श्रीमद्भगवद्गीता अध्ययन पर अंतिम टिप्पणी


श्रीमद्भगवद्गीता का अध्ययन बचपन से लंबित पड़ी इच्छा एवं श्रीमद्भगवद्गीता के प्रति एक संस्कार का परिणाम है। यद्यपि इस ज्ञान का जितना शोध किया जाए उतना कम है तथापि इससे मुझे जो मिला उससे मुझे अच्छा महसूस हुआ। मैं सभी से यह निवेदन तो नहीं कर सकता हूँ कि सभी इस ग्रंथ का अध्ययन करें, लेकिन मेरा मानना है कि सभी को इस ग्रंथ का गहराई से अध्ययन करना चाहिए। 

श्रीमद्भगवद्गीता नामक ग्रंथ की रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास, भगवान श्रीकृष्ण के समकालीन थे। इन्होंने श्रीकृष्ण के इस संदेश को धृतराष्ट्र के कथन से शुरू कर संजय की ऐतिहासिक एवं शास्वत सत्य घोषणा के साथ इतिश्री किया है। इनके बीच श्रीकृष्ण  व अर्जुन संवाद के रुप में जीवन के सत्य का प्रकाश हुआ है। 

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्ययन से एक अन्तिम टिप्पणी का निर्माण होता है। श्रीमद्भगवद्गीता के संदेश में धृतराष्ट्र एवं संजय को लेने की आवश्यक महत्वपूर्ण है। श्रीमद्भगवद्गीता में धृतराष्ट्र का एकमात्र एवं प्रथम श्लोक अवश्य संपूर्ण ग्रंथ का गुरुत्व विषय है। इसके संदर्भ में प्रथम टिप्पणी से बहुत कुछ प्राप्त हो चुका है। संजय नेपथ्य में बैठकर गीता संदेश को लयबद्ध व गीतशील बनाने में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है। यद्यपि महात्मा संजय का स्थान प्रथम श्लोक से महत्वपूर्ण है तथापि श्रीमद्भगवद्गीता के अंतिम श्लोक की घोषणा ने संजय की इस ग्रंथ में भूमिका को ओर अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है। महात्मा संजय ने अपनी घोषणा में विजय, विभूति एवं नीति की सुनिश्चितता को प्रमाणित किया है। 

इस श्लोक की व्याख्या में एक सूत्र का निर्माण हुआ है - यतो धर्म: ततो इष्ट: यतो इष्ट: ततो जयं।  जहाँ धर्म है, वही इष्ट रहते है। कितना बड़ा सार्वभौमिक सत्य है कि जहाँ नीति, नेकी एवं सत्यता का निवास है, वहाँ सत्य स्वरूप  आनन्द के सागर भगवान(ब्रह्म) का  निवास होता है। यद्यपि दार्शनिक ज्ञान के अनुसार भगवान सर्वत्र है लेकिन भगवान धर्म के साथ होते है, यह उनका अपना नियम है। विश्व में पापी, भ्रष्टाचारी, मिथ्याचारी एवं अनैतिकवादियों को सोचना होगा कि आपके कर्म में महासंभूति का साथ नहीं है। यदि आप परम पुरुष का साथ चाहते हो तो धर्म के पथ का वरण करो क्योंकि वे किसी से धृणा नहीं करते है। तुम्हारे इस कदम से वे तुम पर बहुत खुश होंगे तथा तुम्हेें झाड़ फूंक कर अपनी गोद में बिठा देंगे, यह परम कृपानिधान की घोषणा एवं आशीर्वाद है। पुनः विषय की ओर चलते है। जहाँ धर्म है वहाँ श्रीकृष्ण है अर्थात कृष्ण को अपने सहयोगी, सखा एवं कृपालु बनाने के लिए धर्म के पथ पर चलना होगा। धर्म का पथ मजहब, रिलिजन, मत, पंथ व सम्प्रदाय की रुढ़ धारणाओं में नहीं समाता है। धर्म संपूर्ण मानव जाति के लिए एक ही है। जिसका वर्णन विश्व के धर्म शास्त्रों में किया गया है। इसलिए तो श्रीमद्भगवद्गीता एवं रामचरित्र मानस कहता है कि स्वधर्म में मरना तथा स्वधर्म में रहना उचित है। परधर्म अर्थात जो मानव तथा उसके समाज का धर्म नहीं है जैसे जाति व साम्प्रदायिक भेद को सृजित करना, बढ़ावा देना एवं इसको लेकर कटुता, मारकाट एवं वैमनस्य मानना एवं फैलाना मानव का नहीं दानवों का धर्म है। दानव अर्थात जो दूसरों का दमन करके जीता है। यह मनुष्य के लिए परधर्म है। कतिपय व्याख्याकार अपनी अल्पबुद्धि में शास्त्रों के मान संदेश को मजहब में दिखाकर लोगों को भ्रमित करते है। भगवान सदाशिव के शब्दों में यह लोग लोकव्योमोहकारी है। मनुष्य तथा उसके समाज को ऐसे नर पिचाशों से बचकर रहना चाहिए। इनको शास्त्र  में राक्षस बताया गया है। कहा गया है जहाँ धर्म है वहाँ श्रीकृष्ण है। अर्थात मनुष्य की सोच सत्य, नीति, नैतिकता एवं सार्वभौमिक है। इनके विचारों में नव्य मानवतावाद निवास करता है। संपूर्ण सृष्टि के कण कण के कल्याण का चिंतन प्रस्तुत करता है। वह धर्म का पथ है। वही श्रीकृष्ण का साथ है। सूत्र का दूसरा भाग जहाँ इष्ट है वहाँ विजयश्री की घोषणा करता है। इस जगत में सभी जीव अजीव विजयी होना चाहते है, पराजय अथवा हार की इच्छा कोई नहीं रखता है। भौतिक जगत में अस्थायी जीत का जश्न शक्ति ( ताकत) मना सकती है लेकिन स्थायी जीत के लिए सत्य (इष्ट) की आवश्यकता है। अत: जो व्यक्ति अपनी विजय, विभूति एवं कृति चाहते उन्हें ईमानदारी, नैतिकता, सहिष्णुता तथा आध्यात्मिकता को धारण करके चलना चाहिए। 

महात्मा संजय ने अपनी घोषणा में ऐसा मेरा मत है शब्द का उल्लेख किया है, यह शब्द श्रीमद्भगवद्गीता अध्ययन करने वाले, अध्यापन कराने वाले, श्रवण करने वाले तथा श्रवण करवाने वालों को अपना अंतिम मत निर्माण करने की अनुमति देता है। इसलिए सभी को श्रीमद्भगवद्गीता अध्ययन की अंतिम टिप्पणी का निर्माण करनी चाहिए। 
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