक रुप व्यवस्था के निर्माण की यहाँ के पुरोधाओं से मांग करता है। 

             5. किन्नौरी समाज 
 पूर्वी हिमाचल के किन्नौर व लौहल स्पिति जिले किन्नौरी समाज है। यहाँ की विकास योजना अपने तरफ की होती है। इस पहाड़ी क्षेत्र में सतलुज व स्पिति नदी विकास की गाथा लिखने में सक्षमता रखती है। 

       6. असी डोगरी समाज 
 उत्तरी पश्चिमी हिमाचल के उना, हमीरपुर, कांगड़ा व चंबा, दक्षिणी पूर्वी जम्मूकश्मीर क्षेत्र के डोडा, कठुआ, उधमपुर, सांबा, जम्मू, रियासी, रामबन, राजौरी व मंडी तथा पाकिस्तान के पंजाब के सियालकोट व नारोवाल इलाके में  डोगरी भाषी क्षेत्र है। डोगरी भारत के जम्मू ,हिमाचल के कांगड़ा और उत्तरी पंजाब के कुछ प्रान्त में बोली जाने वाली एक भाषा है। वर्ष 2003 में इसे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है। डोगरी इस विशाल परिवार में कई कारणों से विशिष्ट जनभाषा है। इसकी पहली विशेषता यह है कि दूसरी बोलियों की अपेक्षा इसके बोलनेवालों की संख्या विशेष रूप से अधिक है। दूसरी यह कि इस परिवार में केवल डोगरी ही साहित्यिक रूप से गतिशील और सम्पन्न है। डोगरी की तीसरी विशिष्टता यह भी है कि एक समय यह भाषा कश्मीर रियासत तथा चंबा राज्य में राजकीय प्रशासन के अंदरूनी व्यवहार का माध्यम रह चुकी है। इसी भाषा के संबंध से इसके बोलने वाले डोगरे कहलाते हैं तथा डोगरी के भाषाई क्षेत्र को सामान्यतः "डुग्गर" कहा जाता है।  रियासत जम्मू कश्मीर की शरतकालीन राजधानी जम्मू नाम का ऐतिहासिक नगर, डोगरी की साहित्यिक साधना का प्रमुख केंद्र है, जहाँ डोगरी के साहित्यिकों का प्रतिनिधि संगठन "डोगरी संस्था" के नाम से, इस भाषा के साहित्यिक योगक्षेम के लिये गत लगभग ६० वर्षो से प्रयत्नशील है। इसके पूर्व में हिमाचल, दक्षिण में भारतीय पंजाब, दक्षिण पश्चिम में पाकिस्तानी पंजाब, पश्चिम, उत्तर व उत्तरी पूर्वी भाग में कश्मीरी समाज है। 

         7. लद्दाखी समाज 
भारतवर्ष के  करगिल व लेह लद्दाख मिलकर लद्दाखी  समाज है। इसके दक्षिण पूर्व, पूर्व, उत्तर में चीन, पश्चिम में कश्मीरी समाज तथा दक्षिण में हिमाचल प्रदेश है। 

8. अस्य काशियार  अथवा कश्मीरी समाज 
 भारतीय कश्मीर क्षेत्र के अनंतनाग, पुलवामा, श्रीनगर, गंदेरबल, बांदीपोरा, कुपवाड़ा, बारमूला, बडगाम, शोपीयन, पुंछ, हवेली तथा पाक अधिकृत कश्मीर के नीलम घाटी, मुजफ्फराबाद, हटियां बाला, बाग, सुभानोती, कोटली, मीरपुर और भीमबर मिलकर अस्य काशियार अथवा कश्मीरी समाज बनता है। इसके उत्तर में पाक अधिकृत कश्मीर, पश्चिम में पाकिस्तान व पाक अधिकृत कश्मीर, दक्षिण में डोगरी समाज, पूर्व में लद्दाख़ी समाज है। 

उत्तर भारत के समाज में कजहिल व उत्तराखण्ड राज्य है। जो हिमालय पर्वतीय क्षेत्र है। 
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