आओ साधना करते हैं
प्रस्तुति : आनन्द किरण
मधुविद्या पर चर्चा समाप्त होने के बाद, उन्होंने प्रश्न किया, "ईश्वर प्रणिधान में निपुण कैसे हों?"
मैंने कहा, "सबसे पहले, ईश्वर प्रणिधान क्या है, यह जान लेते हैं। ईश्वर का प्रणिधान करना ही ईश्वर प्रणिधान है। सरल अर्थ में कहा जाए तो ईश्वर या परमब्रह्म को पूर्णतया अपने में बिठा देना अथवा ईश्वर में बैठ जाना ईश्वर प्रणिधान है। और भी अत्यंत सरल शब्दों में कहें तो, अपने आप को सम्पूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित करना ही ईश्वर प्रणिधान है। यहाँ ईश्वर शब्द का अर्थ नियंता है।"
"ठीक है," मैंने कहा, "ईश्वर प्रणिधान का अर्थ जानकर उस अवस्था को पा लेना ही ईश्वर प्रणिधान में निपुणता का सरलतम उपाय है।"
उन्होंने उत्सुकता से पूछा, "उस अवस्था को कैसे पाया जा सकता है?"
मैंने उत्तर दिया, "अहम् ब्रह्मास्मि का भाव लेकर।"
इस पर उन्होंने अगला प्रश्न किया, "ब्रह्म भाव लेने में मंत्र की क्या भूमिका है?"
मैंने समझाया, "ईश्वर प्रणिधान में इष्टमंत्र तथा मंत्र के भाव के साथ मन का तारतम्य महत्वपूर्ण है।"
उन्होंने कहा कि "यह कैसे?"
मैंने कहा कि "मन में भाव सहित इष्टमंत्र की बार-बार आवृत्ति होने से मन उस भाव को पूर्णतया अपने में स्थापित कर देता है।"
उन्होंने आश्चर्य से पूछा, "यह कैसे संभव है?"
मैंने कहा, "यही मन का स्वभाव है, जिसकी गवेषणा करता है, उसी को पा लेता है।"
"इसमें इष्टमंत्र एवं इष्टचक्र का क्या महत्व है?"
मैंने इष्ट की महत्ता समझाते हुए कहा, "इष्ट का अर्थ है प्रिय से भी प्रिय, अर्थात प्रियतम। जिस प्रकार एक प्रेमी के जीवन में प्रियतम का महत्व है, वैसा ही साधक के जीवन में इष्ट का महत्व है। इष्टमंत्र प्रिय मंत्र ही नहीं, बल्कि प्रियतम मंत्र है, जिसको पाकर साधक का मन खिल जाता है। अतः इष्टमंत्र का महत्व है। ठीक उसी प्रकार, जिस चक्र को पाकर मन बिल्कुल या पूर्णरूपेण खिल जाता है, वह उसका इष्टचक्र है। अतः इष्टमंत्र एवं इष्टचक्र का साधक के जीवन में विशेष महत्व है।"
तब उनका एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आया, "कोई आचार्य अपनी अपरिपक्वता अथवा भूलवश गलत इष्टमंत्र एवं गलत इष्टचक्र अथवा दोनों ही गलत चुनकर साधक को दे दे तो साधक का भविष्य क्या होगा?"
मैंने आश्वस्त करते हुए कहा, "वैसे तो इसका एक विज्ञान है, तथापि यदि ऐसा होता है तो थोड़ी तकलीफ अवश्य पड़ती है, लेकिन सदगुरु संभाल लेते हैं। तथा जो इष्टचक्र और इष्टमंत्र दिया गया है, वही साधक के इष्टमंत्र एवं इष्टचक्र बन जाते हैं, और साधक की अग्रगति में कोई रुकावट नहीं आती है।"
"यह विज्ञान क्या है?" उन्होंने पूछा।
मैंने विनम्रतापूर्वक कहा, "यह आचार्य का विशेषाधिकार है। जब तक गुरु किसी को आचार्य नियुक्त नहीं करें, तब तक नहीं जानना ही उचित है।"
उन्होंने विषय को आगे बढ़ाते हुए पूछा, "ईश्वर प्रणिधान से पूर्व शुद्धियाँ क्यों की जाती हैं?"
