स्वधर्म एवं परधर्म ( Svadharm and Pardharm)
 
स्वधर्म एवं परधर्म
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                                     आनन्द किरण

संस्कृत व्याकरण के अनुसार धर्म शब्द धृ धातु के उत्तर में मन प्रत्यय लगने से बना है। जिसका अर्थ है धारण करना। वस्तुतः शाब्दिक अर्थ से स्पष्ट नहीं होता है कि क्या धारण करना धर्म है। इसलिए गूढ़ार्थ की ओर जाते है।  उसके अनुसार वह गुण धारण करना, जिसके कारण उस सत्ता अस्तित्व निष्पन्न होता है तथा बना रहता है। वह तथ्य धारण करना ही धर्म कहा गया है। अब हम कुछ उदाहरण के माध्यम से धर्म शब्द का भावार्थ समझते हैं। आग अपनी दाहकता गुण के कारण अपना अस्तित्व बनाये रखती है। अतः आग का धर्म दाहकता हुआ। यदि वह स्वयं जलेगी नहीं तथा जलाएंगी नहीं तो उसे आग नहीं कहा जाएगा। ठीक उसी प्रकार जल का धर्म तरलता है, दूध का धर्म धवलता, सूर्य का धर्म प्रकाश तथा जीव का धर्म प्राण है। यदि सजीव में प्राण नहीं है तो वह सजीव से निर्जीव में बदल जाएगा। धर्म शब्द को अच्छी तरह समझने के कुछ कु प्रवृति के उदाहरण लेते हैं। चोरी करना चोर का स्वभाविक गुण है। इसके चोर अस्तित्व नहीं रहता है। अतः चोर का धर्म चोरी करना है‌। चूंकि धर्म सू अर्थ में है, इसलिए चोर का गुणधर्म बोला जाता है। इसीप्रकार डाकू डकैती, लूटेरा लूट एवं आततायी आतंक के कारण उस रुप में अपना अस्तित्व रखता है। कोई भी धर्मज्ञ धर्म को इस अर्थ में समझाना नहीं चाहेंगे क्योंकि धर्म अच्छाई का प्रतीक है। अतः हम मानव के धर्म समझने के लिए निकलते हैं। 

मनुष्य के उत्पति जीव जगत से होती है। अतः मनुष्य पहले एक जीव है। अतः जीव होने के कारण जैन धर्म के अंग आहर, निंद्रा, भय, निंद्रा एवं मैथुन का निवहन करता है। लेकिन मनुष्य मात्र जीव ही नहीं है। उसकी अन्य चारित्रिक विशेषता भी है। अतः धर्म का सबसे अधिक मूल्य मनुष्य के जीवन में है। मनुष्य शब्द का अर्थ बताते हैं कि मन प्रधान प्राणी। अर्थात वह जीव जिसका मन प्रधान एवं शरीर गौण है। जबकि अन्य जीवों में शरीर प्रधान होता है। मनुष्य के अंदर मन की प्रधानता उसे भावनात्मक एवं ज्ञानात्मक बनाती‌ है। भावनात्मक जीव के रूप में मनुष्य भावना से जुड़ा हुआ होता है। उसी कारण वह कभी अपने को हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बोद्ध, पारसी एवं यहुदी इत्यादि कहता है। यह भावना जन्मगत, परिवेशगत एवं कर्मगत से सृजित होती है। सूर व असूर मनुष्य की दो श्रेणियाँ है। जो भावनाएँ मनुष्य को सत् पथ पर ले जाती है, वह सूर अथवा अच्छी श्रेणी कहलाती है। यहाँ सृजन एवं सकारात्मक गुण होते हैं। जो भावनाएँ मनुष्य को असत् पथ पर ले चलती है। वह असूर श्रेणी है। यहाँ विनाश एवं नकारात्मक गुण होते हैं। वस्तुतः सूर श्रेणी मनुष्य के लिए इसलिए इन्हें मानव कहते हैं।मानव उत्तरोत्तर देवता, ईश्वर, भगवान एवं परमतत्व ब्रह्म श्रेणी में परिवर्तित हो सकता है। ठीक उसी प्रकार असूर श्रेणी मनुष्य के लिए नहीं है। अतः इन्हें दानव कहते हैं। दानव अपने स्वभाव के राक्षस, दैत्य एवं पिशाच कहलाता है। मनुष्य को समझने की यात्रा में हम बहुत लंबे चले गए इसलिए पुनः विषय की ओर चलते हैं। मानव का धर्म क्या है? 

