श्रीमद्भगवद्गीता- सप्तदश अध्याय


श्रीमद्भगवद्गीता के 17 वें अध्याय में 1 अर्जुन, 27 श्रीकृष्ण उवाच सहित 28 श्लोक है। इस अध्याय का नामकरण श्रद्धात्रय विभाग योग किया गया है। इसमें श्रद्धा, उपासना, आराधना अथवा पूजा को को तीन भागों में बाटकर सात्विक श्रद्धा को श्रेयस्कर बताया गया है। 

अर्जुन श्रद्धा के विषय में प्रश्न करते है, उसके प्रति उत्तर में श्रीकृष्ण श्रद्धा की पुरी शल्यक्रिया ही प्रस्तुत कर देते है। देवपूजा (ब्रह्म) सात्विक, यक्ष (देवता) व राक्षस पूजा राजसिक तथा भूत-प्रेत की पूजा तामसिक बताई गई है। शरीर विज्ञान जो शास्त्र में उल्लेखित है उसे नहीं जानकर अनावश्यक कठोर कृश तप को गीता में आसुरी स्वभाव का बताया गया है। आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं , कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात्‌ भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं तथा  जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है৷  फलाकांक्षा रहित विधि पूर्वक किया नियति कर्तव्य( यज्ञ) सात्विक, दम्भाचरण व फलाकांक्षा सहित यज्ञ राजसिक तथा श्रद्धा रहित अव्यवस्थित यज्ञ तामसिक है।  शारीरिक, वाणी एवं मानसिक तप की भी सात्विक, राजसिक व तामसिक श्रेणियों का उल्लेख किया गया है। उपकार करने भाव से उपर उठकर योग्य पात्र को देश, काल व पात्र को किया गया दान सात्विक, कष्ट देकर संग्रहित धन से प्रतिपकार के भाव किया गया दान राजसिक तथा तिरिस्कार सहित कुपात्र को किया गया दान तामसिक है। ॐ तत् सत् का विश्लेषण कर सत एवं असत श्रद्धा का वर्गीकरण किया गया है। 

श्रद्धात्रय विभाग योग में दान, तप, कर्म एवं पूजा को समझकर करने की शिक्षा दी गई है।  श्रद्धा को तीन भाग में विभक्त कर जीवन शैली का निर्माण करना श्रद्धा को कम करना नहीं है अपितु यह श्रद्धा को शतप्रतिशत बनाना है। वह श्रद्धा अंधविश्वास है, जहाँ दान, तप तथा ज्ञान में सत समझ नहीं तथा सत समझ निर्माण के करणीय, विचारणीय तथा अकरणीय का ज्ञान आवश्यक है। श्रद्धा तब तक अंधी है, जब तक आत्मज्ञान को आलोक का विकास नहीं है।  आत्मज्ञान का आलोक मनुष्य को ब्रह्म साधना मार्ग से प्राप्त होता है। इसलिए साधक बोलता है - ब्रह्म कृपा ही केवलम तथा इसी को भक्त बोलता है - गुरु कृपा ही केवलम क्योंकि वह जानता है कि गुरु व ब्रह्म एक ही सत्ता है। अतः मनुष्य का कीर्तन हुआ बाबानाम केवलम। 
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