शुद्धियाँ (Shudhiyan)

 
शुद्धि शब्द का शाब्दिक अर्थ शुद्धता है। शुद्धता का मतलब किसी सत्ता का मूल रूप है। शुद्धि वह क्रिया है, जिससे मन को मूल स्वरूप में स्थापित किया जाता है। अणु मन के निर्माण से मुक्ति की आकांक्षा जगने तक की यात्रा में अणु मन पर मलिनता का आवरण आ गया है। उस आवरण को हटाकर उसमें से अणु मन का मूल स्वरूप निखारना शुद्धि क्रिया है। शुद्धि की यह सम्पूर्ण संक्रियाओं मोटे रुप तीन वर्गों में विभाजित किया गया है। प्रथम आवरण का नाम जड़ता है। इसमें मन रसपस ने के कारण विषय में अनुरक्त हो गया है। इसे भौतिकवादी,पदार्थवादी आर्थिक अंधता इत्यादि में रत हो जाता है। इन विषय से मन को हटाना अथवा विषय के आवरण को हटाना भूत शुद्धि कहलाती है। द्वितीय आवरण अचेतनता है। जिसे आज्ञानता अथवा अंधकार भी कहते हैं।इसमें रत मन भाग्यवादी, नियतिवादी एवं अंधविश्वासी हो जाता है। अंधकार की दुनिया से मन को उजाले ले जाने से अचेतना, अज्ञानता एवं अंधकार का आवरण अदृश्य हो जाता है। इस क्रिया को आसान शुद्धि कहा जाता है। तृतीय विभाजन का अवचेतनता कहा जाता है। यह भावजड़ता, आडंबरी, पाखंडी तथा बनावटी होता है। अवचेतनता को स्वगत अथवा अपूर्णता कह सकते हैं। इसमें रत मन अधजल गगरी चलकत जाए जैसा होता है। जानता कुछ नहीं लेकिन महाज्ञानी मानता है। अपूर्णता के आवरण को हटाने वाली क्रिया चित्त शुद्धि कहलाती है।

             भूत शुद्धि 
 भूत का अर्थ पंचतत्व है। मन को पंचतत्व के आवरण से मुक्त करने की कला को भूत शुद्धि कहते हैं। इसमें कोई मंत्र अथवा शुद्धिकरण का कर्मकांड एक आडंबर है। चूंकि शुद्धि एक क्रिया है इसलिए उसे कर्म की संपदा बताया गया है। अतः कुछ मानसिक क्रिया करके ही मन को भूतों से मुक्त किया जाता है। अतः एक सुव्यवस्थित क्रिया को छोड़कर भूत शुद्धि का अन्य उपाय आध्यात्मिक जगत की संपदा नहीं है। अतः प्रमाणित हो जाता है कि भूत शुद्धि एक सुव्यवस्थित वैज्ञानिक क्रिया है। उस क्रिया से ही मन जड़ता से मुक्त होता है। 

             आसन शुद्धि 

भूत शुद्धि की भांति यह भी एक क्रिया है इसलिए पानी छिड़क कर मंत्रोच्चारण कर आसन को शुद्ध करना आसन शुद्धि नहीं है। आसन शब्द का अर्थ बैठने का स्थान। मन कहा बैठेगा यह तय करने की क्रिया आसन शुद्धि है। भूत शुद्धि के माध्यम मन भौतिक परिवेश मुक्त होकर एक महा अंधकार में आ जाता है। यद्यपि यह महाशून्य अनन्त है तथापि अपूर्णता उसे महाशून्य कहती है। भूत शुद्धि ने मन को दिशाहीन कर दिया है, आसन शुद्धि उस दिशा देकर उसे उपयुक्त आसन देता है। इस यात्रा में उसे विभिन्न आसन दिखाए जाते हैं। मन को आसन देने की सुव्यवस्थित वैज्ञानिक क्रिया को आसन शुद्धि कहते हैं। 

              चित्त शुद्धि 

अवचेतना को चैतन्य में प्रतिष्ठित करने की कला को चित्त शुद्धि कहते हैं। आसन शुद्धि से आसन तो मिल जाता है लेकिन मन की सम्पूर्ण मलिनता दूर नहीं होती है। इस अपूर्णता को पूर्णता का दर्शन कराने की सुव्यवस्थित वैज्ञानिक क्रिया को चित्त शुद्धि नाम दिया गया है। इसलिए इसके लिए भी कर्मकांड एवं पाखंड नहीं करना चाहिए। इससे चित्त की शुद्धि संभव भी नहीं है। चित्त की शुद्धि भावना से होती है‌। इसलिए भावलोक मन को ले जाना ही चित्त शुद्धि है। भावातीत बनाना साधना का क्षेत्राधिकार है। 

भूत शुद्धि, आसन शुद्धि एवं चित्त शुद्धि ईश्वर प्रणिधान, प्राणायाम एवं ध्यान अभ्यास को सिखाई जाती है। इसमें इनकी आवश्यकता होती है। मधुविद्या, तत्व धारणा एवं चक्र शोधन में इनकी आवश्यकता नहीं है। इसलिए इन्हें शुद्धियों से मुक्त रखा जाता है। मधुविद्या स्वयं एक शुद्धि है। तत्व धारणा तथा चक्र शोधन भी एक शुद्धि है। यद्यपि ईश्वर प्रणिधान, प्राणायाम व ध्यान भी शुद्धि है लेकिन इसमें भूत शुद्धि, आसन शुद्धि तथा चित्त शुद्धि की आवश्यकता होती है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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1 टिप्पणी:

  1. Anandam....दादा आनंद देव जी को बहुत-बहुत धन्यवाद के साथ आनंदमय शुभकामनाएं... इसीतरह बाबा रसधारा से हम लोगों को भी आनंदरस का पान कराते रहें...

    सादर
    डॉ. Indramani Tiwari भोपाल



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