भजन - कीर्तन ( Bhajan - Ki'r'tan)

 भगवान साथ एकाकार होने के लिए जिस विधा की मदद ली जाती है। उसे भक्ति कहा जाता है। यहाँ भगवान एवं भक्त नामक दो सत्ताएँ एक होने के लिए आतुर रहती है। भक्ति जगत को भजन कीर्तन एवं प्रेम से समझा जाता है।

            भजन
ईश्वर के नाम, गुण एवं कृपा को शब्दों में पिरोकर संगीतमय गान करने को भजन कहा जाता है। भजन में भक्त अपने प्रियतम के रुप, रंग, अदा तथा महानता को एक शब्दमाला अर्पित करता है। जिसे संगीत शास्त्र को समर्पित करता है। अतः भजन को संगीत भी कहा जाता है। यद्यपि संगीत में भगवान को लक्ष्य न मानकर गाए गए गीत भी लिए जाते हैं। लेकिन यह संगीत शास्त्र का सही व्याख्या नहीं है। संगीत संगत की अभिव्यक्ति है। संगत ईश्वर का नाम लेने वाली गोष्ठी को कहते हैं। इसलिए संगीत की सही व्याख्या गीत शास्त्र का ईश्वरमय स्वरूप संगीत है। अतः संगीत एवं भजन एक ही है। संगीत की आत्मा भजन है। संगीत जो भजन है को समझने के लिए निकलते हैं। 

(१) लौकिक भजन - संगीत अथवा भजन की वह शाखा जिसमें भक्त आहत, दुविधा, मांग, आशा निराशा, सुखदुख इत्यादि भावों की गठरी है। इसमें ईश्वर से प्रेम कम अपनी अभिलाषा अधिक है। इसलिए उत्तम श्रेणी भक्त उन्हें भजन नहीं मानते हैं। निराशा तथा दुख का चित्रण कितना भी मार्मिक होने पर भी आनन्ददायी नहीं होता है। इसलिए वे भजन के मूल भाव से मेल नहीं खाते है। अतः आनन्द संगीत की विधा का अविष्कार हुआ। 

(२) आनन्द संगीत - भजन एवं संगीत की वह शाखा जिसमें भक्त के आनन्द में वृद्धि होती है। यहाँ भगवान के प्रति प्रेम भी रहता है तथा भक्त उसे स्मरण कर करके आनन्द की वर्षा में भीगता रहता है। भक्त की इस अनोखी दशा को सभी स्मरण करते तथा आनन्द संगीत एक परंपरा में आ जाते हैं। आनन्द संगीत में बहुत अधिक ईश्वरीय प्रेम होने पर भी हर मन का द्वार नहीं खोल सका इसलिए संगीत शास्त्र की नूतन शाखा प्रभात संगीत का अविष्कार हुआ। 

(३) प्रभात संगीत - प्रभात संगीत इसलिए प्रभात संगीत नहीं है कि इसकी रचना प्रभात रंजन सरकार ने की थी अपितु इसलिए प्रभात संगीत इसलिए है कि इसमें प्रभात संगीत के सभी गुण विद्यमान है। जो आध्यात्मिक मर्म आनन्द संगीत नहीं पकड़ पाए वो प्रभात संगीत ने पकड़ लिया हैं। प्रभात संगीत रू की आवाज बनकर निकलने वाली ध्वनि है। रूहानी मोहब्बत का एक बेहतरीन चित्रण है। आनन्द संगीत साधक को प्रभु ले चलते हैं जबकि प्रभात संगीत में रूहानी यात्रा का रसद एवं बृहद के आकर्षण का भी समावेश है। प्रभात संगीत शब्द का अर्थ वे संगीत जो साधक के मन में नूतन चेतना एवं उषाकाल की अलौकिकता सदा बनाकर रखने वाली विधा है। बंधु ऐ नये चलो से गुरुकुल तक के सुरो में सदैव नवीनता मिलती रहती है अथवा अलौकिक आनन्द की नदी अविरल बहती रहती है। प्रभात संगीत को साधक अंतरआत्मा की पुकार के रूप में सुना जाता है। जहाँ परमात्मा की साक्षात उपस्थित की अनुभूति होती है। 

            कीर्तन

भजन के बाद कीर्तन एक विधा है, जिसमें प्रभु के नाम का स्मरण है। भावमय तथा भावातीत कीर्तन के दोनों स्वरूप विद्यमान होते हैं। भावमय कीर्तन में संगीत शास्त्र का समावेश होता है तथा भावातीत कीर्तन में संगीत शास्त्र की मर्यादाओं से उपर उठ जाता है। कीर्तन शब्द का प्रभु का यशोगान होता है। लेकिन अक्सर भजन में यह भावार्थ समावेश होता है। कीर्तन में प्रियतम को समर्पण होता है। तन, मन तथा आत्मा समर्पित की जाती है। कीर्तन में एक नाम की आवर्ती होती है। उसे मनो मस्तिष्क व दिल की गहराइयों में भर दिया जाता है। उसके अलाव यह जगह किसी के लिए नहीं होती है। दिल की धड़कन एवं श्वासों की सरगम इसकी बनकर रह जाती है। कीर्तन में प्रभु के प्रेम बावरापन भी देखा जाता है। लोकलाज, मान मर्यादा एवं चिंताएँ प्रभु के समक्ष नगण्य हो जाती है। यहाँ भक्त ओर भगवान में दूरी नजर नहीं आती है। कीर्तन में जो‌ नाम मिलता है, वह मंत्र की ताकत, ध्यान सी एकाग्रचित्तता, धारणा सी विश्वनीयता एवं समाधि सी अवस्था का समावेश है। इसलिए कीर्तन के नाम को महामंत्र की श्रेणी में रखा जाता है। आठ अक्षरों का कीर्तन स्वर सुर का सागर लेकर आता है। भव सागर को पार उतार लेता है। प्रभु नाम की इस विधा को गाते मस्त होते फकीरी में जिते हुए माया की फांसी,भव सागर, वैतरणी, भँवर गुफा, सुन्नलोक की एकांता, रूहानी मजलिस एवं परम आनन्द तक प्राप्ति की यात्रा पूर्ण कर लेता है। 

         प्रेम समर्पण
भजन कीर्तन के बाद भी यदि भक्ति में कोई शेष रह जाता है तो उसे प्रेम एवं समर्पण से भर दिया जाता है। यहाँ शाब्दिक अभिव्यक्ति, यशोगान एवं वाणी थक जाती है। वहाँ हृदय यह विधा अपना काम आरंभ कर देती है। यद्यपि यह कोई अलग विधा नहीं है तथापि इसकी ताकत है। प्रेम वर्णन करने गई नमक की गुड़िया सागर में ही समा गई। इसलिए प्रेम के सागर में डुबा भक्त कहता है हरियश लिखा नहीं जाए जो कोई लिखसी संत सुरमा नूर में नूर समाई। यदि कोई भक्त सुरमा बनकर ऐसी कोशिश करता है तो उसी में समा जाता है। मोक्ष एवं मुक्त है लेकिन कैसे है, इसका उत्तर आनन्द की अवस्था। आनन्द की अवस्था कैसी होती है। यह आनन्द तथा आनन्द में समावेश होने वाले ही जानते हैं।
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श्री आनन्द किरण "देव"
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