---------------------------------------------
[श्री] आनन्द किरण "देव"
-------------------------------------------
रिपु का अर्थ शत्रु एवं पाश का बंधन इन दोनों के वशीभूत होना पतन है जबकि इनको अपने वश में रखना उत्थान है। मनुष्य को उत्थान एवं पतन के इस खेल को समझना होता है। यह साधना मार्ग में मददगार है। चर्याचर्य निर्देश देता है कि पाश एवं रिपु को अपने वश में लाना होगा, तुम उसके अधीन में नहीं रहोगे। इसके साथ चर्याचर्य यह भी बताता है कि जैवधर्म के अंग के रूप में जीवित मनुष्यों में पाश या रिपु रहेंगे ही। अर्थात यह शरीर विज्ञान का अंश है।
चलो इनको समझते हैं।
पाश
चर्याचर्य में बताया गया है कि यम-नियम में प्रतिष्ठित होने पर, मन से अष्टपाश हट जायेंगे। जिसमें पाश नहीं है, उसमें कुसंस्कार रह नहीं सकते हैं। चर्याचर्य के अनुसार अष्ट पाश हैं- घृणा, शंका, भय, लज्जा, युगुप्सा, कुल, शील और मान है।
(१) घृणा - चर्याचर्य में पहला पाश घृणा बताया गया। घृणा का शाब्दिक अर्थ नफरत लिया जाता है। किसी के प्रति मन में नकारात्मक भाव सबसे पहले उससे घृणा उत्पन्न करते हैं। हम उससे कारण अकारण कुछ अशुभ समझ बैठते हैं। यह मन को कुत्सित कर देता है। घृणा के कई कारण है। जिनमें संस्कारगत, परिवेशगत एवं स्वाभावगत कारण मुख्य है। किसी व्यक्ति के संस्कार दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलते हैं तो वह अकारण उससे घृणा कर बैठता है। परिवेशगत में जाति, रंग, नस्ल इत्यादि अकारक तत्व आ जाते हैं। जिसे मनुष्य अपने परिवेश से प्राप्त करता है। स्वभावगत कारण में कुछ मनुष्य का स्वभाव भी ऐसा हो जाता है कि उन्हें घृणित तत्व भा जाता है। घृणा को प्रेम से जय किया जा सकता है। इसमें अहिंसा व शौच अधिक मददगार है।
(२) शंका - किसी के प्रति शंक करना, शंका कहलाते हैं। यह भी कारण व अकारण जनित होती है। शंका को विश्वास के द्वारा जय किया जा सकता है। यह भी संस्कारगत, परिवेशगत एवं स्वभावगत कारण से जन्म ले सकती है। शंका को जन्म देने के लिए घृणा नामक तत्व का होना उत्तरदायी है। सत्य एवं संतोष शंका की निवृत्ति के लिए अधिक आवश्यक है।
(३) भय - डर का दूसरा नाम भय है। इसके लिए भी तीनों कारण उत्तरदायी हो सकते हैं। शंका भय नामक पाश को जन्म देती है। भय को वीरता के भाव से जीता जा सकता है। इसमें अस्तेय एवं तप अधिक मददगार है।
(४) लज्जा - शर्म का दूसरा नाम लज्जा है। यह अज्ञात भय का परिणाम है। इसके लिए भी तीनों कारण को उत्तरदायी माना जा सकता है। लज्जा को दिमाग के खुलेपन से जीता जा सकता है। ब्रह्मचर्य एवं स्वाध्याय लज्जा दूर करने में अधिक मदद करते है।
(५) युगुप्सा - पर निंदा एवं स्व: प्रशंसा का नाम युगुप्सा है। इसमें मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठ एंव दूसरे को निम्न दिखाने की चेष्टा करता दिखाई देता है। इसके लिए कही न कही सुप्त लज्जा नामक पाश उत्तरदायी है। इसमें अपरिग्रह एवं ईश्वर प्रणिधान की आवश्यकता है।
(६) कुल - जाति, परिवार एवं खानदान का अभिमान एवं हीनता बोध को कुल पाश नाम दिया गया है। यह युगुप्सा नाम पाश के कारण जन्म लेता है। इसे जीतने के लिए व्यापकता की आवश्यकता है। संकीर्णता के जाने यह मुक्त हो जाता है। इसके लिए ईश्वर प्रणिधान की गहनता एवं ब्रह्मचर्य की समझ अधिक विकसित करने से संभव है।
(७) शील - कुल नामक पाश के कारण शील का जन्म होता है, जो अपनों से भी अलग दिखने की चाहत को जन्म देता है तथा सामंजस्य बिठाने की वर्तनी को ही भूल जाता है। शील नामक पाश के रोगी अपने आप एकाकी रखने की चेष्टा करते हैं। इससे विजय के लिए स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है।
(८) मान - मान सम्मान की भूख एवं अपमान का आघात इस पाश की पहचान है। यह शील नामक पाश की देन है। इसके लिए समर्पण की आवश्यकता है। जो तप, ईश्वर प्रणिधान, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह के आता है।
यह आंतरिक शत्रु हैं, जो व्यक्तित्व निर्माण में बाधक है तथा साधक के लिए विष है। जिन्हें यम नियम की ताकत से वश में लाया जाता है। इसलिए साधना से पूर्व यम नियम की शिक्षा लेना जरुरी है।
रिपु
चर्याचर्य में बताया गया है कि प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान के द्वारा रिपु वश में आता है। चर्याचर्य में षड़रिपु - काम क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य बताये गए हैं।
(१) काम - चर्याचर्य ने काम को प्रथम रिपु बताया है। काम का अर्थ कामना अथवा भौतिक इच्छाएँ। कामना एवं भौतिक इच्छाएँ, जब उग्र हो जाती है। तब सामाजिक व वैधानिक मर्यादा को पार कर जाता है। इसलिए काम को सबसे अधिक विचलित करने वाला रिपु बताया गया है। काम के नियंत्रण के लिए अत्यधिक प्राणायाम पर बल देने की आवश्यकता है।
(२) क्रोध - अप्रकट काम क्रोध का जनक है। यदि किसी में क्रोध अधिक है तो समझना चाहिए कि उसके मन में सुप्त अवस्था में काम है। भौतिक एवं शारीरिक कामनाएँ क्रोध में तब्दील हो जाती है। क्रोधी सबसे अधिक अशांत होता है। इसके लिए धारणा पर अधिक बल देने की आवश्यकता है। यह शांत रहना सिखाती है। इसलिए मौन को कलह एवं क्रोध नाशक बताया गया है।
(३) लोभ - अप्रकट क्रोध के कारण लोभ का जनक है। जिसके मन में बहुत अधिक लोभ है तो समझना चाहिए कि क्रोध भी प्रकट व अप्रकट रुप से विद्यमान है। लोभ के हाथ से बचने के लिए प्रत्याहार पर अधिक बल देना चाहिए।
(४) मद - प्रकट व अप्रकट लोभ मद को जन्म देता है। मद का अर्थ अंहकार है। जब लोभ के शारीरिक बल, भौतिक बल, मानसिक बल एवं आध्यात्मिक बल मिल जाता है तो उसके मद में मदहोश हो जाता है। इससे बचने के लिए ध्यान का अभ्यास आवश्यक है। ध्येय को अपने से श्रेष्ठ मानने से मद कमजोर होता है।
(५) मोह - अंहकारी व्यक्ति अधिक मोह से पीड़ित होने लगता है। उसे भौतिक वस्तु, शारीरिक व सामाजिक संबधों में मोह दिखाई देने लगता है। इसलिए मद को मोह का जनक बताया गया है। मोह के हाथ से समर्पण ही बचा सकता है इसलिए अधिक से अधिक ध्यान में समर्पण करने की आवश्यकता है।
(६) मात्सर्य - मोह, दूसरों से ईर्ष्या व जलन को जन्म देता है। मात्सर्य उसी का नाम है। इस के हाथों से बचने के लिए ईष्ट प्रेम(भक्ति) की आवश्यकता है। ध्यान में अधिक से ईष्ट से प्रेम करना चाहिए, भक्ति के बल पर मात्सर्य छूमंतर हो जाता है।
रिपु बाहरी से आए आंतरिक शत्रु कहलाते हैं। यह पतन की ओर ले जाते हैं इसलिए रिपुदमन बनने की भी सलाह भी दे दी जाती है। लेकिन जैवधर्म के अंग के नाते जब तक जीवन है। यह रहते हैं।
🌻 पाश एवं रिपु 🌻
पाश बंधन: जीव पाशमुक्तो शिव, रिपुदमन शिव तथा रिपु अधिन जीव है।
0 Comments: