चक्रकेन्द्रे सदविप्र चक्रनियन्त्रका:।
हमने समझा की प्रउत के समाज चक्र में पहले शूद्र ही क्यों एवं तत्पश्चात क्षत्रिय, विप्र,वैश्य एवं शूद्र क्यों? आज उस से आगे प्रउत दर्शन का दूसरा सूत्र कहता है कि सदविप्र चक्र के केन्द्र मे रहकर चक्र को नियंत्रित करता है। गणित का विद्यार्थी जानता है कि बिना केन्द्र के चक्र की परिकल्पना ही नहीं की जाती है। ब्रह्म चक्र के प्राणकेन्द्र में जिस प्रकार शिव है। ठीक उसी भाँत समाज चक्र के प्राणकेन्द्र में सदविप्र है। इसलिए सदविप्र को समझना आवश्यक है। आनन्द मार्ग दर्शन कहता है कि यम नियम का दृढ़तापूर्वक पालन करने वाला एवं भूमा भाव का साधक सदविप्र है। सदविप्र बनने की व्यवहारिक क्रिया आनन्द मार्ग षोडश विधि में है। अर्थात सोलह विधी में काफी मजबूत हो। यहाँ एक बात स्मरणीय है कि प्राउटिस्ट एवं सदविप्र एक ही नहीं है।
सदविप्र को समाज के केन्द्र में रहकर चक्र के नियंत्रण का कार्य का कार्य करना होता है। अत: यम नियम एवं भूमा भाव की साधना शक्ति आवश्यक है। आप सभी जानते है कि शक्ति के अभाव में चक्र का नियंत्रण नहीं हो सकता है। यहाँ यह भी नोट करने योग्य बिन्दु है कि मात्र आशीर्वाद एवं चमत्कार से सृष्टि चक्र एवं समाज चक्र नहीं चलता है तथा नहीं चलाया जा सकता है। सृष्टि चक्र एवं समाज चक्र का भी एक विधान है। उसका अनुपालन करते हुए चलना होता है।
प्रउत कहता है कि सदविप्र में शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय एवं विप्र सभी गुण विद्यमान है। वह एक अच्छा शूद्र है, क्योंकि उससे बेहतर कोई सेवा कर नहीं सकता है। वह सेव्य में नारायण के दर्शन करता है। एक माँ से बेहतर नवजात शिशु की सेवा कौन कर सकता है? भक्त से बढ़कर भगवान की सेवा ओर कोई कर ही नहीं सकता है। सदविप्र एक अच्छा वैश्य है। वैश्य का गुण होता है कि वह नफा एवं नुकसान देखकर करणीय अकरणीय तय करता है साथ में करणीय को इतना बेहतरीन करता है। नफा अधिक से अधिक हो। इस कार्य में नैतिकता का होना एक आवश्यक शर्त है। चूँकि सदविप्र एक नैतिकवान वैश्य भी होने के कारण व्यष्टि एवं समष्टि कल्याण में अपना नफा नुकसान देखता है। वह उन कार्य को करने को कहता है जो सर्वजन के हित एवं सुख को साधता है। सदविप्र से शक्तिशाली कोई क्षत्रिय इस सृष्टि में नहीं है। इसके पास दिव्यास्त्र है तथा उसके उपयोग की कला में भी दक्ष है। वह आध्यात्म नैतिकता का पाठ इतनी गहराई से पढ़ा है कि वह अपनी शक्ति का सदैव सद् प्रयोग करता है। दूर् उपयोग उसे होता ही नहीं है। रामायण कथा शिक्षा देती है कि रावण उच्च आध्यात्मिक शक्ति संपन्न होने के बावजूद भी नैतिकता के अभाव में पतन को गले लगया। चूँकि सदविप्र का प्राथमिक गुण है कि यम नियम में प्रतिष्ठित एवं भूमा भाव का साधक इसलिए वह समाज का रक्षण भलीभाँति करता है। सदविप्र से अच्छा विप्र इस सृष्टि में आया ही नहीं है। जैसा कि सदविप्र का शाब्दिक अर्थ है कि विप्र में जो सद् है। अथवा सद् है जो विप्र। वह आध्यात्मिक नैतिकता को अंगीकार करने के कारण पांडित्य अहंकार के संस्पर्श में नहीं आता है। भूमा भाव की साधना सदविप्र में संकीर्णता को आने नहीं देता है।
एक सदविप्र अपने उपरोक्त गुणों के कारण चक्र के नियंत्रण एवं संचालन कार्य करता है। इसलिए समाज चक्र में सदविप्र का स्थान केन्द्र मे है। सदविप्र के अतिरिक्त अन्य कोई इस कार्य का संपादन नहीं कर सकता है इसलिए यह भी कारण सदविप्र को समाज चक्र के प्राणकेन्द्र में स्थापित करता है।
सदविप्र युग में वर्ण की प्रधानता के आधार पर उनके तदानुकूल शक्ति संग्रह एवं उपयोग कर व्यवस्था को नियंत्रित एवं नियमित करने में सक्षम सत्ता का नाम है। यह सभी तथ्य, गुण एवं कारण सदविप्र को चक्र के केन्द्र स्थित करते है। एक महत्वपूर्ण स्मरणीय बिन्दु जब जब भी सदविप्रों से समाज चक्र का न्यायोचित ढंग से नियंत्रण नहीं हुआ है तब तब महा सदविप्र कै आना पढ़ा है। पृथ्वी के इतिहास में भगवान सदाशिव, भगवान श्रीकृष्ण एवं भगवान श्री श्री आनन्दमूर्ति जी महा सदविप्र हुए है।
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श्री आनन्द किरण
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