चूंकि मनुष्य एक सू प्रवृत्ति का है इसलिए मनुष्य का धर्म वह है, जिसके कारण मनुष्य को मनुष्य कहा जा सकता है। इसे मानवता अथवा अधिक गहराई में नव्य मानवता के गुण धारण करने वाले के अर्थ में कहा जाता है। मानवता वस्तुतः क्या है? मानवता एक व्यापकता है। चूंकि मानवता मनुष्य तक जाकर रुक जाती है। इसलिए नव्य मानवता की अवधारणा आईं। नव्य मानवता विशालता है, जो सम्पूर्ण जीव जगत एवं सृष्टि को आत्मसात करती है। अतः मनुष्य का स्वाभाविक धर्म अथवा स्वधर्म वृहद प्रणिधान है। इसलिए आनन्द सूत्रम वृहदेषणा प्रणिधानं च धर्म: अर्थात वृहद को‌ पाने की एषणा है, उसका प्रणिधान करना ही धर्म है। अतः मनुष्य का धर्म विराटत्व प्राप्त करना है। विराटत्व का अर्थ पूर्णत्व प्राप्त करना है। यही मनुष्य का स्वधर्म है। कुछ भूलवश जिस जाति अथवा सम्प्रदाय में जन्म हुआ है। उस जाति अथवा सम्प्रदाय को स्वधर्म समझ लेता है। यदि मनुष्य का यह सम्प्रदाय, मजहब अथवा रिलिजन उसे विराट नहीं बना सकता है तो वह मनुष्य का स्वधर्म नहीं हो सकता है। क्योंकि वह मनुष्य शब्द परिभाषा में खरा नहीं उतरता है। अतः अपनी जाति, सम्प्रदाय, मत, पथ, महजब व रिलिजन को स्वधर्म समझना एवं कहना तथा दूसरे की जाति, सम्प्रदाय, मत, पथ, मजहब एवं रिलिजन को परधर्म समझना एवं कहना एक गलत धारण है। 

स्वधर्म एवं परधर्म की समझ को विकसित करने के लिए मनुष्य को मानव से देवता, देवता से ईश्वर, ईश्वर से भगवान एवं भगवान से परमतत्व ब्रह्म बनाता है। वह मनुष्य का स्वधर्म है। आधुनिक भाषा में पुरुष से सज्जन पुरुष साधु, सज्जन पुरुष से महापुरुष तथा महापुरुष से परमपुरुष बनाने की ओर ले जाने वाले लक्षण, गुण एवं तथ्य मानव के स्वधर्म है। इसके विपरीत मनुष्य को दानव, दैत्य, पिशाच, शैतान, पशु अथवा जड़ बानाने की यात्रा परधर्म है। जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायिकता अथवा मजहबवाद इत्यादि परधर्म है। इसके विपरीत एक अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज की अभिकल्पना, विश्व बंधुत्व, नव्य मानवतावाद, वैश्विक दृष्टिकोण, यूनिवर्सल आउटलुक तथा आध्यात्मिक गति स्वधर्म है। सामाजिक आर्थिक जगत में सहभागिता, सहकारिता, सहानुभुति, सौहार्द, सामाजिकता एवं इंसानियत धर्म है। निजीकरण, पूंजीवाद, साम्यवाद एवं बनियनवाद अधर्म है। जो धर्म है वह मनुष्य के लिए स्वधर्म तथा जो अधर्म है, वह मनुष्य के लिए परधर्म है। 

आओ मनुष्य को स्वधर्म मानव धर्म से परिचय कराते हैं तथा परधर्म जाति, सम्प्रदाय, मत मतान्तर, पंथवाद, मजहबी, रिलिजनी मानसिकता परधर्म से अलग करते हैं। 

*आनन्द किरण "देव"*
उर्फ‌ करण सिंह राजपुरोहित
शिवतलाव(पाली) हाल जयपुर राजस्थान, भारतवर्ष
राजनैतिक लोकतंत्र बनाम आर्थिक लोकतंत्र (Political democracy vs Economic democracy)
लोकतंत्र वर्तमान युग की शासन व्यवस्था ही नहीं एक परिपाटी है। इस युग में निर्णय की प्रक्रिया को लोकतांत्रिक बनाया गया है, अतः लोकतंत्र को गहराई से समझना आवश्यक है। लोकतंत्र के मूल में जनमत है। जनमत का सही निर्माण ही लोकतंत्र के उद्देश्य को चरितार्थ करता है। इसलिए आज हम लोकतंत्र की दोनों विधा; 'राजनैतिक लोकतंत्र एवं आर्थिक लोकतंत्र' को समझने की कोशिश करेंगे।

(1) राजनैतिक लोकतंत्र व्यक्ति के विचारों की स्थापना करता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र व्यक्ति के बुनियादी मूल्यों की स्थापना करता है- राजनैतिक लोकतंत्र का मूल व्यक्ति के विचारों की दुनिया बनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ देना है। जिससे व्यक्ति अपना संसार स्वयं बना सकें। यह संसार सुन्दर होगा अथवा नहीं, यही राजनैतिक लोकतंत्र की विषय वस्तु नहीं है। इसलिए आज संसार में अच्छा -बुरा जो भी दृश्य दिख रहा है, यह राजनैतिक लोकतंत्र की देन है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र व्यक्ति के उन बुनियादी मूल्यों की स्थापना करता है जिससे वह मनुष्य कहला सके तथा उसके बुनियाद पर अपना एक मानव समाज बना सके। इसमें व्यक्ति के स्वतंत्र विचारों पर अवश्य ही लगाम लगती है लेकिन विचारों की स्वतंत्रता की हत्या नहीं होती है। आर्थिक लोकतंत्र व्यक्ति के उन विचारों की रक्षा करता है जो व्यष्टि एवं समष्टि कल्याण के सूचक हो तथा उन विचारों को रोकता है, जो व्यष्टि एवं समष्टि कल्याण पर आघात करते हैं अथवा करने की संभावना है। 

(2) राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति मूल्यवान है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में समाज मूल्यवान है- राजनैतिक लोकतंत्र के सभी तानेबाने व्यक्ति को लेकर है जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाज को लेकर अपनी योजना प्रस्तुत करता है। राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति की सर्वोच्चता को स्थापित करने की यात्रा में समाज की सुन्दर व्यवस्था तारतार हो जाए तो भी राजनैतिक लोकतंत्र नहीं रुकता है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र व्यक्ति को वह ऐसा कुछ भी करने नहीं देता है जिससे समाज की आदर्श व्यवस्था पर आघात हो। अतः आर्थिक लोकतंत्र में व्यक्ति की स्वतंत्रता वहाँ जाकर रुक जाती है, जहाँ समाज के हितों को क्षति होती है। आज हमार समाज जैसा भी है, यह राजनैतिक लोकतंत्र की देन है जबकि आर्थिक लोकतंत्र उस समाज की संरचना करता है, जिसकी व्यक्ति को आवश्यकता है। 

(3) राजनैतिक लोकतंत्र में अर्थतंत्र स्वच्छंद होता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में अर्थतंत्र स्वतंत्र होता है- समाज का मुख्य संगठन अर्थतंत्र है। राजनैतिक लोकतंत्र में यह स्वच्छंद रहता है। इसका जैसा भी संगठन बनता है उसे मुक्त बाजार व्यवस्था कहकर उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है। अर्थतंत्र का ताना बाना अस्तव्यस्त हो जाता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र अर्थतंत्र को व्यक्ति की महत्वाकांक्षा से दूर स्वतंत्र रखा जाता है जहाँ आर्थिक घटक मिलकर अपनी नीतियाँ बनाता है। सरल शब्दों में राजनैतिक लोकतंत्र में आर्थिक घटक एक दूसरे से पृथक-पृथक ढपली बजाते हैं जबकि आर्थिक लोकतंत्र में आर्थिक लोकतंत्र के प्रत्येक घटक एक दूसरे से जुड़े होते हैं। जिसमें कृषि व खनिज को उद्योग एवं व्यापार की चिंता होती है तो उद्योग एवं व्यापार को कृषि की भी चिंता होती है। अतः हम कह सकते हैं कि आर्थिक लोकतंत्र एक पारस्परिक तंत्र का निर्माण करता है। 

(4) राजनैतिक लोकतंत्र समूल व्यवस्था का राजनीतिकरण करता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाजीकरण करता है- राजनैतिक एवं आर्थिक लोकतंत्र में मोटा अन्तर राजनीतिकरण एवं समाजीकरण का है। राजनैतिक लोकतंत्र में समूल व्यवस्था को राजनीति अपने हितों के अनुसार चलाती है। उनकी दृष्टि में हर व्यवस्था में राजनैतिक फायदा ढूंढ़ा जाता है। यहाँ तक शिक्षा एवं चिकित्सा को भी नहीं छोड़ा है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र समूल व्यवस्था को समाज से जोड़कर रखता है तथा उसमें सामाजिक गुणों का समावेश करता है। शिक्षा एवं चिकित्सा का संचालन स्वतंत्र शिक्षाविदों व चिकित्साविदों के हाथ रहता है लेकिन वे भी असामाजिक बनकर काम नहीं कर सकते हैं। 

(5) राजनैतिक लोकतंत्र राज्य के लिए नागरिकों का संगठन करता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र नागरिक के लिए राज्य का संगठन करता है- राजनैतिक लोकतंत्र में एक राज्य की पहले आवश्यकता होती है तथा उसके अनुसार नागरिको का संगठन बनाने की कोशिश की जाती है, जिसमें कभी कभी तो नागरिक राज्य के समक्ष तुच्छ हो जाता है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र में नागरिक गुरुत्व बिन्दु होता है। नागरिक के लिए राज्य की आवश्यकता है क्योंकि नागरिक अकेला अपने अधिकारों की रक्षा एवं कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता है। अतः नागरिक अथवा जन कल्याण राज्य की धुरी होती है। राजनैतिक लोकतंत्र दिखाने को लोककल्याणकारी शब्द का प्रयोग करता है जबकि उसके मूल में राज्य के स्वरूप के हित की साधना होती है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में राज्य नागरिक हितार्थ राज्य अथवा समाज की मजबूती बनाया जाता है। 

(6) राजनैतिक लोकतंत्र में न्याय के लिए व्यक्ति को लड़ना पड़ता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में न्याय की गारंटी होती है- राजनैतिक लोकतंत्र में न्याय के लिए व्यक्ति को एक कानून एवं व्यवसायिक लडाई लड़नी पड़ती है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में न्याय व्यक्ति को समाज की ओर से गारंटी के रूप में मिलता है। इससे व्यक्ति को न्याय की तलाश में घूमना नहीं होता है बल्कि समाज की नजर में मात्र लाना होता है। तत्पश्चात न्याय स्वत: ही व्यक्ति तक पहुँचता है। 

