श्रीमद्भगवद्गीता - षोडश अध्याय

श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में 24 श्लोक श्रीकृष्ण का उवाच है। इस अध्याय का नाम दैवासुरसंपद्विभाग योग रखा गया है। इसमें मनुष्य की दो प्रवृतियां दैविक एवं आसुरी का उल्लेख है। जो वृत्तियाँ मनुष्य को प्रगति के पथ पर ले चलती है, उन्हें दैविक तथा अधोगति की ओर ले चलने वाली वृत्तियों को आसुरी कहते है। 

अभय, सत्व, शुद्धि, ज्ञान, सुव्यवस्था, दान, दमन, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, क्रोध का त्याग, शान्ति, निंदा न करना, दया, विषय में निर्लिप्तता, व्यर्थ चेष्टा का अभाव, कोमलता, शास्त्र व समाज विरूद्ध आचरण नहीं करने वाला, तेज, क्षमा, धैर्य, शौच, स्वयं की पूजा के भाव का अभाव, किसी से शत्रुता नहीं रखने वाले के भाव का अभाव यह सभी गुण दैविक संपदा बताए गए है । दंभ, क्रोध, घमंड, अभिमान, कठोरता, कामुकता, विषय भोगी, क्रुरता, एवं अज्ञान आसुरी संपदा है। दैवी संपदा मुक्ति के पथ है तथा आसुरी संपदा बंधन की राह है। दैवी प्रकृति के जगत शुभ कार्य करते है तथा स्वयं व समाज को सतपथ ले चलते है, इसे सदगति कहा गया है। जबकि आसुरी वृत्ति वाले कुपथ, ध्वंस, अधोगति की ओर ले जाकर स्वयं व समाज का अहित करते है। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते है कि तुम दैवी संपदा के धनी हो तुम निष्काम भाव अपने दायित्व का निवहन मुझे प्राप्त हो जाओ। 

यह अध्याय अच्छी एवं बुरी प्रवृत्ति के मनुष्य का चित्रण करता है तथा मनुष्य को ब्रह्म भावमय होकर निष्काम सतकर्म करने की शिक्षा देता है। वास्तव में इस अध्याय की समझ ही महाभारत की समझ है। आनन्द युग चाहत रखने वाले कभी भी संघर्ष अपने पृथक नहीं करते है। अविद्या ( आसुरी शक्ति) के विरुद्ध संघर्ष, जगत की सेवा ( दैविक शक्ति) तथा भूमाभाव की साधना ही एक साधक का जीवन व्रत है। इसलिए साधक कहता है कि आनन्द मार्ग अमर है । 
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