भारतीय राजनीति के चर्चित शब्द बनाम भारतवर्ष के आदर्श सूत्र


भारतीय लोकतंत्र में राजनैतिक पार्टियां बनती एवं बिगड़ती है। राजनैतिक पार्टियों के बनने एवं बिगड़ने के क्रम में कुछ शब्द भारत के राजनैतिक रंगमंच पर छूट जाते है। आज उन्ही शब्दों को भारतवर्ष के आदर्श के समक्ष खड़ा करके देखते हैं कि यह शब्द भारतवर्ष के आदर्श के साथ न्याय करते है अथवा नहीं? 

भारतवर्ष के आदर्श सूत्र - वसुधैव कुटुबंकम्, विश्वबंधुत्व, सर्व भवन्तु सुखिनः, संगच्ध्वम्, सर्वजन हितार्थ व सर्वजन सुखार्थ जीवन, नव्य मानवतावादी चिन्तन, आनन्दमयी जीवन शैली एवं प्रगतिशील उपयोग तत्व मूलक अर्थव्यवस्था है। इन आदर्श सूत्रों ने भारत को सारे जहां से अच्छा बनाया है। 

भारतीय राजनीति से निकलने वाले बहु चर्चित मुख्य शब्द - अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, साम्यवाद, समतामूलक समाज, समाजवाद, दलित एवं दमित, अगड़ा-पिछड़ा, बहुजन, राष्ट्रवाद धर्मनिरपेक्षता, हिन्दूराष्ट्र, समान आचार संहिता, जाति गणना, कौमी एकता एवं आम आदमी - वी.आई.पी कल्चर इत्यादि है। यह शब्द यदि भारतवर्ष के महान आदर्श पर चार चांद लगाते हैं तो निस्संदेह हम राष्ट्र निर्माण की ओर आगे बढ़ रहे, अन्यथा फिर सोचने की आवश्यकता है। 

विषय के साथ न्याय करने के लिए एक एक शब्द का भारतवर्ष के महान आदर्श से साक्षात्कार करवाकर मूल्यांकन करते है। 

(१) अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक - नीति कहती है कि बहुसंख्यक अल्पसंख्यक का शोषण कर अपना ग्रास बना देती है, इसलिए अल्पसंख्यक को बहुसंख्यक के जबड़ों में जाने से रोकना राष्ट्र का धर्म है। भारतीय आदर्श कहता है कि एक चौका, एक चूल्हा; एक है, मानव समाज। यहाँ पर अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक की अवधारणा का कोई स्थान नहीं है। इसलिए भारतीय राजनीति के इन शब्दों को भारतवर्ष के आदर्श के अनुकूल अथवा भारतवर्ष के आदर्श पर चार चांद लगाने वाला नहीं कह सकते है। अब प्रश्न उठता है कि भारतीय समाज में यह दृश्य दिखाई दे रहा उससे भारत की सत्ता आँख मिचौली नहीं खेल सकती है। अत: यह शब्द निर्मित होना अस्वाभाविक नहीं है? निसंदेह भारतवर्ष के वर्तमान समाज में उक्त परिवेश का दृश्य है। यह दृश्य भारतवर्ष के महान आदर्श पर लगने वाला ग्रहण है, जिसे शीघ्रातिशीघ्र ही हटना ही होगा। भारतीय राजनीति के उक्त दृश्य को मिटाने के लिए उक्त शब्द कभी भी कारगर हथियार नहीं है। इन शब्दों की बुनियाद पर कही न कहीं हम इस दृश्य को आबाद रखना चाहते है। लेकिन भारतवर्ष के आदर्श इन्हें मिटाने की मांग करते है। अत: यह शब्दावली ही असंगत है। इसका मिटाने का एक ही साधन है - एक मानव समाज का निर्माण। इस शब्द को भारत की राजनीति एवं लोकतंत्र में मजबूत से स्थापित करना है। जो लोग सस्ती लोकप्रियता में विश्वास रखते है उन्हें प्रथम एवं अंतिम दृश्य में भी यह असंभव नजर आएगा। लेकिन जो लोग लोकप्रियता के स्थान पर सर्वजन सुखार्थ, सर्वजन हितार्थ जीने वाले उन्हें यह क्रांतिकारी कार्य करने में गर्व महसूस होगा। मानव समाज को एक बनाना राष्ट्र का धर्म न कि अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक को आबाद रखना। 

