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[श्री] आनन्द किरण "देव" की कलम से
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आनन्द मार्ग एक अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज का तथा प्रउत विश्व सरकार व समाज आंदोलन का नियंत्रण एवं नेतृत्व सद्विप्रों को देता है। इसलिए आज विषय लिया गया है। सद्विप्र क्यों?
सद्विप्र शब्द - सत व विप्र शब्द से मिलकर बना है। सत का सच्चा अथवा सत्य तथा विप्र अर्थ वेद पढ़ने एवं पढ़ाने व्यक्ति हैं। वेद का मूल अर्थ आत्मज्ञान होता है। जो ज्ञान मनुष्य के अपौरुषेय से प्राप्त होता है। उसे वेद में रखा जाता है। आत्मज्ञान की परिधि अपरा ज्ञान एवं परा ज्ञान दोनों में है।इसलिए आत्मज्ञान को भ्रम से मात्र आध्यात्मिक ज्ञान अथवा ब्रह्म ज्ञान ही नहीं समझा जाए।आत्मज्ञान में मनुष्य तथा उसके समाज के भौतिक, मानसिक एवं अध्यात्मिक प्रगति के आयाम निहित है। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि सद्विप्र शब्द का अर्थ सत्यनिष्ठ आत्मज्ञानी व्यष्टि है। दुनिया को आत्मज्ञानी ही नहीं सत्यनिष्ठ आत्मज्ञानी व्यष्टि की जरूरत है। इसलिए आनन्द मार्ग ने सद्विप्र बनाने की कार्यशाला आरंभ की है। एक सद्विप्र की सरलतम परिभाषा दी गई है - यम नियम एवं भूमाभाव में प्रतिष्ठित व्यष्टि, सद्विप्र है। अतः सद्विप्र की पढ़ाई, यम नियम की पालना तथा धर्म साधना करने से शुरू होती है तथा इसमें शतप्रतिशत प्रतिष्ठित होने में जाकर पुरी होती है। चूंकि आज हमारा विषय सद्विप्र कैसे नहीं है। इसलिए सद्विप्र कैसे बने पर अधिक चर्चा नहीं करेंगे। हम चर्चा सद्विप्र क्यों विषय पर ही करेंगे।
यह धरा मनुष्य के परिश्रम, लग्न एवं निष्ठा से किये गए कार्य से सुन्दर बनती है। इसमें जरा सी भी चूक हो जाए तो धरा सुन्दर तस्वीर बिगड़ जाती है। इसलिए मानव समाज को एक सद्विप्र समाज में तब्दील करने की आवश्यकता है। सद्विप्र समाज के लिए व्यष्टि का सद्विप्र बनना आवश्यक है। सद्विप्र एक सत्यनिष्ठ आत्मज्ञानी होता है इसलिए उसका ध्येय जग की सुन्दर, सुशील एवं सुव्यवस्थित तस्वीर को बनाये रखना। जब भी यह तस्वीर कई से बिगड़ने लगते हैं अथवा कोई बिगाड़ने की कोशिश अथवा चेष्टा भी करता है, तब सद्विप्र अपनी भृकुटि तान लेता है तथा सम्पूर्ण व्यवस्था को अपने हाथ में ले लेता है तथा किसी परिस्थितिय में जगत की सुन्दर तस्वीर बिगड़ने तथा बिगाड़ने नहीं देता है। इसलिए इस धरा पर सद्विप्रों की नितांत आवश्यकता है। जब जब भी यह धरा सद्विप्र शून्य अथवा सद्विप्र अल्प हुई है तब तब पाप एवं पापी ने पांव पछाड़े है। यद्यपि समय समय सद्विप्रों ने आकर पाप का नाश एवं पापी का उद्धार कर धरा को पूण्य से भरा दिया है, तथापि सद्विप्र निर्माण करने की सुव्यवस्थित विधा नहीं होने से पाप एवं पापी के हाथों पूण्यात्माओं ने बहुत कष्ट उठाये है। मानवता को पाप व पापी के साम्राज्य में दम घोटना नहीं पड़े इसलिए भगवान श्री श्री आनन्दमूर्ति जी विश्व इतिहास में प्रथम बार सद्विप्र बनाने की सुव्यवस्थित पद्धति प्रदान की है तथा आनन्द मार्ग द्वारा सद्विप्र निर्माण करने की कार्यशालाएं भी स्थापित की गई है।
सद्विप्र क्यों के प्रसंग में कई सूक्ष्म प्रश्न भी पैदा होते हैं। प्रश्न नंबर एक - क्या सद्विप्र विप्र का एक विशेषण है? उत्तर नहीं, न तो सद्विप्र विप्र का एक विशेषण है तथा न ही सद्विप्र विप्र की एक विशेषता है। सद्विप्र अपने आप में एक अलग विधा है, जो विप्र, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र गुणधर्म वाले सभी व्यष्टि परा एवं अपरा ज्ञान की ओर अग्रसर होकर, नीति में निपुण होकर तथा आध्यात्मिक नैतिकता को धारण कर सद्विप्र बन सकते है। सद्विप्र सम्पूर्ण मानव जाति की धरोहर है। चूंकि विप्र क्या है? हमारी विषय वस्तु नहीं है इसलिए उस विषय की ओर नहीं जाएंगे।
