श्रमिक आंदोलन

जो व्यक्ति शारीरिक व मानसिक श्रम बेच कर अपनी आजीविका चलाता है, उसे श्रमिक अथवा मजदूर नाम दिया गया है। यहाँ दो पक्षकार हैं - प्रथम श्रम बेचने वाला तथा द्वितीय श्रम खरीदने वाला। यह प्राकृत नीति है, जिसमें प्रथम पक्षकार अपने श्रम व सामर्थ्य की कीमत तय करता है तथा द्वितीय पक्षकार उसकी कीमत देकर उसे अपने कार्य सिद्धि में लगाता है। प्रथम पक्षकार ही अपने कार्य की अवधि तथा विश्राम अवस्था को तय करता है। द्वितीय पक्षकार अपने पास उपलब्ध संसाधनों के अनुसार उस अनुबंध को अंगीकार करता है। इस व्यवस्था में शोषण शब्द प्रवेश नहीं करता है। इसके विपरीत आधुनिक अर्थव्यवस्था में प्रथम पक्षकार श्रम खरीदने वाला बन गया तथा द्वितीय पक्षकार श्रम बेचने वाला बन गया। सभी अनुबंध एवं शर्तें प्रथम पक्षकार की ओर से तय की जाती थी। द्वितीय पक्षकार उसे अंगीकार करता था। सामंतवाद एवं पूंजीवाद के दोषपूर्ण स्वरूप के कारण श्रम बेचने वाला श्रम खरीदने वाले के समक्ष मजबूर हो गया। उसका मर्ज स्वयं से दूर हो गया और श्रमिक मजदूर कहलाने लगा। 

मजदूर के जीवन चरित्र को चित्रित करते हुए कई लेखकों एवं कवियों ने अपनी कलम चलाई है। जैसे मैं मजदूर, मुझे देवों की बस्ती से क्या? अनगिनत बार इस धरा को स्वर्ग मैंने बनाया। स्वर्ण नगरी देखकर एक बार भी मेरा मन नहीं ललसाया है। इस प्रकार कही त्याग का तो कहीं दारुण स्वरूप का चित्रण किया गया है परन्तु मजदूरों का उद्धार करने वाली नीति नहीं बनी। लोकतंत्र के गलियारे में, कल्याणकारी राज्य के निर्माण की नीति के तहत, मजदूरों के मर्ज पर थोड़ा बहुत मरहम पट्टी लगाने का काम हुआ है। लेकिन यह पूंजीवाद के छलवा से अधिक कुछ नहीं है। वैश्यों ने अपने शोषण के तूणीर से ठेकेदारी की ओट में श्रमिक आयात करने का बाण चला रखा है। ठेकेदारों ने अपने अधीन छोटे ठेकेदार लगा कर शोषण के साम्राज्य का जाल बिछा रखा है। इस मकड़जाल से श्रमिक को केवल एवं केवल प्रउत ही बचा सकता है। यद्यपि साम्यवाद ने अपने अस्त्र भंडार में से सर्वहारा वर्ग का अधिनायक तंत्र नामक अस्त्र निकाला था लेकिन उसने नये प्रकार के क्षत्रिय तंत्र (सामंतवाद) को जन्म दिया। इसलिए तो साम्यवाद, तलवार की ताकत पर जीवित रहा। 

मजदूरों की दारुण दशा का चित्र देखते हुए हम राजनीति के गलियारे में गोते लगाने चले गए थे। अब लौट आते हैं श्रमिक आंदोलन की ओर। श्रमिक को कामगार भी कहा गया है। कारखाना जिसकी बदौलत चलता है, वह कामगार है। जिस दिन इसने हड़ताल कर दी, तो कारखानों के पूर्जें ठप्प पड़ जाते हैं। एक बात यहाँ स्पष्ट रुप से उल्लेख करना चाहिये कि श्रमिक अथवा कामगार अथवा मजदूर कभी भी हड़ताल करना नहीं चाहता है क्योंकि वह जानता है कि उनके घर के चुल्हे उसके श्रम के बल पर ही चलते हैं। वह जब मजबूर हो जाता है तब इस पथ का चयन करता है। श्रमिक आंदोलन के परिपेक्ष्य में स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि हड़ताल किसी भी आंदोलन का हथियार नहीं हो सकता है - यदि सभी रास्ते बंद हो जाए तो इसे अंतिम अस्त्र के रुप में विवेकपूर्ण ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। काम रोककर किया गया आंदोलन दोनों पक्ष में कटुता लाता है। उसकी परिणति समझौते से होती है तथा मन की कटुता लाती है,जो भावी अनहोनी का संकेत देती है। हमारा श्रमिक आंदोलन इन सबसे निराला है। जो काम रोक कर नहीं किया जाएगा। काम दिशा व स्थित बदलकर अपने हितों की रक्षार्थ किया जाने वाला आंदोलन है। चलो चलते हैं अब हमारे श्रमिक आंदोलन की ओर। 

1. दुनिया में कोई किसी का नौकर नहीं - प्रउत का यह उदघोष ही श्रमिक आंदोलन को अपने लक्ष्य तक ले जाएगा। सभी एक दूसरे के सहयोगी अथवा सहायक हैं। उनके साथ नौकर जैसा व्यवहार कतई नहीं किया जा सकता है। उसके साथ परिवार के सदस्य के जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। यह बात जैसे ही दोनों पक्षकार समझ जाएंगे उनकी मित्रता प्रगाढ़ हो जाएगी तथा उत्पादन में चार चांद लग जायेगा। 

