महात्मा गांधी की परिकल्पना का राष्ट्र एवं दिशाहीन होती राष्ट्रनीति (Mahatma Gandhi's hypothesis nation and directionless national policy)

महात्मा गांधी की परिकल्पना का राष्ट्र एवं दिशाहीन होती राष्ट्रनीति
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श्री आनन्द किरण "देव"
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महात्मा गांधी ने एक राष्ट्र की परिकल्पना थी, जो शतप्रतिशत रोजगार पर आधारित हो, हर गाँव खुशहाल, समृद्धिशाली एवं आनन्दमय हो। किसी को भी रोजगार के लिए अपने घर बाहर छोड़ कर सुदूर देश न जाना पड़े। महात्मा गांधी जी की परिकल्पना के राष्ट्र में राजा एवं प्रजा दोनों ही नैतिकता पालन करे तथा आध्यात्मिकता पर चले है। इसलिए आज हम महात्मा गांधी के परिकल्पना के राष्ट्र एवं दिशाहीन होती राजनीति पर चर्चा करते हैं। 

महात्मा गांधी भारतवर्ष के राष्ट्रपिता कहलाते है। उन्हें राष्ट्रपिता कहना गलत है अथवा सही है। यह आलोच्य विषय में नहीं है। इसलिए इस विवाद में फसे बिना राष्ट्रपिता की अभिकल्पना के राष्ट्र को देखते है। राष्ट्रपिता चाहते थे कि साध्य एवं साधन दोनों ही पवित्र होने चाहिए। किसी भी राष्ट्र एवं समाज को अपने उद्देश्य पवित्र रखना होता तथा उस उद्देश्य को प्राप्त करने वाले मूल्य भी पवित्र होने आवश्यक है। लेकिन एक बात जरूर स्मरण रखने की आवश्यकता है कि राष्ट्र के पवित्र उद्देश्य को खंडित करने की चेष्टा करने वालों पर आवश्यकता पड़ने पर ली गई कठोरतम व्यवस्था लेने से सत्य एवं अहिंसा को खंडित नहीं करती है। हमारे महात्मा का इस मामले में नरम पड़ना, एक बहुत बड़ी चूक है। जिसके कारण राष्ट्र पवित्र उद्देश्य को शास्वत नहीं रख पाता है। दूसरा कर्तव्य विमुख होने वाले नागरिकों के विरुद्ध कड़े मापदंड अपनाना गांधीजी के विचारों में नहीं होना दूसरी बहुत बड़ी चूक थी, जिसके चलते समाज में अपराध पर लगाम नहीं लगती है। कुबुद्धि के समक्ष अहिंसा के पूजारी को गोली का शिकार होना पड़ता है। 

 बापू ने राष्ट्र निर्माण की जिम्मेदारी किसी पर नहीं डाली इसलिए उनके निर्वाण के बाद कोई उनके विचार का राष्ट्र निर्माण के लिए आगे नहीं आया, इसके बदले नेहरूजी, साम्यवादी, राष्ट्रवादी एवं समाजवादी खेमे अपने अपने आधार पर राष्ट्र गठन में निकल पड़े। यह सत्य है कि उनसे व्यक्तिगत संबंध रखने वाले कुछ नेताओं के मन में राष्ट्र निर्माण की चिंता जगी थी। लेकिन उनके मन में राजनैतिक सत्ता के बल पर ही राष्ट्र निर्माण की धारणा बैठ गई थी, जो एक अधूरी परिकल्पना थी। गांधीजी को राष्ट्र निर्माण की जिम्मेदार सच्चे समाज सुधारकों को देनी थी। राष्ट्र का निर्माण समाज ही कर सकता है, राजनीति कदापि नहीं। राजनीति के चलते बापू से मतभेद रखने वाले उनकी नियत पर ही शक करते है। अहिंसा के प्रति नासमझ रखने वाले अहिंसा को कायरता समझ बैठते हैं। सत्य को नहीं समझने वाले सत्य, नेकी एवं ईमानदारी की राह को असंभव समझ बैठते है। 

महात्मा गांधी के अनुयायी कभी भी सत्य अहिंसा के पथ पर चलने की हिम्मत नहीं दिखा पाए तथा समाज को हिंसा एवं मार कूट के रास्ते जाने से नहीं रोक पाये। यदि राजनेताओं एवं अधिकारियों के लिए आचरण संहिता का निर्माण की होती तो आज का राष्ट्र बनता, क्योंकि आज एक निश्चित सीमा रेखा में केन्द्रित देश है। देश को राष्ट्र बनने के सहस्त्र महात्माओं की आवश्यकता है। इसलिए साबरमती के इस संत को महात्मा निर्माण एक पाठशाला अथवा एक कार्यशाला खोलनी चाहिए थी ।उन्हें एक प्रणाली (तंत्र) विकसित करनी चाहिए थी लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए यह उनकी तीसरी चूक थी। जिसके चलते महात्मा गांधी जी तो अमर हो गए लेकिन राष्ट्र बनाने वाली राजनीति दिशाहीन हो गई। 

महात्मा गांधी जी के राष्ट्र में आर्थिक एवं राजनैतिक शक्तियों का विकेन्द्रीकरण समाविष्ट था लेकिन इसके संदर्भ कोई उचित दिशा निर्देश नहीं मिलने के कारण राजनीति अपनी स्वार्थ सिद्धि में लग गई। जिसे दिशाहीन राजनीति ही कहाँ जाएगा। सही नीति तो यह है कि राजनैतिक शक्ति का केन्द्रिकरण तथा आर्थिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। यहाँ गांधीजी एक चूक कर जाते है कि वे राजनैतिक शक्ति एवं आर्थिक शक्ति का पृथक्करण नहीं कर पाते है। जिसके चलते आज जनता राजनेताओं की ओर तथा राजनेता सेठों की वंदना करने लग गए। जबकि लोकतंत्र का है, जनता के लिए है तथा जनता के द्वारा ही बनता है। यदि लोकतंत्र में जनता ही निर्बल व असहाय होगी तो उसे कुछ भी कहा जा सकता है लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता है। 

गांधीजी सहकारिता को पसंद करते थे लेकिन उसके द्वारा सहकारी नीति को पूर्णतया स्पष्ट नहीं करने के कारण राष्ट्र के आर्थिक संसाधन प्राइवेट व्यक्ति, प्राइवेट लिमिटेड घरानों एवं लिमिटेड सरकारी तंत्र के हाथ में चले गए। कृषि, उद्योग एवं सेवाओं का संचालन सहकारिता के आधार पर होना ही एक मात्र साधन है तथा सहकारी संस्था पर एक व्यक्ति अथवा एक घराने का प्रभुत्व नहीं होना चाहिए। इस बात पर भी दिक् दृष्टि रखनी होगी सहकारी समिति एक परिवार अथवा एक ही संगे संबंधियों अथवा छंद मित्र मंडली से मिलकर नहीं बनी हो। सहकारी समितियों पर शुद्ध आर्थिक प्रभाव हो उसके गठन में आमजन की खुली भागीदार हो अथवा अन्य शब्दों में कहा जाए तो समान पेशे में जुड़ा प्रत्येक पात्र सहकारी संस्था का सदस्य हो। चूंकि सहकारी संस्था हमारा आलोच्य विषय नहीं है इसलिए सहकारिता की गहराई में नहीं जाता हूँ। यहाँ गांधीजी की चाहत एवं चूक के बीच दिशाहीन होती राजनीति पर चर्चा केन्द्रित है। 

 साबरमती के संत की मंशा थी कि राजनीति, अर्थनीति, संस्कृति एवं समाज के सभी कार्यकलाप आध्यात्मिकता से ओतप्रोत हो, इसलिए साबरमती का आश्रम में निहित प्रार्थना सभा के साथ राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक कार्य संपन्न होते थे। साबरमती के इस संत के पास आध्यात्मिक उत्थान की कोई योजना नहीं होने के कारण आध्यात्मिकता से ओतप्रोत राष्ट्र का चाहकर भी निर्माण नहीं हो पाया। 'रघुपति राघव राजा राम पतित पावन सीताराम अल्लाह ईश्वर तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान' एक प्रार्थना यानी याचना बनकर रह गई। आध्यात्मिकता में प्रार्थना व याचना का कोई स्थान नहीं है। यहाँ आराधना, आरती एवं अर्चना भी नहीं की जाती है। यहाँ भक्ति होती है, मन ईश्वर का भजन कीर्तन करता है, गुरु का वंदन करता है तथा एक साधना होती है। साबरमती के संत की आध्यात्मिक चाहत की प्रशंसा करते हुए आध्यात्मिक जगत को सही नहीं पहचाने ने चूक पर ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। इसके चलते आज राजनेता धर्म की ओट में भोले भाले लोगों के साथ छलवा कर अपनी स्वार्थ सिद्धि करते है। 

विषय के अंत में बापू की परिकल्पना का राष्ट्र सही दिशा का था लेकिन उसको लेकर चलने वाले सही दिशा में नहीं चले। इसका मात्र कारण सही राह का पता नहीं होना था तथा उत्तरोत्तर में कांग्रेसी सत्ता की गणित में उलझकर राष्ट्र निर्माण के दायित्व को भूल गए। इसलिए महात्मा गांधी की कांग्रेस की दुर्दशा हुई इसके उत्तरदायी कांग्रेस के कर्णधार एवं कार्यकर्ता ही है। 

सत्य व अहिंसा के पूजारी का राष्ट्र हिंसा, मारकूट एवं हत्याओं का चाहता कैसे हुआ? , यह विषय का सार है। इसका कारण है महात्मा गांधी को हम मात्र श्रद्धांजलि, जयकारा एवं आलोचना ही दे पाये है, कोई भी नेता महात्मा गांधी बनकर चलने की हिम्मत नहीं कर पाया। महात्मा गांधी के राष्ट्र को महत्वाकांक्षी राजनैताओं की महत्वाकांक्षा का शिकार होने से रोक नहीं पाए। 

आओ मिलकर एक ऐसे विश्वराष्ट्र का निर्माण करें , राष्ट्र को राजनीति से नहीं समाजनीति से चलाने वाली परंपरा के निर्माण के लिए हम समाज सेवा के स्वयंसेवक (वोलेंटियर अॉफ सोसियल सर्विस) बने। समाज को राजनेताओं की सेवाभावी कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है। VSS का ध्वज विश्व राष्ट्र निर्माण की ओर आगे बढ़े।
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