श्रीमद्भगवद्गीता के 15 वें अध्याय में श्रीकृष्ण उवाच के 20 श्लोक है । इसका नामकरण पुरुषोत्तम योग किया गया है । जिसमें प्रभु की महिमा उल्लेख है।
श्रीमद्भगवद्गीता के इस अध्याय की व्याख्या श्रीश्री आनन्दमूर्ति जी कृत आनन्द सूत्रम् के प्रथम अध्याय के चतुर्थ सूत्र परम शिव: पुरुषोत्तम विश्वस्य केन्द्रम को सामने रखकर करता हूँ। संपूर्ण विश्व का मूलाधार पुरुषोत्तम को समझाने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अधोमुखी वृक्ष की सहायता ली है। ऐसा वृक्ष जिसकी जड़ उपर तथा शाखाएँ निचे है। अर्थात सबकुछ एक से उत्पन्न होकर अनेक मत मतान्तर में बट गया है। सब अपने-अपने बौद्धिक सामर्थ्य के अनुसार परमतत्व को परिभाषित करते है। अत: यहाँ कहना चाहते है कि वह एक है, अनेक नहीं। साधक इन शाखाओं को वैराग्य रुपी औजार से काटकर निवृत्ति की राह में चलते हुए वृक्ष की मूल पुरूषोत्तम की ओर बढ़ता है। इस प्रकार मान सम्मान मोह माया को त्याग कर ब्रह्म भाव में मग्न होकर परमपद को प्राप्त करता है। परमपद का वर्णन करते श्रीकृष्ण कहते कि यहाँ सूर्य, चन्द्रमा एवं अग्नि के प्रकाश से भी परे आनन्द के प्रकाश का सागर है। यहाँ परमात्मा को सभी जीवात्माओं के सामूहिक रूप के रूप में परिभाषित किया है। यह जीवात्मा मन के द्वारा इन्द्रियों की सहायता कार्य निष्पादित करती है। मुर्ख मनुष्य माया के कारण आत्मा वास्तविक स्वरूप को नहीं देख पाते है। वस्तुतः आत्मा ही परमात्मा है। मैं ही सबको प्रकाशित करता हूँ श्रीकृष्ण का यह कथन उक्त विराट ज्ञान का प्रकाशन करता है। अपने मत को अधिक स्पष्ट करते प्रभु कहते है कि शरीर की सभी गतिविधियों का मैं ही संचालन करता हूँ। यहाँ क्षर शरीर एवं अक्षर आत्मा से परे जगत का नाभि केन्द्र पुरुषोत्तम अपने सूक्ष्म रुप के दर्शन देते है। परम पुरुष के इस रुप में विलिन होने वाला कभी लौटकर नहीं आता है।
पुरुषोत्तम के विराट ज्ञान का अध्ययन करने वाला मत मतान्तर की अवधारणा में नहीं उलझता है।
0 Comments: