भारतीय राजनीति में नास्तिकता

भारतीय राजनीति में नास्तिकता
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✒प्रधानाचार्य करण सिंह की कलम से
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'नास्तिक' शब्द का चिरपरिचित अर्थ ईश्वर में विश्वास नहीं करना है। शास्त्र में तो वेद में विश्वास नहीं रखने वाले को भी नास्तिक कहा गया है। लेकिन यह अर्थ एक विचाधारा विशेष का है। इसलिए इस अर्थ से विषय का कोई संबंध नहीं है। इसलिए प्रथम अर्थ के परिपेक्ष्य में नास्तिकता की परिभाषा खोजते है - "न अस्ति इति नास्तिक" अर्थात नास्तिक का माने हुआ - 'नहीं है'। इसमें नहीं प्रधान हो जाता है तथा है गौण हो जाता है तब नास्तिकता रह पाती है। लेकिन जब ' है' प्रधान हो जाता है तब नास्तिकता का नामोनिशान ही नहीं रहता है। लेकिन नास्तिक समाज में सदैव ईश्वर प्रधान रहा है। भले ही वह नकारात्मक रूप में रहा है लेकिन ईश्वर प्रधान रहा है। ईश्वर ही तो 'है' तत्व है। फिर तो 'है' प्रधान अत: नास्तिकता कोई अस्तित्व नहीं है। इस दृष्टि में जगत में कोई नास्तिक नहीं है। इसलिए नास्तिकता की एक परिभाषा की आवश्यकता है।

"नास्तिक मात्र वह नहीं है जो ईश्वर को नहीं मानता अपितु नास्तिक वह भी जो ईश्वर को नहीं जानता है।" उस भीड़ से जो केवल कहने को कहता है कि मैं ईश्वर को मानता हूँ तथा उनके अस्तित्व में विश्वास रखता हूँ से वह बेहतर है जो दावे के साथ कहता है कि मैं ईश्वर को नहीं मानता हूँ क्योंकि वह ईश्वर को नहीं जानता है। मैं आस्तिक समाज में इस योद्धा का एक मुख्य आभ्यागत रुप में अभिनंदन करूँगा लेकिन जो ईश्वर को नहीं जानते हैं तथा जानने का प्रयास भी नहीं करने वाले तथाकथित आस्तिकों से कोई नाता नहीं रखूँगा। यह लोग दया के पात्र है क्योंकि यह मनुष्य जीवन का उपयोग नहीं करते है। इसलिए नास्तिकता की सही सही परिभाषा यह कि "वह व्यक्ति नास्तिक है, जिसके पास बुद्धि नाम को वस्तु नहीं तथा पशुवत जीवन जीता है क्योंकि इन होना या नहीं होना समाज के लिए कोई आवश्यक नहीं है। यह लोग भी नास्तिक है जो अपनी बुद्धि व बोधि का उपयोग विनाश के कार्यों, अनैतिक आचरण में तथा मानवीय मूल्यों के विपरीत करते है। क्योंकि इन होना मानवता तथा सृष्टि के लिए खतरनाक है।" सरल शब्दों में "जिसके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है अथवा जिसके होने से मानवता तथा सृष्टि पर संकट पैदा कर देता है, वह नास्तिक है।" शेष सब आस्तिक है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह वेद, कुरान, बाईबल इत्यादि को माने अथवा नहीं माने, इससे भी फर्क नहीं पड़ता है कि वह ईश्वर को माने अथवा नहीं माने; लेकिन उससे फर्क पड़ता की वह ईश्वर को नहीं जाने। "मूलतः ईश्वर को नहीं जानने वाला ही नास्तिक है।" ईश्वर जानने का रास्ता पुस्तक से नहीं निकलता है, ईश्वर को जानने का रास्ता आत्मज्ञान की साधना से निकलता है। यह साधना मार्ग मनुष्य का जीवन मार्ग है, जिसे मनुष्य अपना आनन्द मार्ग कहता है। इसी रास्ते परमानंद आनन्दमूर्ति की प्राप्ति होती है।

नास्तिकता की परिभाषा स्पष्ट हो जाने पर विषय की ओर चलते है। भारतीय राजनीति में खुली, बंद तथा छद्म नामक तीन प्रकार की नास्तिकता का समावेश है। इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि विश्व के अन्य देशों में आस्तिकता स्थापित है। चूंकि भारतवर्ष नर में नारायण प्रकट करने की कला में भिज्ञ है, इसलिए भारतीय राजनीति में नास्तिकता का रहना अहितकर है। 

