शिष्य को गुरु से अपनी सभी शंकाओं का समाधान करने का अधिकार शिक्षा प्रणाली देती है लेकिन समाज में चेलों का अपने गुरुवर से संदेह दूर करने वाले प्रश्न करने पर आस्था की दुआ देकर ठगा जाता है तथा यहाँ से तैयार होते है - अंधभक्त। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी अंधभक्त बनाने नहीं आये थे। वे चाहते थे कि उनका शिष्य उच्च श्रेणी का तगड़ा भक्त बने, ताकि उन्हें कोई शक्ति नहीं ठगे तथा कोई भी उसे उल्लु नहीं बना सके। वैसे प्रउत दर्शन में चेले नहीं विचारक, चिन्तक, कार्यकर्ता एवं स्वयंसेवक होते है। इसलिए उपरोक्त भूमिका आधारहीन है। फिर भी विषय विचारक की रुह की छू कर निकलता है। जहाँ विश्व राष्ट्र की दीवारें गिराकर वैश्विक चिंतन की दिशा में बढ़ रहा, वहाँ लुप्त हो रहे खंड चिंतन को बचाने की ओर प्रउत लपक रहा है। यह तो युगधर्म पर प्रश्न चिह्न लगाती है। नवयुग का पंचजन्य फूंकने वाले आनन्द मार्ग दर्शन में एक, अखंड, अविभाज्य मानव समाज का चिंतन समाविष्ट है, जो महा विश्व की परिकल्पना में जाकर समाविष्ट होता है, वही प्रउत दर्शन समाज इकाइयों में बट्टी विश्व सरकार की अभिकल्पना दे रहा है। अतः विषय कुछ तो मांग कर रहा है कि आखिर श्री प्रभात रंजन सरकार ने समाज इकाइयों के समाज आंदोलन को चुना?
विश्व में विविधता व विचित्रता अभिशाप नहीं सृष्टि के सौंदर्य का द्योतक है। कल्पना कीजिये कि तथाकथित आधुनिक सभ्यता की अंधी दौड़ में यह वैचित्र्य नष्ट हो जाएगा तो हमारे विश्व का क्या होगा? साधारण बुद्धि वाला व्यक्ति इसे सर्व भवन्तु सुखिनः समझ लेता है लेकिन विशेष एवं विलक्षण बुद्धि इस मृत्यु की अवस्था देखता है। जहाँ चंचलता, गति एवं हिलोरे नहीं वहाँ जीवन क्या करता है? यह विचार कर ही हम विषय की परिपूर्णता को स्पर्श करेंगे। सभी जानते है कि प्रउत दर्शन अंततोगत्वा आनन्द मार्ग दर्शन के महा विश्व में समाविष्ट होता है, उसका रुप, रंग व स्वरूप महा विश्व के रुप में ही दिखाई देता है इसलिए महा विश्व की वैचित्र्यता नष्ट नहीं होने देने की जिम्मेदारी प्रउत दर्शन की है।
माना कि शरीर का एक अंग बहुत अधिक विकसित हो गया तथा कोई विशेष अंग अथवा बहुत अंग अविकसित रह गया तो उसे सर्वांग नहीं दिव्यांग कहा जाएगा। क्या हम दिव्यांग विश्व में प्रवेश करने जा रहे हैं। दिव्यांग कितना भी सुन्दर, मजबूत एवं आकर्षक क्यों न हो वह सर्वांग की बराबरी नहीं कर सकता है। यदि यहाँ अपंगता दिखाई देती है तो वह सदैव अभिशाप ही रहेगा। इसलिए प्रउत दर्शन लेकर आया आर्थिक विकेन्द्रीकरण। आर्थिक विकेन्द्रीकरण प्रउत के मूल सिद्धांत एवं अंतिम पांच सूत्रों के बिना असंभव है अथवा छलवा है।
अपंग अथवा दिव्यांग विश्व में आनन्द की किरण बिना सामाजिक आर्थिक इकाइयों की रचना के दिखाना असंभव है। जैसे जैसे प्रगतिशील उपयोग तत्व समाज के रुह में स्थापित होते जाएंगे, समाज रुपी शरीर के प्रत्येक अंग दिव्य रोशनी का प्रकट होगी तथा जिसे समाज सर्वांगीण विकास को स्थापित करेंगा तथा उसे ही कहें सर्व भवन्तु सुखिनः। यह विश्व समाज के सभी सामाजिक आर्थिक इकाई अंग विकसित होगे आपस में मिल कर बड़े अंगों का निर्माण करेंगे तथा अन्ततोगत्वा संपूर्ण विश्व महा अंग बन कर एकांग में सर्वजन हित व सर्वजन सुख के समीकरण स्थापित हो जाएगी।
हमारी समझ को एक उदाहरण द्वारा मजबूत करते है भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371 (क) में महाराष्ट्र व गुजरात को विशेष औद्योगिक राज्य का दर्जा दिया है, जिससे GIDC व MIDC फली फूली है एवं औद्योगिक एवं व्यापारिक विकास में संपूर्ण भारत को अपनी ओर आकृष्ट किया। तात्कालिक आर्थिक नीतिकारों तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू की सोच भारत को आर्थिक विकसित स्वरूप के नाम पर औद्योगिक विकसित राष्ट्र बनाने की हो सकती है लेकिन यह भारत की प्रति व्यक्ति आय तथा राष्ट्रीय आय पर पड़ने वाले भार को कम नहीं कर पाया। बिहार का राजनीति के अखाड़े फसा मुख्यमंत्री यह कहता है कि बिहार के पास समुंद्र नहीं है इसलिए उद्योग नहीं लग सकते है, यह एक हास्य से अधिक कुछ नहीं है। यदि सम सामाजिकता के आधार पर समाज को विकसित कर समाज इकाई रुप में आगे बढ़ाया जाता तो बिहार के अबतक सबसे अच्छे मुख्यमंत्री को राजनीति के हाथों मजबूर नहीं होना पड़ता है। खैर राजनीति की अटकलबाज़ी हमारा विषय नहीं है। हमारा समाज इकाइयों की प्रासंगिकता है।
विषय के अंत में सामाजिक आर्थिक इकाई ( समाज ) एक ऐसी रोशनी है जो कही भी दिया तले अंधेरा नहीं रहने देती है, चारों ओर उजियारा ही उजियारा दिखाई देंगा, *इसलिए किसी भी प्राउटिस्ट को किसी भी दार्शनिक, तार्किक एवं विदुषिता के आगे नतमस्तक होने की आवश्यकता नहीं है। गर्व एवं दावे के साथ कहना है कि हमारा समाज आंदोलन दुनिया का अबतक सबसे सही, सुन्दर एवं वास्तविक आंदोलन है।*
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