वैचित्र्य ं प्राकतधर्म: समानं भविष्यति। - प्रउत दर्शन में बताया गया है कि विचित्रता प्रकृति का धर्म है तथा भविष्य में कभी समान नहीं होगा। इस दृष्टि से समाज का अर्थ नैतिक तंत्र का व्यक्ति व्यक्ति की विशिष्टता को देखकर निर्माण किया जाना होता है। पूंजीवाद में व्यक्ति को अत्यधिक महत्व देने पर भी व्यक्ति व्यक्ति के वैशिष्ट्य को देखकर अर्थतंत्र का निर्माण नहीं किया गया मात्र प्रउत ही एकमात्र दर्शन है, जो व्यक्ति व्यक्ति का अर्थतंत्र है। इस प्रकार अर्थ चक्र के प्रथम बिम्ब में व्यक्ति का महत्व दिखाई देता है। विचित्रता को प्राकृतिक धर्म के रुप में निर्धारण के बाद भी प्रउत कहता है कि भविष्य में भी कभी समान नहीं होगा। अर्थात व्यक्ति की विचित्रता का महत्व सदैव स्वीकार्य रखता है। समाज कभी भी व्यक्ति की विशिष्टता को समाप्त नहीं कर सकता है।
युगस्य सर्वनिम्नप्रयोजनं सर्वेषां विधेयम । - न्यूनतम आवश्यकता सभी के लिए विधेय है। यह कहकर प्रउत व्यक्ति के सामाजिक प्राणी होने की ओर संकेत करता है। यहाँ एक सबके लिए तथा सब एक के लिए के सामाजिक सूत्र को स्थापित करता है। यहाँ व्यक्ति के लिए समाज का प्रथम चक्रार्ध का निर्माण होता है एवं अर्थ चक्र का दूसरा स्टेशन समाज निर्मित होता है। भौतिक संपदा पर प्रथम हक सबका है। यहाँ समाज इतना सजग है कि अभाव में किसी को रहने नहीं देता है। इसको देखकर व्यक्ति समाज की ओर मजबूती से चलता है। अर्थ चक्र दूसरे स्टेशन पर पहुँचता है। व्यक्ति अर्थ नियमनन का अधिकार समाज को देता है। प्रथम अपनी विशिष्टता के कारण सभी अधिकार अपने पास सुरक्षित रखता है। प्रथम बिन्दु पर पूंजीवाद बैठा है तो दूसरे स्टेशन पर समाजवाद।
अतिरिक्तं प्रदातव्यं गुणानुपातेन। - अतिरिक्त द्रव्य को गुण के अनुपात में वितरण करने की बात कह कर पुनः व्यक्ति की विशिष्टता को स्वीकार करता है। इस प्रकार अर्थ चक्र का अन्तिम चक्रार्ध समाज के लिए व्यक्ति भी पूर्ण होता है। अर्थ चक्र प्रथम बिन्दु पर मजबूती से स्थापित होता है। गुण का अनुपात व्यक्ति को समाज से उसका हक दिलाता है। यहाँ एक बात स्मरण रखनी है कि यहाँ पूंजीवाद नहीं पूर्णत्ववाद स्थापित होता है। प्रथम स्टेशन पर प्रथम अवस्था में बैठा व्यक्ति अपूर्ण व अतृप्त था। अब यहाँ व्यक्ति पूर्ण एवं तृप्त है। इसलिए अर्थतंत्र में आध्यात्म अनिवार्य है।
सर्वनिम्नमानवर्धनं समाज जीव लक्षणम् । - अन्तिम अवस्था में समाज के निम्न मान को उपर उठाने की बात कहकर समाज के जीवन का लक्षण बताता है। अर्थ चक्र को मात्र एक से दूसरे तथा दूसरे से पहले स्टेशन पर पहुँच कर स्थित नहीं रखता है अपितु घूर्णनशील रखता है। यहाँ एक सदैव स्मरणीय है कि व्यक्ति का समाज तक एवं समाज का व्यक्ति तक पहुँचने का एक ही नहीं पृथक मार्ग है। एक दृष्टांत व्यक्ति से पैसा समाज की इकाई बैंक के पास एवं बैंक से पैसा पुनः व्यक्ति के पास तथा इस प्रकार घुमना धन का सद उपयोग है। इसलिए अर्थ का यह चक्र प्रउत का उपयोग सिद्धांत भी हुआ।
व्यक्ति के लिए समाज तथा समाज के लिए व्यक्ति को स्थापित करने के लिए प्रउत की आवश्यकता है। इस विश्व को आत्म निर्भर समाज एवं समाज को स्व: निर्भर व्यक्ति देने के लिए प्रउत जरूरी है।
व्यक्ति के लिए समाज तथा समाज के लिए व्यक्ति को स्थापित करने के लिए प्रउत की आवश्यकता है। इस विश्व को आत्म निर्भर समाज एवं समाज को स्व: निर्भर व्यक्ति देने के लिए प्रउत जरूरी है।
अर्थव्यवस्था के दो घटक व्यष्टि एवं समष्टि उपरोक्त सूत्रों के माध्यम से समझ जा सकता है। जहाँ व्यष्टि समष्टि के प्रति तथा समष्टि व्यष्टि के प्रति जिम्मेदार है। अन्य शब्दों में व्यष्टि समष्टि की उपयोगिता समझता तथा इसे प्रमाणित करता है। ठीक इसीप्रकार समष्टि भी व्यष्टि की उपयोगिता का ध्यान रखता है। एक दूसरे की उपयोगिता का ख्याल रखने कारण अर्थशास्त्र का उपयोग सिद्धांत कहा जा सकता है। इससे एक दूसरे का उपयोग करना जानते एवं समझते है। उपयोग सिद्धांत में व्यष्टि, समष्टि, विचित्रता, प्रकृतधर्म, न्यूनतमआवश्यकता, सर्वप्रायोजन, अतिरिक्तसंपदा, गुणीजन, सर्वनिम्नमान एवं समाजजीव नामक दस तत्व है। जिसमें अन्तिम आठ तत्व प्रथम दो तत्व को एक दूसरे के उपयोगी बनाते है। इसके अभाव में व्यष्टि समष्टि का तथा समष्टि व्यष्टि का उपयोग नहीं कर सकते है।
_व्यक्ति की विचित्रता व्यक्ति का महत्व बनाए रखता है। न्यूनतम आवश्यकता सबके लिए प्रयोजन्य समाज के होने की आवश्यकता को सिद्ध करता है, अतिरिक्त संपदा पर गुणीजन का अधिकार व्यक्ति में व्याप्त विशिष्टता को प्रमाणित करता है अर्थात समाज कभी भी व्यक्ति का दमन नहीं कर सकता है। निम्न मान में वृद्धि करना का अर्थ व्यक्ति कभी समाज पर अपना प्रभाव स्थापित नहीं कर सकता है। अर्थ का व्यक्ति एवं समाज तथा समाज एवं व्यक्ति में घूमना अर्थ के चक्र का निर्माण करता है। जिस अर्थ चक्र या आर्थिक चक्र कहा जा सकता है। जिसके केन्द्र में अनन्त सुख है।
उपयोग सिद्धांत से प्रउत में उ का निर्माण होता है। इसके अभाव में त - तत्व मूल्यहीन हो जातेे है।
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