नव्य मानवतावाद ने मनुष्य बुद्धि की मुक्ति का बीड़ा उठाया है। इसलिए हमें जानना अति आवश्यक है कि क्या हमारी बुद्धि मुक्त है? यदि यह प्रश्न में किसी विद्वान से करूँगा तो वह सोच कर जबाब देगा - हा अथवा नहीं, जबकि यह प्रश्न किसी मूर्ख से किया जाए तो तुरंत जबाब आएगा - हा मेरी बुद्धि मुक्त है। यह प्रश्न किसी मूर्ख, बुद्धिमान अथवा जन साधारण से नहीं है। यह प्रश्न तो नीति, धर्म एवं न्याय से है। अत: सवाल की तह में जाकर जो जबाब आएगा, वह सभी के लिए कल्याणकारी होगा। नीति, धर्म एवं न्याय कहते है कि जो बुद्धि मनुष्य को मानव, देवता एवं भगवान बना दे, वह मुक्त है; जबकि जो बुद्धि मनुष्य पशु, दानव, दैत्य, राक्षस एवं पिशाच बना दे, वह मुक्त नहीं है। सरल शब्दों में कहा जाए तो वह बुद्धि की मुक्ति का पथ है, जो मनुष्य को व्यापकता, विशालता एवं विराटत्व के पथ पर ले चले, जबकि जो जड़ता, संकीर्णता एवं रुग्णता की ओर ले जाए वह पथ कभी भी बुद्धि के मुक्ति का पथ नहीं हो सकता है। नीति, धर्म एवं न्याय बताता है कि जैसा प्रकृति ने मनुष्य को बनाया था अथवा परमपुरुष जैसे मनुष्य की चाहत रखते है वैसे मनुष्य मिलनाा जब सुलभ हो जाए तो बुद्धि की मुक्ति का पथ मिल जाता है जबकि दुर्लभ होने पर बुुुद्धि की मुक्ति का पथ खोजना आवश्यक है। आज हमारी बुद्धि कई न कई अथवा किसी न किसी बंधन में झकड़ी हुई है, इसलिए बुद्धि की मुक्ति नितांत आवश्यक है।
हमारी बुद्धि मुक्त नहीं है, यह सिद्ध हो जानने पर दूसरा प्रश्न उठता है कि हमारी बुद्धि किस जगह अटक गई है? बुद्धि की मुक्ति क्यों आवश्यक है? मनुष्य की बुद्धि के अटकने तथा रुकने के कई ठिकाने है। इन ठिकानों का सूक्ष्म अनुसंधान करे तो हम पाते है कि हमारी बुद्धि सामाजिक भाव प्रवणता एवं भौम भाव प्रवणता नामक दो प्रधान ठिकानों में अटक जाती है। सत्य तो यह है कि हमारे बुद्धि के अटकने सभी ठिकाने के अन्ततोगत्वा सामाजिक एवं भौम भाव प्रवणता में ही समाविष्ट है। सामाजिक एवं भौम भाव प्रवणता में अटकी बुद्धि आगे नहीं बढ़ती है। हैं। उसके विकास का पथ यही पर अवरुद्ध हो जाता है इसलिए नीति इसे बुद्धि की अमुक्ति की अवस्था कहती है। गतिशीलता जगत का धर्म है, अत: जहाँ हमारी बुद्धि आगे नहीं बढ़ेगी वहाँ निश्चित रुप से पीछे जाएगी। बुद्धि की इस ऋणात्मक गति को जड़ता, विनाश अथवा पतन की गति कहा जाता है। मनुष्य एवं मनुष्यता की क्षति नहीं हो इसलिए बुद्धि को सामजिक भाव प्रवणता एवं भौम भाव प्रवणता उपर उठानी होगी। इसी पथ को बुद्धि की मुक्ति का पथ कहा गया है।
बुद्धि की अमुक्ति के ठिकाने मिल जाने पर तीसरा प्रश्न होता है कि हमारी बुद्धि इनमें क्यों अटक जाती है? यह अपनी प्रगति का पथ को क्यों नहीं देख पाती है? इसके मूलतः दो ही उत्तर है - प्रथम मनुष्य का अज्ञान तथा द्वितीय मनुष्य की दुर्बलता। कई बार मनुष्य को सामाजिक भाव प्रवणता एवं भौम भाव प्रवणता के ऊपर के रास्ते का तनिक भी ज्ञान नहीं होता है, इसलिए उसी में झकड कर मर जाता है। यद्यपि यह दूसरों का नुकसान नहीं करता है तथापि स्वयं की क्षति अवश्य ही कर लेते है। अत: ज्ञानी जन का दायित्व बनता है कि मनुष्य को इस अंधकार से आलोक में लाएं। दूसरा जानकारी होने पर भी मनुष्य की हिम्मत नहीं होती है कि वह अपने को मुक्त परिवेश में ले चले। इस कारण भी उसकी बुद्धि की मुक्ति के पथ संधान नहीं पाती है। इनका भली प्रकार से ब्रेनवाश किया जाए तो हिम्मत कर सकते हैं। बुद्धि की मुक्ति नहीं होने का यदि कोई तीसरा कारण है तो वह मनुष्य का स्वार्थ है। यह लोग प्रथम दोनों से अधिक खतरनाक सिद्ध होते हैं। यह स्वयं के साथ उनके अनुयायी एवं ग्राहकों का भी नुकसान करते है। शास्त्र ने इन्हें राक्षस, दैत्य, दानव व पिशाच की श्रेणी में रखा गया है। आजकल इस प्रकार लोगों का आधिक्य है, जो अपनी स्वार्थ सिद्धि के मानव जाति को पाप पंख में पकड़ कर रखे हुए। यह जाति, मजहब एवं दलगत राजनीति के नेता तथा शोषणकारी सेठ एवं धुर्त व्यापारी है। जो मनुष्य अज्ञानता एवं साहस हीनता का फायदा उठाकर उन्हें कभी भी संकीर्णता से बाहर आने नहीं देने के सारे यत्न करते है। यद्यपि यह लोग एक दिन अपने किये पर पछताते है क्योंकि एक दिन अन्य इनसे भी चतुर नेता इनसे इनकी कुर्सी छिनकर ले जाता है।
चौथा प्रश्न यह है कि सामाजिक भाव प्रवणता एवं भौम भाव प्रवणता मनुष्य की बुद्धि के शत्रु कैसे? सामाजिक भाव प्रवणता जाति, महजब एवं रंग-नस्लगत मानसिकता के नाम से विश्व में अपनी पहचान बनाई है। इसने जाति, महजब, नस्ल एवं रंग भेद के आधार पर अनगिनत बार धरा को रक्तरंजित किया है, इसलिए उन्हें खतरनाक मानसिकता की श्रेणी में रखा गया है तथा इसमें ग्रस्त मानसिकता बुद्धि की मुक्ति की संज्ञा नहीं दी गई है। भौम भाव प्रवणता को क्षेत्र, प्रांत व देशगत भेद जनित बुद्धि को कहा गया है। इसने भी मानवता को लहू के आंसू रुलाया है। इसलिए इसे भी खतरनाक कहा गया है।
पंचम प्रश्न क्या मानवतावाद मनुष्य के त्राण का रास्ता है? सामाजिक एवं भौम भाव प्रवणता से त्राण पाने के लिए तथाकथित मानवतावाद की ओर मनुष्य चलता है, उसके मन में जाति व देश की भावनाएं गौण होकर मानव का मानव से प्रेम के आधार पर मानवतावाद का निर्माण होता है लेकिन यह भी मनुष्य की बुद्धि को मुक्ति नहीं दिलाता है। उसकी बुद्धि यद्यपि जाति, मजहब, देश विदेश की सीमाएं तो तोड़ लेती है लेकिन चराचर जगत के साथ न्याय नहीं नहीं करती है, पेड़ पौधों, जीव जन्तु तथा पर्यावरण उनकी बुद्धि की सीमा में नहीं आती है इसलिए वह उसके साथ न्याय नहीं करने के कारण बंधन का कारण बनती है। इसलिए तथाकथित मानवतावाद को बुद्धि मुक्ति का लक्ष्य नहीं रखा जा सकता है।
