श्रीमद्भगवद्गीता के 13 वें अध्याय में 34 श्री कृष्ण उवाच एक अर्जुन उवाच सहित 35 श्लोक है। इसका नामकरण क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग किया गया है। इसमें शरीर, जीवात्मा, प्रकृति एवं पुरुष का वर्णन आता है।
अर्जुन के सवाल क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ व पुरुष प्रकृति के प्रश्न के जबाब में श्रीकृष्ण शरीर को क्षेत्र एवं जीवात्मा को क्षेत्रज्ञ बताया कि पंचमहाभूत (व्योम,मरु, तेज, जल व क्षिति), मन{बुद्धि, अहंकार, मन(संभवतया चित्त के प्रयुक्त किया शब्द है)}, दस इन्द्रियाँ{पंच कर्मेन्द्रियां (वाक, पाणी, कर, पाद, व अपदस्थ) व पंच ज्ञानेन्द्रियाँ(नेत्र,कर्ण, ध्राण, जिह्वा व त्वक्)}, पंच तंमात्रा ( शब्द,स्पर्श,रुप, रस व गंध) , तथा पंच विकार (चेतना इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, स्थूल देहका पिण्ड, चेतना और धृति) संयुक्त क्षेत्र संक्षेप ज्ञान है। ज्ञान की परिधि में गीता ने विनम्रता (मान-अपमान के भाव का न होना), दम्भहीनता (कर्तापन के भाव का न होना), अहिंसा (किसी को भी कष्ट नहीं पहुँचाने का भाव), क्षमाशीलता (सभी अपराधों के लिये क्षमा करने का भाव), सरलता (सत्य को न छिपाने का भाव), पवित्रता (मन और शरीर से शुद्ध रहने का भाव), गुरु-भक्ति (श्रद्धा सहित गुरु की सेवा करने का भाव), दृड़ता (संकल्प में स्थिर रहने का भाव) और आत्म-संयम (इन्द्रियों को वश में रखने का भाव), इन्द्रिय-विषयों (शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श) के प्रति वैराग्य का भाव, मिथ्या अहंकार (शरीर को स्वरूप समझना) न करने का भाव, जन्म, मृत्यु, बुढा़पा, रोग, दुःख और अपनी बुराईयों का बार-बार चिन्तन करने का भाव, पुत्र, स्त्री, घर और अन्य भौतिक वस्तुओं के प्रति आसक्त न होने का भाव, शुभ और अशुभ की प्राप्ति पर भी निरन्तर एक समान रहने का भाव, मेरे अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को प्राप्त न करने का भाव, बिना विचलित हुए मेरी भक्ति में स्थिर रहने का भाव, शुद्ध एकान्त स्थान में रहने का भाव और सांसारिक भोगों में लिप्त मनुष्यों के प्रति आसक्ति के भाव का न होना, निरन्तर आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व-स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने का भाव यह सब तो मेरे द्वारा ज्ञान कहा गया है और इनके अतिरिक्त जो भी है वह अज्ञान है। इसके बाद श्रीकृष्ण क्षेत्रज्ञ के विषय बताते है। जिसे जानकर मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य अमृत-तत्व को प्राप्त होता है, जिसका जन्म कभी नही होता है जो कि मेरे अधीन रहने वाला है वह न तो कर्ता है और न ही कारण है, उसे परम-ब्रह्म (परमात्मा) कहा जाता है। उस परमात्मा को गीता में कहा गया है कि वह सर्वोत्तमुखी, सर्वगुणसम्पन्न, सभी ओर चलयमान, सभी चक्षु, कर्ण, हाथ पांव रखने वालावाला तथा सर्वव्यापी है। इसके साथ इन्द्रियातित, गुणातीत, भावातित, सभी इन्द्रियों का स्रोत एवं सर्व भोक्ताभोक्ता है। यह सभी प्राणियों के बाहर व भीतर, अति सूक्ष्म, अति विराट, अति दूर होने पर भी सबके पास स्थित है। वह सभी प्राणी अप्राणी में अलग अलग स्थित होने पर भी वह एक है। उसे सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता एवं संहार कर्ता कहा गया है। उसी से सभी प्रकाशित होते है अतः सभी हृदय में विराजमान है। यह परमज्ञान मेरे द्वारा अर्जुन तुम्हें बताया गया है। इस परम तत्व को शिवशक्तयात्मक आदि अनादि बताया गया है। इससे ही से तीनों गुण उत्पन्न हुए है। कार्य कारण व करण सम्पन्न करने वाला तत्व प्रकृति है। तीन गुणों के अधीन प्राणी अपने संस्कार के अनुसार अधम एवं उधम योनि में जन्म लेता है। सभी प्राणियों का पालन करने वाला परमेश्वर अणु चैतन्य (आत्मा) साक्षी रुप में स्थित है। मनुष्य साधना(आत्मिक कर्म), सेवा( बाहरी कर्म) एवं त्याग ( मानसिक कर्म अर्थात आत्मिक एवं बाह्य कर्म) के माध्यम से मुक्त की राह पर चलता है। यहाँ जीव की गति में आत्म मोक्ष व जगत हित की झलक मिलती है। श्रीकृष्ण अर्जुन को क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ में संबंध स्पष्ट करते हुए कहते है कि यह सृष्टि एवं सृष्टि में जो कुछ है, वह प्रकृति एवं पुरुष के संयोग के कारण है। पुरुष अकर्ता होने पर भी प्रकृति उनके द्वारा प्राप्त स्वतंत्रता में रहकर संपन्न करता है। अंत में अणु चैतन्य का स्वभाव चित्रित करते हुए कहते है कि वह शरीर में स्थित होने पर लिप्त नहीं है। उसी भाव चलने वाला मनुष्य मेरे को प्राप्त होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ विभाग योग के माध्यम शरीर, मन तथा आत्मा के संदर्भ में जाना जाता है।
0 Comments: