अर्थशास्त्र का विद्यार्थी हूँ इसलिए अर्थव्यवस्था पढ़ता हूँ तथा उस पर मनन करता हूँ। आज अचानक मेरा ध्यान गाँवों की ओर गया। मैंने सोचा कि जब लोकतंत्र नहीं था, तब गाँवों में आधुनिक पंचायती राज भी नहीं था। उस समय गाँव की व्यवस्था का संचालन कैसे होता था? चूंकि मैं राजस्थान का निवासी हूँ इसलिए उपरोक्त प्रश्न का उत्तर जानने के लिए मैं राजपूताना के गाँवों का अध्ययन करने निकल गया। लोकतंत्र के आगमन से पूर्व राजपूताना के गाँवो में तीन प्रकार की व्यवस्था मिली। उसका अध्ययन कर गाँव की एक सुन्दर अर्थव्यवस्था देखी।
(१) ठिकाणा गाँव - प्रथम प्रकार के गाँव ठिकाणा के गाँव कहलाते थे। इसमें एक ठाकुर होता था। शेष उनकी प्रजा होती थी। ऐसे गाँव सम्पूर्ण रुप से ठाकुर साहब की इच्छा पर चलता था। यद्यपि ठाकुर अपनी सलाहकार समिति रखता था लेकिन वह प्रभावशाली नहीं होती थी। ठाकुर जी के द्वारा बनाए गए नियमों से ही गाँव की व्यवस्था चलती थी। गाँव की नीति का निर्माण ठाकुर के निवास स्थान रावला से होता था।
(२) खालसा गाँव - दूसरे प्रकार के गाँव खालसा होते थे। यह ऐसे गाँव होते थे, जिसमें कोई ठाकुर नहीं होता था। यह लोग आपस मिलकर निर्णय लेते थे। यहाँ पर लगभग सभी निर्णय लेने में समानता थी, फिर प्रभावशाली जाति जनमत को अपने पक्ष में कर लेती थी। यहाँ राजा का प्रतिनिधि भोमिया, गाँव चौधरी आदि के नाम से जाना जाता था। यह किसी चौपाल अथवा प्रभावशाली व्यक्ति के घर जो पोल कहलाती थी जहाँ पर इकट्ठे होकर निर्णय करते थे।
(३) सामुहिक जागीरदारी के गाँव - तीसरे तथा विशेष प्रकार के गाँव सामुहिक जागीरदारी के गाँव होते थे। इसमें एक जाति विशेष की सामूहिक जागीरी होती थी। इसमें कोई ठाकुर नहीं होता था। सभी जागीरदार समान होते थे, यह अपनी सुविधा के लिए एक सभ्य व्यक्ति को पाटवी चुन लेते थे। पाटवी पद वंशानुगत नहीं योग्यता पर आधारित होता था। श इस श्रेणी में राजपुरोहित, ब्राह्मण, चारण, राव इत्यादि जातियों के जागीरदारी के गाँव आते थे। यह लोग सामूहिक स्थान पर एकत्रित होते थे। वह स्थान प्राय हथाई के नाम से जाना जाता था। हथाई से सर्वजन हितार्थ, सर्वजन सुखार्थ निर्णय होते थे।
उस युग में सरकार से कोई बजट नहीं आता था। अपने संसाधनों से सामुहिक कार्य, सामुदायिक कार्य एवं जनहित के कार्य करते थे। आज लोकतंत्र के युग में सरकारी सहायता मिलने के बाद भी गाँव सुन्दर नहीं बन पा रहे हैं। इसका कारण है कि सुन्दर पंचायतों का अभाव। गाँव सुन्दर बनाने के लिए एक बार फिर प्राचीन व्यवस्था पर गौर फरमाने जरूरत है।
गाँव को स्वावलम्बी बनाए, सुन्दर गाँव बनाए।
राजपूताना के यह गाँव शतप्रतिशत रोजगार के सूत्र पर स्थापित थे। यद्यपि इनकी राजनैतिक व्यवस्थाएँ अलग थी लेकिन अर्थव्यवस्था लगभग समान ही थी। इन गाँवों की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी।
(१) कृषि उद्योग - खेतिहर वर्ग कृषि उद्योग पर लगा होता था।उनके पास ही सभी न्यूनतम आवश्यक पूर्ण करने की जिम्मेदारी होती थी। यह आवश्यकतानुसार खाद्यान्न, नकदी एवं औषधि गुण वाली फसलें उगाते थे।
(२) कृषि सहायक उद्योग खेतीहर के सहयोग करने के लिए कृषि सहायक उद्योग सुथर एवं लौहार इत्यादि संचालन करते थे। सुथार हल एवं कृषि आधारित लकड़ी सामना तैयार करने के साथ घर के लिए भी लकड़ी का सामना तैयार करते थे। लौहार किसानों के लिए कृषि उपयोग लोहे के औजार तैयार करते थे। इस प्रकार भेड़ बकरी पालक खाद की आपूर्ति करते थे। उन दिनों इस श्रेणी के लोगों की भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति की जिम्मेदारी खेतीहर वर्ग पर ही होती थी।
(३) कृषि आधारित उद्योग - कृषि आधारित उद्योग में तेल, गुड़, कपड़ा मुख्य थे। तेल उद्योग घांची अथवा तेली सम्भालते थे, कपड़ा उद्योग बुनकर अथवा जुलाह श्रेणी के अधीन था एवं गुड़ उद्योग सीधा किसान द्वारा चलाया जाता था।इसमें भी कुछ पेशेवर श्रेणियाँ थी। मसाले सीधे घरों पर तैयार किये जाते थे। सुखे तथा आपात परिस्थिति के लिए हरि सब्जी को सुखाकर एक तकनीकी से रखा जाता था। इसके आलावा कुछ सुखी सब्जियों भी तैयार की जाती थी। यह सभी घर घर के उद्योग थे। आचार मुरब्बा इत्यादि घरों के ही उद्योग थे।
(४) अन्य उद्योग - इसके अलावा जूता उद्योग, मृणशिल्प उद्योग(कुम्हार) तथा स्वर्ण उद्योग सुनार, मणका उद्योग मणिहारा, लखारे नामक श्रेणी चुड़ियों का उद्योग चलाते हैं।
गाँव से उपर -
गाँव की सुन्दर व्यवस्था के संचालन के लिए कुछ गाँवों का समूह बनाया जाता था। जिसे पट्टी, चौथाला तथा परगना कहा जाता था। जो उद्योग एक गाँव द्वारा नहीं चलाये जाने वाले उद्योग यह समूह संभालता था। इसके उपर एक सार्वजनिक व्यवस्था होती थी। जिसे जनपद, गणराज्य अथवा राज्य कहते थे।
आओ मिलकर पुनः गाँवों की समृद्धि के लिए एक आदर्श पंचायत व्यवस्था की स्थापना करते हैं। सम्पूर्ण विकास के ब्लॉक लेवल प्लानिंग को समझते हैं।
रिपोर्ट - करण सिंह शिवतलाव
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