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श्री आनन्द किरण "देव" की कलम से
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जवाहर लाल नेहरू बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे, उनके विचारों में भारत राष्ट्र, राष्ट्रवाद, समाजवाद, मानवतावाद, उदारवाद, अन्तर्राष्ट्रीयवाद, वैश्विक दृष्टिकोण, सामाजिक सद्भावना, धार्मिक समरसता, लोकतांत्रिक मानसिकता एवं व्यक्ति की वैचारिक स्वतंत्रता इत्यादि का समावेश था। उनके विचारों में वंशवाद तथा राजतंत्रीय परंपरा का तनिक भी समावेश नहीं था। इसलिए आज हमने चाचा नेहरू के व्यक्तित्व एवं वंशवादी राजनीति को चर्चा का विषय बनाया गया है।
यद्यपि चाचा नेहरू का व्यक्तित्व अध्ययन का प्रथम बिन्दु है तथापि हम वंशवादी राजनीति को प्रथम चर्चा में ले रहे है। इस कारण यह है कि भारतीय राजनीति में पंडित जवाहरलाल नेहरू को वंशवादी राजनीति के वृक्ष की मूल मानने की भूल हो रही है। यह सत्य है कि वंशवादी राजनीति का पंडितजी के विचारों एवं कर्मशैली में तिलमात्र भी न दर्शन नहीं होते है। फिर पंडित नेहरू को वंशवादी राजनीति का सरताज मानने की भूल क्यों करते है? पंडित जवाहरलाल नेहरू जी ने भारतीय लोकतंत्र की पारी की शुरुआत की थी। उनके देहांत के बाद द्वितीय लोकतंत्र के खिलाड़ी के रूप में लालबहादुर शास्त्री आये लेकिन दुर्भाग्य से वे आउट हो गए तथा कामरान के द्वारा भारतीय राजनीति की तीसरी पारी श्रीमती इंदिरा गांधी को सौंपने से पंडित नेहरू जी पर वंशवादी राजनीति के जनक होने का आरोप लगता है। लेकिन सत्य तो यह है कि नेहरू जी इससे कोई संबंध नहीं था तथा नेहरू जी ने ऐसी चाहत भी प्रस्तुत नहीं की थी। इन्दिरा गांधी का उनकी पुत्री होना मात्र आरोप का आधार नहीं होता है। एक मजेदार बात अधिकांश वरिष्ठ कांग्रेसियों ने उनका नेतृत्व अंगीकार किया लेकिन कुछ दमदार नेता तो उनके विरुद्ध में सीना तानकर खड़े हो गए। दोनों ही जनता के पास अपने मत की पुष्टि करवाने गए। जनता ने इंदिरा गांधी के पक्ष में मत देकर उन्हें भारत का राजपाट सौंप दिया। वंशवादी राजनीति की शुरुआत से अब तक के सभी प्रकार मूल्यांकन बताते है कि इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी भारतीय जनता का अज्ञान है क्योंकि जनता के मनो मस्तिष्क में राजतंत्र का भूत नहीं मरा था, वह सुप्त संस्कार के रुप अवसर पाते ही पुनः जिंदा हो गया हैं। उक्त दोष के दूसरे पात्र कांग्रेसी भी राजतंत्र के रोग के रोगी है। इस रोग की जड़ें भारतीय राजनीति में गहराई तक पहुँच गई है। जिसके भारत के सभी राजनैतिक दल इस रोग ग्रसित हो गए इसलिए हम यह नहीं कह सकते हैं कि वंशवादी राजनीति के रोगी मात्र कांग्रेसी है। इस रोग का मूलकारण भारतीय राजनीति में विचारों से अधिक व्यक्ति को महत्व देना है। यही वंशवादी राजनीति के वृक्ष को फैलने देता है। सप्रमाण पुष्टि होती है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू पर वंशवादी राजनीति का दोष निराधार है।
वंशवादी राजनीति से नेहरू जी का कोई संबंध नहीं होना सिद्ध होने के बाद जवाहरलाल नेहरू जी व्यक्तित्व की ओर चलते है। यद्यपि यह सत्य है कि व्यक्तित्व में बुराइयों का समावेश नहीं होता तथापि व्यक्तित्व अर्थ सदैव अच्छाइयों का ही होना आवश्यक नहीं है। व्यक्ति की गलतियां, भूलें, चूकें एवं त्रुटियां भी व्यक्तित्व का हिस्सा होता है। नियत अच्छी होने पर भी व्यक्ति से गलती हो सकती हैं, जिसका परिणाम नकारात्मक होना स्वभाविक है। इसलिए पहले जवाहरलाल नेहरू जी के व्यक्तित्व मूल्यांकन में उनकी गलतियां को पहले लेते है, जो उनसे जाने, अनजाने में हो गई, जिसका आज निदान आवश्यक है।जवाहरलाल नेहरू ने प्रथम गलती यह थी कि भारत को मिश्रित अर्थव्यवस्था के हवाले कर दिया। इससे प्रतियोगिता की प्रथम दौड़ में ही समाजवादी व्यवस्था घूटने टेकते हुए मरणासन्न की ओर चली गई। इसलिए आज राजनेता सरकारी प्रतिष्ठा की खुली बिक्री की करने में गर्व की अनुभूति करते है। जवाहरलाल नेहरू जी की दूसरी गलती यह थी कि भारतीय दर्शन की गहराई से परिचित होने के बावजूद भी पंथ निरपेक्षता को धर्म निरपेक्षता का पर्याय मानना। धर्म का संबंध सत्य, कर्तव्य, आध्यात्मिकता एवं नैतिकता है। इससे निरपेक्ष राज्य एवं राष्ट्र कैसे हो सकता है? धर्मनिरपेक्षता की अपूर्ण धारणा ने राजनीति को मूल्यहीन बना दिया। इसलिए आज का कोई भी राजनेता राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार नहीं है। नेहरू जी तीसरी भूल यह थी कि शिक्षा एवं चिकित्सा के व्यवसायीकरण होने से नहीं बचाना। नेहरू जी प्राचीन भारतवर्ष, तात्कालिक भारतदेश एवं भावी भारतराष्ट्र की तस्वीर से परिचित थे फिर भी शिक्षा एवं चिकित्सा को व्यवसाय बनते क्यों देखते रहे? चाचा नेहरू जानते थे कि राष्ट्र एवं समाज के लिए प्रोफाइल बनाना राष्ट्र एवं समाज का कर्तव्य है फिर व्यक्ति को प्रोफाइल बनने के लिए अकेला क्यों छोड़ा? यदि वे ऐसा नहीं करते तो आज भारतीय शिक्षा एवं चिकित्सा आदर्श प्रतिमान स्थापित करता। इसके बजाए शिक्षा एवं चिकित्सा व्यवसायी के हाथ की कठपुतली बनती जा रही है। नेहरू जी चौथी गलती यह थी कि कृषि को उद्योग का दर्जा नहीं देना। यदि उन्होंने कृषि को एक उद्योग माना होता तो आज भारत समृद्धि के शिखर पर होता तथा किसान सबसे शक्तिशाली उद्योगपति होता। एक दार्शनिक उक्ति है कि खेती फलति फूलति है तो उद्योग धंधें पनपते तथा समृद्धि बढ़ती है। नेहरू जी इस भूल के कारण अर्थव्यवस्था की नब्ज ही कट गई। यदि नेहरू जी ने कृषि केन्द्रित अर्थव्यवस्था का निर्माण किया होता तो भारत के हर गांव में उद्योग धंधें पनपते तथा बेरोजगारी की समस्या ही नहीं रहती। नेहरू जी पांचवी गलती यह है कि उनकी मजदूर नीति भारतीय संस्कारों के अनुकूल नहीं होना है इसके कारण मजदूर कभी भी उद्योग, व्यवसाय एवं फर्म परिवार का सदस्य नहीं बना। मजदूर को मात्र नकद मजदूरी का पात्र नहीं बनना था, उन्हें फर्म का हिस्सेदार बनाना चाहिए था। यदि ऐसा किया होता तो भारत को कोई व्यक्ति भूखा नंगा नहीं दिखाई देता। भारत गरीब तथा भूखमरी शून्य देश होता।
नेहरू जी के व्यक्तित्व निस्संदेह स्वच्छ था। उन्होंने जिसे सत्य माना उस पर चलते गए। वे पाश्चात्य प्रभाव से देश व दुनिया, अपने को, अपने विचार को तथा भारत को दूर नहीं रख पाये यही उनकी गलती थी। उन्होंने समझा था कि भारतवर्ष को अंधकार के गर्त से निकालने के लिए पाश्चात्य जगत में ले जाना होगा, उनकी इस त्रुटिपूर्ण अवधारणा के कारण स्वतंत्र भारत की विकास यात्रा गलत दिशा में चली गई। उनकी गलतियां होना उनकी नियत पर शंक करने का आधार नहीं हो सकता है। गलतियां मनुष्य से होती है, नेहरू जी की गलतियों के लिए दोषी भारत का लोकतंत्र भी है क्योंकि उसने उन्हें गलत नहीं माना तथा उन्हें गलत दिशा में जाने से रोका भी नहीं। मैं नेहरू जी को गद्दार, देशद्रोही तथा गैरजिम्मेदार नहीं मानता हूँ तथा जो कोई ऐसा मानता है, मेरी दृष्टि में वह नादान, नासमझ, मजबूर अथवा कपटी है। मैं ऐसी नासमझी, नादानी, मजबूरी तथा कपट नीति का विरोध भी करता हूँ। नेहरू जी से गलती होने का कारण उनके नियत में