समाज आंदोलन के परिपेक्ष्य में फैडरेशन आंदोलन

समाज आंदोलन के परिपेक्ष्य में फैडरेशन आंदोलन

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*यूनिवर्सल प्राउटिस्ट स्टूडेंट फैडरेशन की प्रउत समाज आंदोलन में भूमिका*


मानव समाज के शिक्षा नामक अध्याय में दलीय राजनीति में छात्रों को घसीटने वाले राजनेताओं की भर्त्सना की गई तथा चर्याचर्य में छात्रों के लिए विद्या अर्जन करने को सबसे बड़ा तप बताया है तथा यही विद्यार्थी का धर्म भी है। अब प्रश्न यह है कि समाज के छात्र संगठन एवं यूनिवर्सल प्राउटिस्ट स्टूडेंट फैडरेशन की प्रासंगिकता क्या है? 

आज के युग के सभी शोधपत्र बताते है कि आधुनिक शिक्षा पद्धति दोषपूर्ण है। यहाँ मनुष्य व नागरिक का निर्माण तो हो ही नहीं रहा है तथाकथित प्रोफाइल का भी निर्माण सहीं नहीं हो पा रहा है। अत: शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है ताकि शिक्षा समाप्ति के बाद समाज को एक अच्छा नागरिक मिले, राज्य को बेहतरीन प्रोफाइल मिले तथा मनुष्य के अर्थ सार्थक करने वाले मनुष्य का निर्माण हो सके। अब यहाँ एक प्रश्न है कि यह आमूलचूल परिवर्तन कौन करेगा? इस प्रश्न का उत्तर ही हमें विषय की सार्थकता की ओर ले चलेगा। 

शिक्षा प्रणाली आमूलचूल परिवर्तन की जिम्मेदारी समाज की है। समाज अपनी इस जिम्मेदारी का निवहन शिक्षाविदों के माध्यम से कराएगा। शिक्षाविदों को शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन करने के लिए जहाँ जहाँ से आवश्यकता पडेगी, उन्हें उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी भी समाज की है। आज के युग में धरातल पर समाज शब्द के अर्थ को सार्थक करने वाले समाज के दर्शन नहीं हो रहे है, इसलिए समाज के निर्माता विचारकों कुछ आपात अवस्थाओं का सर्जन करना पड़ता है। शिक्षा जगत में आमूलचूल परिवर्तन करने मांग एक छात्र के द्वारा कराई जाती है ताकि शिक्षा प्रणाली के निर्माताओं के मनो मस्तिष्क पर अपनी बोझिल धारणा प्रेषित करने की तत्परता दिखाई नहीं दे। एक छात्र की आवाज तब बुलंद मानी जाती है, जब यह आवाज समग्र छात्र समाज की आवाज बन जाएं। अतः आज के युग में छात्र संगठन की आवश्यकता है। 

यूनिवर्सल प्राउटिस्ट स्टूडेंट फैडरेशन संगठन का पहला शब्द ही शिक्षाविदों से कहता है कि हमारी शिक्षा हमें वैश्विक दर्शन कराने वाली हो। देश की सीमा राजनीति को तय कर सकती है, नागरिक के समग्र चिंतन को बाधित नहीं करे इसलिए शैशवावस्था से ही शिक्षार्थी के मन में सार्वभौमिक व्यवस्था लागू चिंतन को बढ़ावा देने वाली शिक्षा को मानकर चलना होता है। संगठन का दूसरा शब्द प्राउटिस्ट एक विचारधारा का द्योतक है। अतः यहाँ खुले चिंतन की कमियाँ नहीं रहती है। खुला चिंतन अच्छा दिखता है लेकिन यह जरुरी नहीं कि सदैव धरातल को देवता ही देगा, खुला व बेलगाम चिंतन दैत्यों का भी सर्जन कर लेता तथा यह दैत्य विश्व शांति को निगल देते है। अतः एक ऐसी विचारधारा की आवश्यकता है, जो मनुष्य को सर्वजन हित सर्वजन सुख के सांचे ढ़ाल सकती है। प्रउत उसी विचारधारा का नाम है। विद्यार्थी अपने निर्माण की आवाज को बुलंद करें, इसलिए यूनिवर्सल प्राउटिस्ट स्टूडेंट फैडरेशन आया है। यह राजनीति के अखाड़े के खिलाड़ी तैयार नहीं करता है। यह समाज के लिए योग्य नागरिक एवं एक सच्चा इंसान बन सके ऐसी व्यवस्था के संघर्ष करता है। अतः यूनिवर्सल प्राउटिस्ट स्टूडेंट फैडरेशन व समाज के छात्र संगठन प्रासंगिक है तथा इनका सहयोग समाज आंदोलन के लिए आवश्यक है।

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*यूनिवर्सल प्राउटिस्ट युथ फैडरेशन व समाज के युवा संगठन*

युवाओं को समाज परिवर्तन का अग्रदूत कहा गया है। उनसे समाज ने बहुत आशाएं लगा रखी है। वस्तुतः युवाओं को अपना समाज स्वयं बनाना होता है। कल उन्हें कैसा समाज चाहिए, उन्हें आज ही तय करना होता है। यदि यह आज अपने लिए अपने योग्य समाज का चयन अथवा निर्माण नहीं करते है तो उन्हें भविष्य में आने वाली प्रिय व अप्रिय परिस्थितियों का सामना करते समय अपना संतुलन व असुंतलन की जिम्मेदारी स्वयं को लेनी होगी। अतः युवा से समाज जो आशाएं करता है, वह जायज है तथा उन्हें समाज परिवर्तन के अग्रदूत की संज्ञा दी वह भी सही है। 

जीवन के निर्णायक मोड़ पर अधिकांश युवा तो लकीर के फकीर बन कर विरासत में मिली व्यवस्था को अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लेते अथवा उसमें बहक कर उस दिशा में भटक जाता है। लेकर बिरले एवं प्रगतिशील मानसिकता के युवा युग परिवर्तन की मशान को अपने हाथ में थाम लेते है तथा कुछ नया करने की ओर बढ़ जाते है। इस दिशा में ज्यौं ज्यौं आगे बढ़ते उनके द्वारा की गई क्रिया की प्रतिक्रिया क्रियाफल के रुप में मिलने लगती है। यहाँ यदि उक्त युवा द्वारा किया गया कार्य सही दिशा में होने पर प्रतिफल सही मिलता है लेकिन उनका कार्य किसी दिशाहीन विचारधारा अथवा अपूर्ण विचारधारा के द्वारा पालित होने पर प्रतिफल आशानुकूल नहीं मिलता है तथा युवा जमाने के हाथों ठग जाता है तथा उसका कार्य प्रणाली गलत राह की ओर मुड़ सकती है, इसलिए समाज में देखा जाता है कि गरीबी उन्मूलन में निकले नेता धन पाकर गरीबों से नफरत करने लग जाते अथवा मिथ्याचारी बन जाते है। 

यूनिवर्सल प्राउटिस्ट युथ फैडरेशन युवा को सर्वजन हित व सर्वजन सुख की राह दिखाता है। यहाँ निजी स्वार्थ की कल्पना ही नहीं है इसलिए पथभ्रष्ट होने संभावना शून्य प्रतिशत है। दूसरी ओर प्रउत व्यष्टि व समष्टि कल्याण की सभी व्यवस्था उपलब्ध कराता है, अतः युथ के प्रयास से समष्टि कल्याण सिद्ध होने में विलंबता होने पर भी व्यष्टि कल्याण की अवस्था में कोई क्षति नहीं होती है इसलिए यूनिवर्सल प्राउटिस्ट युथ फैडरेशन का हाथ थाम कर चलने वाले युवा की क्षति नहीं होती तथा वह समाज के लिए क्षतिकारक नहीं बन सकता है। अतः युथ अतिशीघ्र यूनिवर्सल प्राउटिस्ट युथ फैडरेशन की राह के साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा। 

यूनिवर्सल प्राउटिस्ट युथ फैडरेशन व समाज के युवा संगठन का कार्य समाज आंदोलन के लिए सुफल देने वाला होता है। अतः समाज आंदोलन अपने संग युथ फैडरेशन व युवा संगठन को लेकर चलता है। 

छात्र जीवन में जिन्होंने सुपथ का चयन किया, उन्हें युवावस्था में पैर रखते ही सुपथ की यात्रा जारी रखनी चाहिए। जिनको छात्र जीवन में इस प्रकार के सुपथ का अवसर नहीं मिला उन्हें युवा अवस्था में सुपथ का वरण करना ही चाहिए। अन्यथा कल जब यह युवा एक प्रोफाइल अथवा नागरिक बनकर समाज में प्रवेश करेंगे उन्हें सुपथ की आवश्यकता पड़ेगी, उस समय हो सकता है कि उनके पास सुपथ उपलब्ध नहीं हो तथा उन्हें यह कहना न पड़े कि अब पछताएँ क्या होत है, जब चिड़िया चुग गई खेत। 

