समाज चक्र व अर्थतांत्रिक चक्र के बाद प्रउत के प्रगतिशील सिद्धांत को समझना आवश्यक है। अर्थ चक्र के दोनों घटक व्यक्ति व समाज के केन्द्र में अधिकतम सुख ही नहीं अनन्त सुख आनन्द का रहना अधिक उपयुक्त है। आनन्द के रहने से अर्थ व्यवस्था आध्यात्मिक के अधिक नजदीक रहते है। जिससे उसके संचालन का भार आध्यात्मिक नैतिकवान लोगों के हाथ में रहता है। आर्थिक जगत में अर्थ चक्र के में अधिकतम सुख को अवस्थित कर अर्थशास्त्रियों ने एक ऐतिहासिक भूल की थी। इससे के कारण अर्थशास्त्री भूल पर भूल करते ही गए तथा उन्होंने व्यक्ति की आवश्यकताओं को असीमित बता दिया; जबकि आवश्यकता नहीं इच्छाएँ असीमित है। आवश्यकताओं को परिभाषित किया जा सकता हैं। यदि व्यक्ति आवश्यकताओं को परिभाषित करने में असक्षम रहता है तो समाज की मदद से परिभाषित किया जा सकता है। आवश्यकता एवं इच्छाएँ एक नहीं है। प्रधानमंत्री बनना व्यक्ति की इच्छा है लेकिन आवश्यकता नहीं है। इच्छाएँ अशांत रहने से व्यक्ति सुख के परिमाप को कम कर देती है लेकिन सत्संग के द्वारा इच्छाओं आत्मिक एवं मानसिक जगत में कर अनन्त सुख के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। इच्छाओं के अशांत रहने से व्यक्ति के सुख में कमी दिखाई दे सकती है लेकिन समाज के सुख में कोई कमी नहीं आती है, जबकि व्यक्ति की आवश्यकता अशांत रहने से समाज के सुख पर भी प्रश्न चिन्ह लग जाता है। इसलिए प्रउत दिखाई देने वाला अर्थ चक्र न्यूनतम आवश्यकता को पूर्ण करने की ग्रारंटी देता है।
प्रउत में एक क्रिया चक्र भी है जो असंचय, चरमउत्कर्ष, विवेकपूर्ण वितरण, व्यष्टि समष्टि संभावनाएं चरम उपयोग, स्थूल सूक्ष्म कारण के उपयोग में सुसंतुलिता, देश काल पात्र के अनुसार उपयोग में परिवर्तन एवं उपयोग का प्रगतिशील होने से निर्मित है।
समाजदेशेन बिना धनसंचय: अकर्त्तव्य:। - व्यक्ति की संचय प्रवृति समाज के दर्द नहीं बने इसलिए प्रउत क्रिया के इस प्रथम स्टेशन की लगाम समाज को सौंपता है। समाज की अनुमति के बिना किसी के पास भी धन संचय का कर्तव्य रहने देना एक व्याधि को जन्म देता है। व्यक्ति का धन संचय करना या नहीं करना, कितनी मात्र में धन को संचित कर रखना तथा कब-कब धन व्यक्ति के पास रह सकता है। इसको निश्चित करने का अधिकार समष्टि सत्ता को है। व्यक्तिवादी अर्थशास्त्र इसे व्यक्ति की स्वाधीनता हनन बता सकता है लेकिन यहाँ स्वच्छंदता पर रोक है। व्यक्तित्व के विकास के लिए स्वतंत्रता का होना आवश्यक है। स्वतंत्रता का संबंध संचय से नहीं विकास में लगने से है।
स्थूलसूक्ष्मकारणेषु चरमोपयोग: प्रकर्तव्य: विचारसमर्थितं वण्टन। - प्रउत व्यक्ति एवं समाज के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत के चरमोत्कर्ष की आज्ञा देता है। जगत के समूल उपयोग के बिना संपदा का अपव्यय होता है। अव्यय कर्म चक्र को आगे नहीं बढ़ने देता है। अतः संचय की प्रवृत्ति पर लगाम के उत्कर्ष के कार्य को बेलगाम रखना आवश्यक है। क्रिया चक्र के दूसरे स्टेशन उत्कर्ष को जितना अधिक मजबूत किया जाता है उतना ही अधिक प्रथम स्टेशन असंचय रहता है। स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत के चरमोत्कर्ष से प्राप्त संपदा भी विवेकपूर्ण वितरण की मांग करती है। जिससे व्यक्ति की संभावनाएं प्रभावित नहीं हो।
व्यष्टिसमष्टिशारीरमानसाध्यात्मिक-सम्भावनायां चरमोपयोगश्च। - व्यष्टि व समष्टि के अन्दर शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावना का भंडार भरा है। जिसका भी चरमोपयोग होना चाहिए। जगत की संपदाओं के अव्यय रहने से संचय पर लगाम समाज का सिर दर्द बन सकता है तो व्यष्टि व समष्टि के के अन्तर्गत निहित क्षमता के अनुपयोग से संपदा का उत्कर्षन नहीं हो सकता है। क्रिया चक्र का तृतीय स्टेशन क्षमताओं का चरमोपयोग के बिनाप्रथम एवं द्वितीय स्टेशन क्रियाहीन हो जाएंगे। इससे आगे समाज की क्रिया शक्ति को यथावत एवं प्रभावशाली बनाने के लिए उपयोग के संतुलन ही सुसंतुलन की आवश्यकता है।
स्थूलसूक्ष्णकारणोपयोगा: सुसंतुलिता: विधेया: -यहाँ स्थूल, सूूूूूक्ष्म एवं कारण संंभावना के उपयोग में सुसंतुलन की आवश्यकता महसूस की गई है । इसके अभाव में व्यष्टि तो आगे बढ़ सकता है लेकिन समष्टि की गति अवरुद्ध हो जाती है। जिसका परिणाम व्यष्टि को भी भोगना पड़ता है। सुसंतुलन रुपी आर्थिक क्रिया चक्र का चतुर्थ स्टेशन से एक मजबूत अर्थतंत्र निर्माण होता है।
देशकालपात्रै: उपयोगा: उपयोगा: प्रगतिशीला: भवेयु:। - क्रिया चक्र के पांचवे एवं अन्तिम बिंदु परिवर्तनशीलता के बिना चक्र पूर्ण नहीं होता है। देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोगिता का परिवर्तनशील रहने से अर्थव्यवस्था प्रगतिशील रहती है। जहाँ अर्थव्यवस्था प्रगतिशील है वहा आर्थिक क्रिया एवं अर्थतंत्र के प्रगतिशील रखता है। पंचम स्टेशन परिवर्तनशील के रहने से सभी चक्र सही रुप से गतिशील रहते है। आर्थिक क्रिया के इस चक्र का केन्द्र विकास है तथा विकास आध्यात्म की धरोहर है। इस प्रकार प्रउत अर्थव्यवस्था हर पल आध्यात्म की आवश्यकता को महसूस करती है। यह प्रउत का प्रगतिशील सिद्धांत है।
प्रउत के पांच मूल सिद्धांत अर्थव्यवस्था को प्रगतिशील बनाती है। जिस व्यवस्था में प्रगतिशील गुण नहीं होता है वह व्यवस्था रूढ़ मान्यता की शिकार हो जाती है। प्रउत के इस प्रगतिशील सिद्धांत के कारण प्रउत के प्र का निर्माण होता है। इसके अभाव में उ - उपयोग व त- तत्व दोनों ही मूल्यहीन हो जाते है।
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श्री आनन्द किरण
Baba nam kevalam visvpita baba ki jay baba nam kevalam🙏
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