मैंने स्पष्ट किया, "शुद्ध मन ही इष्ट को पा सकता है। अतः मन की शुद्धि के लिए शुद्धियाँ आवश्यक हैं। भूत, आसन एवं चित्त—इन तीनों की शुद्धि आवश्यक है।"
"यह क्यों?"
"साधक के बैठने का लोक जितना सूक्ष्म होगा, साधक उतने सूक्ष्म लोक में रहेगा, उसी प्रकार बैठने का स्थान अथवा आसन भी है। चित्त क्षमता भी सूक्ष्मता पर निर्भर करती है, इसलिए चित्त की शुद्धि भी आवश्यक है।"
"जप एवं अजपाजप में क्या अन्तर है?"
मैंने उत्तर दिया, "याद रखकर किया गया जप जप है तथा स्वतः होने वाला जप अजपाजप है। अतः पहले 80 बार गिनकर तथा फिर अगणित जप (अजपाजप) आ जाना चाहिए।"
"80 बार ही क्यों?"
"इसकी माया सदगुरु ही जानें, लेकिन मेरे अनुसंधान के अनुसार यह दशक एवं अष्टक का गुणा है। 10 (•) 8 = 10×8 = 80, भूलकर कोई 108 कर देता है।"
"दशक एवं अष्टक?"
मैंने समझाया, "दशक संख्या वाचक है, जो गणना की पूर्णता का प्रतीक है - 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 1(पुन:) (यहाँ 1 से 9 और फिर 1 पूर्णता प्रतीक)। इसमें शून्य नहीं लिया गया लेकिन यह रचना शून्य की बन जाती है। अष्टक - अष्ट सुर सा, रे, गा, मा, प, द, नि, सा। यह भी शून्य बन जाता है। अर्थात जप में अजपाजप तथा अजपाजप में भी जप होता रहता है। एक भावशून्य अवस्था तथा दूसरी गुण शून्य अवस्था है। साधक जब इन दोनों अवस्था से एकाकार होता है, तब अपने में ब्रह्म तथा ब्रह्म में अपने को देखता है।"
उन्होंने पूछा, "ईश्वर प्रणिधान और भी कुछ है?"
मैंने सार रूप में कहा, "सबकुछ ईश्वर प्रणिधान में तथा सबकुछ में ईश्वर प्रणिधान है। यही रहस्य जान लेने से ईश्वर प्रणिधान में निपुण हो सकते हैं।"
चलते-चलते उन्होंने एक अंतिम प्रश्न किया, "ईश्वर प्रणिधान में श्वास प्रवाह का क्या महत्व है?"
मैंने बताया, "श्वास प्रवाह की गति में इष्ट मंत्र का जप किया जाता है। इससे मन की चिन्तन गति एकाग्रता को प्राप्त करती है तथा इष्टमंत्र के भाव से मन घुल-मिलने से साधक मूल लक्ष्य को प्राप्त करता है।"
"ईश्वर प्रणिधान का कोई सार तत्व है?"
मैंने दृढ़ता से कहा, "स्वयं को ईश्वर रूप में देखना, जानना एवं पाना ही ईश्वर प्रणिधान का सार है।"
उन्होंने स्वीकार किया, "तब तो यह सबसे मुश्किल है।"
मैंने उत्तर दिया, "सत्य तो यह ही है, तथापि हर मुश्किल तब आसान हो जाती है जब संकल्प दृढ़ हो।"
अंततः, उन्होंने वही प्रश्न दोहराया, "तो, ईश्वर प्रणिधान में निपुणता कैसे?"
मैंने स्पष्ट और अंतिम उत्तर दिया, "ब्रह्म भाव पाने के दृढ़ संकल्प से ही ईश्वर प्रणिधान में निपुणता पाई जाती है।"
Let Us Practice Sadhana (Spiritual Discipline):
Presentation by: Anand Kiran
After the discussion on Madhuvidya, he asked, "How does one become proficient in Ishvara Pranidhana?"
I said, "First, let us define it. Performing Pranidhana of Ishvara (God) is Ishvara Pranidhana. In simple terms, it is to completely establish God or the Supreme Brahman within oneself, or to become seated in God. In the simplest words, complete surrender of oneself to God is Ishvara Pranidhana. Here, the word Ishvara means the Controller or Regulator."
"Understood," he said.
I continued, "Knowing the meaning of Ishvara Pranidhana and achieving that state is the simplest way to attain proficiency in it."
He eagerly asked, "How can that state be achieved?"
I replied, "By adopting the feeling of 'Aham Brahmasmi' (I am Brahman)."
Upon this, he posed the next question, "What is the role of the Mantra in adopting the 'Brahman feeling'?"
I explained, "In Ishvara Pranidhana, the harmony of the mind with the Ishta-Mantra (Chosen Mantra) and the sentiment (Bhava) of the mantra is important."
"How is that?"
"Through the repeated repetition of the Ishta-Mantra with the right sentiment in the mind, the mind completely establishes that sentiment within itself."
He asked in surprise, "How is this possible?"
I said, "This is the very nature of the mind; whatever it seeks, it attains."
"What is the significance of the Ishta-Mantra and the Ishta-Chakra in this?"
I elucidated the importance of the Ishta (Chosen Deity/Object of devotion), saying, "Ishta means dearer than dear, that is, the Dearest (Priyatam). Just as the dearest one is important in a lover's life, the Ishta is important in the life of a practitioner (Sadhaka). The Ishta-Mantra is not just a dear mantra, but the Dearest Mantra, upon receiving which the Sadhaka's mind blossoms. Hence, the Ishta-Mantra is important. Similarly, the Chakra upon realizing which the mind completely or fully blossoms is the Ishta-Chakra. Thus, the Ishta-Mantra and Ishta-Chakra hold significance in the life of the Sadhaka."
Then came a critical question from him, "If an Acharya (Spiritual Teacher), due to their immaturity or error, chooses the wrong Ishta-Mantra, the wrong Ishta-Chakra, or both incorrectly, what will be the future of the Sadhaka?"
I reassured him, "Although this has a specific science behind it, even if it happens, there will certainly be a little difficulty, but the Sadguru (True Guru) takes care of it. And whatever Ishta-Chakra and Ishta-Mantra were given become the Sadhaka's own Ishta-Mantra and Ishta-Chakra, and there is no obstruction to the Sadhaka's progress."
"What is this science?" he asked.
I humbly stated, "This is the special prerogative of the Acharya. It is appropriate not to know it until the Guru appoints someone as an Acharya."
Moving the discussion forward, he asked, "Why are purifications (Shuddhi) performed before Ishvara Pranidhana?"
I clarified, "Only a pure mind can attain the Ishta. Therefore, purifications are necessary for the purification of the mind. The purification of Bhuta (elements/body), Asana (seat), and Chitta (consciousness) is essential."
"Why these three?"
"The subtler the plane (Loka) in which the Sadhaka is seated, the subtler the plane in which the Sadhaka will dwell; the same applies to the place of sitting or the Asana. Chitta capacity also depends on its subtlety, which is why the purification of the Chitta is also necessary."
"What is the difference between Japa (Chanting) and Ajapa-Japa (Unspoken/Spontaneous Chanting)?"
I answered, "Japa done with conscious remembrance is Japa, and Japa that happens spontaneously is Ajapa-Japa. Therefore, one should first transition from counting 80 times to innumerable chanting."
"Why exactly 80 times?"
"Only the Sadguru knows the mystery of this, but according to my research, it is the product of Dashaka (Decade) and Ashtaka (Octave). 10 (•) 8 = 10×8 = 80,. By mistake, some do 108."
"Dashaka and Ashtaka?"
I explained, "Dashaka is a number identifier, a symbol of the completeness of counting—1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 1( repeat) (completeness of the number 1). Zero is not included here, but this composition turns into zero. Ashtaka—the eight musical notes Sa, Re, Ga, Ma, Pa, Dha, Ni, Sa—this also turns into zero. That is, Ajapa-Japa continues within Japa, and Japa continues even within Ajapa-Japa. One is a state of 'no-sentiment' (Bhavashunya), and the other is a state of 'no-attribute' (Gunashunya). When the Sadhaka becomes one with both these states, they see Brahman within themselves and themselves within Brahman."
He asked, "Is there anything more to Ishvara Pranidhana?"
I summarized, "Everything is in Ishvara Pranidhana, and Ishvara Pranidhana is in everything. By knowing this secret, one can become proficient in Ishvara Pranidhana."
As we parted, he had one last question, "What is the significance of breath flow (Shvasa Pravaha) in Ishvara Pranidhana?"
I explained, "The Japa of the Ishta-Mantra is performed in the rhythm of the breath flow. This causes the thinking process of the mind to achieve concentration, and by the mind merging with the sentiment of the Ishta-Mantra, the Sadhaka achieves the original goal."