विषय के अंत में यूनिवर्सल प्राउटिस्ट युथ फैडरेशन व समाज के युवा संगठन प्रासंगिक व समाज आंदोलन के लिए मददगार है।

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*एक दृष्टि में यूनिवर्सल प्राउटिस्ट फार्मर/लेबर/इन्टेलेक्चुएल फैडरेशन व समाज के किसान/मजदूर/ बुद्धिजीवी संघ*

युथ समाज में एक प्रोफाइल बनकर प्रवेश करता है अथवा करना चाहता है। समाज उनसे एक अच्छा व सच्चा नागरिक बनने की आशा करता है। जब तक व्यक्ति अपने पेशा के आधार पर अपने पहचान रखता है तब तक वह समाज के समक्ष एक प्रादर्श ही होता है। जब वह एक नागरिक के रुप में अपने उत्तरदायित्व का निवहन करने लग जाता है समाज उसे अपना अंग स्वीकार कर लेता है। यहाँ समाज शास्त्रियों की चाय की प्याली में तुफान उठ सकता है कि क्या शिशु, बच्चा, बालक, किशोर व युवक समाज के अंग नहीं होते है? वे समाज के अंग अवश्य होते है लेकिन यह समाज की जिम्मेदारी है समाज उनकी जिम्मेदारी नहीं है। इसलिए समाज उन पर अपना अधिकार नहीं जमा सकता है। लेकिन एक नागरिक समाज के प्रति जबाबदेही होता है इसलिए समाज उनसे आशा रखता है। यद्यपि मनुष्य का पेशागत जीवन व नागरिक जीवन दोनों एक साथ चलने वाले प्रक्रिया है लेकिन मनुष्य किसे प्राथमिकता दे यह उसकी छवि को निर्धारित करती है। चलो मूल विषय की ओर लौट चलते है। मनुष्य की पेशागत छवि को मोटे रुप से तीन भाग में बांटा जाता है। प्रथम किसान, द्वितीय मजदूर एवं तृतीय बुद्धिजीवी वर्ग है। यद्यपि इनकी समाज के प्रति जबाबदेही तो है लेकिन मुख्य कार्य अपनी हुनर से समाज को कुछ आर्थिक अथवा गैर आर्थिक वस्तु अथवा तथ्य उत्पादित करके देना है। अतः इनसे समाज लंबी आशा रख तो सकता है लेकिन यह निवहन करेंगे ही, यह समाज की अधुरी आशा है। दृश्य को स्पष्ट करने के क्रम में हम विषय से दूर चले जाते है लेकिन आखिर विषय की ओर लौटना ही बुद्धिमत्ता है। समाज में उपस्थित तीन प्रोफाइल - किसान, मजदूर व बुद्धिजीवी की भी विशेष जिम्मेदारी है। इसका अध्ययन हम क्रमवार करेंगे। 
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*किसान*

किसान शब्द का साधारण अर्थ खेती करने वाला होता है अथवा भूमि जोतने वाला है। लेकिन यह शब्द जरा अधिक स्पष्टता की मांग करता है। अतः किसान शब्द को समझने के लिए भूस्वामी, कृषि मजदूर व कृषि निवेशकों को लेते है। अब हम इन में से किसान किसे कहेंगे? सच्चे अर्थ में किसान, इन तीनों ही भूमिका का एक साथ निवहन करने वाले व्यष्टि को कहते है, लेकिन तीनों अलग होने पर सबसे उपयुक्त अर्थ कृषि निवेशक के लिए हो सकता है। वही जोखिम उठाता वाला उद्यमी है। यहाँ यदि भूस्वामी व कृषि मजदूर निश्चित दर में परिलाभ व पारिश्रमिक नहीं लेकर कृषि उत्पाद पर हिस्सा लेते है तो उनके द्वारा भी जोखिम उठाई जाती है। अतः उन्हें भी किसान की श्रेणी रखा जाएगा। भूस्वामी का यदि मूल व्यवसाय के अन्य है तथा साथ भूमि जोत के लिए देकर अतिरिक्त परिलाभ की आश करता है तो उन्हें व्यवसायी कहना उचित है। किसान नहीं किसान शब्द को समझने के बाद किसानों की भूमिका एवं व्यवस्था से संघर्ष की कहानी लिखते है।

