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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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हमारी इस सृष्टि में सबसे सुंदर प्राणी मनुष्य है। शास्त्र में मनुष्य का अर्थ मन प्रधान प्राणी बताया गया है। मनुष्य का यही गुण उसे अन्य जीवों पृथक एवं श्रेष्ठ बताता है। इसलिए आज हम मानव जीवन को समझने के लिए निकले हैं।
मनुष्य एक पंचतंत्र से निर्मित एक ऐसा शरीर है, जिसमें मन तथा आत्म निवास करती है। हमारे शास्त्र बताते हैं कि आत्मा नामक एक स्वतंत्र, सम्प्रभु तथा सर्वज्ञ तत्व हैं। यह जब किसी व्यष्टि के साथ सयुंक्त होता है तब वह जीवात्मा के नाम से जाना जाता है तथा जब यह समष्टि के साथ संयुक्त होता है तब यह परमात्मा के नाम से अपना परिचय देता है। चूंकि आज हमारा विषय मानव जीवन है। इसलिए परमात्मा की ओर नहीं चलकर जीवात्मा की ओर ही चलेंगे। प्रत्येक मनुष्य एवं जीव एक जीवात्मा है। यह जीवात्मा भी परमात्मा की भांति शिवशक्तियात्मक है। अतः हम कह सकते हैं कि प्रत्येक जैविक अजैविक सत्ता में शिव शक्ति का निवास है। जीवात्मा का शिव तत्व चैतन्य एवं शक्ति तत्व उनका सामर्थ्य है। शिव की आज्ञा यह शक्ति अपने संसार का निर्माण करती है। जिसमें सर्वप्रथम मन का सर्जन होता है। यह मन तीन तत्व से एक निर्मित सत्ता है। जिसमें प्रथम महत्त है। इसको अस्तित्व बोध कहते हैं। इसके अंदर प्रथम अपने अस्तित्व का बोध होता है तथा वह अनुभव करता है कि मै हूँ। अतः सूक्ष्म विचार से कह सकते हैं कि मैं कौन हूँ प्रश्न का उत्तर महत्त है। पारिभाषिक शब्द में महत्त को बुद्धि तत्व भी कहा जाता है। प्रकृति अपने सतोगुण की सहायता से महत्त तत्व के निर्माण करने के बाद रजोगुण के सहयोग से मन के दूसरे अंग अहम् का निर्माण करती है। अहम् में मैं करता हूँ का बोध जग जाता है। इसलिए अहम् को कर्ता मन कहा जाता है। शास्त्र में इसे ही कर्म कर्ता एवं कर्मफल भोग करने वाला बताया गया है। तत्पश्चात प्रकृति तमोगुण के सहयोग से मन के तीसरे अंग चित्त का सृजन करती है। चित्त को विषय भाव कहा गया है। अंग्रेजी में इसे done I अथवा objective l कहा जाता है। इसलिए यही कर्म एवं कर्मफल ग्रहण करता है। कर्म के कारण चित्त में विकृति आती तथा फलभोग के माध्यम से वह पूर्व अवस्था में आता है। यह जीव का जीवन है। मनुष्य भी एक जीव होने के कारण प्रथम दृष्टि मनुष्य का जीवन भी इसे ही माना जाता है। लेकिन मनुष्य की स्वतंत्र मनन शक्ति उसे कर्म एवं कर्मफल तक ही सीमित नहीं रखती है। वह अपने मूल स्रोत की खोज में निकल जाता है। जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य अनुभव करता आत्म साक्षात्कार के बिना, वह अपूर्ण है। मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्त करने में अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। अर्थात कह सकते हैं कि चैतन्य में लय हो जाना मनुष्य जीवन का लक्ष्य है।
हमारा चित्त जो विषय है। उसका साम्राज्य बहुत बड़ा है। इसका प्रथम स्वरूप कारण मन है। जो विषय के सभी कर्तव्य सुप्त एवं असुप्त अवस्था में निवहन करता है तथा अणु जीवन की लम्बी यात्रा के सम्पूर्ण स्मृति को संचित रखती है। कारण मन हिरण्यमय, विज्ञानमय एवं अतिमानसमय नामक तीन कोषों का सयुंक्त नाम है। हिरण्यमय कोष सबसे सूक्ष्मत्तम कोष है। इसमें मनुष्य साधना करता है। विज्ञानमय कोष में सृष्टि का रहस्य छिपा होता है। वह उसे खोजने में सक्षम होता है। अतिमानसमय कोष में परामस्तिस्कीय स्मृतियाँ रहती है। जिसके साक्षात्कार से मनुष्य भूत, वर्तमान एवं भविष्य का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। इसके बाद सूक्ष्म मन का स्थान आता है। जिसे दार्शनिक भाषा मनोमय कोष कहते हैं। यह स्वप्न अवस्था में मन की क्रियाएँ है। सोते समय यह कुछ न कुछ सोचता रहता है, जिसके परिणामस्वरूप चित्त फलक पर एक चलचित्र बनता है, जिसे अहम देखता है। इसके बाद स्थूल मन का नंबर आता है। जिसे दार्शनिक भाषा में काममय कोष कहते हैं। यह जाग्रत अवस्था में मन की लगभग सब क्रियाएँ निष्पादित करता है। सूक्ष्म विचार से यही मनुष्य की जागतिक क्रियाएँ है। इस प्रकार चित्त विषय है, उसका विकाश स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण मन है।