"Is there any core essence of Ishvara Pranidhana?"
I stated firmly, "To see, to know, and to attain oneself in the form of God is the essence of Ishvara Pranidhana."
He conceded, "Then this is the most difficult thing."
I replied, "That is the truth; however, every difficulty becomes easy when the resolve is firm."
Finally, he repeated the original question, "So, how to attain proficiency in Ishvara Pranidhana?"
I gave the clear and final answer, "Proficiency in Ishvara Pranidhana is attained only through the firm resolve to achieve the state of Brahman."
आओ साधना करां:
प्रस्तुति : आनन्द किरण
मधुविद्या माथे चर्चा पूरी होवण रै बाद, वे पूछ्यो, "ईश्वर प्रणिधान में माहिर (निपुण) कैयां बणां?"
मैं कह्यो, "पैलां तो, ईश्वर प्रणिधान काई है, इण नै जाणां। ईश्वर रो प्रणिधान करणो ई ईश्वर प्रणिधान है। सोधा अर्थ में कहणां तो ईश्वर या परमब्रह्म नै पूरो-पूरी आपणां में बिठा देणो या ईश्वर में बैंठ जावणो ईश्वर प्रणिधान है। अर ईं नै घणी सोधी बातां में कहणां तो, आप नै पूरो रूप सूं ईश्वर नै अरपण कर देणो ई ईश्वर प्रणिधान है। अठै ईश्वर शब्द रो मतलब नियंता है।"
"ठीक है," वे बोल्या।
"ईश्वर प्रणिधान रो अर्थ जाण'र उण अवस्था नै पा लेणो ई ईश्वर प्रणिधान में माहिर होवण रो सोधो तरीको है।"
वे उत्सुकता सूं पूछ्यो, "उण अवस्था नै कैयां पायी जा सकै है?"
मैं जवाब दियो, "अहम् ब्रह्मास्मि रो भाव लेय'र।"
इण माथे वे अगलो सवाल दाग्यो, "ब्रह्म भाव लेवण में मंत्र रो काई रोल है?"
मैं समझायो, "ईश्वर प्रणिधान में इष्टमंत्र अर मंत्र रै भाव रै साथै मन रो तालमेल घणो जरूरी है।"
"यो कैयां?"
"मन में भाव रै साथै इष्टमंत्र नै बार-बार दोराये जावण सूं, मन उण भाव नै पूरो-पूरी आपणां में जमा लैवै है।"
वे अचरज सूं पूछ्यो, "यो कैयां संभव है?"
मैं कह्यो, "यो ई मन रो स्वभाव है, जिणनै यो खोजै है, उणनै पा लैवै है।"
"इण में इष्टमंत्र अर इष्टचक्र रो काई महत्व है?"
मैं इष्ट री महत्ता बताई, "इष्ट रो मतलब है प्यारा सूं भी प्यारो, मतलब प्रियतम। जिण भांत एक प्रेमी रै जीवन में प्रियतम रो महत्व है, वणी भांत एक साधक रै जीवन में इष्ट रो महत्व है। इष्टमंत्र खाली प्यारो मंत्र नीं, बलकै प्रियतम मंत्र है, जिणनै पाय'र साधक रो मन खिल जावै है। इण खातर इष्टमंत्र रो महत्व है। वणी भांत, जिण चक्र नै पाय'र मन एकदम या पूरी भांत खिल जावै है, वो उण रो इष्टचक्र है। इण कारण, इष्टमंत्र अर इष्टचक्र रो साधक रै जीवन में खास महत्व है।"
फेर उणां रो एक जरूरी सवाल आयो, "कोई आचार्य आपणी अपरिपक्वता या भूल रै कारण गलत इष्टमंत्र, गलत इष्टचक्र, या दोनूं ई गलत चुण'र साधक नै दे देवै, तो साधक रो भविष्य काई होसी?"
