श्रीमद्भगवद्गीता पर प्रथम दृष्टि
गीत में क्रिया से गीता शब्द बना है भगवान द्वारा गाई जाने के कारण श्रीमद्भगवद्गीता
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धृतराष्ट्र, संजय, धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, कौरव व पाण्डवों का अर्थ समझे बिना गीता ज्ञान संभव नहीं है।
प्रथम अध्याय – विषाद योग
विषाद का अर्थ शोक एवं विलाप है। मनुष्य सांसारिक बंधनों में पड़कर कर्तव्य पथ को भूल जाता है, तब उसे गीता के उपदेश की आवश्यकता है।
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अर्जुन व दुर्योधन दोनों ही विलाप करते है। अर्जुन के विलाप में निष्कलंक चिंतन है जबकि दुर्योधन के विलाप में स्वार्थ है ।
दूसरा अध्याय – सांख्य योग
आत्मज्ञान एवं कर्तव्य ज्ञान की पथ निर्देशना देकर भक्तिमय जीवन जीने का पथ दिखाया गया है।
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मनुष्य मन प्रधान जीव है, उसे एक प्राणी मानना भूल है, उसकी शिक्षा, चिकित्सा एवं संस्कार मन के संगठन के अनुकूल होना आवश्यक है।
तीसरा अध्याय – कर्मयोग
मनुष्य जीवन में कोई भी व्यक्ति बिना कर्म के नहीं रह सकता है। कर्म करना आवश्यक है लेकिन कर्म को फलाकांक्षा से उपर उठकर करना सतपथ है।
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कर्म के बंधन से मुक्ति ही मनुष्य जीवन को पूर्णत्व की ओर ले चलता है।
चौथा अध्याय – ज्ञान कर्म सन्यास योग
कर्म करते हुए कर्म बन्धन में नहीं पड़ने के कला कौशल को ज्ञान कर्म सन्यास है। यह सैद्धांतिक कर्म सन्यास है।
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कर्म सन्यास का अर्थ शरीर का नहीं मन का सन्यास है।
पांचवा अध्याय – कर्म सन्यास योग
कर्म पर ब्रह्म भाव आरोपित करना अथवा ब्रह्म भाव लेना कर्म सन्यास का व्यवहारिक ज्ञान है।
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कर्म का व्यवहारिक पक्ष स्वयं को यंत्र एवं परम पुरुष यंत्री मानकर चलना है।
छठां अध्याय – आत्म संयम योग
मन की प्रगति के लिए योग साधना पथ का चयन किया जाता है। इस पथ पर चलकर मनुष्य पूर्णत्व प्राप्त करता है।
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योग साधना के आठ अंग है, इसलिए इसे अष्टांग योग कहते है।
सातवां अध्याय – ज्ञान विज्ञान योग
दर्शन मनुष्य का परमतत्व, सृष्टि एवं स्वयं से परिचय करवाता है। इसलिए ज्ञान विज्ञान का अध्ययन आवश्यक है।
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सृष्टि तत्व, सृष्टा एवं उसकी प्रकृति एक विज्ञान है, जिसे मनुष्य अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार देखता है लेकिन शास्वत सत्य यह है सबके यह नियम सामान्य है ।
आठ अध्याय – अक्षर ब्रह्म योग
परम पुरुष रहस्य थे, रहस्य है तथा रहस्य रहेगा। फिर भी मनुष्य इस रहस्य को जानने का यात्री है।
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परम तत्व है, वह इस चराचर जगत का सर्जन हार, पालनहार एवं तारणहार संहार कर्ता है।
नौवां अध्याय – राज गुह्य योग
दृश्य एवं अदृश्य लोक प्रकृति एवं पुरुष की लीला है, जो इसे जाने, उसका जीवन सफल है ।
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अद्वैत भाव ब्रह्म में प्रतिष्ठित होने की बात कहता है लेकिन विज्ञान अद्वैताद्वैतादैत में निहित है।
दसवाँ अध्याय – विभूति योग
नर से नारायण बनने का कला जीवन में जरुरी है।
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क्या मनुष्य परमात्मा में मिलकर परमात्मा बन सकता है?
