हम भगवान को क्यों ढूँढ रहे हैं?                 (Why are we looking for God?)
भगवान् की खोज में भटकते मन को एक दोहा समर्पण कर मैं हम भगवान को क्यों खोज रहे हैं? प्रश्न के उत्तर की तालाश में चलेंगे। 
इदं तीर्थमिदं तीर्थ भ्रमन्ति तामसा: जना:।
आत्मतीर्थं न जानन्ति कथं मोक्ष  वरानने।।

ईश्वर की खोज से ईश्वरत्व की प्राप्ति तक: एक आध्यात्मिक यात्रा

हम ईश्वर को क्यों ढूंढ रहे हैं? यह प्रश्न मानव सभ्यता के इतिहास में सबसे प्राचीन और सबसे गहरा प्रश्न है। अक्सर हम मंदिरों, मस्जिदों, गुफाओं और पहाड़ों में उसे तलाशते हैं, जैसे वह कहीं खो गया हो। लेकिन सत्य यह है कि ईश्वर 'ढूंढने' का विषय नहीं है, और न ही वह किसी बाहरी वस्तु की तरह 'मिलने' का विषय है। आध्यात्मिक साधना का वास्तविक लक्ष्य तो ईश्वर को 'पाना' है, और पाने का सरलतम अर्थ है—स्वयं भगवान बन जाना।
 श्री श्री आनंदमूर्ति जी के शब्दों में, "साधना का अर्थ है अपनी संकुचित अहंता को विसर्जित कर उस अनंत सत्ता में एकाकार हो जाना।"


अक्सर हम परमात्मा को एक 'वस्तु' मान लेते हैं। जब हम किसी वस्तु को ढूंढते हैं, तो ढूंढने वाला (Subject) और ढूंढी जाने वाली वस्तु (Object) अलग-अलग होते हैं। लेकिन अध्यात्म में यह द्वैत ही सबसे बड़ी बाधा है। जब तक 'मैं' और 'वह' का भेद है, तब तक केवल खोज है, उपलब्धि नहीं।

  "कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूंढे बन माहि।
  ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखत नाहि।।"

कबीरदास जी  स्पष्ट करते है कि जिस सुगंध को मृग बाहर खोज रहा है, वह उसके भीतर ही है। ढूंढने की क्रिया तब समाप्त होती है जब अंतर्मुखी होकर बोध शुरू होता है। अनुभव हमें सिखाता है कि भक्ति केवल भावुकता नहीं है, बल्कि यह अपने संकुचित 'अहम' (Ego) को विस्तार देकर 'विराट अहम' (Universal Ego) में बदल देने की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। भगवान को ढूंढना एक भ्रम है, क्योंकि जो खोया ही नहीं, उसे ढूंढना कैसा? उसे तो केवल पहचानना है।


ईश्वर को पाने का अर्थ यह नहीं है कि हम उनसे भौतिक रूप से साक्षात्कार करेंगे। पाने का वास्तविक अर्थ है—तदाकार (Identification)। जैसे एक बूंद जब समुद्र में गिरती है, तो वह समुद्र को 'ढूंढती' नहीं, बल्कि वह स्वयं 'समुद्र' हो जाती है। जब तक बूंद का अपना अस्तित्व (Ego) है, तब तक वह छोटी और कमजोर है, लेकिन जैसे ही वह समुद्र हुई, वह असीम और शक्तिशाली हो गई।
उपनिषद् के ऋषि उद्घोष करते हैं:

 "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति"
 (जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।)

यही वह बिंदु है जहाँ भगवान को 'पाना' और 'भगवान बन जाना' एक ही क्रिया बन जाती है। आनन्द मार्ग के दर्शन के अनुसार, मनुष्य का मन जब साधना के माध्यम से परिष्कृत और सूक्ष्म होता जाता है, तो वह अपनी सीमाएं छोड़कर परम पुरुष के मानस (Cosmic Mind) में विलीन हो जाता है। "मैं मनुष्य हूँ" से "मैं ब्रह्म हूँ" (अहं ब्रह्मास्मि) तक की यात्रा ही वास्तविक पाना है।


केवल मनुष्य मात्र से प्रेम करने तक सीमित नहीं है। यह उससे कहीं अधिक गहरा और व्यापक है। यह चराचर जगत—पेड़-पौधे, जीव-जंतु और यहाँ तक कि निर्जीव वस्तुओं के प्रति भी उसी आत्मिक प्रेम का विस्तार है जो हम स्वयं के लिए रखते हैं। जब हमारी चेतना इतनी विस्तृत हो जाती है कि हम धूल के एक कण में भी उसी ईश्वर की स्पंदन सुनते हैं, तब हम 'ढूंढने' वाले नहीं रह जाते, हम 'ईश्वरत्व' के वाहक बन जाते हैं।

—"प्रेम ही परम तत्व है।"
 "पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।"
 
जब हम हर प्राणी में ईश्वर को देखते हैं, तो हमारी सेवा 'परोपकार' नहीं रहती, वह 'आत्म-सेवा' बन जाती है। यहीं पर हम भगवान बनने की दिशा में पहला कदम बढ़ाते हैं। क्योंकि भगवान वही है जो सबको अपना मानता है, और जब हम सबको अपना मान लेते हैं, तो हममें और भगवान में अंतर ही क्या रह जाता है?


ईश्वर को पाना एक मानसिक और आध्यात्मिक प्रयोगशाला का कार्य है। आनन्द मार्ग में 'अष्टांग योग' के माध्यम से मन की परतों को साफ किया जाता है। भगवान कहीं बादलों के पार नहीं बैठा है, वह तो हमारे मन के सबसे गुप्त कक्ष में विराजमान है।

 "मोको कहाँ ढूंढें रे बंदे, मैं तो तेरे पास में।
 ना तीरथ में, ना मूरत में, ना एकांत निवास में।।"

ईश्वर हमारे 'पास' हैं, इसका अर्थ है कि वह हमारी चेतना का केंद्र (Nucleus) हैं। साधना का अर्थ है परिधि (Circumference) से केंद्र की ओर यात्रा करना। जैसे-जैसे हम केंद्र के निकट पहुँचते हैं, संसार का कोलाहल शांत होने लगता है और एक अलौकिक संगीत सुनाई देता है। जब हम केंद्र पर पहुँचते हैं, तो परिधि लुप्त हो जाती है। वहां न कोई साधक बचता है, न साधना, केवल 'परम शिव' या 'परम आनंद' शेष रह जाता है।


भगवान बनने का अर्थ यह नहीं है कि हम चमत्कार करने लगेंगे। भगवान बनने का अर्थ है—पूर्ण मानवीयता को प्राप्त करना। भगवान बनने का अर्थ है अपने भीतर के दोषों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर) को ईश्वरीय गुणों (क्षमा, करुणा, प्रेम, निस्वार्थ सेवा) में बदल देना।

भगवान बुद्ध ने कहा था—"अप्प दीपो भव" (अपना दीपक स्वयं बनो)। जब आप स्वयं प्रकाश बन जाते हैं, तो आप केवल अपने लिए नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए मार्गदर्शक बन जाते हैं। यही 'आनन्द मार्ग' का मूल मंत्र है—'आत्ममोक्षार्थं जगद्धिताय च' (अपनी मुक्ति और जगत का कल्याण)।


 * ज्ञान: यह निरंतर बोध कि "मैं केवल यह नश्वर शरीर और चंचल मन नहीं हूँ, बल्कि मैं वह अविनाशी आत्मा हूँ।"

 * कर्म: यह भाव कि संसार का प्रत्येक कार्य परमात्मा की सेवा है। "यत् कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्" (मैं जो भी कर्म करता हूँ, वह आपकी ही आराधना है)। प्रत्येक कर्म ईश्वर को देखना। 

 * भक्ति: उस परम सत्ता के प्रति अखंड और अनन्य अनुराग।

भक्ति के बिना ज्ञान सूखा है और कर्म बोझ। लेकिन जब भक्ति का समावेश होता है, तो कर्म 'योग' बन जाता है और ज्ञान 'बोध'। भक्त और भगवान के बीच की दूरी वैसे ही मिट जाती है जैसे अग्नि में पड़कर लोहा स्वयं अग्नि जैसा लाल और तेजस्वी हो जाता है।

"जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो न समाहिं।।"

जब तक 'मैं' (अहंकार) है, तब तक 'हरि' नहीं मिल सकते। और जब 'हरि' आ जाते हैं, तो 'मैं' मिट जाता है। यही वह स्थिति है जिसे हम 'भगवान बन जाना' कहते हैं—जहाँ भक्त और भगवान में कोई भेद शेष नहीं रहता।


हम भगवान को इसलिए ढूंढ रहे हैं क्योंकि हमें अपनी वास्तविक पहचान का विस्मरण हो गया है। हम उस राजकुमार की तरह हैं जो अपना राज्य भूलकर दर-दर की ठोकरें खा रहा है। 

 हमारा घर, हमारा मूल और हमारा गंतव्य वह ईश्वर ही है।

विषय गंभीर है, पर उत्तर वास्तव में सरल है। भगवान कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे बाजार से या हिमालय की कंदराओं से खरीदकर लाया जा सके। वह तो आपके अस्तित्व की सुगंध है। साधना के माध्यम से उस सुगंध को प्रकट करना ही 'पाना' है।

अंतिम संदेश:
ढूंढना बंद करें और 'होना' शुरू करें। जब हम प्रेम बन जाते हैं, तो हम ईश्वर हो जाते हैं। जब हम करुणा बन जाते हैं, तो हम ईश्वर हो जाते हैं। जब हम न्याय और सेवा के जीवंत विग्रह बन जाते हैं, तो हम ईश्वर हो जाते हैं।

आनन्द मार्ग हमें इसी गरिमामय पथ पर चलने का आह्वान करता है, जहाँ हम एक दिन यह कह सकें—"मैं वही हूँ जिसका मैं ध्यान करता था।" । जिस दिन हमारे हृदय में समस्त संसार के लिए वही तड़प होगी जो एक माँ की अपने बालक के लिए होती है, समझ लेना कि आपने भगवान को 'पा' लिया है, क्योंकि आप स्वयं 'भगवान' के सांचे में ढल चुके हैं।

समाज आंदोलन के सिवाय, प्रउत स्थापना का कोई उपाय नहीं (There is no way to establish Praut except social (Samaj) movement)
 श्री प्रभात रंजन सरकार (श्री आनंदमूर्ति जी) के 'प्रउत' (PROUT - Progressive Utilization Theory) दर्शन के व्यावहारिक धरातल को स्थापना करने की आधार शीला की ओर चलते हैं। 

क्रांतिकारी शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने अपने पिता को लिखे अंतिम पत्र में स्पष्ट किया था कि भारत की मुक्ति का मार्ग केवल जन आंदोलन से ही प्रशस्त होगा। जन आंदोलनों की इसी शक्ति को एक नई दिशा और वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हुए श्री प्रभात रंजन सरकार ने इसे 'समाज आंदोलन' की संज्ञा दी।
ऐतिहासिक रूप से भारत में अनेक जन आंदोलन हुए, किंतु उनके परिणाम प्रायः संतोषजनक नहीं रहे। इसके तीन प्रमुख कारण दृष्टिगोचर होते हैं : -

 * ** ** दिशाहीनता : -आंदोलन का स्वरूप तो तय होता है, किंतु उसकी वैचारिक दिशा स्पष्ट नहीं होती।

 * **** सत्ता-उन्मुखता : - आंदोलन प्रायः सत्ता से प्रश्न करते हैं और सत्ता की ओर ही ताकते हैं, जबकि उन्हें समाज से प्रश्न कर समाज के साथ चलना चाहिए।
 *****  केंद्रीकरण : आंदोलनों का ध्यान सत्ता के केंद्र पर होता है, जबकि वास्तविक परिवर्तन केंद्र से निकलकर अंतिम व्यक्ति (जन-जन) तक पहुँचना चाहिए।

श्री प्रभात रंजन सरकार के दृष्टिकोण के आलोक में, "समाज आंदोलन ही वास्तविक जन आंदोलन है"—इस तथ्य को निम्नलिखित छह बिंदुओं के माध्यम से सिद्ध किया जा सकता है : -

1. सामाजिक-आर्थिक इकाई का निर्धारण (Socio-Economic Units)
कोई भी जन आंदोलन तब तक दिशाहीन रहता है जब तक उसकी सामाजिक-आर्थिक इकाई (Samaj) का निर्धारण न हो जाए। समाज राजनीति से नहीं, बल्कि अपनी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से संचालित होता है। अतः हमें केवल राजनीतिक सीमाओं को नहीं, बल्कि एक संयुक्त क्षेत्र को आधार बनाना होगा। इसके निर्धारण हेतु चार अनिवार्य कारक हैं : -

 ***** समान आर्थिक समस्याएँ एवं संभावनाएँ : साझा अभाव और विकास के समान अवसर।

 ***** भावनात्मक एकता : भाषाई और सांस्कृतिक जुड़ाव।

 ***** भौगोलिक समानता : जलवायु और भूगोल के आधार पर विकसित मानवीय लक्षण (जिसे नस्लीय समानता कहा गया है, जो जाति या संप्रदाय से परे है)।

2. समग्र संगठनात्मक संरचना

समाज आंदोलन की सफलता के लिए एक ऐसी संगठनात्मक संरचना अनिवार्य है जो केंद्र से लेकर समाज की अंतिम इकाई तक सक्रिय हो। प्रायः देखा गया है कि संगठनात्मक ढांचे के अभाव में जन आंदोलन सत्ता मिलते ही दिशाभ्रमित या 'अराजक' हो जाते हैं। एक सुदृढ़ ढांचा ही आंदोलन के मूल्यों को सत्ता के गलियारों में सुरक्षित रख सकता है।

3. समाज की समग्र योजना (Comprehensive Master Plan)
समाज आंदोलन का प्राथमिक लक्ष्य केवल सत्ता परिवर्तन नहीं, बल्कि समाज का सर्वांगीण रूपांतरण है। इसके लिए समाज के पास अपनी एक समग्र योजना होनी चाहिए। यह योजना 'ब्लूप्रिंट' का कार्य करती है, जो सत्ता प्राप्ति की स्थिति में भी नेतृत्व को भटकने नहीं देती और अंतिम व्यक्ति के कल्याण को सुनिश्चित करती है।

4. ब्लॉक स्तरीय योजना (Block-Level Planning)
ब्लॉक लेवल प्लानिंग समाज आंदोलन की 'जीवन रेखा' है। जब एक लघु समाज इकाई वृहद समाज इकाई में परिवर्तित होती है, तब वहां की मिट्टी की प्रकृति, नदियों के प्रवाह और स्थानीय संसाधनों के आधार पर बनाई गया ब्लॉक तथा उस आधारित योजना ही वास्तविक विकास का आधार बनती है। यह विकेंद्रीकृत नियोजन ही जन आंदोलन को समाज आंदोलन में बदलता है।

5. ग्रामीण सशक्तिकरण एवं कृषि आधारित अर्थव्यवस्था (Rural empowerment and agriculture-based economy) 
समाज की वास्तविक शक्ति शहरों में नहीं, बल्कि गाँवों में निहित है। समाज आंदोलन ऐसी औद्योगिक शहरीकरण योजनाओं का विरोध करता है जो खेतों को नष्ट करती हों। इसके स्थान पर:

 ***** कृषि, कृषि-सहायक और कृषि-आधारित उद्योगों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
 * **** ग्रामीण अर्थव्यवस्था को स्वावलम्बी बनाकर ही 'प्रउत' के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।

6. भुक्ति (जिला) व्यवस्था शासन का मूलाधार  ( Bhukti (district) system foundation of governance) 

यद्यपि राजनीतिक शक्ति का केन्द्रीकरण होता है , तथापि शासन का वास्तविक मूलाधार 'भुक्ति' (जिला स्तर) व्यवस्था की स्थापित होना चाहिए। जब शासन की शक्तियाँ स्थानीय स्तर पर (भुक्ति व्यवस्था) केंद्रित होंगी, तभी जन-जन की भागीदारी सुनिश्चित होगी और शोषणमुक्त समाज की स्थापना संभव हो सकेगी।

निष्कर्ष:

समाज आंदोलन मात्र एक विरोध प्रदर्शन नहीं, बल्कि एक रचनात्मक क्रांति है। यह सत्ता की ओर नहीं, बल्कि समाज की आत्मा की ओर मुड़ने का आह्वान है। जब तक जन आंदोलन 'समाज' की इन वैज्ञानिक कड़ियों से नहीं जुड़ेगा, तब तक वांछित सुखद परिणाम की प्राप्ति असंभव है।



एक मानव समाज (One Human Society)

      '

आज का विषय है - एक मानव समाज (One Human Society) है।

आज के दौर में, जब हम जाति, संप्रदाय और क्षेत्रीयता के कोलाहल से घिरे हैं, 'एक मानव समाज' के आदर्श की अलख जगाए रखना अपने आप में एक महान उपलब्धि है। यह चिंतन मानवता के मूल में इतना गहरा है कि इसकी प्रथम ज्योति कब प्रज्ज्वलित हुई, इसका कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। परंतु यह सत्य है कि इतिहास में जितने भी महापुरुष और दार्शनिक हुए हैं, उनके चिंतन का केंद्र हमेशा 'एक मानव समाज' या इससे कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं रहा है। इस धरा पर आदिम युग से लेकर आज के अत्याधुनिक युग तक, 'एक मानव समाज' का यह उदात्त चिंतन सदैव जीवित रहा है। मैं भविष्य को पूर्णतः नहीं जानता, लेकिन जितना दूर तक मैं देख सकता हूँ, उस अनुभव के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 'एक मानव समाज' का यह चिंतन कभी भी नष्ट नहीं होगा।


'एक मानव समाज' के चिंतन में ऐसी क्या खासियत रही है कि यह हमारे समाज में इतने लंबे समय से प्रवाहित होता आ रहा है और भविष्य में भी इसके चलते रहने की प्रबल संभावना है?

इसका उत्तर एक ही है : मनुष्य ने कभी भी अपूर्णता को स्वीकार नहीं किया है; वह सदैव पूर्णता में ही अपने आपको देखना चाहता है। चूंकि 'एक मानव समाज' से कम कोई भी ऐसा चिंतन नहीं है जो मनुष्य को 'समग्रता' और 'पूर्णता' की झलक दिखा सके, इसलिए 'एक मानव समाज' का यह चिंतन सदैव शाश्वत (Eternal) रहा है।

इसका दूसरा उत्तर यह है कि यह मनुष्य की मौलिक आवश्यकता (Existential Need) भी है। मनुष्य 'एक मानव समाज' की अवधारणा के बिना जीवित नहीं रह सकता। उसे जीवन के हर पल में अलग-अलग धाराओं और पृष्ठभूमियों के लोगों की सहायता लेनी पड़ती है। एक कृषक, एक डॉक्टर, एक शिक्षक, एक इंजीनियर—ये सभी परस्पर निर्भर हैं। अतः, कोई भी मनुष्य समग्रता (Wholeness) और पारस्परिक सहयोग के बिना पूर्ण जीवन नहीं जी सकता।
ये दो कारण—पूर्णता की आकांक्षा और पारस्परिक निर्भरता की आवश्यकता—ही 'एक मानव समाज' के चिंतन को कभी मरने नहीं देते, और यह आशा है कि भविष्य में भी इसे जीवित रखेंगे। 


मनुष्य के पास 'एक मानव समाज' जैसा उदात्त चिंतन होने के बावजूद भी जाति, संप्रदाय तथा क्षेत्रीयता का संकीर्ण चिंतन क्यों विद्यमान है? यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है।
इसका भी एक ही उत्तर है: मनुष्य में विद्यमान पाशविक गुणों (Animalistic Instincts) का मानवीय गुणों पर प्रबल होना।
जैविक विज्ञान कहता है कि मनुष्य जैव जगत के क्रमिक विकास का परिणाम है, जबकि आध्यात्मिक विज्ञान यह मानता है कि प्रत्येक मनुष्य का आविर्भाव पशु जीवन की अवस्था से होकर हो रहा है। अतः, मनुष्य में व्याप्त पाशविक गुणधर्म—जैसे कि स्वार्थ, संचय की प्रवृत्ति, भय और प्रभुत्व की इच्छा—उसे 'एक मानव समाज' के विशाल विचार से विमुख करके संकीर्ण चिंतन की ओर आकर्षित करते हैं। इन्हीं पाशविक गुणों से वशीभूत होकर व्यवसायी-जीवी धूर्तों और स्वार्थी तत्वों ने 'एक मानव समाज' के मूल सूत्रों को तोड़-मरोड़ दिया है। यही विकृत रूप आज हमें जाति, संप्रदाय एवं क्षेत्रीयता के रूप में दिखाई देता है, जो मानवता को खंडित करता है।


यह 'एक मानव समाज' की थीम पर कार्य करने वाले मनुष्यों का सबसे गुरुत्वपूर्ण (Crucial) प्रश्न है। इसके सिद्ध न हो पाने के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं -


सभी महापुरुषों ने 'एक मानव समाज' की आवश्यकता पर बल दिया, लेकिन इसकी निरंतर शिक्षण और क्रियान्वयन (Continuous Education and Implementation) के लिए 'एक मानव समाज' की पाठशाला एवं कार्यशाला का निर्माण नहीं किया। ऐसा नहीं है कि प्रयास नहीं हुए; अनेक मानव समाज शास्त्रियों ने संस्थाएँ स्थापित करने का प्रयास किया। परंतु सुस्पष्ट दार्शनिक धारणा (Clear Philosophical Blueprint) के अभाव में, उनकी यह संस्थाएँ अंततः एक विशिष्ट मत (Sect) या पथ (Cult) में तब्दील होकर रह गईं, जो फिर से संकीर्णता का शिकार हो गया।

➡️ समाधान हेतु प्रश्न : 'एक मानव समाज' के निर्माण के लिए एक ऐसी पाठशाला एवं कार्यशाला की स्थापना कैसे की जाए जो सतत् रूप से कार्यरत रहे और किसी भी संकीर्ण मतवाद से मुक्त होकर केवल मानवीय मूल्यों पर केंद्रित हो?

          महापुरुषों ने जातिवाद, सांप्रदायिकता तथा क्षेत्रीयता को 'एक मानव समाज' की जड़ों को खोखला करने वाला बताया, लेकिन इसकी सर्वाधिक मजबूत जड़ जातीय विवाह पद्धति है। जाति की पहचान, संरचना और उसके अस्तित्व की निरंतरता का मूल आधार केवल जातीय विवाह व्यवस्था है। जातीय विवाह को खत्म करने की दिशा में कोई भी सुव्यवस्थित, व्यापक और साहसिक योजना नहीं दी गई। इसके चलते जाति और संप्रदाय व्यवस्था खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। यहाँ तक कि कुछ तथाकथित पहलें, जो आगे बढ़ीं, वे भी सुव्यवस्था के अभाव में एक नई जाति या उप-संप्रदाय को जन्म देकर रह गईं।

➡️ समाधान हेतु प्रश्न : जातीय विवाह समाप्ति की व्यवस्था का निर्माण कैसे किया जाए? 'विप्लवी विवाह' (Revolutionary Marriage) इसका एक मंच हो सकता है, लेकिन इस पर सतत् नज़र रखनी होगी कि यह मंच भी किसी नए मत अथवा पथ का हिमायती बनकर संकीर्णता को बढ़ावा न दे। यह सुनिश्चित करना होगा कि विवाह केवल मानवीय मूल्यों और आदर्शों पर आधारित हो, न कि किसी संप्रदाय विशेष पर।

निष्कर्ष और आह्वान
'एक मानव समाज' केवल एक स्वप्न नहीं, बल्कि मनुष्य के पूर्ण अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। यह चिंतन शाश्वत है, किंतु इसे धरातल पर उतारने के लिए हमें पाशविक गुणों पर मानवीय गुणों की विजय स्थापित करनी होगी।

अब वेला है कि हम केवल प्रश्नों पर ही न रुकें, बल्कि मिलकर इन समस्याओं का समाधान भी ढूँढ़ें।

आओ, मिलकर 'एक मानव समाज' की स्थापना के मार्ग पर अग्रसर हों।
क्या हम तानाशाह होना चाहते हैं?                (Do we want to be dictators?)

वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में, जहाँ एक ओर आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना की बात ज़ोर पकड़ रही है, वहीं दूसरी ओर कुछ विचारकों द्वारा एक विशेष संगठन पर तानाशाही व्यवस्था का वाहक होने का आरोप लगाया जा रहा है। यह भ्रांति संभवतः 'बाबा' (श्री श्री आनन्दमूर्ति जी) के गूढ़ विचारों को पूर्ण रूप से आत्मसात न कर पाने के कारण उत्पन्न हुई है। बाबा का स्पष्ट उद्घोष रहा है कि समाज के सर्वांगीण कल्याण और उत्थान हेतु सद्विप्रों का अधिनायक तंत्र (Dictatorship of the Sadvipras) आवश्यक है। यह वक्तव्य किसी व्यक्ति विशेष या व्यक्तियों के समूह की निरंकुश सत्ता का समर्थन नहीं करता, बल्कि एक आदर्श, नैतिकवान और आध्यात्मिक नेतृत्व की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

अतः, यह स्पष्ट करना नितांत आवश्यक है कि तानाशाही व्यवस्था को बढ़ावा देना संगठन के मूल आदर्शों को खोखला करना है। हमें आज यह समझना होगा कि सद्विप्रों का अधिनायक तंत्र और आर्थिक लोकतंत्र क्या हैं और उनका वास्तविक आशय क्या है।

                 पहला प्रश्न

सद्विप्र शब्द का अर्थ एवं विशेषताएँ
श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने 'आनन्द सूत्रम' के अध्याय-05, सूत्र-02 में सद्विप्र को परिभाषित किया है : - "जो नीतिवादी आध्यात्मिक साधक अपने शक्ति सम्प्रयोग से पाप का दमन करना चाहते हैं, वे ही सद्विप्र हैं।"

इस परिभाषा के अनुसार, सद्विप्र में दो मूलभूत विशेषताएँ अनिवार्य हैं।

(1) नीतिवादी आध्यात्मिक साधक : - 
      (i) नीतिवाद का पैमाना : - व्यक्ति को यम-नियम में प्रतिष्ठित होना चाहिए तथा पंचदश शील (पंद्रह आध्यात्मिक नैतिक सामाजिक सिद्धांत) का अनुसरण करना चाहिए। उनके आचरण, व्यवहार और सिद्धांतों में इन गुणों की स्पष्ट झलक मिलनी चाहिए।
(ii) आध्यात्मिक साधक का पैमाना : - उन्हें ब्रह्मभाव (भूमाभाव) की साधना में पारंगत होना चाहिए, जिसका अर्थ है चरम चेतना के साथ एकाकार होने की साधना।
 
(2) पाप का दमन करने की शक्ति : - उनमें अपनी नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति का प्रयोग कर समाज में व्याप्त अनैतिकता और शोषण को समाप्त करने का सामर्थ्य होना चाहिए।


 यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि 'सद्विप्र का अधिनायक' नहीं, अपितु 'सद्विप्रों का अधिनायक' कहा गया है। यह स्पष्ट रूप से किसी एक व्यक्ति के निरंकुश शासन का नहीं, अपितु एक समूह के संगठित एवं नैतिक नेतृत्व की स्थापना का संदेश देता है।

यह क्या है? - यह आध्यात्मिक और नैतिकवान साधकों का सामूहिक अधिनायक तंत्र है। यह किसी व्यक्ति विशेष, सामान्य समूह या पापी स्वभाव के लोगों का अधिनायक नहीं है।
यह कैसा है? :-  सद्विप्र वस्तुतः सम्पूर्ण समाज है, जिसका नियंत्रण एक सद्विप्र बोर्ड द्वारा होगा। इस बोर्ड में कुल पाँच अलग-अलग श्रृखंलाबद्ध बोर्ड होंगे, जो एक-दूसरे से एक मजबूत चेन के माध्यम से जुड़े होंगे। इस बोर्ड के संगठन और सदस्यों के चयन में भी लोकतांत्रिक मूल्यों का समावेश होता है।

                 दूसरा प्रश्न 

आर्थिक लोकतंत्र (Economic Democracy) एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है जो भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग और न्यायसंगत वितरण पर बल देती है।