सद्विप्र क्यों की प्रयोगशाला में दूसरा प्रश्न सद्विप्र समाज में क्या कोई असद्विप्र भी होता है? नहीं यद्यपि सद्विप्र एक विशेष प्रकार व्यष्टि है तथापि सद्विप्र समाज में कोई असद्विप्र नहीं होता है। उसमें विप्र, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र नामक व्यष्टि के आर्थिक गुणों का आदर होता है साथ में सभी को सद्विप्र बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है। यह बात दूसरी है कि सभी सद्विप्र बन पाते हैं अथवा नहीं, लेकिन सद्विप्र समाज में कोई असद्विप्र नामक विकल्प नहीं है।
सद्विप्र क्यों के विषय के बीच एक तीसरा प्रश्न यह उठता है कि क्या सद्विप्र एक जातिसूचक अथवा जातिव्यवस्था समर्थक शब्द है? सद्विप्र समाज में जातिव्यवस्था नहीं होती है। सम्पूर्ण मनुष्य की एक ही जाति मानव जाति होती है। सद्विप्र समाज व्यवस्था में शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य नामकआर्थिक गुण एवं क्षमता युक्त शब्दावली है, जो कभी भी सामाजिक शब्दावली नहीं बनती है। समाज में कार्य विभाजन के लिए व्यक्ति आर्थिक क्षमता के अवलोकन के लिए इस प्रकार की शब्दावली की आवश्यकता है। इसलिए सद्विप्र समाज, इसको धारण करके चलता है।
इसी क्रम में चौथा प्रश्न प्रथम सद्विप्र कौन हुआ है? मानव इतिहास में पहले सद्विप्र भगवान सदाशिव हुए हैं तथा उनसे प्रभावित होकर अनगिनत सद्विप्रों ने इस धरा पर अपने धर्म का निवहन किया है। इतना ही नहीं इस धरा पर सर्वत्र सद्विप्र हुए है। इसलिए सद्विप्र शब्द संस्कृत भाषा का होने पर भी सम्पूर्ण मानव समाज के लिए समान मान्य है।
प्रश्न नंबर पांच क्या बिना कार्यशाला के सद्विप्र नहीं बनता? सद्विप्र आत्मतत्व की कार्यशाला में बनता है इसलिए भौतिक जगत की कार्यशाला के बिना भी संभव है, लेकिन सद्विप्र निर्माण की कार्यशाला रहने से एक विधिवत रुप से सद्विप्र निर्माण किया जाता है। यह व्यवस्था रहने से सद्विप्र निर्माण एक संयोग नहीं अपितु प्रक्रिया होती है। अतः सद्विप्र निर्माण की कार्यशाला आवश्यक है। सद्विप्र निर्माण की कार्यशाला एवं पाठशाला दोनों के होने से यह धरा कभी भी सद्विप्र विहीन नहीं होती है। इसके अभाव में धरा पर सुव्यवस्था के चलते सद्विप्र अवकाश धारण कर लेते है तथा एक पाप की आवाज सद्विप्र के कान तक नहीं पहुंचती है। जिससे धरा पर सज्जनों एवं आमजन को बहुत कष्ट उठाने पढ़ते हैं। जब तक सद्विप्र जगता हैं तब तक इस धरा पर साधुजनों बहुत सा रक्त बह चूका होता है। अतः सद्विप्र निर्माण की कार्यशाला एवं पाठशाला दोनों का होना नितांत आवश्यक है।
इस प्रकार हमने सूक्ष्म प्रश्नों का अवलोकन कर सद्विप्र क्यों को अधिक स्पष्ट किया। अतः उपसंहार के रूप में यह लिखकर विषय को समाप्त करता हूँ कि सद्विप्र विश्व धरा की आवश्यकता है तथा सद्विप्र आध्यात्मिक नैतिक व्यवस्था का आधार है। अतः सामाजिक आर्थिक दर्शन प्रउत कहता कि समाज चक्र के केन्द्र में सद्विप्र रहकर चक्र का नियंत्रण करता है। अब विषय बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि सद्विप्र क्यों नामक प्रश्न का उत्तर समाज चक्र के नियंत्रण के लिए सद्विप्र आवश्यक है।
आओ सद्विप्र बनते हैं तथा सद्विप्र बनाते हैं। अतः आनन्द मार्ग रुपी सद्विप्र निर्माण के विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर सद्विप्र बनते हैं।
ॐ मधु ॐ मधु ॐ मधु
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[श्री] "देव"
आनन्द किरण
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