चमत्कार एवं सनातन संस्कृति[Miracle and Sanatan (eternal) culture]


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✍️श्री आनन्द किरण "देव"
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एक कहानी से मेरी बात प्रारंभ करुंगा - एक सिद्ध संत नदी पार करने के लिए नाव की इंतजार कर रहे थे कि एक अन्य चमत्कारी संत आकर नदी को आदेश देते है कि मुझे मार्ग दे। तो बताते नदी दो भागों में बट जाती है तथा चमत्कारी संत नदी पार के दूसरे किनारे पर जयकारे ले रहे थे, तभी सिद्ध संत नाव की मदद से नदी पार कर उस काफिले के पास होकर अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे थे। तभी चमत्कारी संत आत्म प्रशंसा की चद्दर ओढ़े सिद्ध संत से पूछ बैठे कैसा रहा मेरा चमत्कार? सिद्ध संत मुस्कार कर कहा - आपके चमत्कार की कीमत तीन पैसा है। इस जबाब पर चमत्कारी संत को तो धक्का लगा ही साथ में श्रद्धावान लोगों में भी सन्नाटा छा गया। किसी ने पूछा कैसे? सिद्ध संत का जबाब आया कि मैंने तीन पैसा देकर नदी पार की है तथा इसने (चमत्कारी संत ने) नदी की जलधारा रोक कर वही कार्य किया इसलिए उनके उक्त चमत्कारी कार्य का मूल्य मात्र 3 पैसे के बराबर होता है। सिद्ध संत का जबाब सुनकर जनता में क्या प्रक्रिया हुई? - वह हम सभी जानते है क्योंकि ऐसा सदैव होता है। जनता चार धड़ों में बट जाती है - समर्थक, विरोधी, तटस्थ व उदासीन। यदि उस समय गोदी मीडिया हो तो मुर्गें लड़ाने के धंधे में लग जाते। 

उपरोक्त कहानी भारतीय संस्कृति की महानता तथा आध्यात्मिकता अज्ञानता को एक साथ प्रकाशित करती है। भारतीय संस्कृति की महानता बताती है सिद्ध पुरुष कर्म कौशल के जागतिक, व्यवहारिक, सर्वमान्य एवं वैज्ञानिक तरिकों का उपयोग करते है जबकि अधजल गगरी छलकने लगती है। चमत्कार की भूलभुलैया में खो जाते है। भारतीय संस्कृति आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा को लेकर खड़ी है। जहाँ ढकोसलाबाजी तथा आडंबर का कोई स्थान नहीं है। आध्यात्मिकता के प्रति अज्ञानी मनुष्य इस रास्ते का चयन करता है अथवा आदर्श विहीन, आध्यात्मिकता की राह से भटका तथा निहित स्वार्थी प्रकृति के लोग इस रास्ते में सुख की अनुभूति करते है। यह सुख भले ही उनके के विनाश लेकर क्यों न आ रहा है। वह चमत्कारी शक्तियों का मतवाला होकर अपने को पतन के रास्ते ले जाता है। 

चमत्कार नहीं होते अथवा नहीं किये जा सकते हैं? यह गलत धारणा है। आध्यात्मिकता के विशाल सागर में ऐसा बहुत कुछ हो जाता है जिसकी लौकिक समझ कल्पना भी नहीं कर सकती है। चमत्कार को अच्छी शब्दावली में आध्यात्मिक प्रदर्शन कह रहा हूँ - आध्यात्मिक प्रदर्शन लोककल्याण एवं जन शिक्षा के लिए किये जाते है तो उन्हें कल्याणकारी कहा जाता है। प्रर्दशनकर्ता इसके बदले में प्रशंसा, धन अथवा अन्य किसी भी प्रकार की दक्षिणा भी नहीं लेता है। वह सदैव अपने अनुयायी को इससे दूर रहने तथा गुप्त रखने की शिक्षा देते है जबकि इसके विपरीत यह प्रदर्शन लोक दिखावे के लिए, गोरखधंधे के लिए अथवा नासमझी में किये जाते है तो इन्हें निंदनीय माना गया है। इससे दूर रहना ही हितकारी है। इसलिए भारतीय संस्कृति कभी मनुष्य को चमत्कार की ओर नहीं धकेलती है। वह ज्ञान, कर्म एवं भक्ति की राह दिखाती है। 

चमत्कार सदैव अंधविश्वास हो ऐसा नहीं है तथा चमत्कार सदैव प्रभु की अलौकिक शक्ति हो आवश्यक नहीं है। चमत्कार कभी भी आध्यात्मिक प्रगति का मापक नहीं रहा है। आध्यात्मिक का मापन भक्ति के द्वारा किया जाता है। भक्ति का सूत्र
भक्ति = कर्म - ज्ञान बताया गया है। कर्म की अधिकता भक्ति को सकारात्मक तथा ज्ञान अधिकता भक्ति को नकारात्मक बताती है। इसलिए शास्त्र में बिना क्रिया ज्ञान को भार तुल्य बताया गया है। अत: कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान है, चमत्कार प्रधान नहीं है। इसलिए चमत्कार महानता का भी मापक नहीं है। महानता का मापक भी कर्म है। इन सभी प्रमाणों के आधार पर हम कह सकते है कि दुनिया को चमत्कारियों की नहीं कर्मवीरों की आवश्यकता है। चमत्कार के अंधविश्वास में कर्म, ज्ञान एवं भक्ति का मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए अथवा चमत्कार की चाहत रखना, चमत्कार की चाहत में रहना कुपथ है। 

आध्यात्मिक विज्ञान का सार तत्व यह है कि धर्म अंदर की वस्तु है भीतर की शून्यता को ढ़कने के व्यक्ति बाहरी आडंबर का सहारा लेता है। अंदर का खोखलापन चमत्कार का बखान करता है तथा जो चमत्कार कर सकता है, वह व्यक्ति को साधना का मार्ग बताता है। 

सनातन खतरे में चमत्कार पर प्रश्न करने से नहीं पड़ता है। अपितु मनुष्य को ज्ञान, कर्म एवं भक्ति की राह से पृथक करने से सनातन खतरे में पड़ता है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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