आर्थिक लोकतंत्र की मुख्य विशेषताएँ : -
* (१) न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी : यह वह सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है, जहाँ प्रत्येक नागरिक को उसकी न्यूनतम आवश्यकताओं (जैसे अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, शिक्षा) की गारंटी मिले
* (२) क्रयशक्ति का मूल अधिकार : - यह वह सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था है, जहाँ व्यक्ति के पास अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुओं और सेवाओं को क्रय करने की शक्ति का मूल अधिकार प्राप्त हो।
* (३) शत-प्रतिशत रोज़गार की अवस्था : - समाज में काम करने योग्य जनसमुदाय को शत-प्रतिशत रोज़गार की गारंटी प्रदान करना।
* (४) समन्वित सहकारी व्यवस्था : -  यह आर्थिक क्षेत्र में सीमित व्यक्तिवाद और सीमित समाजवाद के बीच समन्वय स्थापित करती है। बड़े तथा वैश्विक महत्व के उद्योग सरकार द्वारा 'न लाभ, न हानि' की नीति से संचालित होंगे, जबकि छोटे उद्योग व्यक्तिगत तथा मध्यम उद्योग समन्वित सहकारिता पर आधारित होंगे। इस व्यवस्था में आर्थिक क्षेत्र वंशवाद नहीं, अपितु योग्यता (Merit) का क्षेत्र होगा।
* (५) गुणीजन का सम्मान : -  आर्थिक लोकतंत्र गुणीजनों के गुण का सम्पूर्ण आदर करता है और उन्हें सामाजिक एवं आर्थिक परिलाभ प्रदान करता है। हालांकि, यह सामाजिक उच्च-नीच तथा किसी अन्य प्रकार के भेद को स्वीकार नहीं करता है।
* (६) वृद्धिमान सामाजिक मानक : - समाज के विकास एवं प्रगति को मापने वाला मानक कभी भी स्थिर या ह्रासमान नहीं होता है। यह सदैव वृद्धिमान (Progressive) होता है।
* (७) संपत्ति संचयन पर समाज की लगाम : - संचय वृत्ति को एक आर्थिक रोग मानते हुए, इसको अनियंत्रित छोड़ना समाज को दूषित करना माना गया है, अतः इस पर समाज का नियंत्रण आवश्यक है।
* (८) संसाधनों का अधिकतम उत्कर्ष एवं विवेकपूर्ण वितरण: भौतिक, अधिभौतिक एवं मानस-भौतिक संसाधनों का चरम उत्कर्ष करना तथा उत्पादित सामग्री का विवेकपूर्ण और न्यायसंगत वितरण करना। इसका अर्थ है: पहले सभी की न्यूनतम आवश्यकता को पूर्ण करना, तथा अतिरिक्त संपदा को गुणीजनों में उनके गुण के अनुपात में वितरित करना
* (९) मानवीय संसाधन का अधिकतम एवं सुसंतुलित उपयोग : - मानवीय क्षमता के उपयोग में अधिकतम तथा सुसंतुलित (Good Balance) नीति का समावेश है।
* (१०) उपयोगिता की परिवर्तनशीलता : -  उपयोगिता सबके लिए एक समान नहीं होती। यह देश-देश, काल-काल व पात्र-पात्र के अनुसार परिवर्तनशील होना आवश्यक है।
* (११) वैचित्र्यता का सम्मान : -  आर्थिक मूल्य प्रकृति के धर्म वैचित्र्यता (Diversity) का सम्मान करते हुए निर्धारित किए जाते हैं।

आर्थिक लोकतंत्र की मूलभूमि आर्थिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण तथा राजशक्ति का संगठित करना है।

अंतिम निष्कर्ष की ओर‌ : - आदर्श अधिनायक तंत्र के हिमायती है। अतः, हम तानाशाही के नहीं, अपितु एक आदर्श अधिनायक तंत्र के हिमायती हैं, जो लोकतांत्रिक मूल्यों को सदा जीवित रखता है। यद्यपि यहाँ लोकतंत्र भीड़तंत्र नहीं है (क्योंकि व्यस्क मताधिकार के स्थान पर आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्ति को मताधिकार है), तथापि यह लोकतांत्रिक मूल्यों की बलि नहीं देता है। सद्विप्रों का अधिनायक तंत्र वस्तुतः एक ऐसा नैतिक एवं आध्यात्मिक नियंत्रण है जो आर्थिक लोकतंत्र की नींव को सुदृढ़ करता है, जिससे शोषण रहित समाज की स्थापना संभव हो पाती है।

हम तानाशाही नहीं एक आदर्श अधिनायक तंत्र में विश्वास करते हैं, जो व्यक्ति के नेतृत्व में नहीं सामूहिक नेतृत्व की अवधारणा देता है। 

प्रस्तुति : आनन्द किरण
प्रउत के अनुसार रुपये के मूल्य में गिरावट का समाधान (Solution to the fall in the value of the rupee according to Prout)


प्रउत के अनुसार रुपये के मूल्य में गिरावट का समाधान 

      ​'हमारा रुपया, हमारी शक्ति'


 रुपया को केवल कागज़ नहीं माना जा सकता, बल्कि यह एक संप्रभु गारंटी पर आधारित एक सांकेतिक मुद्रा है। भारतीय रुपये की कीमत अक्सर डॉलर के मुकाबले कमजोर मानी जाती है, जिससे भारत के आयात बिल और विदेशी ऋण पर असर पड़ता है।

​प्रउत (Prout - Progressive Utilization Theory) के अनुसार, इस समस्या का समाधान करने के लिए मुद्रा और अर्थव्यवस्था की मूल संरचना में बदलाव करना आवश्यक है।

​प्रउत के अनुसार कमजोर होते रुपये  का समाधान : आर्थिक क्रांति

​प्रउत की आर्थिक व्यवस्था में, मुद्रा की कमजोरी और अस्थिरता को दूर करने के लिए दो मुख्य रणनीतियाँ हैं: उत्पादकता आधारित मुद्रा (Productivity-Based Currency) और स्थानीय आर्थिक विकेंद्रीकरण (Decentralized Economy)।

​1. उत्पादकता-आधारित मुद्रा (Stabilizing the Rupee)

"उत्पादन की शक्ति, कमजोर होते रुपये की युक्ति।"

​प्रउत यह मानता है कि मुद्रा का मूल्य किसी विदेशी मुद्रा (जैसे डॉलर) के बजाय देश के आंतरिक भौतिक धन (उत्पादन, प्राकृतिक संसाधन, और सेवाएँ) से जुड़ा होना चाहिए।

  • मूल्य स्थिरीकरण: रुपये को देश के उत्पादन के कुल मूल्य (Total Production Value) से जोड़ा जाना चाहिए।
  • परिणाम: इससे रुपये का मूल्य देश की वास्तविक संपत्ति पर आधारित होगा। जब देश का उत्पादन बढ़ेगा, रुपये का मूल्य भी स्वाभाविक रूप से मजबूत होगा, जिससे डॉलर के मुकाबले इसकी कमजोरी कम होगी।

​2. क्रय शक्ति और न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी

 "न्यूनतम आवश्यकताएँ सबकी, गारंटी क्रय शक्ति की।"

​प्रउत का केंद्रीय सिद्धांत यह है कि हर व्यक्ति को जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएँ (Minimum Necessities of Life) मिलनी चाहिए।

  • गारंटीड क्रय शक्ति: प्रउत सरकार गारंटी देगी कि एक रुपये की न्यूनतम क्रय शक्ति (Minimum Purchasing Power) हमेशा बनी रहेगी।
  • कंट्रोल ऑन एसेंशियल गुड्स: आवश्यक वस्तुओं की कीमतें नियंत्रित की जाएंगी, जिससे महंगाई का प्रभाव कम होगा और रुपये की आंतरिक क्रय शक्ति बनी रहेगी।
  • परिणाम: जब रुपये की आंतरिक क्रय शक्ति मजबूत और गारंटीड होगी, तो विदेशी निवेशक भी इस मुद्रा पर अधिक भरोसा करेंगे, जिससे डॉलर के मुकाबले रुपये को मजबूती मिलेगी।

​3. विकेन्द्रीकृत आर्थिक व्यवस्था (Reducing Dependency on Dollar)

 "आत्मनिर्भर क्षेत्र बनाओ, डॉलर का वर्चस्व घटाओ।"

​डॉलर की तुलना में रुपये की कमजोरी का एक मुख्य कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वैश्विक अर्थव्यवस्था पर अत्यधिक निर्भरता है। प्रउत इसका समाधान क्षेत्रीय आत्म-निर्भरता से करता है।

  • सामाजिक आर्थिक ब्लॉक : देश को छोटे-छोटे आत्मनिर्भर सामाजिक आर्थिक क्षेत्रों (सोशियो-इकोनॉमिक यूनिट्स) में बाँटा जाएगा।
  • स्थानीय उत्पादन: इन क्षेत्रों का प्राथमिक लक्ष्य स्थानीय आवश्यकताओं के लिए स्थानीय रूप से उत्पादन करना होगा, जिससे आयात पर निर्भरता कम होगी और डॉलर की माँग भी घटेगी।
  • विदेशी मुद्रा का सीमित उपयोग: विदेशी मुद्रा का उपयोग केवल अपरिहार्य आयातों के लिए किया जाएगा।
  • परिणाम: डॉलर पर निर्भरता कम होने से, रुपये की कीमत अंतर्राष्ट्रीय विनिमय दरों के उतार-चढ़ाव से कम प्रभावित होगी। प्रउत का मत : एक ऐसा रुपया जो उत्पादन से चले, अटकलों से नहीं।

संक्षेप में: प्रउत के अनुसार समाधान यह है कि रुपये को देश के उत्पादन और भौतिक धन की वास्तविक गारंटी बनाकर, और अर्थव्यवस्था को स्थानीय रूप से आत्म-निर्भर बनाकर, डॉलर के मुकाबले इसकी कमजोरी को दूर किया जा सकता है।


प्रस्तुति : करण सिंह शिवतलाव

प्रकाशन सचिव, प्राउटिस्ट सर्व समाज

एकाधिकार का दंश और प्रउत का आह्वान : सेवा क्षेत्र में क्रांति!                                          (The sting of monopoly and the call of Prout : Revolution in the service sector!)

आज देश के आर्थिक क्षितिज पर Indigo की Monopoly एक भयावह तस्वीर प्रस्तुत करती है। यह वह दृश्य है जहाँ स्वच्छ प्रतियोगिता (healthy competition) धीरे-धीरे एकाधिकार (monopoly) के विकराल रूप में बदलती जाती है। यह पूंजीवाद का वह भयंकर दुष्परिणाम है जो आज वायुयान जगत में स्पष्ट दिख रहा है।
यदि यह पूंजीवादी रोग समूल आर्थिक जगत में फैल गया, तो राष्ट्र की सम्पूर्ण व्यवस्था एक सूखे पटाखे की तरह फूट जाएगी। अब समय आ गया है कि हम पूंजीवाद और साम्यवाद की पुरानी बहसों से ऊपर उठकर एक नई अर्थव्यवस्था की आवश्यकता को पहचानें।

विश्व की डाँवाडोल सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को नूतन आयाम देने की तलाश हमें सीधे श्री प्रभात रंजन सरकार  की आदर्श अर्थव्यवस्था प्रउत (PROUT) की ओर ले जाती है!

       "लाभ नहीं, सेवा ही मूल; सबको मिले              बुनियादी फूल।
        प्रउत की यह अटल कहानी; सुखद                भविष्य की है निशानी।"



प्रउत (PROUT - Progressive Utilization Theory) अर्थात प्रगतिशील उपयोग तत्व, एक ऐसा सिद्धांत है जो किसी भी निजी व्यवस्था को इतना विशाल नहीं होने देता कि वह समाज के वर्तमान और भविष्य को तय करे। साथ ही, यह सार्वजनिक क्षेत्र में पनपने वाले आलस्य और अव्यवस्था को भी रोकता है, जिससे अर्थव्यवस्था रुग्ण न हो।
राष्ट्र, विश्व और समाज के उज्ज्वल भविष्य के लिए PROUT को अपनाना अपरिहार्य है!


प्रउत का केंद्रीय लक्ष्य स्पष्ट है : सभी को उनकी बुनियादी आवश्यकताएँ (Basic Necessities)—भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा और शिक्षा—उपलब्ध हों, और गुणीजन का सम्मान बना रहे। सेवा क्षेत्र के प्रबंधन में इसी महान लक्ष्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है।


प्रउत, उन सेवाओं को सामूहिक कर्तव्य (Collective duty) मानता है जो लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए महत्वपूर्ण हैं, और उन्हें निजी लाभ के लिए उपयोग करने की अनुमति नहीं देता।
 
∆  (i) शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था (Education and Medical system): ये सेवाएँ हर नागरिक को निःशुल्क और उच्च गुणवत्ता के साथ मिलनी चाहिए। प्रउत के तहत, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को निजी लाभ-प्रेरित निगमों के बजाय, सामाजिक आर्थिक इकाई या समाज प्रशासन द्वारा नियंत्रित किया जाएगा।
 
∆  (ii) सार्वजनिक उपयोगिताएँ (Public Utilities) : परिवहन, संचार और बिजली जैसी प्रमुख सेवाएँ "नो प्रॉफ़िट, नो लॉस" (No Profit, No Loss) के आधार पर चलाई जाएँगी। इनका संचालन केन्द्र सरकार अथवा विश्व सरकार द्वारा होगा (आवश्यकतानुसार राष्ट्रीय सरकार को भी उत्तरदायित्व दिया जा सकता है), जिससे इनकी उपलब्धता और वहनीयता (affordability) सभी के लिए सुनिश्चित हो सके।


प्रउत, अर्थव्यवस्था को विकेन्द्रीकृत (Decentralized) करने और आर्थिक लोकतंत्र (Economic Democracy) स्थापित करने के लिए सहकारी समितियों (Co-operatives) पर विशेष जोर देता है।
 
∆ (i) व्यापार और बैंकिंग (Business and Banking) : खुदरा व्यापार, स्थानीय बैंकिंग और अन्य उपभोक्ता सेवाएँ मुख्य रूप से उपभोक्ता सहकारी समितियों और उत्पादक सहकारी समितियों के माध्यम से संचालित होंगी। इससे बिचौलियों का शोषण समाप्त होगा और लाभ स्थानीय समुदाय के सदस्यों के बीच वितरित होगा।
 
∆ (ii) उपभोक्ता की आवश्यकताएँ प्राथमिकता (Consumer needs rather than producer benefits of services) :  सहकारी समितियाँ यह सुनिश्चित करती हैं कि सेवाओं का आधार उत्पादक लाभ नहीं, बल्कि उपभोक्ता की आवश्यकता (Need-based Consumption) हो।


दक्षता और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए प्रउत सेवा क्षेत्र को तीन अलग-अलग स्वामित्व स्तरों द्वारा प्रबंधित करने का प्रस्ताव करता है। 
 
∆ (i) प्रमुख सार्वजनिक स्वामित्व (Key Public Ownership) : बड़ी, आवश्यक उपयोगिताएँ जो राष्ट्रीय महत्व की हैं (जैसे रेल, राष्ट्रीय राजमार्ग, बड़े संचार नेटवर्क) विश्व या राष्ट्रीय सरकार द्वारा नियंत्रित की जाएँगी। इनका एकमात्र उद्देश्य सामाजिक कल्याण होगा और ये लाभ के उद्देश्य से नहीं चलाई जाएँगी।
 