(7) राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति रोजगार की तलाश में फिरता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र रोजगार व्यक्ति को खोजता है- राजनैतिक लोकतंत्र में रोजगार व्यक्ति की निजी समस्या बनकर रहती है। इसलिए व्यक्ति को रोजगार की खुद ही तलाश करनी होती है। इसके लिए लोगों को दर-दर की ठोकरें भी खानी पड़ती है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र में रोजगार देना समाज की जिम्मेदारी है इसलिए व्यक्ति को रोजगार के लिए घूमना नहीं पड़ता है। आर्थिक लोकतंत्र व्यक्ति को ढूंढकर रोजगार व्यवस्था डें समाहित कर लेता है। सरल शब्दों में कहा जाय तो आर्थिक लोकतंत्र में बेरोजगारी की समस्या नहीं रहती है।

(8) राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति मंहगाई की मार सहता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में महंगाई का उन्मूलन होता है- एक उक्ति है कि महंगाई गरीब के लिए डायन है और अमीर के लिए मंहगाई कोई समस्या नहीं है। राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति की प्रतिव्यक्ति आय दोषपूर्ण पैमाने से मापा जाता है, इसलिए सुरसा के मुंह की तरह फैलती गरीबी की समस्या का समाधान नहीं होता है। जहाँ गरीब रहेंगे वहाँ मंहगाई की मार सहनी पड़ेगी जबकि आर्थिक लोकतंत्र में क्रयशक्ति मूल अधिकार के रूप में मिलती है। इसलिए मंहगाई कितनी प्रबल बनकर क्यों न आये व्यक्ति को हिला नहीं सकती है। सामान्य शब्दों में कहा जा सकता है कि आर्थिक लोकतंत्र में मंहगाई शब्द का उन्मूलन हो जाता है। 

(9) राजनैतिक लोकतंत्र में गुणी व्यवसायी बनता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में गुणी समाज सेवक बनता है- राजनैतिक लोकतंत्र में गुणी जन के आदर की कोई व्यवस्था नहीं होती है इसलिए गुणी अपने विशेष गुणों का उपयोग एक व्यवसायी बनकर अपनी सेवाओं का व्यापार करके करता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में गुणी के सामाजिक एवं आर्थिक सम्मान की पर्याप्त व्यवस्था है इसलिए उसे व्यवसायी नहीं बनना पड़ता है। वह इस सुन्दर व्यवस्था को देखकर स्वत: ही अधिक से अधिक समाज सेवा करने लग जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि आर्थिक लोकतंत्र गुणी व्यक्ति को समाज सेवक बनाने की सुन्दर कला है। सरल शब्दों में आर्थिक लोकतंत्र में चिकित्सा एवं शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाएं कभी भी पेशा बनकर या शोषण का जरिया नहीं रहता है।

(10) राजनैतिक लोकतंत्र में कालाबाजारी पनपती है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में इसका उन्मूलन होता है- राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति के धन संचयन की प्रवृत्ति पर समाज की कोई लगाम नहीं होती है इसलिए व्यक्ति दुनिया से छिपाकर कालाधन बनाता रहता है। जहाँ काला धन बनता रहेगा वहाँ कालाबाजारी भी बढ़ती रहेगी। जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाज के आदेश के बिना धन संचय अकर्तव्य मानता है। इसलिए यहाँ न काला धन रहता है तथा न ही कालाबाजारी रहती है। इस व्यवस्था में कोई आयकर होता ही नहीं है इसलिए आर्थिक लोकतंत्र में काला शब्द ही नहीं रहता है। 

(11) राजनैतिक लोकतंत्र में समाज का मानक स्तर बेलगाम रहता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में समाज का मानक स्तर युग के अनुसार होता है- -- उत्तरोत्तर सामाजिक प्रगति समाज के जीवित रहने का प्रमाण है। इसलिए मानक स्तर उस युग के अनुसार होना चाहिए। राजनैतिक लोकतंत्र में इससे समाज का कोई संबंध नहीं होने के कारण व्यक्ति की इच्छा के अनुसार उठता बैठता है। कहीं यह युग बहुत आगे बढ़ जाता है तो कहीं यह युग से बहुत पीछे छूट जाता है। लेकिन आर्थिक लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता है। समाज का न्यूनतम एवं अधिकतम मानक पैमाना युग के अनुसार ही रहता है। 

(12) राजनैतिक लोकतंत्र में  उपयोग तत्व रुग्ण होता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में उपयोग तत्व प्रगतिशील होता है- आर्थिक लोकतंत्र में विवेकपूर्ण वितरण, चरमोत्कर्ष, चरमोपयोग, उपयोग में सुसंतुलन व परिवर्तन जैसे गुणों का समावेश होता है जबकि राजनैतिक लोकतंत्र में यह पाठ्यक्रम के बाहर के प्रश्न हैं। इसलिए राजनैतिक लोकतंत्र में सदैव उपयोग तत्व रुग्ण ही रहता है, कोई न कोई दोष सदैव रहता ही है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र में उपयोग तत्व प्रगतिशील होता है। विवेकपूर्ण वितरण एवं देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोगिता में परिवर्तनशीलता उपयोग तत्व को न केवल अस्वस्थ नहीं होने देते अपितु सदैव प्रगतिशील रखती है। 

(13) राजनैतिक लोकतंत्र में समाज की गति प्रकृति धर्म के अनुकूल प्रतिकूल होती रहती है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में समाज की गति सदैव प्रकृति के धर्म के अनुकूल ही रहती है- इस सृष्टि में प्रकृति का एक धर्म वैचित्र्यम् है। जिसके कारण यह सुन्दर दुनिया अस्तित्व में है। राजनैतिक लोकतंत्र में यह अनियंत्रित रहने के कारण कभी अनुकूल तो कभी प्रतिकूल चलती रहती है। जबकि आर्थिक लोकतंत्र में व्यक्ति गरिमा सदैव सुरक्षित रहती है इसलिए प्रकृति के धर्म के अनुसार ही सामाजिक आर्थिक प्रतिमान रहते हैं। राजनैतिक लोकतंत्र इसको समझ ही नहीं पाता है क्योंकि वह मात्र व्यक्ति की राजनैतिक गरिमा बचाने का वचन ही देता है। व्यक्ति की सामाजिक एवं आर्थिक गरिमा से उसका कोई लेना देना ही नहीं है। 

(14) राजनैतिक लोकतंत्र समाज चक्र नहीं समझ पाता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाज चक्र पर मजबूत समझ रखता है- राजनैतिक लोकतंत्र में समाज चक्र तथा चक्र की गतिधारा के प्रति कोई सुव्यवस्थित समझ नहीं होती है। वह इसे दार्शनिकों की सोच बताकर उदासीन रहता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाज चक्र एवं उसकी गतिधारा को समझकर सदैव किसी भी स्थिति के लिए तैयार रहता है। अतः आर्थिक लोकतंत्र में क्रांतियाँ, विप्लव, विक्रांति तथा प्रति विप्लव अव्यवस्था नहीं ला सकते हैं जबकि राजनैतिक लोकतंत्र इन सबसे अधिक प्रभावित होता है तथा इन सबसे वह सदैव भयाक्रांत रहता है। आर्थिक लोकतंत्र इससे नहीं डरता है। 

(15) राजनैतिक लोकतंत्र में मनुष्य का आध्यात्मिक मूल्य नहीं समझा जाता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र इसको समझना ही होता है- राजनैतिक लोकतंत्र कानून की दृष्टि से सोचता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र समाज की दृष्टि से सोचता है इसलिए व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों से परिचित रहता है। राजनैतिक लोकतंत्र व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक शक्ति समझ सकता है जबकि आध्यात्मिक शक्ति की भूमिका तय करने में चूक जाता है। 

(16) राजनैतिक लोकतंत्र में नागरिक की लक्ष्य विहीन गति है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में मनुष्य आनन्द मार्ग पर चलता है- राजनैतिक लोकतंत्र में व्यक्ति को सम्पूर्ण स्वच्छंदता दी गयी है। इसलिए इसकी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं अन्य गतिधारा से कोई संबंध नहीं है। मात्र सामाजिक अनुशासन बनाये रखने का कार्य किया जाता है जबकि आर्थिक लोकतंत्र में मनुष्य के सभी क्षेत्रों की गतिधारा पर नजर रखी जाती है तथा उसका जीवन आनन्द से भर जाए इसकी कोशिश की जाती। अतः कह सकते हैं कि आर्थिक लोकतंत्र मनुष्य को आनन्द मार्ग पर ले चलता है।

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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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वांगचुक की लद्दाख़ के संदर्भ में मांग एवं प्रउत का दृष्टिकोण (Wangchuk's demand in the context of Ladakh and Prout's point of view )
इन दिनों में लद्दाख़ के एक्टिविस्ट सोनम वांगचुक लद्दाख़ को केन्द्र सरकार द्वारा दिया गया वादा निभाने की ओर ध्यान आकृष्ट करने को लेकर अनशन पर है। कर्नल सोनम वांगचुक, एमवीसी एक भारतीय सेना के अनुभवी हैं, जिन्होंने असम रेजिमेंट और लद्दाख स्काउट्स के साथ सेवा की। कारगिल युद्ध में अपने सफल ऑपरेशन के दौरान उन्हें दुश्मन के सामने वीरता के लिए भारत के दूसरे सर्वोच्च पुरस्कार महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। 

वांगचुक की मांगें

(१) लद्दाख़ में लोकतंत्र की बहाली - आधुनिक युग में लोकतंत्र सभी का अधिकार है। अतः लद्दाख़ को इससे वंचित रखना न्यायसंगत नहीं है। लद्दाख़ के सामरिक महत्व को देखते हुए राजनैतिक लोकतंत्र संभव नहीं हो तो प्रउत के विचार के अनुसार दल विहीन आर्थिक लोकतंत्र लागू कर लद्दाख़वासियों के नैसर्गिक अधिकार की रक्षा की जा सकती है। ऐसा नहीं करना लद्दाख़ के साथ न्याय नहीं है।

(२) लद्दाख़ को पूर्णराज्य का दर्जा देना - भारतीय संविधान के अनुसार पूर्णराज्य का अर्थ राज्य सूची के विषयों पर राज्य को कानून बनाने एवं लागू करने का पूर्ण हक मिलना तथा समवर्ती सूची के विषयों पर अपने राज्य के लिए ऐसा कानून बना सकता है, जो केन्द्र के कानून के विपरीत नहीं हो। इसमें लद्दाख़ के लिए क्या त्रुटि है? इस पर विचार करने की आवश्यकता है। लद्दाख़ चीन, पाकिस्तान एवं आतंकियों की निगाह पर है। अतः सामरिक एवं सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यह कारण लद्दाख़ के हक को छिनने के लिए पर्याप्त नहीं है। क्योंकि अनुच्छेद 356 तहत राष्ट्रपति के पास राज्यों को अनुशासित एवं नियंत्रण रखने का अधिकार सुरक्षित रह जाता है। अतः यह मांग भी स्वीकार करने के लिए उपयुक्त बहाना नहीं है। एक अन्य कारण स्थानीय पुलिस का सेना को मिलने वाला सहयोग केन्द्र सरकार के हाथ न होना होता है। इसके लिए एक वैकल्पिक व्यवस्था के तहत सीमा सुरक्षा बल एवं स्थानीय सैनिक टुकड़ी भारत सरकार की ओर से गठित करनी चाहिए जो भारतीय सेना की मदद के लिए हमेशा तैयार रहे। इससे भी काम नहीं चले तो राजनैतिक दृष्टि से प्रउत के विचार `कजहिल` पर विचार किया जा सकता है। कजहिल के तहत कश्मीर, जम्मू, हिमाचल एवं लद्दाख़ को मिलाकर एक राज्य बनाना, जिससे अलगाववादियों के हाथ में बहुमत नहीं जाएगा।