छठां प्रश्न आखिर बुद्धि की मुक्तिदाता कौन है? बुद्धि की मुक्ति के लिए मनुष्य को नव्य मानवतावाद को धारण करना होता है, यह सृष्टि के अणु परमाणु, जैव अजैव के प्रति मनुष्य को जिम्मेदार बनाते है। वह चराचर जगत से अहैतुकी प्रेम का अनुभव करते है। उसे बुद्धि को भेद रहित एक बंधन मुक्त अवस्था का बोध होता है। यह स्वतंत्रत बुद्धि ही मानव को प्रकृति ने प्रदान की थी। परम पुरुष मनुष्य से ऐसा बुद्धि सम्पन्न बनने की आश करते है। यद्यपि मनुष्य की बुद्धि का मुक्तिदाता तो परम पुरुष है लेकिन नव्य मानवतावाद मनुष्य को जागतिक जगत में बौद्धिक दृष्टि से उन्नत बनाता है। यह बुद्धि की मुक्ति का सबसे अधिक अनुभव कराने वाली अवस्था है। मुक्त बुद्धि ही मनुष्य को सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाता है। जिसे बौद्धिक जगत में नव्य मानवतावाद कहा जाता है। बौद्धिक जगत में बुद्धि की मुक्ति का पथ नव्य मानवतावाद है। जागतिक एवं बौद्धिक जगत में नव्य मानवतावाद बुद्धि की मुक्ति की अवस्था होने पर भी आध्यात्मिक जगत में बुद्धि मुक्ति आवश्यक है, इसलिए नव्य मानवतावाद को आनन्द मार्ग पर चलना ही होता है। आनन्द मार्ग मनुष्य बुद्धि को आधि भौतिक, आधि दैविक एवं आध्यात्मिक बंधन से मुक्त कर परम रस से लबालब भर देता है।
अन्तिम प्रश्न - नव्य मानवतावाद की ओर बुद्धि कैसे चल सकती है? बुद्धि की मुक्ति के लिए मनुष्य नव्य मानवतावाद को धारण करके चलना होता है, यह सिद्धांत तब व्यवहारिक बन जाता है जब मनुष्य की बुद्धि नव्य मानवतावाद की ओर चल पड़े। यद्यपि इस राह में सेन्टिमेंट मनुष्य के समक्ष विभिन्न रुप धारण करके खड़े होते है लेकिन जब उसके पास आनन्द मार्ग रुपी आदर्श एवं आनन्दमूर्ति के रुप में इष्ट होते है तब मनुष्य को नव्य मानवतावाद पर चलने से कोई नहीं रोक सकता है। आनन्द मार्ग के बिना नव्य मानवतावाद आसमानी आदर्श बनकर रह जाता है इसलिए नीति, धर्म एवं न्याय कहता है कि मनुष्य को आनन्द मार्ग पर चलना चाहिए। यही मनुष्य की बुद्धि की मुक्ति का पथ है एक आनन्द मार्गी ही सच्चा नव्य मानवतावादी है। इसलिए भौतिक जगत में प्रउत, बौद्धिक जगत में नव्य मानवतावाद तथा आध्यात्मिक जगत में अणुजीवत की समझ को लेकर चलना ही मनुष्य के कल्याण का पथ आनन्द मार्ग है।
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हस्त्ताक्षर - श्री आनन्द किरण "देव"
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