श्रीमद्भगवद्गीता के 12 वें अध्याय में 20 श्लोक है, उसमें से 1 अर्जुन एवं 19 श्रीकृष्ण का उवाच है। इस अध्याय का नामकरण भक्तियोग किया गया है। जिसमें एक उन्नत भक्त के लक्षण बताएं गए है।
अर्जुन प्रश्न करता है - व्यक्त एवं अव्यक्त पुरुष में से किस को लक्ष्य मानकर चलना श्रेयस्कर है? इसके प्रति उत्तर में श्रीकृष्ण जो कहते है, वह भक्तियोग की उपमा प्राप्त करती है। श्रीकृष्ण के मतानुसार व्यक्त एवं अव्यक्त एक ही पुरुष की दो अवस्था है। इसमें सांसारिक विषय में लिप्त व्यष्टि देखता है। विरक्त व्यष्टि अहम ब्रह्म अस्मी में प्रतिष्ठित होता है। यदि कोई अव्यक्त पुरुष को लक्ष्य कर तदानुसार साधन करता है। वह भी परमपद को प्राप्त करता है। यह पथ थोड़ा कष्टकर अथवा रस रहित हो सकता है क्योंकि इसमें कोई हमराही नहीं है, जिसके साथ अपने मन की बात सांझा की जा सकें। जबकि व्यक्त पुरुष के संग यात्रा आरामदायक महसूस होती है क्योंकि हमराही के साथ सबकुछ सांझा कर चलते चलते कब पहुंचे मालूम नहीं होता है। प्रथम में अकेले ही अजान पथ बढ़ना होता है जबकि द्वितीय में इस पथ से परिचित अपने सखा के साथ चलना है। इसलिए श्री भगवान कहते कि यह यात्रा करने के साधना का अभ्यास करना आवश्यक है। इतने पर भी बात नहीं बनने पर ब्रह्म भावमय कर्म कौशल को मानकर चलना होता है। यहाँ भी असुविधा महसूस होने पर सतसंग, स्वाध्याय एवं कीर्तन के माध्यम से अपने सुदृढ़ बनाकर चलना ही भक्त का मार्ग है। एक अच्छा एवं तगड़ा भक्त सम विषम, आशा निराशा, निंदा स्तुति, संपन्नता विपन्नता, सर्दी गर्मी, आसक्ति विरक्ति, शोक हर्ष , शुभ अशुभ तथा शुत्रता मित्रता रुपी किसी भी परिस्थितियों में अपने लक्ष्य पर विश्वास एवं दृढ़ता को इधर उधर नहीं होने देता है। इसलिए कृपानिधान कहते है कि भक्त मुझे बहुत प्रिय है क्योंकि यह राग द्वेष, आसक्ति विरक्ति से उपर है, इसमें कर्मफल की चाहत भी नहीं है, यह मात्र मेरे एवं मेरे लिए ही जीवित है, मेरे लिए कर्मशील है, मेरे लिए ही तत्पर है।
भक्तियोग का रसास्वादन जो करता है, वह भय रहित परमपद को प्राप्त होता है। यह प्रकृति अटल विधान है।
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