∆ (ii) सहकारी स्वामित्व (Cooperative Ownership): बुनियादी और स्थानीय स्तर की सेवाएँ जो सीधे समुदाय की आवश्यकताओं से जुड़ी हैं (जैसे स्थानीय बैंकिंग, खुदरा व्यापार, स्थानीय स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाएँ) सहकारी समितियों (उत्पादक और उपभोक्ता) द्वारा प्रबंधित की जाएँगी। यह मॉडल आर्थिक शोषण को रोकने और स्थानीय लोगों को सशक्त बनाने पर केंद्रित होगा।
 
∆  (iii) विकेन्द्रीकृत निजी स्वामित्व (Decentralized Private Ownership): व्यक्तिगत कौशल और रचनात्मकता पर आधारित छोटी और विशेष सेवाएँ (जैसे छोटी मरम्मत सेवाएँ, व्यक्तिगत सलाहकार सेवाएँ, कला और हस्तशिल्प) छोटे निजी उद्यमियों द्वारा चलाई जाएँगी। यह व्यक्तिगत अभिव्यक्ति और नवाचार को प्रोत्साहन देगा।


प्रउत के मूलभूत सिद्धांत संसाधनों के अधिकतम उपयोग (Maximum Utilization) और तर्कसंगत वितरण (Rational Distribution) पर केंद्रित हैं।
 
∆ (i) मानव पूंजी का अधिकतम उपयोग (Maximum utilization of human capital) : सेवा क्षेत्र में इसका अर्थ है कि मानव पूंजी (Human Capital) का अधिकतम उपयोग हो। बेरोजगारी को खत्म करने के लिए काम के घंटे कम किए जा सकते हैं, ताकि काम सभी में बाँटा जा सके।
 
∆  (ii) क्षमता का समाज हित में सुसंतुलित उपयोग   (Good Balanced use of potential for the benefit of society) :- अकुशल श्रम की सेवाओं से लेकर अत्यधिक कुशल (जैसे IT, इंजीनियरिंग, डॉक्टरी) सेवाओं तक, हर व्यक्ति की क्षमता और कौशल का सुसंतुलित उपयोग देश और समाज के अधिकतम  हित में किया जाना चाहिए।

संक्षेप में, प्रउत सेवा क्षेत्र को केवल लाभ कमाने का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक विकास, आर्थिक लोकतंत्र और सभी के लिए बुनियादी आवश्यकताओं की गारंटी का एक महत्वपूर्ण उपकरण मानता है।

           "प्रउत नहीं केवल सिद्धांत; यह जीवन              का है नवंत।
            भ्रष्टाचार हो चूर-चूर; समाज चले                     सुख-भरपूर।।"



प्रकाशन सचिव PSS
छठाँ विषय - ईश्वर प्रणिधान में निपुण कैसे हों?   (The Sixth Topic - How to Become Proficient in Ishvara Pranidhana?)

               आओ साधना करते हैं 


प्रस्तुति : आनन्द किरण

मधुविद्या पर चर्चा समाप्त होने के बाद, उन्होंने प्रश्न किया, "ईश्वर प्रणिधान में निपुण कैसे हों?"

मैंने कहा, "सबसे पहले, ईश्वर प्रणिधान क्या है, यह जान लेते हैं। ईश्वर का प्रणिधान करना ही ईश्वर प्रणिधान है। सरल अर्थ में कहा जाए तो ईश्वर या परमब्रह्म को पूर्णतया अपने में बिठा देना अथवा ईश्वर में बैठ जाना ईश्वर प्रणिधान है। और भी अत्यंत सरल शब्दों में कहें तो, अपने आप को सम्पूर्ण रूप से ईश्वर को समर्पित करना ही ईश्वर प्रणिधान है। यहाँ ईश्वर शब्द का अर्थ नियंता है।"

"ठीक है," मैंने कहा, "ईश्वर प्रणिधान का अर्थ जानकर उस अवस्था को पा लेना ही ईश्वर प्रणिधान में निपुणता का सरलतम उपाय है।"

उन्होंने उत्सुकता से पूछा, "उस अवस्था को कैसे पाया जा सकता है?"

मैंने उत्तर दिया, "अहम् ब्रह्मास्मि का भाव लेकर।"

इस पर उन्होंने अगला प्रश्न किया, "ब्रह्म भाव लेने में मंत्र की क्या भूमिका है?"

मैंने समझाया, "ईश्वर प्रणिधान में इष्टमंत्र तथा मंत्र के भाव के साथ मन का तारतम्य महत्वपूर्ण है।"

उन्होंने कहा कि "यह कैसे?"

मैंने कहा कि "मन में भाव सहित इष्टमंत्र की बार-बार आवृत्ति होने से मन उस भाव को पूर्णतया अपने में स्थापित कर देता है।"

उन्होंने आश्चर्य से पूछा, "यह कैसे संभव है?"
मैंने कहा, "यही मन का स्वभाव है, जिसकी गवेषणा करता है, उसी को पा लेता है।"

"इसमें इष्टमंत्र एवं इष्टचक्र का क्या महत्व है?"

मैंने इष्ट की महत्ता समझाते हुए कहा, "इष्ट का अर्थ है प्रिय से भी प्रिय, अर्थात प्रियतम। जिस प्रकार एक प्रेमी के जीवन में प्रियतम का महत्व है, वैसा ही साधक के जीवन में इष्ट का महत्व है। इष्टमंत्र प्रिय मंत्र ही नहीं, बल्कि प्रियतम मंत्र है, जिसको पाकर साधक का मन खिल जाता है। अतः इष्टमंत्र का महत्व है। ठीक उसी प्रकार, जिस चक्र को पाकर मन बिल्कुल या पूर्णरूपेण खिल जाता है, वह उसका इष्टचक्र है। अतः इष्टमंत्र एवं इष्टचक्र का साधक के जीवन में विशेष महत्व है।"

तब उनका एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न सामने आया, "कोई आचार्य अपनी अपरिपक्वता अथवा भूलवश गलत इष्टमंत्र एवं गलत इष्टचक्र अथवा दोनों ही गलत चुनकर साधक को दे दे तो साधक का भविष्य क्या होगा?"

मैंने आश्वस्त करते हुए कहा, "वैसे तो इसका एक विज्ञान है, तथापि यदि ऐसा होता है तो थोड़ी तकलीफ अवश्य पड़ती है, लेकिन सदगुरु संभाल लेते हैं। तथा जो इष्टचक्र और इष्टमंत्र दिया गया है, वही साधक के इष्टमंत्र एवं इष्टचक्र बन जाते हैं, और साधक की अग्रगति में कोई रुकावट नहीं आती है।"

"यह विज्ञान क्या है?" उन्होंने पूछा।
मैंने विनम्रतापूर्वक कहा, "यह आचार्य का विशेषाधिकार है। जब तक गुरु किसी को आचार्य नियुक्त नहीं करें, तब तक नहीं जानना ही उचित है।"

उन्होंने विषय को आगे बढ़ाते हुए पूछा, "ईश्वर प्रणिधान से पूर्व शुद्धियाँ क्यों की जाती हैं?"

मैंने स्पष्ट किया, "शुद्ध मन ही इष्ट को पा सकता है। अतः मन की शुद्धि के लिए शुद्धियाँ आवश्यक हैं। भूत, आसन एवं चित्त—इन तीनों की शुद्धि आवश्यक है।"

"यह क्यों?"
"साधक के बैठने का लोक जितना सूक्ष्म होगा, साधक उतने सूक्ष्म लोक में रहेगा, उसी प्रकार बैठने का स्थान अथवा आसन भी है। चित्त क्षमता भी सूक्ष्मता पर निर्भर करती है, इसलिए चित्त की शुद्धि भी आवश्यक है।"

"जप एवं अजपाजप में क्या अन्तर है?"

मैंने उत्तर दिया, "याद रखकर किया गया जप जप है तथा स्वतः होने वाला जप अजपाजप है। अतः पहले 80 बार गिनकर तथा फिर अगणित जप (अजपाजप) आ जाना चाहिए।"

"80 बार ही क्यों?"

"इसकी माया सदगुरु ही जानें, लेकिन मेरे अनुसंधान के अनुसार यह दशक एवं अष्टक का गुणा है। 10 (•) 8 = 10×8 =  80, भूलकर कोई 108 कर देता है।"

"दशक एवं अष्टक?"
मैंने समझाया, "दशक संख्या वाचक है, जो गणना की पूर्णता का प्रतीक है - 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 1(पुन:) (यहाँ 1 से 9 और फिर 1  पूर्णता प्रतीक)। इसमें शून्य नहीं लिया गया लेकिन यह रचना शून्य की बन जाती है। अष्टक - अष्ट सुर सा, रे, गा, मा, प, द, नि, सा। यह भी शून्य बन जाता है। अर्थात जप में अजपाजप तथा अजपाजप में भी जप होता रहता है। एक भावशून्य अवस्था तथा दूसरी गुण शून्य अवस्था है। साधक जब इन दोनों अवस्था से एकाकार होता है, तब अपने में ब्रह्म तथा ब्रह्म में अपने को देखता है।"

उन्होंने पूछा, "ईश्वर प्रणिधान और भी कुछ है?"
मैंने सार रूप में कहा, "सबकुछ ईश्वर प्रणिधान में तथा सबकुछ में ईश्वर प्रणिधान है। यही रहस्य जान लेने से ईश्वर प्रणिधान में निपुण हो सकते हैं।"

चलते-चलते उन्होंने एक अंतिम प्रश्न किया, "ईश्वर प्रणिधान में श्वास प्रवाह का क्या महत्व है?"

मैंने बताया, "श्वास प्रवाह की गति में इष्ट मंत्र का जप किया जाता है। इससे मन की चिन्तन गति एकाग्रता को प्राप्त करती है तथा इष्टमंत्र के भाव से मन घुल-मिलने से साधक मूल लक्ष्य को प्राप्त करता है।"

"ईश्वर प्रणिधान का कोई सार तत्व है?"
मैंने दृढ़ता से कहा, "स्वयं को ईश्वर रूप में देखना, जानना एवं पाना ही ईश्वर प्रणिधान का सार है।"

उन्होंने स्वीकार किया, "तब तो यह सबसे मुश्किल है।"

मैंने उत्तर दिया, "सत्य तो यह ही है, तथापि हर मुश्किल तब आसान हो जाती है जब संकल्प दृढ़ हो।"

अंततः, उन्होंने वही प्रश्न दोहराया, "तो, ईश्वर प्रणिधान में निपुणता कैसे?"

मैंने स्पष्ट और अंतिम उत्तर दिया, "ब्रह्म भाव पाने के दृढ़ संकल्प से ही ईश्वर प्रणिधान में निपुणता पाई जाती है।"





 Let Us Practice Sadhana (Spiritual Discipline): 


Presentation by: Anand Kiran

After the discussion on Madhuvidya, he asked, "How does one become proficient in Ishvara Pranidhana?"

I said, "First, let us define it. Performing Pranidhana of Ishvara (God) is Ishvara Pranidhana. In simple terms, it is to completely establish God or the Supreme Brahman within oneself, or to become seated in God. In the simplest words, complete surrender of oneself to God is Ishvara Pranidhana. Here, the word Ishvara means the Controller or Regulator."

"Understood," he said.
I continued, "Knowing the meaning of Ishvara Pranidhana and achieving that state is the simplest way to attain proficiency in it."

He eagerly asked, "How can that state be achieved?"
I replied, "By adopting the feeling of 'Aham Brahmasmi' (I am Brahman)."

Upon this, he posed the next question, "What is the role of the Mantra in adopting the 'Brahman feeling'?"
I explained, "In Ishvara Pranidhana, the harmony of the mind with the Ishta-Mantra (Chosen Mantra) and the sentiment (Bhava) of the mantra is important."

"How is that?"
"Through the repeated repetition of the Ishta-Mantra with the right sentiment in the mind, the mind completely establishes that sentiment within itself."

He asked in surprise, "How is this possible?"
I said, "This is the very nature of the mind; whatever it seeks, it attains."

"What is the significance of the Ishta-Mantra and the Ishta-Chakra in this?"
I elucidated the importance of the Ishta (Chosen Deity/Object of devotion), saying, "Ishta means dearer than dear, that is, the Dearest (Priyatam). Just as the dearest one is important in a lover's life, the Ishta is important in the life of a practitioner (Sadhaka). The Ishta-Mantra is not just a dear mantra, but the Dearest Mantra, upon receiving which the Sadhaka's mind blossoms. Hence, the Ishta-Mantra is important. Similarly, the Chakra upon realizing which the mind completely or fully blossoms is the Ishta-Chakra. Thus, the Ishta-Mantra and Ishta-Chakra hold significance in the life of the Sadhaka."

Then came a critical question from him, "If an Acharya (Spiritual Teacher), due to their immaturity or error, chooses the wrong Ishta-Mantra, the wrong Ishta-Chakra, or both incorrectly, what will be the future of the Sadhaka?"

I reassured him, "Although this has a specific science behind it, even if it happens, there will certainly be a little difficulty, but the Sadguru (True Guru) takes care of it. And whatever Ishta-Chakra and Ishta-Mantra were given become the Sadhaka's own Ishta-Mantra and Ishta-Chakra, and there is no obstruction to the Sadhaka's progress."

"What is this science?" he asked.
I humbly stated, "This is the special prerogative of the Acharya. It is appropriate not to know it until the Guru appoints someone as an Acharya."

Moving the discussion forward, he asked, "Why are purifications (Shuddhi) performed before Ishvara Pranidhana?"
I clarified, "Only a pure mind can attain the Ishta. Therefore, purifications are necessary for the purification of the mind. The purification of Bhuta (elements/body), Asana (seat), and Chitta (consciousness) is essential."

"Why these three?"
"The subtler the plane (Loka) in which the Sadhaka is seated, the subtler the plane in which the Sadhaka will dwell; the same applies to the place of sitting or the Asana. Chitta capacity also depends on its subtlety, which is why the purification of the Chitta is also necessary."
"What is the difference between Japa (Chanting) and Ajapa-Japa (Unspoken/Spontaneous Chanting)?"
I answered, "Japa done with conscious remembrance is Japa, and Japa that happens spontaneously is Ajapa-Japa. Therefore, one should first transition from counting 80 times to innumerable chanting."
"Why exactly 80 times?"
"Only the Sadguru knows the mystery of this, but according to my research, it is the product of Dashaka (Decade) and Ashtaka (Octave). 10 (•) 8 = 10×8 =  80,. By mistake, some do 108."