खोट होना नहीं था। उनसे गलती होने के कारण अर्थव्यवस्था, समाजव्यवस्था, धर्मव्यवस्था, राजव्यवस्था की पूर्ण एवं गहन समझ नहीं होना है। वे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से निकल सीधे शीर्ष पर पहुँच गए थे, उन्हें राजनीति का अनुभव था परन्तु समाजनीति, अर्थनीति, धर्मनीति तथा नीतिशास्त्र का अनुभव नहीं था जबकि एक मंत्री को इन सबका पूर्ण अनुभव होना आवश्यक है। नेहरू जी ने भारत को गढ़ने में अपना सम्पूर्ण परिश्रम एवं ताकत लगा दी थी। उसके बावजूद भी कोई कमी रहना व्यक्तिगत सामर्थ्य की कमी थी, उनकी कोई दुर्भावना नहीं थी।
नेहरू जी को सही समझना है तो हमें गुट निरपेक्षता, पंचशील, भारतीय राजनीति पर मजबूत पकड़ व उनकी समझ की ओर चलना होगा,यह उन्हें एक मजबूत व्यक्तित्व बताती है। नेहरू जी का सीना छप्पन इंच का था, क्योंकि उन्होंने दुनिया को दबंग ताकतों की लालसा से बचाकर मजबूत बनाने की राह पर ले चले जिसे गुटनिरपेक्ष आंदोलन कहा गया है। उनके इसी अभियान का परिणाम है कि आज दुनिया के देश अपने स्वाधीनता की रक्षा कर पाये अन्यथा गुटों के शिकार होकर एकबार पुनः उन्हें अपने स्वाधीन मूल्यों को गिरवी रखने पड़ते। वे अनुनय विनय की राजनीति के खिलाड़ी नहीं थे, वे मजबूत राजनेता थे इसलिए एक राष्ट्र नेता एवं अन्तर्राष्ट्रीय नेता के रूप में ख्याति पाई। नेहरू जी को समझने के लिए नासमझ राजनीति का आंचल छोड़कर व्यापक राजनीति के आंगन में आना होगा।
विषय के अंत में पाठक के मन में उठ रहे उस प्रश्न की ओर चलते हैं, जिसको लेकर नेहरू जी के संदर्भ में भ्रम फैलाया जाता है। वह है - कश्मीर समस्या एवं भारत विभाजन। कश्मीर भारत में विषम परिस्थिति में विलय हुआ था, उस समय इस विषय में नेहरू की नरम नीति तथा पटेल की कठोर नीति दोनों ही थी। नेहरू की लोकतंत्र एवं सद्भावना में गहरी आस्था होने के कारण यज्ञ समझने की भूल हो गई कि कठोर नीति से परिणाम नकारात्मक जा सकता है। इसलिए उन्होंने नरम नीति का प्रयोग कर दिया। उन्होंने ऐसा इसलिए किया कि वे मानते थे कि धीरे धीरे कश्मिरियों हृदय परिवर्तन कर देंगे लेकिन आधा कश्मीर भारत की सीमा से बाहर रहने के कारण ऐसा नहीं हो पाया। दूसरा भारत विभाजन के प्रति नरम रुख रखते हुए वायसराय की बात मान लेना, यदि वे ऐसा नहीं करते तो बताइये क्या करते? इसपर पटेल भी उनके साथ थे। अंग्रेज जिन्ना का देश देकर चले जाते तथा आसमान से टपके खजूर में अटके वाली उक्ति चरितार्थ होती। उन्हें विभाजित भारत को पुनः भारतवर्ष में मिलाने की नीति शुरू करनी चाहिए थी लेकिन वे ऐसा नहीं कर जो मिला उसे ही सुरक्षित रखते हुए विकास की दौड़ में ले जाने लग गए। आज चौपाल पर बैठकर लोग इन मुद्दों पर राजनीति करने का वक्त नही है, वक्त है एक मजबूत समाज आंदोलन के बल पर स्वर्ण भूमि भारत निर्माण करने का।
आओ मिलकर कर स्वर्ण भूमि भारत का निर्माण करते है, आलोचना एवं निंदा से नहीं नये भारत की शुरुआत भाईचारे, प्रेम एवं दिल से दिल जोड़ने से करते है। इसके लिए एक सामाजिक आर्थिक आंदोलन की आवश्यकता है लेकिन उससे पूर्व नव्य मानवतावादी सोच पर आधारित जन मानस के निर्माण के लिए एक अनुशासित मानव निर्माण करने की आवश्यकता है। इसलिए आओ साधना, सेवा एवं त्याग की अभिव्यक्ति VSS के संग चल कर सिखते है। एक समाज सेवा का स्वयंसेवक बनकर निकलते है।
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हस्ताक्षर
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श्री आनन्द किरण "देव"
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