भारतवर्ष का सामाजिक इतिहास

🌹धर्मयुद्ध मंच से 🌹
  ®श्री आनन्द किरण®
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भारतवर्ष ने विश्व को वसुधैव कुटुबंकम् एवं सर्वे भवन्तु सुखिन का संदेश दिया है। अत: भारतवर्ष का सामाजिक इतिहास लिखना नितांत आवश्यकता है। इतिहास लेखन की दोषपूर्ण पंरपरा एवं विधा के चलते इतिहासकारों की लेखनी इस दिशा में नहीं चली। भारतवर्ष का जब तक सामाजिक इतिहास नहीं लिखा जाता है। तब तक भारतवर्ष का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता है । भारतवर्ष का सामाजिक इतिहास लिखने के स्रोतों की कमी नहीं हैं।स)
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       भारतवर्ष ने विश्व को वसुधैव कुटुबंकम् एवं सर्वे भवन्तु सुखिन का संदेश दिया है। अत: भारतवर्ष का सामाजिक इतिहास लिखना नितांत आवश्यकता है। इतिहास लेखन की दोषपूर्ण पंरपरा एवं विधा के चलते इतिहासकारों की लेखनी इस दिशा में नहीं चली। भारतवर्ष का जब तक सामाजिक इतिहास नहीं लिखा जाता है। तब तक भारतवर्ष का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं हो सकता है । भारतवर्ष का सामाजिक इतिहास लिखने के स्रोतों की कमी नहीं हैं।
          आदिम युग में समाज निर्माण नहीं हुआ। अत: इस युग का सामाजिक इतिहास नहीं था, ऐसी बात नहीं है। इस युग में मनुष्य का समाज जीवों के समाज के तुल्य ही था। जीव जगत के अध्ययन से इस युग के समाज को समझा जा सकता है। पहाड़ी युग में मनुष्य का समाज कुछ उन्नत अवस्था में था। इस युग में ऋषि के नाम से गौत्र बनी एवं व्यक्ति इस नाम से अपना परिचय देने लगा। इस युग के उत्तर में भगवान सदाशिव ने विवाह व परिवार का अविष्कार किया। जिसका सुव्यवस्थित रुप ग्राम स्वराज्य के युग में देखा गया। यहाँ कार्य विभाजन के नियम का अविष्कार व्यवस्थित होने से समाज में वर्ण व्यवस्था का रुप दिखाई देने लगा। नगर राज्य के युग में भारतीय समाज मेजातिव्यवस्था प्रभावशाली हुई। पराजीत वर्ग की नारियाँ व स्वतंत्र प्रिय जातियों प्रभुत्व वर्ग की न्याय प्रियता से विश्वास खोकर क्रमशः आदिम जाति एवं त्रियाराज कबिलों में रहना स्वीकार किया। त्रियाराज की तो युग के आगे बढ़ने के साथ अस्तित्व खत्म हो गया लेकिन आदिवासी अपनी परंपरा को अक्षुण्ण रखने में समर्थ रहे। राजाओं के राज्य विस्तार की लालसा की शिकार मानवता के वक्षस्थल पर अस्पृश्यता का अध्याय लिखा गया। जो भारतीय इतिहास का घृणित अध्याय है। नव जागरण के युग में पुरातन वैदिक परम्परा से त्रस्त जनता मुक्ति के भाव नव मतवाद को जन्म दिया तथा जाति व्यवस्था ने जटिल रूप धारण किया। अंक्रांताओं के युग में धार्मिक विषमता की लड़ाई में समाज की समस्या पर ध्यान नही दिया। विदेशी व्यपारियों के आधुनिक संस्कृति ने नये प्रतिमान दिए। जिसके चलते समाज सुधारकों ने नये समाज के गठन के प्रयास किये। इनके पास समाज गठन की एक आदर्श सामाजिक नीति के अभाव में स्वतंत्र भारत में नेताओं की राजनैतिक रोटियों के साथ सिक गए।