किसान का महत्व अन्न उत्पादन कर्ता के रुप में अतुलनीय है। हाड़ कपाने वाली सर्दी , देह जलाने वाली गर्मी व वर्षा की तेज बौछारें सहन करने के कारण समाज के लिए आदरणीय एवं सम्मानीय है। आदर एवं सम्मान शब्द एवं भावना की विषय वस्तु नहीं है, यह सामाजिक अभिव्यक्ति है। अतः किसान को समाज में उचित मर्यादा मिले तथा उसकी आर्थिक स्थिति किसी दयनीय कहानी का चित्रण करने वाली नहीं हो। समाज में एक सुप्रसिद्ध एवं प्राचीन उक्ति - उत्तम खेती, मध्यम व्यापार व नीच नौकरी है। यह उक्ति संभवतया किसान आर्थिक संपन्नता की कहानी कहती है। आज के युग में खेती से युवाओं का मोह भंग होता देख एवं सच्चे अर्थ में जो किसान है उनकी दारुण कथा, कृषि जगत में आमूलचूल परिवर्तन की मांग करती है। प्रउत ने इस दर्द को महसूस करते हुए कृषि जगत को लाभकारी एवं आकर्षक बनाने का सूत्र दिया है। यूनिवर्सल प्राउटिस्ट फार्मर फैडरेशन व सामाजिक आर्थिक इकाई प्रेरित किसान संघ उसके वाहक है। 

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*मजदूर*

मजदूर शब्द उस व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाता है जो अपना शारीरिक श्रम बैच कर अर्थोपार्जन करता है। यद्यपि मजदूर श्रेणी में यह परिभाषा आती है लेकिन मजदूर शब्द की पूर्ण परिभाषा में मानसिक व आध्यात्मिक श्रम बैचकर अर्थोपार्जन करने वाला व्यष्टि भी समा सकता है। ऐसे में यहाँ सभी मजदूर ही है। कोई मालिक अथवा स्वामी नहीं है। अतः दार्शनिक रुप मजदूर एवं मालिक का संघर्ष है ही नहीं। लेकिन दारुण कथा तो तब लिखी जाती है, जब मजदूर के श्रम की कीमत स्वयं नहीं कोई ओर तय करता तथा वक्त की लाचारी के समक्ष अन्य पक्षकार की बात मजदूर को मानने के लिए बाध्य होना पड़ता है। जिन लोगों ने भौतिक संसाधनों पर वैज्ञानिक अपना अधिकार सिद्ध कर दिया है। वे श्रमजीवी का शोषण करने लग जाए तब समाज में विषमता सृष्ट होती है। मजदूर की कहानी कुछ ऐसी है, जो अश्रुपान अथवा रक्तपान करने वाली लेखनी बनकर उभरती है। मजदूर के साथ न्याय करने वाली व्यवस्था प्रथम बार इस धरा प्रउत के नाम से आई है। उसका प्रकटीकरण यूनिवर्सल प्राउटिस्ट लेबर फैडरेशन अथवा समाज प्रेरित श्रमिक संघ के रुप में निकल कर आई है। यह आंदोलन श्रमिक केवल अपने लिए ही नहीं करता है अपितु औद्योगिक, व्यापारिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था में ही आमूलचूल परिवर्तन की कोशिश का नाम है। यदि भविष्य में पंच शाखा अथवा फाइव फैडरेशन पर विस्तार से लिखने का अवसर मिला तो पंच शाखा के एक एक अंग को विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे। आज तो हम समाज आंदोलन के परिपेक्ष्य में फैडरेशन का योगदान समझने की कोशिश कर रहे है। 

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*बुद्धिजीवी*

बुद्धि से जिसकी जीविका चलती है, वह बुद्धिजीवी है तथा बुद्धि जिनकी जीविका नहीं है लेकिन बुद्धि का उपयोग हो रहा है तो वह बुद्धिमान है। जो लेखक, वैचारिक, साहित्यकार, काव्यकार इत्यादि अर्थोपार्जन में अपनी बुद्धि को नहीं बैचकर समाज धर्म के निवहन में उपयोग करते है, वह बुद्धिमान है जबकि पत्रकार, वकिल, अभिकर्ता, दलाल, अधिकारी वर्ग , अर्थोपार्जन के उद्देश्य से कविता पाठ करने वाले कवि व लेखक, अर्थोपार्जन में सलंग्न शिक्षक व चिकित्सक तथा इंजीनियर इत्यादि। बुद्धिजीवी पर्षद के सदस्य है। उनके साथ थोड़ा बहुत व्यवस्था छल करती है। छल की उन बारिकियों की पहचान कर प्रउत ने बुद्धिजीवी वर्ग को संघर्ष की राह पर चलाया है। यूनिवर्सल प्राउटिस्ट इन्टेलेक्चुएल फैडरेशन अथवा सामाजिक आर्थिक इकाई के बुद्धिजीवी संघ प्रउत की सम्पूर्ण क्रांति का एक हिस्सा है। अतः समाज आंदोलन इनका भी सहयोग चाहता है। 

*कतिपय प्रश्न*

. व्यापारी व उद्योगपतियों को किस श्रेणी में रखकर प्रउत का अध्ययन पत्र तैयार होता है? 