हाँ अणु चैतन्य भूमा चैतन्य का रुप है, उसमें प्रतिष्ठित होने से भूमा भाव का प्रकाश होता है।
ग्यारहवाँ अध्याय – विश्वरुप दर्शन योग
हमारे प्रभु हमें कैसे दिखते है इसका उत्तर विश्व रुप दर्शन में निहित है।
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एक अखंड निराकार सर्वव्यापी परमेश्वर को अपने समुख अनुभव करना ही आध्यात्मिक यात्रा का सार है।
बारहवाँ अध्याय – भक्ति योग
भक्ति भक्तस्य जीवनम् उक्ति का चरितार्थ रुप भक्ति में प्रतिष्ठा है। ज्ञान रुपी चक्षु एवं कर्म रुपी पाद से चलकर साधक भक्ति में प्रतिष्ठित होता है तथा इसी परमपद प्राप्त करता है।
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भक्त को इस संसार में कैसे रहना चाहिए, यह भक्ति योग का सार है।
तेरहवाँ अध्याय – क्षेत्र क्षेत्रज्ञ योग
शरीर धर्म क्षेत्र है, आत्मा इसका क्षेत्रज्ञ है । इनको संयोजन करने वाला मन ही मनुष्य की छवि का निर्माण करता है, उसी के अनुरूप दुनिया मनुष्य को देखती है।
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शरीर, मन एवं आत्मा ज्ञान आध्यात्मिक राही के आवश्यक है।
चौदहवाँ अध्याय – गुणत्रय विभाग योग
सत्व रज, रज तम, तम रज, रज सत्व के सीमा हीन परिवर्तन से सृष्टि का विकास हुआ है, इसलिए यहाँ सबकुछ त्रिगुणात्मक है।
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सतोगुण दैवत्व,रजोगुण मानवीय तथा रजोगुण पशुत्व का प्रतीक है। इससे ही संसार, मनुष्य का मूल्यांकन करता है।
पन्द्रहवां अध्याय – पुरूषोत्तम योग
इस विश्व की नाभी पुरुषोत्तम है, वास्तव में मनुष्य इन्हें ही भगवान कहता है, मानता तथा जानता है।
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पुरुषोत्तम परम पुरुष का वह रुप है, जहाँ अनन्त शब्द चरितार्थ होता है। वस्तुतः एक मात्र ब्रह्म ही है, शेष खेला है।
सोलहवाँ अध्याय – दैवासुरसंपद्विभाग
दैवासुरसंपद्विभाग योग अध्याय में मनुष्य की दैविक एवं आसुरी प्रवृतियों का चित्रण किया गया है
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दैविक वृत्तियाँ मनुष्य को प्रगति के पथ ले चलती है। इन्हें ज्ञान विज्ञान की भाषा में मित्र वृत्तियाँ कहते है, जबकि आसुरी मनुष्य को अधोगति व पतन के पथ पर ले चलती है। ज्ञान विज्ञान की भाषा में इन्हें शत्रु पक्ष कहते है। मनुष्य के शरीर में इन दोनों के बीच सदैव संघर्ष देखने को मिलता है, ठीक इस प्रकार का संघर्ष समष्टि स्तर पर भी देव ( अच्छे लोग) तथा असुर (बुरे लोग) के मध्य देखने को मिलता है। जब इसका परिक्षेत्र संपूर्ण विश्व होता है तब यह महाविश्व के नाम जाना जाता है।
सतरहवां अध्याय – श्रद्धात्रय विभाग योग
श्रद्धात्रय विभाग योग नामक द्वितीय अंतिम अध्याय में श्रद्धा, आस्था, पूजा एवं भक्ति क्या,क्यों एवं कैसे नामक प्रश्नों के उत्तर है।
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मनुष्य जीवन की यात्रा पूर्णत्व की है। पूर्णत्व की यह यात्रा अपूर्णत्व लोक से शुरू होती है। अतः साधक माया के भूलभुलैया में खो सकता है। इसलिए उन्हें श्रद्धा आस्था, पूजा एवं भक्ति के सूक्ष्म एवं शुद्ध ज्ञान की समझ आवश्यक है।
अठारहवाँ अध्याय - मोक्ष सन्यास योग
मोक्ष सन्यास योग में त्याग व सन्यास को परिभाषित किया गया है।
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मोक्ष मानव जीवन का जीवन लक्ष्य है। इसके लिए मनुष्य को मन से सन्यासी होना होना है। तन से सन्यास धारण करने वालों का उद्देश्य छोटे परिवार के छोटे सुख से उपर उठकर वृहद परिवार के वृहद सुख में भागीदार बनना अपने आप में महान कार्य है लेकिन मुक्ति मोक्ष के आकांक्षी को घर बाहर काश्रग आवश्यक नहीं है तथा इस प्रकार की धारणा को श्रीमद्भगवद्गीता गीता में कोई स्थान नहीं दिया गया है।
जहाँ धर्म है, वहाँ इष्ट है।
जहाँ इष्ट है, वहाँ जय है।।
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