हमने प्रउत दर्शन में विद्यमान सदविप्र, वैश्य, विप्र, क्षत्रिय, शूद्र एवं स्वभाविक परिवर्तन नामक तत्व की उपादेयता के संदर्भ में जाना एवं समझा है। प्रथम पंचतत्व के कारण चक्र का निर्माण होता है। स्वभाविक परिवर्तन के माध्यम से चक्र गतिशील रहता है। आज हम चक्र गति के अन्य पंचतत्व की उपादेयता से परिचित होंगे।
प्रउत दर्शन में क्रांति, विक्रान्ति, विप्लव व प्रति विप्लव नामक तथ्यों का उल्लेख आता है। यह कार्य सभी सदविप्रों के द्वारा ही संपन्न किये जाते है। शक्ति के संप्रयोग से गति की दिशा में चक्र की गति वर्धन को क्रांति तथा विपरीत दिशा में गति को विक्रान्ति की संज्ञा दी गई है। तीव्र शक्ति सम्पाद के द्वारा उपरोक्त परिस्थितियों का घटित होना क्रमशः विप्लव तथा प्रति विप्लव नाम दिया गया है।
🌹-प्रउत में क्रान्ति व विप्लव की अवधारणा-🌹
शक्तिसम्पातेन चक्रगतिवर्धनं क्रान्ति:। - प्रउत का तृतीय सिद्धांत अथवा सूत्र क्रान्ति की परिभाषा देता है कि शक्तिप्रयोग चक्र की गति के वेग में वृद्धि करना क्रान्ति है। जहाँ स्वाभाविक परिवर्तन में शक्ति का प्रयोग नहीं है जबकि क्रान्ति में शक्ति का प्रयोग है।
तीव्रशक्तिसम्पातेन गतिवर्धनं विप्लव:। - प्रउत में विप्लव को समझाते हुए लिखा है कि विप्लव में क्रान्ति से अधिक शक्ति एवं कम समय की आवश्यकता है। यही दोनों में अन्तर है।
🌹-प्रउत में विक्रांति एवं प्रतिविप्लव की अवधारणा-🌹
शक्तिसम्पातेन विपरीतधारायां विक्रान्ति:। - प्रउत में बताया गया है कि शक्ति के प्रयोग से समाज चक्र की गति को विपरीत दिशा में ले जाना विक्रांति है। यह अवस्था अत्यंंत अल्पस्थायी होती है।
तीव्रशक्तिसम्पातेन विपरीतधारायां प्रतिविप्लव:। - प्रउत ने अल्प समय एवं अधिक शक्ति का प्रयोग कर चक्र की गति को विपरीतगामी बनाने को प्रतिविप्लव की संज्ञा दी है।
समाज में इन अवस्थाओं की क्या उपादेयता है?
जब स्वभाविक परिवर्तन का नियम लागू है तो इन तत्वों से समाज चक्र क्यों गुजरना होता है? समाज में नैतिकता एवं धर्म की रक्षा का जिम्मा सद्चरित्रों के कंधों पर है। इसलिए सदविप्रों को इन अस्त्रों का वरण करना होता है। क्रांति एवं विप्लव की उपादेयता तो समझना आसान है लेकिन विक्रान्ति एवं प्रति विप्लव की उपादेयता समझना जरा सा कठिन है। किसी समय किसी वर्ग विशेष द्वारा शोषणकारी बनने पर सदविप्र द्वारा क्रान्ति एवं विप्लव का सहारा लिया जाता है। कभी ऐसी भी परिस्थिति आती है कि एक युग के प्रभावशाली वर्ग द्वारा शक्ति के मद में नीति नियमों को ताक में रखकर शोषणकारी बन जाता है तथा उस समय तक उत्तरवर्ती वर्ग के द्वारा वह जिम्मेदारी लेने की योग्यता नहीं रखने के कारण आपात परिस्थिति का सर्जन किया जाता है तथा समाज चक्र में विक्रांति एवं प्रतिविप्लव आता है। इसको अधिक सुस्पष्ट समझने के लिए प्राचीन भारत के एक कथा की ओर चलते है। परशुराम ने क्षत्रियों का दमन कर समाज चक्र की मर्यादा की रक्षा करते हुए। विप्रों को प्रधानता दी थी, लेकिन कथा का इतिहास कहता है कि यह असफल सिद्ध हुई तथा सत्ता पुनः क्षत्रियों के हाथ में चली गई। इसकी प्रमाणिकता का प्रश्न विषय की परिधि में नहीं है। विक्रान्ति व प्रति विप्लव की अवस्था उस मर्ज की दवा है, जो आपात परिस्थिति के उत्पन्न होने पर किया जाता है। वर्ग विशेष के शोषण से त्रस्त जनता को बचाते समय समाज चक्र के नियमानुसार उत्तरवर्ती वर्ग तैयार होता है अथवा तैयार किया जा सकता है तो क्रांति एवं विप्लव के द्वारा कार्य संपन्न हो जाता है।
क्रांति एवं विक्रान्ति की अवस्था होते हुए। विप्लव एवं प्रति विप्लव की क्या उपादेयता है? प्रथम साधनों के द्वारा परिस्थिति को बदलने में यदि समय अधिक लगे अथवा आततायी की ताकत बहुत अधिक होने पर तीव्र शक्ति की आवश्यकता होने पर द्वितीय साधन कारगर सिद्ध होते हैं। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि उपरोक्त तत्व रक्त पिपासू है अथवा नहीं? कोई भी परिवर्तन रक्त की नदी में स्नान नहीं करना चाहता है तथा सदविप्र रक्त बहाने रुचि नहीं रखते है, लेकिन परिस्थितियां जो सहयोग उत्पन्न करे सदविप्र उसके लिए तैयार है। सदविप्र प्रथम एवं उत्तम पसंद रक्त विहीन परिवर्तन की रहती है।
🌹-प्रउत में परिक्रान्ति की अवधारणा-🌹
पूर्णर्वत्तानेन परिक्रान्ति:। - पूर्ण व आवृत, समाज चक्र एक बार पूर्ण रुप से घूम जाने को परिक्रान्ति कहते है।
समाज चक्र के शूद्र, क्षत्रिय, विप्र, वैश्य, सदविप्र, स्वभाविक परिवर्तन, क्रांति, विप्लव, विक्रान्ति, प्रति विप्लव एवं परिक्रांति नामक एकादश तत्व है। प्रथम पांच तत्व प्रधान छ: तत्व व ग्यारहवां तत्व आवश्यक तथा शेष गौण तत्व है। प्रउत दर्शन में ये तत्व विद्यमान है,
जो त का प्रतिनिधित्व करते है। कतिपय विद्वान अंग्रेजी भाषा से अनुवाद के क्रम में प्रउत को प्रउट कर देते है; जो मेरे विचार से सही नहीं है।श्री आनन्द किरण
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