           भारतवर्ष के सामाजिक इतिहास में  कुछ तथ्य ऐसे विद्यमान है। जिसके आधार पर एक, अखंड व अविभाज्य मानव समाज की रचना की जा सकती है। वसुधैव कुटुबंकम का भाव एवं सर्व भवन्तु सुखिन का तर्ज़ एक सुदृढ़ समाज की आधारशिला का निर्माण कर सकती है। राजा, राजकुमारों एवं साहसिक व्यक्तियों के द्वारा किये गए अन्तर्जातीय व अन्तर्राष्ट्रीय विवाह के सूत्र के बल पर विश्व को एकता के सूत्र में पिरोया जाना संभव है।
        विश्व एकता एवं मानव समाज में व्याप्त भेदभाव के उन्मूलन करने की साधना में रत व्यष्टियों को इतिहास की भूलों रोना नहीं रोना चाहिए तथा अपने सम्पूर्ण प्रयास से मानव समाज में एकता के भाव सृजित करने हेतु प्रयास करना चाहिए।
   भारतवर्ष का सामाजिक इतिहास जातियों के संघर्ष का रहा है लेकिन हर संघर्ष में नये समाज के निर्माण का एक फारमूला निकाला है। वैदिक मत एवं बौद्ध का संघर्ष, आर्य अनार्य का संघर्ष, सनातन बौद्ध का संघर्ष, विदेशी जातियों का भारतीयों से संघर्ष में भी विजित विजेता के बीच एक सांस्कृतिक व सामाजिक आदान प्रदान का संदेश दिया।
(1.) अनार्य युग - भारतवर्ष के सामाजिक इतिहास सबसे प्राचीन युग है। यह आत्म साधना एवं सम सामाजिकता सूत्र पर कार्य करते थे। यद्यपि यह शांतिप्रिय थे तथापि इतिहास के उस शोध से मैं सहमत नहीं हूँ कि यह अस्त्र शस्त्र का ज्ञान नहीं रखते थे।
(2.) आर्य युग - भारतवर्ष के सामाजिक इतिहास में आर्यों का महत्व अधिक है। यह मूलतः मध्य एशिया के थे। भारतवर्ष में आकर स्थायी बस गए एवं भारतवर्ष की भूमि वदन्तु मातृभूमि कहने लगे।
(3.) बौद्ध एवं जैन युग - यह यद्यपि एक धार्मिक आंदोलन थे तथापि इन्होंने समाज को प्रभावित किया तथा वैदिक मत को प्रभावी टक्कर दी।
(4.) सनातन युग - भारतवर्ष के प्राचीन मूल्य जिसमें आर्य एवं अनार्यों सिद्धांत थे। उसे लेकर सनातन मत ध्वज उपर किया। यह शैव, वैष्णव, सौर, गाणपत्य, शाक्त आदि रुपों में कार्य किया।
(5.) हिन्दू युग - भारतवर्ष की धरती पर विदेश जातियों एवं उनके धार्मिक मत के बढ़ते प्रभाव ने भारतीय को मन एक संगठन का भाव अंकुरित किया एवं इस वर्ग का नाम हिन्दू दिया गया।
(6.) स्वतंत्र भारत का समाज - हिन्दू ,मुस्लिम, सिख एवं ईसाई सभी भारतवर्ष के बढ़े वर्ग एवं जातियों ने भारतवर्ष को स्वदेश माना है। इसलिए जातिगत परंपरा एवं धार्मिक विभिन्नता के आधार पर भारतवर्ष में साम्प्रदायिक वैमनस्य को जन्म देने वालो के प्रयासों को निस्ताबुज कर एक अखंड, अविभाज्य विश्व मानव समाज के निर्माण में लग जाना चाहिए।
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श्री आनन्द किरण@भारतवर्ष का इतिहास

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