🏹 शिव धनुष 🏹
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श्री आनन्द किरण "देव"
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"शिव का धनुष जो तोड़ता है - युग उसे भगवान कहता है।" भारतीय समाज में यह अप्रकट सिद्धांत विद्यमान है। कथाओं के अनुसार श्री राम ने सीता स्वयंवर के अवसर पर तथा श्रीकृष्ण ने कंस की रंगशाला में शिव धनुष तोड़े थे तथा भारतीय समाज में दोनों ही भगवान कहलाए थे। इसलिए आज विषय शिव धनुष लिया गया है। यह पता लगाने के लिए कि शिव धनुष को क्यों तोड़ा जाता है अथवा क्यों टुट जाता है? यह कार्य करने वाले भगवान ही क्यों होते हैं?
भगवान सदाशिव ने इस धरा को बहुत अधिक प्रभावित किया था। जन जन उन्हें अपना भगवान, तारणहार एवं प्रियतम मानते थे। एकोह्म शिव समाज की रग रग में प्रतिष्ठित हो गए थे। समाज दूसरे किसी को भी शिव के बराबर मानने को तैयार नहीं था। यह इस धरा की एकेश्वरवाद मजबूत दीवार थी। जिसे तोड़े बिना समाज में अवतारवाद को प्रतिष्ठित नहीं किया जा सकता था। स्मृतिकारों का मानना था जब तक नूतन महानायक की प्रतिष्ठा नहीं होती तब समाज को युग के साथ प्रचलित रूढ़ मान्यताओं के शोषण से मुक्त नहीं कराया जा सकता है। 'शिव धनुष' एक महानायक को समाज में प्रतिष्ठित करने के लिए प्रतीकात्मक प्रचलित की गई धारणा का नाम है। संभवतया कथाओं ने राम व श्रीकृष्ण के हाथों तुड़वाए गए धनुषों को शिव धनुष बताया। जो शिव का धनुष तोड़ देता है, वही उस युग का भगवान है। जिससे जनता ने उनके सिद्धांत एवं नियमों को भगवान शिव के कायदे मानकर अपनाए। शिव धनुष की अभिकल्पना के द्वारा जनमानस के मन मन में अवतारवाद को स्थापित किया गया था।
दुखी, त्रास एवं त्राहिमाम जन मन को सदाशिव ने अपनी शक्ति, व्यवहार एवं नीति के बल पर आनन्द मार्ग दिखलाया था। इसलिए वे सदाशिव के इस कार्य को भूल नहीं सकते थे। सदाशिव शिव के इस भूलोक से जाने के युगों युगों बाद तक जब जब भी जन सामान्य को दुख के हाथ से त्राण पाने का रास्ता नहीं मिलता था तब वह शिव की आश में रहते थे। उनमें यह मान्यता कुट कुटकर भर गई थी। शिव ही हमारे मसिहा है। वे ही हमारा परित्राण करेंगे। जब कोई नायक इस कार्य को करने बीड़ा उठाता था, जनता उसे शिव का दूत मानती थी। इस प्रकार समाज में उनके मान्यताएँ प्रचलित हो गई। समाज के स्मृतिकारों मन में समाज में आमूलचूल परिवर्तन की चाहत होती थी। जो इन नायकों के बल पर संभव नहीं था। इसलिए महानायक की अभिकल्पना आवश्यक थी। जनता नायकों को सोमेश्वर, मंडलेश्वर, ध्यानेश्वर इत्यादि के रुप प्रतिष्ठित तो कर देती थी लेकिन पूर्ण शिव मानने को कदापि तैयार नहीं थी। इसलिए महानायक के समक्ष एक दुर्गम प्रतियोगिता रखनी आवश्यक थी। जो असंभव को संभव बना देगा वही भगवान कहलाएगा। शिव धनुष एक ऐसा प्रतीक चिह्न था, उसे अलौकिक शक्ति संपन्न व्यक्तित्व ही उठा सकता था। उठाना परीक्षा का पहला परीक्षण था, उसमें एकाधिक सफल होने पर दूसरा चरण उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने का होता था तथा अंतिम चरण शिव धनुष को तोड़ना तो भगवान ही पार कर सकते थे। स्मृतिकारों की यह उक्ति अवतारवाद को प्रतिष्ठित करने में कारगर सिद्ध हो गई तथा उन्होंने शिव के बाद पहली बार रामायण के महानायक राम को समाज में भगवान के रूप में जनमनास के मनो मस्तिष्क में स्थापित कर दिया गया तथा राम पर आधारित नव समाज का गठन हुआ। जिसमें शिव का सम्मान यथावत रखते हुए राम को पृथ्वी के दूसरे भगवान के रूप में स्वीकार कर दिया। अवतारवाद अथवा मसिहा के आगमन की धारणा केवल भारतीय समाज में ही नहीं थी अपितु संपूर्ण विश्व में मसिहा के आने की इंतजार था। यहुदी समाज में ऐसे प्रचलन के प्रमाण मिलते है।आज भी है धरती पर कई कई इस प्रकार धारणा विद्यमान है। हजरत मुहम्मद ने इस प्रकार की धारणा को निस्ताबूज करने के लिए अपने को अंतिम पैगम्बर तथा कुरान ए शरीफ को अंतिम किताब बताया था।