(२) अगड़ा-पिछड़ा तथा दलित व दमित - भारतवर्ष की महान संस्कृति के आंचल पर लगी कलंक का जिम्मेदार कौन है को खोदने व खुरचने से यह कालिख नहीं पोती जा सकती है। यदि अस्पृश्यता एवं धृणा के दृश्य निजात चाहते है तो एक अखंड तथा अविभाज्य मानव समाज के निर्माण पर काम के अतिरिक्त कोई साधन नहीं है। आरक्षण कभी भी इसका समाधान नहीं है। यद्यपि कुत्सित व्यवस्था के धाराशायी होने पर आरक्षण आर्थिक सूत्र एक क्षणिक सूत्र के रुप अपनाया जा है लेकिन जातिगत आरक्षण व्यवस्था कभी अगड़ा-पिछड़ा तथा दमित व दलितोद्धार का कदम नहीं हो सकता है। दलितोद्धार की सच्ची जंग सभी मानवों को सदविप्र व्यवस्था में स्थापित करना। जहाँ सभी को सदविप्र बनने के अवसर प्रदान है। इसके अतिरिक्त कोई व्यवस्था दलित, दमित व पिछड़े की हितैषी नहीं है।

(३) बहुजन समाज - भारतीय आदर्श से भ्रमित विद्वानों ने बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय नामक अयुक्तिकर शब्द भारतीय दर्शन में स्थापित करने की कुचेष्टा की थी जिसके कारण भारत का समाज बटता ही गया और सत्ता एवं ताकत के सामने झुकता गया, जिसका परिणाम स्वरूप भारतवर्ष को जातिवाद का जहर मिला। जिसमें शक्ति संपन्न छंद लोग शक्तिहीनों पर अपने लाठी का प्रहार करते गए। लोकतंत्र के खुले आसमान में सबको शक्तिशाली बनने का अवसर मिला है। अत: बहुजन नहीं सर्वजन के आधार पर मानव समाज को खड़ा करने की आवश्यकता है। इसलिए यहाँ बहुजन की अवधारणा की कोई आवश्यकता नहीं है, यह सोच भारतवर्ष के महान आदर्शों के विपरीत चल रही है। यही चलता रहा तो समाज बनेगा नहीं टुटेगा, इसलिए इस सोच को सर्वजन सोच बदलना ही भारतवर्ष के आदर्श के साथ न्याय है। 

( ४) समाजवाद, साम्यवाद एवं समतामूलक समाज - सामाजिक समानता को लक्षित करती इस विचारधारा को भारतीय राजनीति का एक ध्रुव माना जाता है। यद्यपि समाजवाद भारतीय संविधान का एक शब्द तथापि यह शब्द राजनीति के रंग से ओतप्रोत है। समाजवाद, साम्यवाद एवं समतामूलक समाज तीनों लगभग एक ही शब्द है थोड़ा सा सिद्धांतों का इधर-उधर का खेल है। यह सत्य कि विचित्रता प्राकृत धर्म है अतः समता की अभिकल्पना दिवास्वप्न मात्र है। फिर भी वर्गसंघर्ष तथा शोषण मूलक व्यवस्था को रोकने तथा प्रगतिशील उपयोग तत्व मूलक व्यवस्था स्थापित करने के लिए समाज की उच्चतम एवं निम्नतम आय का निर्धारण करना आवश्यक है, इसलिए समाजवाद, साम्यवाद एवं समतामूलक शब्दों को भारतवर्ष के आदर्श के समक्ष खड़ा करना आवश्यक है। भारतवर्ष का आदर्श सदैव एक अखंड अविभाज्य मानव समाज को स्वीकार करता है, उसमें कार्य विभाजन करने वाली कर्मप्रधान वर्ण व्यवस्था स्वीकार करता है, इसलिए विचित्रता को स्वीकार करते हुए उन्हें एक समाज की स्थापना का लक्ष्य लेना पड़ता है। भारतवर्ष के आदर्श कहते है कि विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था की आवश्यकता है। जो समाजवाद, साम्यवाद व समतामूलक समाज शब्द के किसी कोने में नहीं है। साम्यवाद सबको समान बनाने वाली धर्म व आध्यात्मिकता विरोधी व्यवस्था है, वही समाजवाद धर्म व आध्यात्मिकता निरपेक्ष व्यवस्था तथा समतामूलक समाज धर्म व आध्यात्मिकता के प्रति उदासीन व्यवस्था है। भारतवर्ष के महान आदर्श समानता, स्वतंत्रता एवं बंधुत्व के पोषक रहे है। लेकिन आर्थिक जगत में जाति व वर्ग विहिन कर्म प्रधान कार्य विभाजन वाले मनोवैज्ञानिक व्यवस्था वर्ण व्यवस्था का रहना आवश्यक तथा व्यक्ति गुण तथा गुणों के विकास करने विचित्रता का सम्मान करना नितांत आवश्यक है। यह वैचित्र्य कभी भी व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकता विरोधी नहीं है। साम्यवाद, समाजवाद व समतामूलक समाज शब्द को प्रगतिशील उपयोग तत्व में समाविष्ट होना होगा। 