"Dashaka and Ashtaka?"
I explained, "Dashaka is a number identifier, a symbol of the completeness of counting—1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 1( repeat) (completeness of the number 1). Zero is not included here, but this composition turns into zero. Ashtaka—the eight musical notes Sa, Re, Ga, Ma, Pa, Dha, Ni, Sa—this also turns into zero. That is, Ajapa-Japa continues within Japa, and Japa continues even within Ajapa-Japa. One is a state of 'no-sentiment' (Bhavashunya), and the other is a state of 'no-attribute' (Gunashunya). When the Sadhaka becomes one with both these states, they see Brahman within themselves and themselves within Brahman."
He asked, "Is there anything more to Ishvara Pranidhana?"
I summarized, "Everything is in Ishvara Pranidhana, and Ishvara Pranidhana is in everything. By knowing this secret, one can become proficient in Ishvara Pranidhana."
As we parted, he had one last question, "What is the significance of breath flow (Shvasa Pravaha) in Ishvara Pranidhana?"
I explained, "The Japa of the Ishta-Mantra is performed in the rhythm of the breath flow. This causes the thinking process of the mind to achieve concentration, and by the mind merging with the sentiment of the Ishta-Mantra, the Sadhaka achieves the original goal."
"Is there any core essence of Ishvara Pranidhana?"
I stated firmly, "To see, to know, and to attain oneself in the form of God is the essence of Ishvara Pranidhana."
He conceded, "Then this is the most difficult thing."
I replied, "That is the truth; however, every difficulty becomes easy when the resolve is firm."
Finally, he repeated the original question, "So, how to attain proficiency in Ishvara Pranidhana?"
I gave the clear and final answer, "Proficiency in Ishvara Pranidhana is attained only through the firm resolve to achieve the state of Brahman."



आओ साधना करां: 


प्रस्तुति : आनन्द किरण

मधुविद्या माथे चर्चा पूरी होवण रै बाद, वे पूछ्यो, "ईश्वर प्रणिधान में माहिर (निपुण) कैयां बणां?"

मैं कह्यो, "पैलां तो, ईश्वर प्रणिधान काई है, इण नै जाणां। ईश्वर रो प्रणिधान करणो ई ईश्वर प्रणिधान है। सोधा अर्थ में कहणां तो ईश्वर या परमब्रह्म नै पूरो-पूरी आपणां में बिठा देणो या ईश्वर में बैंठ जावणो ईश्वर प्रणिधान है। अर ईं नै घणी सोधी बातां में कहणां तो, आप नै पूरो रूप सूं ईश्वर नै अरपण कर देणो ई ईश्वर प्रणिधान है। अठै ईश्वर शब्द रो मतलब नियंता है।"

"ठीक है," वे बोल्या।
"ईश्वर प्रणिधान रो अर्थ जाण'र उण अवस्था नै पा लेणो ई ईश्वर प्रणिधान में माहिर होवण रो सोधो तरीको है।"

वे उत्सुकता सूं पूछ्यो, "उण अवस्था नै कैयां पायी जा सकै है?"

मैं जवाब दियो, "अहम् ब्रह्मास्मि रो भाव लेय'र।"

इण माथे वे अगलो सवाल दाग्यो, "ब्रह्म भाव लेवण में मंत्र रो काई रोल है?"

मैं समझायो, "ईश्वर प्रणिधान में इष्टमंत्र अर मंत्र रै भाव रै साथै मन रो तालमेल घणो जरूरी है।"
"यो कैयां?"

"मन में भाव रै साथै इष्टमंत्र नै बार-बार दोराये जावण सूं, मन उण भाव नै पूरो-पूरी आपणां में जमा लैवै है।"

वे अचरज सूं पूछ्यो, "यो कैयां संभव है?"
मैं कह्यो, "यो ई मन रो स्वभाव है, जिणनै यो खोजै है, उणनै पा लैवै है।"

"इण में इष्टमंत्र अर इष्टचक्र रो काई महत्व है?"
मैं इष्ट री महत्ता बताई, "इष्ट रो मतलब है प्यारा सूं भी प्यारो, मतलब प्रियतम। जिण भांत एक प्रेमी रै जीवन में प्रियतम रो महत्व है, वणी भांत एक साधक रै जीवन में इष्ट रो महत्व है। इष्टमंत्र खाली प्यारो मंत्र नीं, बलकै प्रियतम मंत्र है, जिणनै पाय'र साधक रो मन खिल जावै है। इण खातर इष्टमंत्र रो महत्व है। वणी भांत, जिण चक्र नै पाय'र मन एकदम या पूरी भांत खिल जावै है, वो उण रो इष्टचक्र है। इण कारण, इष्टमंत्र अर इष्टचक्र रो साधक रै जीवन में खास महत्व है।"

फेर उणां रो एक जरूरी सवाल आयो, "कोई आचार्य आपणी अपरिपक्वता या भूल रै कारण गलत इष्टमंत्र, गलत इष्टचक्र, या दोनूं ई गलत चुण'र साधक नै दे देवै, तो साधक रो भविष्य काई होसी?"

मैं तसल्ली दी, "वैसूं तो इण रो एक खास विज्ञान है, पण जद ऐसो होवै, तो थोड़ी तकलीफ तो आसी, पण सदगुरु (सच्चा गुरु) संभाल लेवै है। अर जो इष्टचक्र अर इष्टमंत्र दियो गयो है, वो ई साधक रा इष्टमंत्र अर इष्टचक्र बण जावै है, अर साधक री अग्रगति (आगे बढ़णो) में कोई रुकावट नीं आवै है।"
"यो विज्ञान काई है?" वे पूछ्यो।

मैं नम्रता सूं कह्यो, "यो आचार्य रो खास अधिकार है। जद तांई गुरु किणी नै आचार्य नीं बणावै, जद तांई इण नै नीं जाणनो ई ठीक है।"
वे बात नै आगे बढ़ाया, "ईश्वर प्रणिधान सूं पैलां शुद्धियाँ (पवित्रता) क्यूँ करी जावै है?"
मैं साफ करयो, "शुद्ध मन ई इष्ट नै पा सकै है। इण कारण, मन री शुद्धि खातर शुद्धियाँ जरूरी है। भूत (तत्व/शरीर), आसन (बैठण री जगह) अर चित्त (चेतना)—ईं तीनां री शुद्धि जरूरी है।"

"यो क्यूँ?"
"साधक रै बैंठण रो लोक जितणो सूक्ष्म होसी, साधक उतणा ई सूक्ष्म लोक में रैसी; वणी भांत बैंठण री जगह या आसन रो भी महत्व है। चित्त री क्षमता भी सूक्ष्मता माथे निर्भर करै है, इण कारण चित्त री शुद्धि भी जरूरी है।"
"जप अर अजपाजप में काई फरक है?"
मैं जवाब दियो, "याद राख'र करयोड़ो जप तो जप है, अर आपूं-आप होवण वाळो जप अजपाजप है। इण कारण, पैलां 80 बार गिण'र अर फेर अगणित जप (अजपाजप) आवणो चाहीजै।"

"80 बार ई क्यूँ?"
"इण रो भेद तो सदगुरु ई जाणां, पण म्हारी खोज रै हिसाब सूं यो दशक (10) अर अष्टक (8) रो गुणा है। 10 (•) 8 = 10×8 =  80,  भूल सूं कोई 108 कर देवै है।"

"दशक अर अष्टक?"
मैं समझायो, "दशक गिणती बतावण वाळो है, जो गिणती री पूर्णता रो चिन्ह है – 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 1(पाछो) । इण में जीरो नीं लियो गयो, पण यो रचना जीरो री बण जावै है। अष्टक – आठ सुर सा, रे, गा, मा, प, धा, नि, सा। यो भी जीरो बण जावै है। मतलब, जप में अजपाजप अर अजपाजप में भी जप चालतो रैवै है। एक भावशून्य अवस्था है अर दूजी गुण शून्य अवस्था है। साधक जद ईं दोनूं अवस्थावां सूं एक होवै है, तो वो आपणां में ब्रह्म अर ब्रह्म में आप नै देखै है।"

वे पूछ्यो, "ईश्वर प्रणिधान अर भी काई है?"
मैं सार में कह्यो, "सबकुछ ईश्वर प्रणिधान में है अर सबकुछ में ईश्वर प्रणिधान है। यो ई भेद जाण लेवण सूं ईश्वर प्रणिधान में माहिर हो सकां हा।"

जावता-जावता उणां एक आखरी सवाल पूछ्यो, "ईश्वर प्रणिधान में श्वास रै प्रवाह रो काई महत्व है?"

मैं बतायो, "श्वास रै प्रवाह री गति में इष्ट मंत्र रो जप करयो जावै है। इणसूं मन री सोचण री गति एकाग्रता पकड़ै है अर इष्टमंत्र रै भाव सूं मन मिल जावण सूं साधक मूल लक्ष्य नै पावै है।"

"ईश्वर प्रणिधान रो कोई सार तत्व है?"
मैं मजबूती सूं कह्यो, "खुद नै ईश्वर रै रूप में देखणो, जाणणो अर पावणो ई ईश्वर प्रणिधान रो सार है।"

वे मान्या, "फेर तो यो सगळां सूं मुश्किल है।"
मैं जवाब दियो, "यो ई सच है, पण हर मुश्किल जद आसान हो जावै है जद संकल्प पक्को होवै।"

आखीर में, उणां वो ई सवाल फेर पूछ्यो, "तो, ईश्वर प्रणिधान में निपुणता कैयां?"
मैं साफ अर आखरी जवाब दियो, "ब्रह्म भाव पावण रै पक्का संकल्प सूं ई ईश्वर प्रणिधान में निपुणता पायी जावै है।"

पाँचवाँ विषय - मधुविद्या साधना में पारंगत कैसे हों?  (Fifth topic – How to become proficient in Madhuvidya Sadhana?)
           आओ साधना करते हैं

कर्ता, कर्म, करण, क्रिया इत्यादि सबको ब्रह्ममय देखने का नाम मधुविद्या साधना है। 'मधु' का शाब्दिक अर्थ है मिठास। मधु वह है जो मनुष्य को आनंद देती है। जब कोई मिठास कष्ट अथवा व्याधि देने लगे, तब उसका स्वाभाविक गुण तो मीठा हो सकता है, लेकिन वह मधु नहीं हो सकता। अतः, आनंदमय जीवन बनाने एवं जीने की कला का नाम ही मधुविद्या है। आनंद ही ब्रह्म है, इसलिए मधुविद्या को ब्रह्मविद्या भी कहते हैं। ब्रह्मविद्या, वह कला है जो सब कुछ में ब्रह्म दिखाती है अथवा ब्रह्म देखती है। इसकी एक विशेष विधा होने के कारण यह साधना मधुविद्या कहलाती है।

तत्त्व-धारणा  के बाद, उन्होंने तुरंत सवाल किया, "मधुविद्या साधना में पारंगत कैसे हो सकते हैं?"

मैंने कहा, "हर कर्म को ब्रह्मभाव में करना व देखना ही मधुविद्या साधना है, और ब्रह्मभाव में रहने का अर्थ है कारक व क्रिया में ब्रह्म देखना। जब हम एक क्रिया से दूसरी क्रिया में प्रवेश करते हैं, तब उस सूक्ष्म अंतर को ब्रह्मभाव से भरने से मधुविद्या साधना हो जाती है। लेकिन यदि कार्य संपन्न होने तक वह भाव नहीं रहा, तो मधुविद्या पूर्ण नहीं होगी। अतः, जब भी हम अपने से बाहर कुछ भी देखें, तो उसे स्वयं से अलग न देखने के लिए ब्रह्मभाव में देखना, समझना, मानना एवं जानना आवश्यक है। इसीलिए मधुविद्या को साधना के रूप में करना होता है।"

उन्होंने तपाक से सवाल किया, "आपने कितना सरलता से कह दिया कि सबको ब्रह्ममय देखना, क्या यह संभव है?"

मैंने कहा, "हाँ, संभव है। अपने जैसा सबको मानना, जानना एवं समझना कैसे असंभव हो सकता है? जब यह असंभव नहीं है, तो मधुविद्या असंभव नहीं है, क्योंकि यही तो मधुविद्या है। चूँकि हम पहले से ही ब्रह्म हो चुके हैं, तभी सबको ब्रह्ममय देख रहे हैं।"

उन्होंने प्रश्न किया, "चोर, डाकू, लुटेरा, बलात्कारी, अपराधी, आतंकवादी कैसे ब्रह्म हो सकते हैं? जब ये ब्रह्म नहीं हैं, तो इन्हें ब्रह्ममय कैसे देखें?"

मैंने कहा, "तुमने कैसे जान लिया कि ये ब्रह्म नहीं हैं?"
उन्होंने कहा, "ये विध्वंसक हैं, इसलिए ये ब्रह्म नहीं हो सकते हैं।"

मैंने कहा, "ये सभी समाज के लिए एक समस्या अवश्य हैं, लेकिन आध्यात्मिक जगत में ये ब्रह्म से पृथक नहीं हैं। उनके अंदर के ब्रह्मत्व को जगाने एवं स्वयं के ब्रह्मत्व को बचाने के लिए उन्हें ब्रह्म रूप में देखना ही होता है।"

उन्होंने कहा, "जब मैं इन्हें अथवा मेरे शत्रु को ब्रह्ममय नहीं देखूँगा, तो मेरे ब्रह्मत्व को कैसे हानि पहुँचेगी (विपन्न हो जाएगा)?"

मैंने कहा, "यह बिल्कुल सरल है। ब्रह्मत्व पूर्णत्व का नाम है। जब आप इसको ब्रह्म नहीं मानते, जानते एवं देखते हो, तो अवश्य आपका पूर्णत्व खंडित होता है। अतः, किसी को भी ब्रह्ममय न देखने से अपना ब्रह्मत्व क्षीण होता है।"

उन्होंने कहा, "ठीक है, यह तो समझ गया, लेकिन उनमें ब्रह्मत्व का जागरण कैसे होगा?"

मैंने कहा, "यदि हम ब्रह्म हैं, तो उनमें ब्रह्मत्व जागकर ही रहता है।"

उन्होंने कहा, "कंस एवं रावण में ब्रह्मत्व क्यों नहीं जागा, जबकि उनको तो स्वयं श्रीकृष्ण एवं राम ने ब्रह्ममय देखा था?"