भारतीय कथाओं में राम द्वारा शिव धनुष तोड़ने पर परशुराम के क्रोधित होने का प्रसंग लिखा गया है। जिसमें परशुराम को शिव का सबसे बड़ा नायक परशुराम महादेव के रुप में दर्शाया गया। वह शिवधनुष तोड़ने वाले को मृत्यु दंड देने के आतुर है। राम की प्रभुता के समक्ष वे अपनी सर्वोच्चता का त्याग करते हैं। यह प्रसंग नायक एवं महानायक को चित्रित करने के उदाहरण के रूप में देखा जाता है। यद्यपि कालांतर वैष्णव मत ने परशुराम, राम एवं बलराम तीनों को विष्णु के अवतारवाद में स्थान दिया है।
श्रीकृष्ण के प्रभाव ने दुनिया को शिव के बाद दूसरी महासंभूति के दर्शन कराए। राम के लिए महासंभूति शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, यह शब्द शिव एवं कृष्ण के लिए ही आया है। श्रीकृष्ण के रुप में जनमानस ने युगों युगों के बाद शिव के दर्शन किये थे। श्रीकृष्ण ने साधुओं का परित्राणा एवं दुष्टों का विनाश कर धर्म की संस्थापना की थी। इसलिए उन्हें युग ने नमन किया। जैन मत के चौबीस तीर्थंकर ने वैष्णवीय मत में विष्णु के चौबीस अवतार को लिखाया। लेकिन समाज में विष्णु के दस अवतार ही अधिक प्रकाशित हुए। शैव परंपरा ने भी शिव अनेक रुप स्थापित करने का प्रयास किया था। लेकिन कोई भी रुप शिव के समक्ष टिक नहीं पाया एवं सम्पूर्णत्व अर्जित नहीं कर पाया। विष्णु के अवतारवाद का प्रथम क्रम पांच अवतारों को पशु से मनुष्यत्व यात्रा को चित्रित किया - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह एवं बामन है। उसके बाद मनुष्य को देवत्व अर्थात राम में प्रतिष्ठित करने की यात्रा का वर्तांत है। परशुराम, राम एवं बलराम। उसके बाद की अभिकल्पना कलयुग के अवसाद के लिए लाई गई थी जिसमें बुद्ध को नवयुग का प्रथमदूत तथा कल्कि अवतार को त्रारणहार के रूप में बिठाया गया है। अवतार की यात्रा कल्कि अवतार में जाकर संभवतया खत्म हो जाती है। अवतारवाद के शिल्पकार की साधना में बलराम के स्थान पर श्रीकृष्ण को बैठाकर बाद के व्याख्याकार ने सेंधमारी की थी।
चूंकि शिव धनुष की अभिकल्पना अवतारवाद को प्रतिष्ठित करने के लिए आई थी। इसलिए अवतारवाद पर दृष्टिपात किया गया। आधुनिक युग पुरातन एवं नूतन मान्यताओं के बीच रस्साकशी कल रह है। विज्ञान एवं तर्क में आगे बढ़ने के कारण मनुष्य अब अंधानुकरण नहीं करता है। उसे विवेक, युक्ति, प्रदर्शन एवं प्रमाण के आधार पर समझाना पड़ता है। वह कल्पना, धारणा एवं सिद्धांत में अंतर करना जानता है। आज ईश्वरीय वाक्य को बिना अनुसंधान के मानने को तैयार नहीं है। इसलिए शिव धनुष का स्वरूप बदल गया है। शिव धनुष का स्थान महापुरुषों के कार्य एवं उपदेश ने ले लिया है। वही मनुष्य शिव धनुष उठा लेता है ओर उसे सार्वजनिक मंच पर व्याख्यानमाला के रूप में तोड़ देता है। विवाद इस बात को लेकर है कि मनुष्य महापुरुषों को अपने अपने दृष्टिकोण से देखता है। महापुरुष बनने के लिए व्यक्ति के विचारों सभी संकीर्णता उपर उठना होता है। जहाँ मेरा पराया तु तु मैं मैं का विवाद है। वहाँ महापुरुष पदचाप नहीं पड़ते हैं। महापुरुष के पदचिन्ह महानता के दर्पण में दिखाई देते हैं। महापुरुषों की भीड़ में परमपुरुष को खोजना मुश्किल है। इसलिए एक शिव धनुष ऐसा होना चाहिए जो परमपुरुष को खोज ले। वह है - दर्शन, आदर्श एवं व्यवहार में समग्रता है। जिस महापुरुष के विचारों में सर्वांगीणता का निवास हो। उनमें ही परमपुरुष को खोजना चाहिए। जहाँ महापुरुष के विचारों में एकाकीपन एवं दोष है। वहाँ परमपद नहीं है।
यही शिव धनुष है की अभिकल्पना का सारांश है।
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