2. हम मजदूर नहीं सहभागी हैं - श्रमिक आंदोलन का ध्येय वाक्य 'हम मजदूर नहीं सहभागी हैं' रहेगा। यह दुनिया भर के उद्योगपति व तथाकथित मालिकों को बता देगा कि श्रमिक के भाग्य विधाता तुम नहीं, तुम्हारे भाग्य का निर्माण श्रमिक की सहायता से होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि लाभ में श्रमिक का हिस्सा रहेगा ही। 

3. न्यूनतम आवश्यकता प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य का मौलिक अधिकार है - यद्यपि यह ध्येय वाक्य संपूर्ण मानव समाज का है तथापि यह आवाज श्रमिक आंदोलन से उठेगी। हमारी मजदूरी मांग व पूर्ति के आलेख से नहीं अपितु न्यूनतम आवश्यकता के मापदंड एवं क्रय क्षमता के मापक के आधार पर तय होगी। पारिश्रमिक श्रम के अनुपात में होता है। श्रम का अनुपात कीमत में नहीं रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा व चिकित्सा की उपलब्धता से तय होता है। पौष्टिक भोजन, सुव्यवस्थित वस्त्र, सुयोग्य आवास, संपूर्ण शिक्षा तथा योग्य चिकित्सा प्राप्त करना पारिश्रमिक का सही मूल्यांकन है। 

4. कार्यशाला में स्वास्थ्य अनुकूल व्यवस्था मापदंड हो - श्रमिक जहाँ काम करता है, वह स्थान उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला नहीं हो। यह प्रतिकूलता से रक्षा करने वाला तथा बचाने वाला हो। यह कुशल श्रम के निर्माण के लिए अनिवार्य शर्त है।

5. आपातकालीन विशेष व्यवस्था की मांग - महामारी, गृहयुद्ध, वित्तीय संकट इत्यादि समय में सबसे पहली मार श्रमिक वर्ग को झेलनी पड़ती है। इसलिए कल्याणकारी कार्य की भांति श्रमिकों के लिए भी विशेष व्यवस्था करनी चाहिए। श्रमिक अपने इस मांग को समाज के सामने रखता है। 

6. हमें आध्यात्मिक, मानसिक व शारीरिक विकास का समय दो - आज जहाँ दुनिया भर के मजदूर अतिरिक्त समय (ओवर टाइम OT) काम करने को लालायित हैं, वहीं हमारा श्रमिक भाई व्यवस्था से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए समय मांग रहे हैं। यही हमारे श्रमिक आंदोलन की विशिष्टता है। यद्यपि प्रउत के युग में ओवर टाइम नामक शब्द नहीं होगा तथापि प्रउत व्यवस्था स्थापित होने तक भी हर हाल में ओवर टाइम की प्रणाली पूर्णतया बंद होनी चाहिए। यह लालच देकर श्रमिक को अकाल मृत्यु की ओर धकेलती है। अत्यधिक उत्पादन की मंशा से, मजदूरों से 12 से 16 घन्टा काम करवाना, मानो आजीवन कारावास की सजा जैसा है। वह भी लाचारी एवम विवशता के कारण यह सब सहने को बाध्य है। अतः यह व्यवस्था तुरंत प्रभाव से बंद होनी चाहिए। 

7. दिहाड़ी मजदूर शब्द बंद हो - वास्तव में दिहाड़ी मजदूर कोई नहीं है। यह शब्द पूंजीपतियों ने मजदूर संघों के डर से निकाला है। दिहाड़ी मजदूर शब्द उन श्रमिकों के लिए प्रयोग किया गया है जो निश्चित कार्यशाला में काम नहीं करते अथवा दैनिक मजदूरी पर जिनका जीवन निर्वाह चलता हो। मजदूरी शब्द का अर्थ दैनिक देय ही होता है। इसे सप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, वार्षिक देना व्यवस्था का नाम है। दिहाड़ी शब्द का उपयोग बंद कर देना चाहिए। इस श्रेणी के श्रमिकों के लिए भी साधारण श्रमिकों की भांति ही कानून बनने चाहिए। जब तक दिहाड़ी व्यवस्था बंद नहीं होती है तब तक इन के कल्याण ( वेलफेयर ) की लड़ाई भी श्रमिक संगठन कोई ही लड़नी होगी। 

यह श्रमिक आंदोलन को समझने का एक प्रयास मात्र है। सौभाग्य से मुझे भी अपनी कार्यकारी जीवन यात्रा के प्रथम दिनों में एक पत्थर कंपनी में आंशिक श्रमिक के रुप कार्य करने एवं श्रमिक जीवन को देखने का सुयोग मिला था। इस प्रकार मैं छात्र के रुप में शिक्षा की अव्यवस्था देखी, युथ की पीड़ा भोगी, श्रमिक का कार्य और दंश अनुभव किया, पुश्तैनी जमीन पर हल, कुदाली, हासिया इत्यादि चलाकर किसानों हमराही बना तथा शिक्षक, पत्रकार व लेखक के रुप में काम कर बुद्धिजीवी वर्ग को भी समझा। समाज के नागरिक के रूप में समाज आंदोलन की प्रासंगिकता का भी अनुभव किया। एक यक्ष प्रश्न भी दिमाग में घूम रहा है कि श्रमिक आंदोलन की जिम्मेदारी किसकी- यूनिवर्सल प्राउटिस्ट लेबर फेडरेशन (UPLF) की अथवा समाज इकाई के श्रमिक संगठन की?
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