धर्मचक्र

धर्मचक्र, भारतवर्ष के द्वारा मानवता को दी गई, अमूल्य धरोहर है। बुद्ध से पूर्व यह अनाम चला था तथा बुद्ध के बाद यह सनाम चला, आज भी यह चल रहा है तथा कालांतर में भी चलता रहेगा, इसका चलना ही शुभंकर है। 

धर्मचक्र की भूमिका बंधन ने तीन सवाल खड़े कर दिए है -
1. धर्मचक्र क्या❓
2. धर्मचक्र क्यों ❓
         तथा 
3.धर्मचक्र कैसे ❓ 
यह तीन प्रश्न ही व्यक्ति को यह बताएंगे कि तुम मनुष्य हो, मनुष्य होने के नाते तुम्हारी समाज के प्रति जिम्मेदारी है। 

              धर्मचक्र क्या 
धर्मचक्र में एक विषय होता है, जो चक्र के केन्द्र से निकल चक्र की परिधि में स्थित सभी बिन्दुओं के पास एक साथ, एक ही वेग से जाता है तथा उस बिन्दु की विषय के प्रति समझ बनाकर एक समाज का निर्माण होता है। यहाँ एक बात समझना आवश्यक है कि धर्मसभा में तथा धर्मचक्र में पार्थक्य होता है। धर्मसभा में वक्ता अपनी बात को श्रोताओं के समक्ष रखता है, श्रोता उस पर सहमति एवं असहमति तो जाहिर कर सकता है लेकिन उसके आधार पर सर्जन एवं विघटन नहीं कर सकता है। नियमानुसार सभा का केंद्र बिन्दु नहीं होता लेकिन वक्ता केन्द्र बिंदु बन जाता है लेकिन धर्मचक्र का केंद्र बिन्दु होता है लेकिन वह किसी भी बिन्दु को गौण नहीं बनाता है। धर्मसभा में विचारक अपने श्रोताओं को गौण बना देता है। तथाकथित आजकल सतसंग के नाम पर चल रही प्रवचन मालाएँ, साधक को मजबूत नहीं निर्बल बना देती है। साधक यदि मजबूत बन गया तो धर्म के नाम पर चलने वाले व्यवसाय धराशायी हो जाएंगे। अत: कहा जाता है कि सदगुरु धर्मचक्र का सर्जन करते है क्योंकि उन्हें अपने शिष्यों को रामदास नहीं रामस्वरूप बना है।  

                 धर्मचक्र क्यों 
इस धरा पर मनुष्य ही सबसे जिम्मेदार अथवा बे जिम्मेदार सत्ता के रुप में कार्य करता है। जब मनुष्य जिम्मेदारी से काम करता है तो मनुष्य के द्वारा इस धरा पर कुछ शुभ होता है, इसके विपरीत जब मनुष्य धरा पर बे जिम्मेदारी से कार्य करता है तब धरा पर हाहाकार मच जाता है। धर्मचक्र मनुष्य को जिम्मेदार बनाता है कि तुम इस धरा पर एक उद्देश्य लेकर आये हो तथा तुम अपने उद्देश्य में तब सफल होंगे जब तुम धरा के भविष्य को उजाड़ कर नहीं आबाद करने का काम करके जाओंगे। अन्य विधा मनुष्य के सामने यह सोच तो परोसता है लेकिन उस सोच को क्रियारूप देने की विद्या नहीं सिखा पाते है। यदि मनुष्य जिम्मेदार बन गया तथा अपने दायित्व का निवहन शुद्ध अंतकरण से करने लग गया तो धर्म व्यवसायियों का कारोबार खप हो जाएगा। अत: अनुभव किया गया है कि सदगुरु मनुष्य को जिम्मेदार बनाने के लिए धर्मचक्र का प्रवर्तन करते है क्योंकि वह धरा पर सर्व भवन्तु सुखिनः स्थापित करना चाहते है। 

            धर्मचक्र कैसे 
अंतिम गुरुत्व विषय है कि धर्मचक्र बनता कैसे तथा चलता कैसे है। धर्मचक्र चक्र व्यक्ति निर्माण की विद्या से बनता है, जो यह घोषणा करता है कि मुझे संख्या नहीं, गुणवत्ता चाहिए। इसके विपरीत धर्म व्यवसाय भीड़ को अपनी संपन्नता समझता है। धर्मचक्र के चलन से एक व्यक्ति के अंदर संस्था व समाज के प्रति अपनापन के भाव को जन्म देकर चलता है। वह यहाँ अपना न्यौछावर कर अपना कल्याण चाहने की अभिलाषा लेकर नहीं चलता है, वह चलता है, यह अपना है तथा यह मेरी अपनी संपदा है। एक आप्त वाक्य आता है कि जागृति साधकों की मिलित संपदा है। यह संदेश ही धर्मचक्र कैसे का उत्तर हैं। यह महसूस किया गया है कि सदगुरु धर्मचक्र इसलिए बनाते है कि वे संगच्छध्वम् के आधार पर समाज को चलना चाहते है। 


श्री आनन्द किरण
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