मैंने कहा, "यह सबसे अच्छा प्रश्न है। लेकिन यह जान लेना आवश्यक है कि दोनों में ब्रह्मत्व जाग गया था, क्योंकि उन्हें ब्रह्म ने ब्रह्म रूप में देखा था। वे परमब्रह्म से अलग न होने के लिए ब्रह्म के हाथों चित्त होना चाहते थे। अतः आप यह नहीं कह सकते कि उनमें ब्रह्मत्व नहीं जागा था। जब हम ब्रह्ममय बनकर हमारे मित्र व शत्रु सबको ब्रह्ममय देखेंगे, तो या तो वे हमारे साथ एकाकार होंगे, अथवा हमसे चित्त होकर हम में मिल जाएँगे। अतः, कभी भी शत्रु को भी ब्रह्म से पृथक नहीं समझना चाहिए। ऐसा करने सेना दोनों तथा सबका लाभ है।"

उन्होंने तुरंत कहा, "क्या हमारे ब्रह्ममय देखने से डाकू, चोर, लुटेरा, अपराधी, बलात्कारी, आतंकवादी इत्यादि में ब्रह्मत्व जाग जाता है?"

मैंने कहा, "यह हम पर निर्भर करता है कि हम में ब्रह्मत्व का कितना अंश है। यदि शत-प्रतिशत है, तो कालीचरण बंदोपाध्याय, कालिकानंद अवधूत बन जाएगा। अन्यथा, उसमें ब्रह्मत्व का प्रश्न तो जाग ही जाएगा। इसलिए शत्रु के विरुद्ध सामाजिक स्तर पर कार्यवाही करते समय भी ब्रह्म भाव को नहीं त्यागना चाहिए।"

उन्होंने कहा, "यह तो बड़ा मुश्किल है!"

मैंने कहा, "यह हमें मुश्किल इसलिए लग सकता है, यदि हम ब्रह्ममय नहीं हैं तो; यदि हम ब्रह्ममय हैं, तो यह मुश्किल नहीं है।"

इस प्रकार हमारी वार्तालाप आगे बढ़ती गई तथा हमने ब्रह्मविद्या के महात्म्य को जान लिया।  तब उन्होंने कहा, "मधुविद्या साधना के बिना सब कुछ असंभव है?"

मैंने कहा, "आपने ठीक कहा, लेकिन मधुविद्या से भी पहले ईश्वर प्रणिधान आवश्यक है।"
उनका प्रश्न हुआ, "सबसे पहले मधुविद्या क्यों नहीं?"

मैंने कहा, "एक दीपक दूसरे को तभी प्रज्वलित कर सकता है, जब वह स्वयं प्रज्वलित हो। ठीक उसी प्रकार, जब हम में ब्रह्मत्व का जागरण नहीं है, तब तक मधुविद्या संभव नहीं है। वह वैसी बात हो गई जैसे कि गंगा-जमुना गए, तन को धोया, लेकिन मन को नहीं। यदि मन को धोया होता, तो 'मन चंगा तो कटौती में गंगा' सिद्ध हो गया होता।"

इस प्रकार, मधुविद्या में पारंगत होने के लिए अभ्यास में गुरुमंत्र को भावमय रूप से सब पर आरोपित करते हुए चलना है।

प्रस्तुति : आनन्द किरण


            Let's Sadhana.


Seeing the doer, action, instrument, and action as Brahman is called Madhuvidya Sadhana. Madhu literally means sweetness. Honey is that which brings joy to a person. When sweetness causes pain or illness, its inherent quality may be sweet, but it cannot be honey. Therefore, the art of creating and living a blissful life is called Madhuvidya. Bliss is Brahman, hence Madhuvidya is also called Brahmavidya. Brahmavidya is the art that reveals or sees Brahman in everything. Because it has a special method, this practice is called Madhuvidya.

After understanding the essence, he immediately asked, "How can one master Madhuvidya Sadhana?"

I said, "Performing and viewing every action in the state of Brahman is the practice of Madhuvidya, and remaining in the state of Brahman means seeing Brahman in the cause and action. When we transition from one action to another, filling that subtle gap with Brahman constitutes Madhuvidya practice. But if that feeling is lost by the time the task is completed, Madhuvidya will not be complete. Therefore, whenever we see anything outside of ourselves, it is essential to see, understand, believe, and know it in the state of Brahman to ensure that it is not separate from ourselves. That is why Madhuvidya has to be practiced as a practice."

He immediately asked, "You said so simply that seeing everyone as Brahman is possible. Is that possible?"

I said, "Yes, it is possible. How can it be impossible to believe, know, and understand everyone like ourselves? If that is not impossible, then Madhuvidya is not impossible, because that is what Madhuvidya is. Since we have already become Brahman, that is why we see everyone as Brahman."

He asked, "How can thieves, robbers, looters, rapists, criminals, terrorists be Brahman? If they are not Brahman, how can one see them as Brahman?"

I said, "How do you know that they are not Brahman?"

He said, "They are destructive, therefore they cannot be Brahman."

I said, "All of these are certainly a problem for society, but in the spiritual world, they are not separate from Brahman. To awaken the Brahman within them and to protect one's own Brahman, one must see them as Brahman."

He said, "If I do not see them or my enemy as Brahman, how will my Brahman be harmed (impaired)?"

I said, "It's quite simple. Brahman is the name of completeness. When you do not believe, know, and see this as Brahman, your completeness is certainly shattered. Therefore, not seeing anyone as Brahman diminishes one's Brahman."

He said, "Okay, I understand that, but how will the Brahmatva awaken in them?"

I said, "If we are Brahma, then the Brahmatva is always awakened in us."

He said, "Why didn't the Brahmatva awaken in Kansa and Ravana, when Lord Krishna and Rama themselves saw them as Brahmamaya?"

I said, "This is a very good question. But it is important to understand that the Brahmatva awakened in both of them because Brahma saw them as Brahmamaya. They wanted to be absorbed in Brahmana to avoid separation from the Supreme Brahmana. Therefore, you cannot say that the Brahmatva did not awaken in them. When we become Brahmamaya and see everyone, our friends and enemies, as Brahmamaya, as Brahmamaya, then they will either become one with us, or they will merge with us by becoming absorbed in us. Therefore, even the enemy should never be considered separate from Brahmana. Doing so benefits both the army and everyone."

He immediately asked, "Does our Brahmamaya awaken Brahmatva in a robber, thief, robber, criminal, rapist, terrorist, etc. by observing Brahmatva?"

I said, "It depends on us how much Brahmatva we possess. If we possess it 100%, then Kalicharan Bandopadhyay will become Kalikananda Avdhoot. Otherwise, the question of Brahmatva will inevitably arise in him. Therefore, even when taking social action against the enemy, one should not abandon Brahmabhaav (the feeling of Brahma)."

He said, "This is very difficult!"

I said, "It may seem difficult to us if we are not Brahmamaya; if we are Brahmamaya, then it is not difficult."

Thus, our conversation continued, and we learned the greatness of Brahmavidya. Then he asked, "Is everything impossible without Madhuvidya Sadhana?"

I said, "You are right, but even before Madhuvidya, devotion to God is necessary."

His question was, "Why not Madhuvidya first?"

I said, "One lamp can only light another when it is lit itself. Similarly, Madhuvidya is not possible unless we have awakened to the divine. It is like going to the Ganges and Yamuna rivers and washing the body, but not the mind. If the mind had been washed, the "Mind is pure, Ganga is in the cut" would have been realized."

Thus, to master Madhuvidya, one must practice the Gurumantra while passionately applying it to everything.

Presented by Anand Kiran

      चलो अपा साधना करां


कर्ता, कर्म, क्रिया अर करण नै ब्रह्म रै रूप मांय देखणो मधुविद्या साधना कैवै है। मधु रो शाब्दिक अरथ है मिठास। मधु वो है जो किणी मिनख नै खुशी देवै है। जद मिठास सूं पीड़ा या बीमारी हुवै है, तो इणरी अंतर्निहित गुणवत्ता मीठी हो सकै है, पण ओ मधु नीं हो सकै। इण वास्तै आनंदमय जीवन रचण अर जीवण री कला नै मधुविद्या कैवै। आनंद ब्रह्म है, इण वास्तै मधुविद्या नै ब्रह्मविद्या भी कैयो जावै है। ब्रह्माविद्या वा कला है जिण मांय हरेक चीज मांय ब्रह्म नै प्रगट करियो जावै या देख्यो जावै। इणरी एक खास पद्धति होवण रै कारण इण साधना नै मधुविद्या कैवै।

तत्व धारणा नै समझ्यां पछै बां तुरंत पूछ्यो, "कोई मधुविद्या साधना नै कियां महारत हासिल कर सकै है?"

म्हैं कैयो- "ब्रह्म री अवस्था मांय हरेक क्रिया नै करणो अर देखणो मधुविद्या रो अभ्यास है अर ब्रह्म री अवस्था मांय रैवणो मतलब ब्रह्म नै कारण अर क्रिया मांय देखणो है। जद आपां एक क्रिया सूं दूजी क्रिया मांय जावां तो उण सूक्ष्म अंतर नै ब्रह्म सूं भरणो मधुविद्या रो अभ्यास बणै। पण जे वा भावना उण बगत तांई खत्म हुय जावै तो मधुविद्या रो काम पूरो नीं हुवैला। इण वास्तै, जद भी आपां खुद सूं बारै री कोई चीज देखां, तो उणनै ब्रह्म री अवस्था मांय देखणो, समझणो, मानणो अर जाणणो जरूरी है ताकि ओ सुनिश्चित हो सकै कै वा खुद सूं न्यारी नीं हुवै, इणी वास्तै मधुविद्या नै एक अभ्यास रै रूप मांय अभ्यास करणो पड़ैला।"

उण तुरंत पूछ्यो, "थै इतरो सरल कैयो कै सगळा नै ब्रह्म रै रूप मांय देखणो संभव है। कांई ओ संभव है?"

मैं बोल्यो, "हां, ओ संभव है। आपां जिसा सगळा माथै विस्वास करणो, जाणणो अर समझणो असंभव कियां हो सकै है? जे ओ असंभव कोनी है तो मधुविद्या असंभव कोनी है, क्यूंकै मधुविद्या ई असंभव कोनी है। क्यूँकि आपां पैली सूं ई ब्रह्म बण चुक्या हां, इणी वास्तै आपां सगळा नै ब्रह्म रै रूप मांय देखां हां।"

उण पूछ्यो कै चोर, लुटेरा, लूटेरा, बलात्कारी, अपराधी, आतंकवादी ब्रह्ममय कियां हो सकै है? जे वै ब्रह्ममय कोनी है तो बांनै ब्रह्ममय कियां देख्यो जा सकै है।

मैं बोल्यो, "थनै कांईं ठाह है कै वै ब्रह्ममय कोनी है?"

उण कैयो, "वे विनाशकारी है, इण वास्तै वे ब्रह्ममय नीं हो सकै।"

म्हैं बोल्यो, "अै सगळा निश्चित रूप सूं समाज सारू समस्या है, पण आध्यात्मिक जगत मांय वै ब्रह्म सूं न्यारा नीं है। वांरै मांय रै ब्रह्म नै जगावण अर खुद रै ब्रह्मत्व री रक्षा करण सारू वांनै ब्रह्म रै रूप मांय देखणो जरूरी है।"

उण कैयो, "अगर मैं बांनै या म्हारा दुश्मन नै ब्रह्ममय नीं देखूं तो म्हारा ब्रह्मत्व नै कियां नुकसान हुवैला?"

मैं बोल्यो, "ओ एकदम साधारण है। ब्रह्म पूर्णता रो नाम है। जद थै इणनै ब्रह्म रै रूप मांय नीं मानो, नीं जाणौ अर नीं देखौ तो थारी पूर्णता निश्चित रूप सूं चकनाचूर हुय जावैला। इण वास्तै, किणी नै भी ब्रह्म रै रूप मांय नीं देखणो किणी रै ब्रह्म नै कम कर देवै है।"

बो बोल्यो, "ठीक है, म्हैं ओ समझग्यो, पण बां मांय ब्रह्मत्व कियां जागैला?"

मैं बोल्यो, "अगर आपां ब्रह्म हां तो उण रै मांय ब्रह्मत्व निश्चित जागतो रैवै है।"

बोल्या, कंस अर रावण में ब्रह्मत्व क्यूं कोनी जाग्यो, जद खुद भगवान कृष्ण अर राम उण ने ब्रह्ममय देख्या।

म्हैं कैयो- "ओ ​​तो घणो आछो सवाल है। पण ओ समझणो जरूरी है कै ब्रह्मतव दोनूंवां मांय जागग्यो क्यूंकै ब्रह्म बांनै ब्रह्ममय रै रूप मांय देखता हा। वै परम ब्रह्म सूं वियोग सूं बचण सारू ब्रह्म मांय लीन हुवणो चावता हा। इण वास्तै आप ओ नीं कैय सकौ कै ब्रह्मतव बां मांय नीं जाग्यो। जद आपां ब्रह्ममय बण जावां अर सगळा नै आपां रा दुश्मन अर ब्रह्ममय रै रूप मांय देख सकां। ब्रह्ममया, फेर वे या तो आपां रै साथै एक हो जावैला, या फेर वे आपां रै मांय लीन हो'र आपां रै साथै विलीन हो जावैला, इण वास्तै, दुश्मन नै भी कदैई ब्रह्मण सूं न्यारो नीं मानणो चाइजै।

उण झट सूं पूछ्यो कै कांई आपणी ब्रह्ममाय ब्रह्मत्व रै पालन सूं डाकू, चोर, लुटेरा, अपराधी, बलात्कारी, आतंकवादी आद में ब्रह्मत्व जगावै है?

म्हैं कैयो, "ओ आपां माथै निर्भर करै है कै आपां रै मांय कितरो ब्रह्मत्व है। जे आपां रै मांय ओ शतप्रतिशत है तो कालीचरण बंदोपाध्याय कालीकानंद अवधूत बण जावैला। नींतर उण मांय ब्रह्मत्व रो सवाल अनिवार्य रूप सूं उठैला। इण वास्तै दुश्मन रै खिलाफ सामाजिक कार्रवाई करतां बगत भी ब्रह्म  री भावना नै त्यागणो नीं चाइजै।"

बो बोल्यो, "ओ घणो अबखो काम है!"

मैं बोल्यो, "अगर म्हे ब्रह्ममय नीं हां तो म्हानै ओ कठिन लाग सकै है; जे म्हे ब्रह्ममाय हां तो ओ कठिन कोनी है।"

इण भांत म्हारी बातचीत चालती रैयी, अर म्हांनै ब्रह्मविद्या री महानता री जाणकारी मिली। तद वो पूछ्यो कै कांई मधुविद्या साधना रै बिना सगळो कीं असंभव है?

मैं बोल्यो, “थै तो ठीक कैवता पण मधुविद्या सूं पैली भी ईश्वर प्रणिधान जरूरी है।”

उणरो सवाल हो, "पैली मधुविद्या क्यूं नीं?"

मैं बोल्यो, "एक दीयो दूजा दीया नै तद ही प्रज्वलित कर सकै है जद बो खुद ई प्रज्वलित हुवै। इणी भांत मधुविद्या संभव कोनी जद तांई आपां मांग ब्रह्मत्व  जाग नीं जावां। ओ गंगा अर यमुना नदियां रै कनै जा'र शरीर नै धोवण री तरै है, पण मन नै नीं। जे मन नै धो दियो जातो तो "मन चंगा तो कटोती में गंगा" रो एहसास हो जातो।"

इण वास्तै, मधुविद्या में महारत हासिल करण रै वास्तै, किणी नै गुरुमंत्र रो अभ्यास करणो पड़सी अर साथै ई इणनै हरेक चीज माथै भाव सूं लागू करणो पड़सी।

आनंद किरण री प्रस्तुति

चौथा विषय: तत्व धारणा में दृढ़ कैसे बनें? (Fourth Topic: How to become firm in Tattv Dharana?)
           आओ साधना करते हैं। 

तत्व धारणा साधना वह प्रक्रिया है जिसमें साधक सृष्टि के पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) को अपने मन में पूर्ण रूप से धारण करता है। यह सम्पूर्ण सृष्टि इन्हीं पंच तत्वों का सम्मिलित स्वरूप है, और मनुष्य सामान्यतः इनके प्रपंचों (विकारों और प्रभावों) में लिप्त रहता है। ये प्रपंच मनुष्य के मन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। इस साधना का उद्देश्य इन्हीं प्रभावों से मुक्ति पाना और इन पंच महाभूतों की शुद्ध शक्ति को अपने मन में समाहित करना है।

प्राणायाम साधना पर चर्चा के बाद उन्होंने पूछा कि तत्व धारणा में दृढ़ कैसे बनें?

मैंने कहा कि पंच महाभूतों को अपने मन में धारण करके ही तत्व धारणा में दृढ़ता प्राप्त की जा सकती है। यह मन की सामर्थ्य वृद्धि और शक्ति विस्तार का मार्ग है।

तब उन्होंने कहा कि इतने विशाल पंचभूतों को मन में धारण करना कैसे संभव है? क्या यह केवल एक दार्शनिक कल्पना है?

मैंने कहा कि मन की शक्ति और सीमाएं भौतिकता से परे हैं।   मन तो इन पंच महाभूतों से भी सूक्ष्म और विशाल है। जो चेतना इन तत्वों को रचती है, वह इन्हें धारण करने में भी सक्षम है। अतः तत्व को धारण करना असंभव नहीं है, बल्कि यह केवल चेतना के विस्तार का विषय है।

उन्होंने कहा कि मुझे दर्शन (फ़िलॉसफ़ी) मत पढ़ाओ, कोई व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) और सीधी बात बताओ।

मैंने कहा कि व्यावहारिक रूप से, प्रत्येक तत्व का एक विशिष्ट आकार (Shape), एक निर्धारित स्थिति (Location/Seat), और एक विशेष रंग (Color) होता है। साधक को चाहिए कि वह एकाग्रता के साथ इन तत्वों को उनके निर्धारित स्थान, आकार और रंग सहित देखें (विज़ुअलाइज़ करें) और उन्हें अपने भीतर अनुभव करें। जब साधक इस प्रकार से गहन रूप से इन तत्वों को देखता और अनुभव करता है, तो तत्व की सम्पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य उसके मन में स्वतः ही समाहित हो जाती है। इस अवस्था में, साधक यह गहन अनुभव करता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश उसके भीतर ही स्थित हैं, और वह इन सब तत्वों से ऊपर (परे) एक साक्षी चेतना के रूप में स्थित है। यह अनुभव ही तत्व धारणा में दृढ़ता प्रदान करता है।

उन्होंने कहा कि लेकिन हमें यह अनुभव कैसे होगा कि तत्व की धारणा वास्तव में हो गई है? इसका क्या कोई प्रमाण या लक्षण है?

मैंने कहा कि यह साधना की बहुत गहरी और आंतरिक बात है। इसको जानने की इच्छा न रखना ही एक साधक के लिए अधिक उचित है, क्योंकि यदि यह लिया तो मन बार-बार उसी प्रतिफल (रिज़ल्ट) पर ध्यान केंद्रित करेगा। साधक का अधिकार केवल कर्म (साधना) पर है, उसके प्रतिफल (फल) पर नहीं। फल की आसक्ति जानने से मन में अधीरता और तड़प अधिक पैदा हो सकती है, जो एक एकाग्र साधक के मार्ग के लिए आवश्यक नहीं है। दृढ़ता का अनुभव स्वतः ही सहज रूप से आएगा।

उन्होंने कहा कि तत्व धारणा में दृढ़ता पाने के लिए मंत्रों का क्या महत्व है? क्या वे इस प्रक्रिया में सहायक हैं?

मैंने कहा कि यह बहुत ही अच्छा और इस समय का आवश्यक प्रश्न है। हाँ, मंत्रों का अत्यंत महत्व है। प्रत्येक तत्व का एक विशिष्ट बीज मंत्र (root Mantra) होता है। जब साधक इन मंत्रों का स्मरण  करता है, और इसके साथ ही संबंधित तत्व के आकार, रंग, एवं प्रभाव को भी गहनता से स्मरण करता है, तो यह संपूर्ण साधना-यात्रा थोड़ी सरल, सुगम एवं आनंददायी बन जाती है। यह नीरस या केवल बौद्धिक यात्रा से सहस्त्र गुना अच्छा है कि साधना आनंद के रस (भाव) में डूबकर की जाए।

उन्होंने कहा कि क्या मंत्रोच्चारण (बोलकर जप) किया जा सकता है?
मैंने कहा कि स्मरण करने के लिए मन में ही उच्चारण (मानसिक) करना श्रेष्ठ है। साधना के इस चरण में ज़ोर से शाब्दिक उच्चारण (वाचिक जप) को अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि यह ध्यान को बाहरी जगत की ओर खींच सकता है।

उन्होंने कहा कि मंत्रोच्चारण एवं तत्व दर्शन में से ज्यादा महत्व किसको देना चाहिए?

मैंने कहा कि यद्यपि दोनों का महत्व साधना मार्ग में समान है, फिर भी तत्व दर्शन (गहन विज़ुअलाइज़ेशन और अनुभव) स्मरण (मंत्र जप) से अधिक प्रभावी सिद्ध होता है। अतः साधक को चाहिए कि वह निःप्रभाव (बिना किसी बाहरी प्रभाव या विकार के) और भावशून्य (शांत, समतापूर्ण भाव में) होकर, तत्व के मूल स्वरूप को देखने (साक्षात्कार करने) में अधिक गुरुत्व (महत्व) दे। इस प्रकार हम तत्व धारणा में सहजता और निश्चितता के साथ दृढ़ हो जाएँगे।

 प्रस्तुति : आनन्द किरण

Come, let's spiritual  practice (Sadhana).


Tattv Dharana Sadhana is the process in which the practitioner fully grasps the five fectors of creation (earth, water, fire, air, and space) in their mind. The entire universe is a composite of these five factors, and humans are generally entangled in their illusions (distortions and influences). These illusions have a profound impact on the human mind. The purpose of this practice is to free themselves from these influences and to incorporate the pure power of these five elements into their mind.

After discussing Pranayama Sadhana, he asked how to become firm in Elemental Dharana.

I said that firmness in Elemental Dharana can only be achieved by grasping the five elements in one's mind. This is the path to increasing the strength and expanding the power of the mind.

Then he asked, how is it possible to grasp such a vast array of five elements in the mind? Is this merely a philosophical fantasy?

I said that the power and limitations of the mind transcend physicality. The mind is even more subtle and vast than the five elements. The consciousness that creates these elements is also capable of holding them. Therefore, holding the elements is not impossible; it is merely a matter of expanding consciousness.

He said, "Don't teach me philosophy; tell me something practical and straightforward."

I said that practically, each element has a specific shape, a specific location, and a specific color. The seeker should visualize these elements with concentration, in their designated position, shape, and color, and experience them within themselves. When the seeker sees and experiences these elements deeply in this way, the full power and potential of the element is automatically absorbed into their mind. In this state, the practitioner deeply experiences that earth, water, fire, air, and space are within them, and that they exist above all these elements as a witness consciousness. This experience provides firmness in elemental perception.

He asked, "But how do we realize that elemental perception has actually occurred? Is there any proof or sign of this?"

I said that this is a very deep and intrinsic aspect of spiritual practice. It is best for a practitioner to avoid the desire to know this, because if they do, the mind will repeatedly focus on the same result. A practitioner's authority is only on the action (sadhana), not on its result. Knowing attachment to the result can create more impatience and yearning in the mind, which is not necessary for the path of a concentrated practitioner. The experience of firmness will come naturally and spontaneously.

He asked, "What is the importance of mantras in gaining firmness in elemental perception? Are they helpful in this process?"

I said that this is a very good and urgent question at this time. Yes, mantras are extremely important. Each element has a specific seed mantra (root mantra). When the practitioner remembers these mantras, and also deeply remembers the shape, color, and effect of the corresponding element, the entire spiritual journey becomes a little simpler, easier, and more enjoyable. It is a thousand times better to perform sadhana immersed in the essence of bliss (bhaav) than a dull or merely intellectual journey.

He asked, can chanting mantras (japa) be done verbally?
I said that chanting them mentally (mentally) is best for memorization. Vocal chanting is not considered good at this stage of sadhana, as it can draw attention away from the external world.

He asked, which should be given more importance: chanting mantras or philosophy?

I said that although both are equally important on the path of spiritual practice, deep visualization and experience proves more effective than remembrance (chanting mantras). Therefore, the practitioner should focus more on seeing (realizing) the essence of the essence, remaining neutral (without any external influences or distractions) and emotionless (in a calm, equanimous state). In this way, we will become firmly established in the essence of the essence with ease and certainty.

Presented by Anand Kiran


*चलो अभ्यास करां।*


तत्व धारणा यह  साधना वा प्रक्रिया है जिण मांय अभ्यास करण आळा आपरै मन मांय सृष्टि रा पांच तत्वां (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु अर अंतरिक्ष) नै पूरी तरह सूं पकड़ लेवै है। आखो ब्रह्माण्ड इण पांच तत्वां रो एक मिश्रण है अर मिनख आम तौर सूं आपरै भ्रम (विकृतियां अर प्रभाव) रै मांय उलझ जावै है। आं भ्रमां रो मिनख रै मन माथै घणो असर पड़ै। इण अभ्यास रो उद्देश्य खुद नै इण प्रभावां सूं मुक्त करणो अर इण पांच तत्वां री शुद्ध शक्ति नै आपरै मन रै मांय समाहित करणो है।

प्राणायाम साधना री चर्चा करियां पछै बां पूछ्यो कै तत्व धरण मांय दृढ़ता कियां बणी है।

म्हैं कैयो कै तत्व धरना मांय दृढ़ता तो पांच तत्वां नै मन मांय पकड़’र ई प्राप्त करी जा सकै है। मन री ताकत नै बढ़ाबा अर बांनै विस्तारित करण रो ओ ई मारग है।

फेर बो पूछ्यो, मन रै मांय पांच तत्वां री इतणी विशाल श्रृंखला नै पकड़णो कियां संभव है? कांई आ फगत दार्शनिक कल्पना है?

म्हैं कैयो कै मन री ताकत अर सीमावां भौतिकता सूं परे है। मन पांच तत्वां सूं भी ज्यादा सूक्ष्म अर विशाल है। आं तत्वां नै बणाबा आळी चेतना भी बांनै पकड़बा में सक्षम है। इण वास्तै, तत्वां नै पकड़णो असंभव कोनी है; ओ तो फगत चेतना नै विस्तारित करण रो मामला है।

बां कैयो, "म्हानै दर्शन मत सिखाओ; म्हनै कीं व्यावहारिक अर सीधो-सादो बताओ।"

म्हैं कैयो कै व्यावहारिक रूप सूं हरेक तत्व रो एक खास आकार, एक खास ठिकाणो अर एक खास रंग हुया करै है। साधक नै इण तत्वां नै एकाग्रता रै साथै, बांरी निर्धारित स्थिति, आकार अर रंग रै मांय देखणो चाइजै अर बांनै खुद रै मांय अनुभव करणो चाइजै। जद साधक इण तरीकै सूं आं तत्वां नै गहराई सूं देखै अर अनुभव करै है तो उण तत्व री पूरी ताकत अर क्षमता आपोआप बां रै मन मांय समा जावै है। इण अवस्था रै मांय, अभ्यास करण आळा नै गहराई सूं अनुभव हुवै है कै धरती, पाणी, अग्नि, वायु अर अंतरिक्ष बां रै मांय है अर वै एक साक्षी चेतना रै रूप मांय आं सगळा तत्वां रै ऊपर मौजूद है। यो अनुभव मूलभूत धारणा रै मांय दृढ़ता प्रदान करै है।

उण पूछ्यो, "पण आपां ओ कियां समझ सकां कै तत्व धारणा वास्तव में हुई है? कांई इण रो कोई सबूत या संकेत है?"

म्हैं कैयो कै ओ आध्यात्मिक अभ्यास रो एक घणो गहरो अर आंतरिक पहलू है। एक चिकित्सक रै वास्तै आ बात जाणबा री इच्छा सूं बचणो ही चोखो है, क्यूंकै जे वै करैला तो मन बार-बार एक ई परिणाम माथै ध्यान केन्द्रित करैला। एक चिकित्सक रो अधिकार फगत क्रिया (साधना) माथै हुवै है, उणरै परिणाम माथै नीं। परिणाम रै प्रति लगाव नै जाणणो मन रै मांय और अधीरता अर तड़प पैदा कर सकै है, जो एक एकाग्र अभ्यास करण आळा रै मारग रै वास्तै जरूरी कोनी है। दृढ़ता रो अनुभव स्वाभाविक रूप सूं अर सहज रूप सूं आवैला।

उण पूछ्यो, "तत्व री धारणा रै मांय दृढ़ता प्राप्त करण रै वास्तै मंत्रां रो कांई महत्व है? कांई वै इण प्रक्रिया मांय मददगार है?"