प्रउत प्रेरित आंदोलन समग्र व्यवस्था परिवर्तन का एक नाम है। अतः उद्योगपतियों व व्यापारियों के संदर्भ में चिंतन दिये बिना समाप्त नहीं होता है। यह दोनों वर्तमान युग में व्यवस्था का एक नाम है। जो अपने कर्तव्य का सही सही निवहन कर दे तो प्रउत व्यवस्था संघर्ष का रास्ता नहीं चुनती लेकिन इन्होंने अपने धर्म का निवहन नहीं किया तथा संसाधनों पर एकाधिकार स्थापित करने की भाग दौड़ में लग गए। जिसकी वजह से संघर्ष की राह पर हस्ताक्षर करने पड़े । 

२. पेशाजीवि (प्रोफाइल) व नागरिक में क्या अंतर है? 

पेशाजीवि का उद्देश्य अर्थोपार्जन होता है तथा वहाँ तक ही अपने सीमित रखता है लेकिन समाज का नागरिक सर्वजन हित व सुख के लिए कार्य करने वाला पात्र है अथवा एक सामाजिक उत्तरदायित्व लेकर चलने वाला पात्र है। अतः समाज आंदोलन नागरिकों का आंदोलन है, जबकि फैडरेशन आंदोलन कार्मिकों है। 

३. एक सन्यासी समाज आंदोलन का पात्र क्यों नहीं है? 

समाज आंदोलन - सामाजिक उत्तरदायित्व लेकर चलने वाले नागरिकों है। सन्यासी समाज का पथ प्रदर्शक अथवा निर्माता वर्ग का होता है। वह परिवार के दुख दर्द का मार्मिक स्पर्श नहीं कर सकता है। इसलिए सन्यासी का समाज आंदोलन अथवा फैडरेशन आंदोलन में मार्गदर्शक मंडल की भूमिका है। यदि सन्यासी इसमें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से अपने महिमामंडन की कोशिश करते है तो वे अपने सन्यासी धर्म की अवहेलना करते है। इतिहास के पन्ने बताते है सन्यासी राजा ने समाज के साथ न्याय नहीं किया है तथा उसका परिणाम दर्दनाक रहा है। इसलिए सन्यासी को समाज आंदोलन एवं फैडरेशन आंदोलन में प्रत्यक्ष  रुप से शामिल नहीं किया है। आपात परिस्थिति में अर्थात कोई राह नहीं दिखने पर छदम वेष में सन्यासी अति अल्पकाल के लिए इन आंदोलनों में प्रवेश कर अपना कर्तव्य निवहन कर सकता है। लेकिन यह व्यवस्था उसका शौक, लालसा अथवा स्वार्थ सिद्ध का अस्त्र बन जाए तो सन्यास धर्म से विमुख कर देती है। 

४. एलएफटी के संदर्भ में दृष्टिकोण स्पष्टता चाहता है? 

संघर्ष, आंदोलन, क्रांति व विप्लव का बिगुल त्याग व समर्पण की भाषा जानते है। जब समाज की व्यवस्था एक पूर्ण गृही को उपरोक्त तत्व में प्रतिष्ठित करने में बाधा उत्पन्न करें तो यह गृही अपने में से स्थानीय पूर्णकालिन कार्यकर्ताओं का सर्जन कर सकता है। जो रंग रुप व स्वभाव से गृहस्थ ही दिखाई दें लेकिन उनके अंदर सन्यासी सा त्याग व लक्ष्य के प्रति समर्पण हो। उस स्थित में गृहियों को ऐसी व्यवस्था का सर्जन करना होगा कि यह कार्यकर्ता अपनी दैहिक आवश्यकता के लिए सन्यासी की अधीनता अंगीकार नहीं करें अथवा अनुपयुक्त राह का चुनाव नहीं करें। एलपीटी का इसी प्रकार चयन होता है।

शंका समाधान का शिविर अनवरत चलना चाहिए तथा समाज आंदोलन आगे बढ़ता ही जाना चाहिए। 
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