(५) हिन्दू राष्ट्र, राष्ट्रवाद एवं समान आचार संहिता - भारतीय राजनीति में हिन्दू राष्ट्र केन्द्रित राष्ट्रवाद एवं समान आचार संहिता का प्रयोग चल रहा है। यद्यपि हिन्दू शब्द का अर्थ भारत राष्ट्र के नागरिक के रूप में लिया जा रहा है। फिर भी हिन्दू शब्द सार्वभौमिक नहीं है इसलिए भारतवर्ष के आदर्श में स्थापित नहीं हो सकता है क्योंकि भारतवर्ष का आदर्श सार्वभौमिक है। हिन्दू शब्द भारतवर्ष के आदर्श में स्थापित नहीं होने पर भी यदि भारतीय राजनीति में रखना आवश्यक है तो इनसे राष्ट्रीयता को चिन्हित वाला शब्द माना जाना चाहिए, परन्तु हिन्दू शब्द का अर्थ में किसी मत विशेष विचार अथवा मत विशेष के लिए नफरत डालना अथवा किसी मत विशेष के अस्तित्व को खत्म कर देना आ जाए तो समझना चाहिए कि हिन्दूत्व खतरे में है। इसलिए राष्ट्र को सार्वभौमिक मानवधर्म जिसका भावगत नाम भागवत धर्म है इसमें स्थापित करना चाहिए। जो भारतवर्ष के महान आदर्शों के अनुकूल है। राष्ट्रवाद यूरोप की राजनीति से आया एक शब्द है, जो भारतीय राजनीति में लंबित है। राष्ट्रीयता के आधार पर समाज का निर्माण करने में निहित है। भारतवर्ष का महान आदर्श कहता है कि समाज के आधार पर राष्ट्र का निर्माण होता है न कि राष्ट्र के आधार पर समाज का निर्माण होता है। अत: राष्ट्रवाद के मूल में ही कमजोरी है। यूरोप से आया शब्द राष्ट्रवाद एवं अरब से आया शब्द हिन्दू भारतवर्ष के महान आदर्श का वाहक नहीं है। समान आचार संहिता का समर्थन किया जा सकता है तथा समान आचार संहिता समाज को मजबूत बनाता है, लेकिन समान आचार संहिता को मजहब विशेष की विचारधारा आधारित संहिता थोप देना समान आचार संहिता शब्द का ही उलंघन है तथा यह अर्थ भारतवर्ष के महान आदर्श के अनुकूल नहीं है। 

(६) धर्मनिरपेक्षता, कौमी एकता तथा जाति गणना - भारत के संविधान का शब्द धर्मनिरपेक्षता भारतीय राजनीति में बहुत अधिक चर्चित है। वस्तु यह पंथ निरपेक्ष शब्द है जिसे धर्म निरपेक्ष कहना ही गलत है। कौमी एकता शब्द भारतीय राजनीति में फिका पड़ चूका है फिर भी यह शब्द मजबूती के साथ भारत की राजनीति में स्थापित रहा है। कौम को जिन्दा रखकर कौमी एकता कल्पना अकारगर है। भारत के आदर्श में जाति कौम तथा धर्म निरपेक्षता का स्थान नहीं लेकिन भारतवर्ष का आदर्श पंथ निरपेक्ष है। सरकारी रिकॉर्ड एवं अन्य व्यवस्था में जाति का कॉलम भारतवर्ष के आदर्श में नहीं है। इसलिए जाति गणना एवं जातिगत शब्द का कॉलम हटा देना होगा। यही भारतवर्ष का महान आदर्श की ओर जाने वाला रास्ता है। 

(७) आम आदमी एवं वी.आई.पी. कल्चर - भारतीय राजनीति में आम आदमी एवं वी.आई.पी के बीच भेद रेखा वाले शब्द है। कभी कभी राजनीति में कोई वी.आई.पी. नहीं सभी समान की आवाज आती है लेकिन टोल टैक्स से वी.आई.पी. का काफिला निकल जाता है तथा जन साधारण की आर्थिक मजबूरी भी चक्काजाम को नहीं रोक पाती है। आखिर कानून के नजर में इस प्रकार दोहरा मापदंड क्यों? राजनीति घोषित तथा अघोषित दोहरे मापदंड घातक है। जिन से मुक्ति भारतवर्ष के आदर्श दल विहिन आर्थिक लोकतंत्र ही दे सकता है। यहाँ आम आदमी की कल्पना कर राजनीति को भ्रमित करते है। 

भारतीय राजनीति में कुछ शब्द दूषित है जो भारतवर्ष के महान आदर्श की ओर देश को नहीं ले जा सकते हैं। उन्हें हटाकर राजनीति को आदर्श शब्दावली की ओर ले चलना है। राजनीति सही यात्रा समाज के आधार पर राष्ट्र का गठन है न कि राष्ट्रों के आधार समाज का संगठन है। राष्ट्र तथा राष्ट्रीयता के नाम गठित समाज विश्व को असुरक्षित बनाता है जबकि समाज के आधार पर बने राष्ट्र विश्व को शांति, विकास एवं खुशहाली के पथ पर ले जाता है। 
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करण सिंह
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