म्हैं कैयो कै ओ इण बगत घणो आछो अर जरूरी सवाल है। हां, मंत्र घणा जरूरी है। हरेक तत्व रो एक विशिष्ट बीज मंत्र (मूल मंत्र) होवै है। जद अभ्यास करण आळा नै आं मंत्रां नै याद रैवै है, अर साथै ई संबंधित तत्व रै आकार, रंग अर प्रभाव नै भी गहराई सूं याद राखै है, तो आखी आध्यात्मिक यात्रा थोड़ी सरल, आसान अर आनंददायक हो जावै है। नीरस या सिरफ बौद्धिक यात्रा सूं बेसी आनंद (भाव) रै सार मांय डूब्योड़ो साधना करणो हजार गुणा चोखो है।

उण पूछ्यो, कांई मंत्र (जप) रो जाप मौखिक रूप सूं कर्यो जा सकै है?
म्हैं कैयो कै बांनै मानसिक रूप सूं (मानसिक रूप सूं) जापणो रटबा रै वास्तै सबसूं आछो है। साधना रै इण पड़ाव माथै मुखर जप नै आछो नीं मानीजै, क्यूंकै इणसूं बारै री दुनिया सूं ध्यान हटायो जा सकै है।

बां पूछ्यो, किण नै ज्यादा महत्व दियो जावै: मंत्र जाप करणो कै दर्शन?

म्हैं कैयो कै भलांई आध्यात्मिक अभ्यास रै मारग माथै दोनूं ई समान रूप सूं महताऊ है, पण गहरी कल्पना अर अनुभव स्मरण (मंत्र जाप) सूं बेसी प्रभावी साबित हुवै है। इण वास्तै, अभ्यास करण आळा नै सार रै सार नै देखण (साकार करण) माथै ज्यादा ध्यान देवणो चाइजै, तटस्थ (बिना किणी बाहरी प्रभाव या व्याकुलता रै) अर भावनाहीन (शांत, समतुल्य अवस्था में) रैवणो चाइजै। इण भांत आपां सहजता अर निश्चितता रै साथै सार रै सार मांय पक्को थरप जावांला।

प्रस्तुत आनन्द किरण
तृतीय विषय - प्राणायाम साधना में प्रगाढ़ कैसे बनें?  (Third topic – How to become profound in Pranayama Sadhana?)
             आओ साधना करते हैं

​प्राण को आयाम देना ही प्राणायाम है। प्राण का आधार श्वास है, इसलिए प्राणायाम क्रिया में श्वास को जोड़ा जाता है, लेकिन प्राणायाम साधना का संबंध केवल श्वास-प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं होता। प्राणायाम को सही आयाम देने के लिए एक आध्यात्मिक मानसिकता का होना आवश्यक है। प्राण जिस पर मनुष्य का जीवन निर्भर है, उसे आयाम प्रदान करने से मनुष्य का जीवन सफल, सुफल और फलीभूत होता है।

​चक्र-शोधन के बाद, उन्होंने प्रश्न किया कि "प्राणायाम साधना में प्रगाढ़ कैसे बनें?"

​मैंने उत्तर दिया, "प्राणायाम स्वयं प्राण को आयाम देने के लिए है। आप उसे आयाम दे दीजिए, प्राणायाम साधना में प्रगाढ़ हो जाएँगे।"

​उन्होंने पूछा, "यह कैसे?"

​मैंने कहा, "प्राण का संबंध केवल शरीर से नहीं है; यह मन और आत्मा से भी संबंधित है। अतः, वही प्राणायाम साधना कहलाती है, जिसमें मन और आत्मा का समर्थन एवं सहयोग हो।"

​उन्होंने इसे और सरल करके समझाने के लिए कहा।

​मैंने स्पष्ट किया, "प्राणायाम साधना में श्वास, मंत्र और भाव – इन तीनों का होना ही प्राणायाम को 'साधना' बनाता है। इसमें भी, भाव की प्रधानता प्राप्त करना ही प्राणायाम साधना में प्रगाढ़ होना है।"

​उन्होंने पूछा, "लेकिन यह कैसे संभव है?"

​मैंने समझाया, "प्राणायाम साधना में जब मन श्वास की ध्वनि को ग्रहण कर लेता है, तब प्राण-मंत्र (इष्ट-मंत्र) चैतन्यता प्राप्त करता है। जब मन चैतन्य मंत्र के भाव को ग्रहण कर लेता है, तब प्राण मन के नियंत्रण-क्षेत्र में आ जाता है। इस अवस्था को ही प्राणायाम साधना कहते हैं। जब प्राण मन में समा जाता है, तभी साधक प्राणायाम साधना में प्रगाढ़ हो जाता है। इसे ही मंत्र-सिद्धि कहते हैं। अर्थात्, मंत्र-सिद्धि ही प्राणायाम में प्रगाढ़ होना है।"

​उन्होंने इसका विज्ञान जानना चाहा।

​मैंने कहा, "साधना के आरंभ में साधक श्वास को अधिक महत्त्व (गुरुत्व) देता है। जैसे-जैसे वह गहराई में जाता है, वह गुरुत्व-बिंदु श्वास से हटकर इष्ट-मंत्र पर आ जाता है। तब वह अनुभव करता है कि अनंत प्राण अथवा अनंत चेतना उसके भीतर प्रवेश कर रही है और बाहर आ रही है। जैसे-जैसे उसका अभ्यास बढ़ता जाता है, उसका गुरुत्व-बिंदु भाव पर आ जाता है, और वह पाता है कि वह तथा अनंत चेतना एकाकार हो गए हैं। तब वह जन्म-मरण के चक्र से स्वयं को मुक्त पाने लगता है। यही प्राणायाम साधना का विज्ञान है।"

​उन्होंने फिर पूछा, "प्राणायाम साधना में शुद्धियाँ क्यों आवश्यक हैं?"

​इसके उत्तर में मैंने कहा, "हम हमारे आसपास जो देखते हैं, पाते हैं और जानते हैं, वही हम अपने भीतर भी पाते हैं। इसलिए, भूत-शुद्धि, आसन-शुद्धि एवं चित्त-शुद्धि आवश्यक है।"

​उन्होंने पूछा, "क्या शुद्धियों में भी कुछ विशेष है?"

​मैंने कहा, "शुद्धि तो अपने आप में विशेष ही है। उसको सदैव विशेष मानकर ही करना चाहिए।"

​उन्होंने जानना चाहा कि "जो बिना मंत्र और भाव के प्राणायाम करते हैं, उनका क्या भविष्य है?"

​मैंने कहा, "किसी का भविष्य बताना अथवा तय करना मेरा अधिकार-क्षेत्र नहीं है। यह परम ब्रह्म का कार्य है, इसलिए मैं इस पर मौन ही रहूँगा। मेरी चुप्पी को आप जैसा उचित समझें, वैसा समझ लेना।"

​तब उन्होंने एक गंभीर प्रश्न किया, "साधना में प्राणायाम क्यों किया जाता है?"

​मैंने उत्तर दिया, "साधना का लक्ष्य अनंत को साधना है। अनंत को अपने प्राण में भर देने से ही साध्य प्राप्त होता है।"


English Translation (अंग्रेजी अनुवाद)


​Giving dimension to Prana (life force) is Pranayama. Prana depends on breath, which is why breath is included in the Pranayama Kriya (action), but the practice of Pranayama Sadhana (spiritual discipline) is not limited only to the breathing process. It is essential to have a spiritual mindset to give the right dimension to Pranayama. Prana, on which human life depends, when given a dimension, makes a human life successful, fruitful, and actualized.

​After Chakra Shodhana (chakra purification), He asked, "How does one become profound in Pranayama Sadhana?"

​I replied, "Pranayama itself has come to give dimension to Prana. Give it that dimension, and you will become profound in Pranayama Sadhana."

​He asked, "How is that possible?"

​I said, "Prana's connection is not just physical; it is also related to the mind and the soul. Hence, that alone is called Pranayama Sadhana which has the support and cooperation of the mind and soul."

​He requested a simpler explanation.

​I clarified, "The presence of breath, Mantra (sacred chant), and Bhava (feeling/emotion) in Pranayama Sadhana is what makes it a 'Sadhana'. Within this, achieving the predominance of Bhava is to become profound in Pranayama Sadhana."

​He asked, "But how is this achieved?"

​I explained, "In Pranayama Sadhana, when the mind grasps the sound of the breath, then the Prana-Mantra (Ishta Mantra) achieves consciousness. When the mind grasps the Bhava of the conscious Mantra, then Prana comes under the control of the mind. This state is called Pranayama Sadhana. When Prana merges into the mind, the practitioner becomes profound in Pranayama Sadhana. This is called Mantra Siddhi (Mantra Perfection). That is, Mantra Siddhi is becoming profound in Pranayama."

​He asked about the science behind it.

​I said, "At the beginning of Sadhana, the practitioner gives more importance (gravity) to the breath. As they go deeper, that point of gravity shifts from the breath to the Ishta Mantra. Then they realize that the infinite Prana or infinite consciousness is entering and leaving them. As their practice increases, their point of gravity shifts to the Bhava, and they realize that they and the infinite consciousness have become one (Ekaakar). Then they begin to find themselves free from the cycle of birth and death. This is the science of Pranayama Sadhana."

​then he  asked, "Why are purifications (Shuddhis) necessary in Pranayama Sadhana?"

​In response, I said, "What we see, find, and know around us, we will find within ourselves. Therefore, physical purification (Bhuta-Shuddhi), posture purification (Asana-Shuddhi), and consciousness purification (Chitta-Shuddhi) are necessary."

​He asked, "Is there anything special about the purifications?"

​I replied, "Purification (Shuddhi) itself is special. It should always be performed considering it as special."

​He inquired, "What is the future of those who practice Pranayama without Mantra and Bhava?"

​I said, "It is not within my jurisdiction to tell or decide anyone's future. That is the work of the Supreme Brahman, so I will remain silent on this. You may interpret my silence as you deem fit."

​Then he posed a serious question, "Why is Pranayama performed in Sadhana?"

​I answered, "The goal of Sadhana is to realize the Infinite. The goal (Saadhya) is achieved by filling one's Prana with the Infinite."

Marwari Translation (मारवाड़ी अनुवाद)

​ तीसरो विषय - प्राणायाम साधना में गहिरो क्यूँ बणीजे?

​प्राण नै आयाम देणो ही प्राणायाम है। प्राण तो श्वास माथे ही निर्भर है, ईं खातिर प्राणायाम करण में श्वास नै जोडियो जावे है, पण प्राणायाम साधना रो संबंध खाली श्वास-क्रिया तक ही कोनी रेवे। प्राणायाम नै सही आयाम देण खातिर आध्यात्मिक सोच रो होणो जरूरी है। प्राण, जाके माथे मानखी रो जीवण टिकीयोड़ो है, अगर उणनै आयाम दियो जावे तो मानखी रो जीवण सफल, सोरो और फलदायी बणे।

​चक्र-शोधन करण पाछे, उणाँ पूछ्यो, "प्राणायाम साधना में गहिरो (प्रगाढ़) क्यूँ बणीजे?"

​मैँ जवाब दियो, "प्राणायाम तो खुद प्राण नै आयाम देण वास्ते आयो है। थे उणनै आयाम दे दो, तो प्राणायाम साधना में गहिरा बण जावोगा।"

​उणाँ पूछ्यो, "ईंको के तरीको है?"

​मैँ बोल्यो, "प्राण रो संबंध खाली सरीर स्यूँ कोनी; ईंको संबंध मन और आत्मा स्यूँ भी है। तो, वो ही प्राणायाम साधना कहलावे है, जाके में मन और आत्मा रो साथ (समर्थन) और सहयोग होवे।"

​उणाँ सरल भाषा में समझावण नै कह्यो।

​मैँ साफ बतायो, "प्राणायाम साधना में श्वास, मंत्र और भाव – ईं तीनाँ रो होणो ही प्राणायाम नै 'साधना' बणावे है। ईं में भी, भाव नै प्रधानता मिलणी ही प्राणायाम साधना में गहिरो होणो है।"

​उणाँ पूछ्यो, "पण ईंको उपाय के है?"

​मैँ समझायो, "प्राणायाम साधना में जद मन श्वास की आवाज नै पकड़ी लेवे है, तो प्राण-मंत्र (इष्ट-मंत्र) में चेतना आ जावे है। जद मन चेतन मंत्र रे भाव नै पकड़ी लेवे है, तो प्राण मन रे काबू (नियंत्रण) में आ जावे है। ईं हालत नै ही प्राणायाम साधना कहे है। जद प्राण मन में मिल जावे है, तद ही साधक प्राणायाम साधना में गहिरो बणे है। ईंनै ही मंत्र-सिद्धि कहे है। मतलब, मंत्र-सिद्धि ही प्राणायाम में गहिरो होणो है।"

​उणाँ ईंरो विज्ञान (साइंस) पूछ्यो।

​मैँ कह्यो, "साधना की शुरुआत में साधक श्वास नै ज्यादा महत्त्व (गुरुत्व) देवे है। ज्यूँ-ज्यूँ वो ऊँडो जावे है, वो गुरुत्व-बिंदु श्वास स्यूँ हट'र इष्ट-मंत्र माथे आ जावे है। तद वो महसूस करे है के अनंत प्राण या अनंत चेतना उणरे माँयने आई-जाई कर री है। ज्यूँ-ज्यूँ उणरो अभ्यास बधे है, उणरो गुरुत्व-बिंदु भाव माथे आ जावे है, और वो पावे है के वो और अनंत चेतना एक बणगा (एकाकार होग्या) है। तद वो आपनै जनम-मरण रे फेरा स्यूँ छूटतो महसूस करण लाग जावे है। यो ही प्राणायाम साधना रो विज्ञान है।"

​फेर उणाँ पूछ्यो, "प्राणायाम साधना में शुद्धियाँ (सफाई) क्यूँ जरूरी है?"

​ईं रे जवाब में मैँ कह्यो, "आपाँ आपरे आड़ो-पाड़ो जकी चीजाँ देखाँ, पावाँ और जाणाँगा, वो ही आपाँ आपरे भीतरे भी पावाँगा। ईं खातिर भूत-शुद्धि, आसन-शुद्धि और चित्त-शुद्धि जरूरी है।"

​उणाँ पूछ्यो, "के शुद्धियाँ में भी कोई खास बात है?"

​मैँ जवाब दियो, "शुद्धि तो आपरे आप में खास ही है। उणनै हमेसा खास मान'र ही करणी चाइजे।"

​उणाँ जाणणो चाह्यो के "जो बिना मंत्र और भाव रे प्राणायाम करे है, उणाँ रो के भावी (भविष्य) है?"

​मैँ कह्यो, "कोई रो भावी बताणो या तय करणो म्हारो काम कोनी है। यो तो परम ब्रह्म रो काम है, ईं खातिर मैँ ईं माथे चूप ही रेहूँगा। म्हारी चुप्पी नै थे जिको सही समझो, वो समझ लेजो।"

​तद उणाँ एक गंभीर सवाल कर दियो, "साधना में प्राणायाम क्यूँ करियो जावे है?"

​मैँ जवाब दियो, "साधना रो लक्ष्य अनंत नै पावणो है। अनंत नै आपरे प्राण में भर देण स्यूँ ही लक्ष्य मिल जावे है।"