करण अहम् की सहायता के लिए चित्त अन्त:करण तथा इन्द्रियाँ बाह्यकरण है। जैव शरीर में पांच कर्मेन्द्रियाँ तथा पांच ज्ञानेन्द्रियाँ है। कर्मेन्द्रियाँ अन्त: जगत की क्रिया बाह्य जगत में ले जाती है तथा ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य जगत की क्रिया को अन्त: लोक में ले जाती है। यह इन्द्रियाँ अपना काम शब्द, स्पर्श, रुप, रस एवं गंध तन्मात्राओं के माध्यम से करती है। उदाहरण के रूप में शाब्दिक अभिव्यक्ति को कान ज्ञानेन्द्रि एवं वाक कर्मेन्द्रि को सहयोग शब्द तन्मात्रा करती है। इसी प्रकार अन्य तन्मात्रा भी इसको अभिव्यक्ति करती है। यह तन्मात्रा आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी नामक पंच अणुभूत एवं महाभूत में रहती है। इसलिए जैविक अजैविक तथा जगत संगठन का पंचभूत से हुआ है। यह भूत चित्त पर तमोगुण के बढ़ते प्रभाव के कारण सृजित हुए हैं। इसलिए कह सकते हैं कि मन एवं पंचभूत का सृजन हुआ है। पंचभूत से निर्मित जीव के शरीर में कोशिश, उत्तक, अवयव, अंग एवं तंत्र का विकास है। जीवविज्ञान का विद्यार्थी इसका अध्ययन पाचनतंत्र, श्वसन तंत्र, रक्त परिसंचरण तंत्र, उत्सर्जन तंत्र तथा तंत्रिकातंत्र व ग्रंथियों उपग्रंथिओं के रुप करता है। हमारा आध्यात्मिक विज्ञान बताता है कि इन सभी तंत्रों का मूल तंत्र योग तंत्र है। जो सप्त चक्र का सामूहिक नाम है। यह मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा एवं सहस्त्रार चक्र है इसके अलावा दो सैद्धांतिक चक्र गुरु चक्र एवं ललना चक्र भी है। इसलिए भक्ति शास्त्र में नव चक्र की अभिव्यक्तियाँ बताई जाती है। मनुष्य के शरीर को दार्शनिक भाषा में अन्नमय कोष कहलाता है। समष्टि रुप से ब्रह्म मन ही सृष्टि है। जिसमें भू, भव:, स्व:, मह:, जन:, तप एवं सत्य लोक में समझाया जाता है। सत्य लोक महत्त एवं अहम मन, तपलोक हिरण्यमय कोष, जनलोक विज्ञानमय कोष, महलोक अतिमानसमय कोष, स्वलोक मनोमय तथा भवलोक व भूलोक काममय कोष है। जीव के शरीर तथा ब्रह्म के भूलोक को स्थूल देह, चित्त के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण मन तथा भव, स्व, मह, जन व तप लोक को सूक्ष्म देह तथा सत्य लोक यानि अहम व महत्त को कारण देह कहा जाता है।
तंत्र गुरु जो कि कुल गुरु भी है, बताते है कि जीव भाव कुल कुंडलिनी शक्ति मूलाधार में होती तथा शिव भाव सहस्त्रार चक्र में होता है। इन दोनों का मिलन ही मुक्ति मोक्ष है। यह सब कुछ मनुष्य जीवन है।
मनुष्य जीवन को समझने के लिए आध्यात्मिक एवं मानसिक जगत का सुव्यवस्थित ज्ञान प्राप्त किया। अब हम भौतिक जगत में प्रवेश करते हैं। साधना के लिए शरीर की आवश्यकता है। शरीर की रक्षा के लिए जगत में सबकुछ देखकर चलना होता है। इसलिए जगत को समझकर चलते हैं। सामाजिक आर्थिक क्रियाओं के सुसमांजस्य के सम सामाजिकता के सिद्धांत के आधार पर चलना होता है। आत्मसुख की भावना से चलने के कारण जगत को पूँजीवाद एवं साम्यवाद मिले, जिसमें मनुष्य का जीवन लुप्त हो रहा है। मनुष्य के जीवन की रक्षा के लिए गला घोंटने वाली अर्थव्यवस्था पूँजीवाद एवं साम्यवाद को सदैव के लिए तिलांजलि देनी होगी। मनुष्य जीवन की संजीवनी प्रउत अर्थव्यवस्था को भौतिक जगत में स्थापित करनी होगी। इसके लिए भेद मूलक व्यवस्था को हटाकर एक अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज की संरचना को स्थापित करनी होगी।
मानव जीवन व्यष्टि के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तथा समष्टि के भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास में निहित है। यही मानव जीवन का महात्म्य है।
🌻 मानव जीवन 🌻
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