श्रीमद्भगवद्गीता - अष्टादश अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता के 18 वें अध्याय के 71 श्रीकृष्ण, 2 अर्जुन तथा 5 संजय उवाच सहित कुल 78 श्लोक है।श्रीमद्भगवद्गीता का इस  अंतिम व सबसे बड़े अध्याय का नामकरण मोक्ष सन्यास योग किया गया है। इस अध्याय में त्याग एवं सन्यास को समझाया गया है। 

अर्जुन ने कहा कि मैं त्याग व सन्यास के विषय में पृथक-पृथक जानना चाहता हूँ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि पंडितगण काम्य कर्म का त्याग को सन्यास कहते है जबकि साधुजन कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते है। एकमत है कि सभी कर्म त्यागने योग्य है जबकि दूसरा मत  है कि यज्ञ( कर्तव्य कर्म), दान व तप त्यागने योग्य नहीं है। इसपर श्रीकृष्ण ने कहा कि सन्यास एवं त्याग में से त्याग विषय में पहले जान।  कर्तव्य (यज्ञ), दान व तप त्याग करने योग्य नहीं है, यह फलाकांक्षा रहित करणीय कर्म है। इन नियत कर्मों का मोह के कारण त्याग तामस, शारीरिक कष्ट के भय से त्याग राजस तथा आसक्ति एवं फलाकांक्षा का त्याग सात्विक त्याग कहलाता है। ज्ञाता , ज्ञान व ज्ञेय मिलकर ज्ञान क्रिया है इसि प्रकार कर्ता, करण एवं क्रिया मिलकर कर कर्म क्रिया का संपादन करता है। सभी भूतों में सम भाव को सात्विक, भेद को राजसिक तथा आसक्ति एवं मोह को तामसिक ज्ञान की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार कर्ता का अभिमान त्याग कर फलाकांक्षा रहित किया गया कर्म सात्विक, अंहकार युक्त सकाम कर्म को राजसिक तथा अज्ञान के वशीभूत होकर किया गया कर्म को तामसिक कहा गया है।  इस प्रकार विकार रहित कर्ता को सात्विक, विकार युक्त कर्ता को राजसिक तथा धृष्टता युक्त कर्ता को तामसिक रखा गया है। इस प्रकार बुद्धि के विभाग भी  बताया गये है, प्रवृत्ति निवृत्ति, कर्तव्य अकर्तव्य, भय अभय, धर्म अधर्म, बंधन व मोक्ष के यथार्थ को जानने वाली बुद्धि को सात्विक, इनके यथार्थ को नहीं जानने वाली राजसिक तथा इन नाकारात्मक पहलूओं के दलदल में लिप्त बुद्धि तामसिक है। योग, ध्यान, भजन करने वाले धृति सात्विक, फलाकांक्षा से धर्म, अर्थ व काम को धारण करना राजसिक तथा निंद्रा, भय, स्वप्न के विषाद को धारण करने वाली धृति तामसिक है । इस प्रकार सुख को भी तीन भेद करके दिखाया है। मनुष्य के अंदर स्वभाविक गुण एवं क्षमता के आधार पर निर्मित कर्मप्रधान वर्ण व्यवस्था के विप्र, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के कर्म निर्धारण करने वाले कौशल को भी परिभाषित किया है। यहाँ किसी के कर्म हेय नहीं माना गया है अपितु एक नैष्कर्म्य सिद्धि का उल्लेख आता है। यहाँ एक सदविप्र की अवधारणा की झलक मिलती है। परम ब्रह्म की भक्तिमय पराभक्ति युक्त  परम सिद्धि को प्राप्त करता है। यहाँ सन्यास को सत के साथ एकीकृत होने वाली परिभाषा की भी झलक मिलती है। दूसरे शब्दों में दायित्व एवं नियत कर्म को त्यागना सन्यास की परिभाषा में नहीं समाने वाली शब्दावली की झलक है। 

मोक्ष व सन्यास को शुद्ध व निरपेक्ष शब्दों में स्पष्ट करने की कोशिश की गई है। इस अध्याय को समझने के लिए भक्ति के तीन प्रकार सात्विक, राजसिक एवं तामसिक को समझना आवश्यक है। परपीड़ा की मांग तामसिक, स्व: लाभ की आकांक्षा राजसिक भक्ति तथा जीवन आध्यात्मिक अनिवार्यता को लेकर की गई भक्ति सात्विक है। क्योंकि यहाँ प्रियतम से कोई मांग नहीं है। अधिकार अथवा पावना नहीं, दायित्व ही दायित्व है। सात्विक भक्ति में रगानुगा, रागात्मिका व केवला भक्ति जिसके समझ में आ जाती है। वहाँ मोक्ष सन्यास समझना अति सरल है। 

इस अध्याय के अंत में संजय एक घोषणा करता है कि जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण तथा गांडीवधारी अर्जुन है वहाँ यश, कीर्ति तथा विजय  निश्चित है। 
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