मैं तसल्ली दी, "वैसूं तो इण रो एक खास विज्ञान है, पण जद ऐसो होवै, तो थोड़ी तकलीफ तो आसी, पण सदगुरु (सच्चा गुरु) संभाल लेवै है। अर जो इष्टचक्र अर इष्टमंत्र दियो गयो है, वो ई साधक रा इष्टमंत्र अर इष्टचक्र बण जावै है, अर साधक री अग्रगति (आगे बढ़णो) में कोई रुकावट नीं आवै है।"
"यो विज्ञान काई है?" वे पूछ्यो।
मैं नम्रता सूं कह्यो, "यो आचार्य रो खास अधिकार है। जद तांई गुरु किणी नै आचार्य नीं बणावै, जद तांई इण नै नीं जाणनो ई ठीक है।"
वे बात नै आगे बढ़ाया, "ईश्वर प्रणिधान सूं पैलां शुद्धियाँ (पवित्रता) क्यूँ करी जावै है?"
मैं साफ करयो, "शुद्ध मन ई इष्ट नै पा सकै है। इण कारण, मन री शुद्धि खातर शुद्धियाँ जरूरी है। भूत (तत्व/शरीर), आसन (बैठण री जगह) अर चित्त (चेतना)—ईं तीनां री शुद्धि जरूरी है।"
"यो क्यूँ?"
"साधक रै बैंठण रो लोक जितणो सूक्ष्म होसी, साधक उतणा ई सूक्ष्म लोक में रैसी; वणी भांत बैंठण री जगह या आसन रो भी महत्व है। चित्त री क्षमता भी सूक्ष्मता माथे निर्भर करै है, इण कारण चित्त री शुद्धि भी जरूरी है।"
"जप अर अजपाजप में काई फरक है?"
मैं जवाब दियो, "याद राख'र करयोड़ो जप तो जप है, अर आपूं-आप होवण वाळो जप अजपाजप है। इण कारण, पैलां 80 बार गिण'र अर फेर अगणित जप (अजपाजप) आवणो चाहीजै।"
"80 बार ई क्यूँ?"
"इण रो भेद तो सदगुरु ई जाणां, पण म्हारी खोज रै हिसाब सूं यो दशक (10) अर अष्टक (8) रो गुणा है। 10 (•) 8 = 10×8 = 80, भूल सूं कोई 108 कर देवै है।"
"दशक अर अष्टक?"
मैं समझायो, "दशक गिणती बतावण वाळो है, जो गिणती री पूर्णता रो चिन्ह है – 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 1(पाछो) । इण में जीरो नीं लियो गयो, पण यो रचना जीरो री बण जावै है। अष्टक – आठ सुर सा, रे, गा, मा, प, धा, नि, सा। यो भी जीरो बण जावै है। मतलब, जप में अजपाजप अर अजपाजप में भी जप चालतो रैवै है। एक भावशून्य अवस्था है अर दूजी गुण शून्य अवस्था है। साधक जद ईं दोनूं अवस्थावां सूं एक होवै है, तो वो आपणां में ब्रह्म अर ब्रह्म में आप नै देखै है।"
वे पूछ्यो, "ईश्वर प्रणिधान अर भी काई है?"
मैं सार में कह्यो, "सबकुछ ईश्वर प्रणिधान में है अर सबकुछ में ईश्वर प्रणिधान है। यो ई भेद जाण लेवण सूं ईश्वर प्रणिधान में माहिर हो सकां हा।"
जावता-जावता उणां एक आखरी सवाल पूछ्यो, "ईश्वर प्रणिधान में श्वास रै प्रवाह रो काई महत्व है?"
मैं बतायो, "श्वास रै प्रवाह री गति में इष्ट मंत्र रो जप करयो जावै है। इणसूं मन री सोचण री गति एकाग्रता पकड़ै है अर इष्टमंत्र रै भाव सूं मन मिल जावण सूं साधक मूल लक्ष्य नै पावै है।"
"ईश्वर प्रणिधान रो कोई सार तत्व है?"
मैं मजबूती सूं कह्यो, "खुद नै ईश्वर रै रूप में देखणो, जाणणो अर पावणो ई ईश्वर प्रणिधान रो सार है।"
वे मान्या, "फेर तो यो सगळां सूं मुश्किल है।"
मैं जवाब दियो, "यो ई सच है, पण हर मुश्किल जद आसान हो जावै है जद संकल्प पक्को होवै।"
आखीर में, उणां वो ई सवाल फेर पूछ्यो, "तो, ईश्वर प्रणिधान में निपुणता कैयां?"
मैं साफ अर आखरी जवाब दियो, "ब्रह्म भाव पावण रै पक्का संकल्प सूं ई ईश्वर प्रणिधान में निपुणता पायी जावै है।"