(१) खुली नास्तिकता - भारतीय राजनीति में इस प्रकार की नास्तिकता को वामपंथ कहा गया है। वामपंथी स्पष्ट घोषणा करते हैं कि धर्म एक अफीम है, इसके नशे मदहोश व्यक्ति स्वयं और संसार को ही भूल जाता है। इसकी समाज को कोई आवश्यकता नहीं है। धर्म एवं धार्मिक कार्यों से पृथक राज्य के उत्तरदायित्व पर ध्यान केंद्रित कर राजव्यवस्था की रचना करता है। वामपंथ की इस खुली नास्तिक से अप्रसन्न होकर समाजवाद आया उसने कहा कि धर्म कर्म मनुष्य का अलग एवं ऐच्छिक कर्म है लेकिन राजनीति एक आवश्यक दायित्व है। उस पर चलकर राजव्यवस्था स्थापित करनी चाहिए। हमें कोई मतलब नहीं ईश्वर है अथवा नहीं, हमें इस बात से भी कोई मतलब नहीं, हमारे साथी ईश्वर को माने अथवा नहीं माने, हमारे सार्वजनिक जीवन में इसका कोई महत्व नहीं है। इस प्रकार की अर्द्ध खुली नास्तिक भी चल रही है। जो नास्तिक होने का दावा नहीं करते है लेकिन आस्तिक होना भी जरूरी नहीं मानते है। 

(२) बंद नास्तिकता - भारतीय राजनीति में इस प्रकार की नास्तिकता को दक्षिणपंथ कहा जा सकता है। यह ईश्वर को मानते तो है लेकिन जानते नहीं। सार्वजनिक जीवन में ईश्वर की शपथ भी खाते है, ईश्वर को प्रार्थना भी करते है तथा ईश्वर के उपदेश भी देते है लेकिन ईश्वर से उनका कोई वास्ता नहीं है। धर्म से भी इनका कोई वास्ता नहीं होता है। जहाँ जाते वहाँ का स्वांग रच देते है। लेकिन सार्वजनिक जीवन में हमेशा धर्मनिरपेक्ष बने रहते है। इस प्रकार नास्तिकता को बंद नास्तिकता नाम दिया गया है। इसमें वामपंथी, समाजवादी एवं लोकवादी दलों छोड़ कर वे सभी लोगों आ जाते है, जो मजहब को राजनीति का हथियार नहीं मानते है। यह लोग वोटों के समय लोगों को ठगने के लिए स्वांग अवश्य ही रच लेते है। सही वामपंथी एवं समाजवादी इस प्रकार का अभिनय नहीं करते है। राह भटके वामपंथी एवं समाजवादी के यह परहेज नहीं देखने में मिला है। 

(३) छद्म नास्तिकता - भारतीय राजनीति में इस प्रकार नास्तिकता का स्वरूप विद्यमान है। यह मजहब, सम्प्रदाय एवं रिलिजन को राजनैतिक हथियार मानते है लेकिन अपने आदर्श में परम चैतन्य को स्थान नहीं देते है। यह मजहब के बड़े ठेकेदार के रूप राजनीति में आते है लेकिन उनका ईश्वर के अस्तित्व पर भरोसे सिद्ध करने की कोई रास्ता नहीं है, इनके अनुयायी पर ईश्वर को जानने के पथ पर चलने की कोई बाध्यता नहीं है। सार्वजनिक जीवन मजहब, सम्प्रदाय व रिलिजन में मानवता को बांटकर राजनैतिक रोटियाँ सेकते है। कभी यह मातृभूमि, पितृभूमि, साम्प्रदायिक देवता, मजहबीय खुदा, रिलिजनल गोड का जयघोष एवं वंदन करते है तथा अन्य भूमि, अन्य देवता, खुदा व गोड़ को अंगीकार नहीं करते है। इस प्रकार लोगों को वामपंथी एवं दक्षिपंथी साम्प्रदायिक कहते है। वस्तुतः यह सभी लोग नास्तिक है।

       भारतीय राजनीति आस्तिकता का अभाव है। ईश्वर को मानना एवं जानना आवश्यक तथा ईश्वर द्वारा बताये रास्ते पर चलना आवश्यक है। वह रास्ता आत्म मोक्ष एवं जगत हित का इसलिए भेद मूलक एक अखंड मानवता समाज तथा मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापन आवश्यक है। यहाँ मजहबी, साम्प्रदायिक एवं रिलिजन झंडे ने होते है लेकिन धर्म ध्वज हमेशा उनके हाथ रहता है। सभी मनुष्य का एक धर्म है - मानव धर्म जिसका संस्कृत में भावगत नाम भागवत धर्म है - जिसका अरबी फारसी अर्थ रुहानी इंसानियत तथा अंग्रेजी मिनिग्स स्प्रियूस्लियल न्यू ह्यूमनिज्म है। 

आओ मिलकर भारतवर्ष की राजनीति को आस्तिकता की ओर ले चलते हैं। भारत महान राष्ट्र का निर्माण करते है, सोने चिड़िया का भारत बनाते है, भारतवर्ष में घी दूध की नदियाँ बहाते है। विश्व गुरु भारत का फिर से निर्माण करते है। 
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करण सिंह 'प्रधानाचार्य'
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