(३) लद्दाख़ में छठ़ी अनुसूची लागू करना - छठी अनुसूची भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244 के अंतर्गत आती है, जो चार राज्यों असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा में स्वायत्त जिला परिषदों की स्थापना की सुविधा प्रदान करती है। जिला परिषद को स्वायत्त इकाई के रूप में दर्जा मिलता है। जिसके सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक मुद्दों पर जिला परिषद कानून बना सकती है। आनन्द मार्ग प्रचारक संघ की भुक्ति समिति को इससे भी सशक्त बनाकर स्थापित किया गया। एक भुक्ति प्रधान के नेतृत्व में हमारी भुक्ति सशक्त है, जो अपनी उपभुक्तियों सहायता समग्र सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक मुद्दों अपने लिए व्यवस्था स्वयं देती है। यह प्रांत, राज्य, देश एवं केन्द्रीय समिति को 1/8 वां भाग देती है बदले में उनसे कुछ नहीं लेती है। अतः जिला परिषदों को स्वायत्त देना ही आर्थिक लोकतंत्र की आधार शीला है। हमारा समाज आंदोलन इसका समर्थन करता है। एक समाज इकाई सांस्कृतिक, सामाजिक एवं आर्थिक मुद्दों पर स्वयं वित्त सृजन करता तथा स्वयं व्यवस्था देती है। हम तो उपभुक्ति अथवा ब्लॉक लेवल योजना के निर्माण एवं क्रियांवयन को बढ़ावा देते हैं। अतः हमें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244(2) और 275(1) के संदर्भ में विस्तृत चर्चा करनी चाहिए तथा इस पर प्रउत का दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए।
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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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अंग्रेजी अनुवाद पढ़े

These days, Ladakh activist Sonam Wangchuk is on a hunger strike to draw attention to the central government's promise to Ladakh. Colonel Sonam Wangchuk, MVC is an Indian Army veteran who served with the Assam Regiment and Ladakh Scouts. During her successful operation in the Kargil War, she was awarded the Mahavir Chakra, India's second highest award for bravery in the face of the enemy.

Wangchuk's demands

(1) Restoration of democracy in Ladakh - In the modern era, democracy is the right of all. Therefore, it is not fair to deprive Ladakh of it. If political democracy is not possible in view of the strategic importance of Ladakh, then according to Praut's idea, the natural rights of the people of Ladakh can be protected by implementing a party-less economic democracy. Not doing so is not fair to Ladakh.

(2) To give Ladakh the status of a full state - According to the Indian Constitution, full statehood means that the state gets the full right to make and implement laws on the subjects of the State List and on the subjects of the Concurrent List, it can make such laws for its state which are not contrary to the law of the Centre. What is wrong with Ladakh in this? There is a need to think about this. Ladakh is under the watch of China, Pakistan and terrorists. Hence, it is important from the strategic and security point of view. This reason is not enough to snatch the rights of Ladakh. Because under Article 356, the President reserves the right to discipline and control the states. Hence, this demand is also not an appropriate excuse to accept it. Another reason is that the support of the local police to the army is not in the hands of the Central Government. For this, as an alternative arrangement, the Border Security Force and the local military contingent should be formed by the Government of India, which should always be ready to help the Indian Army. If this also does not work, then from the political point of view, Praut's idea of ​​'Kazhil' can be considered. Under Kazhil, Kashmir, Jammu, Himachal and Ladakh will be merged to form a single state, so that the separatists will not get the majority.

(3) Implementation of the Sixth Schedule in Ladakh - The Sixth Schedule comes under Article 244 of the Indian Constitution, which provides for the establishment of autonomous district councils in four states Assam, Meghalaya, Mizoram and Tripura. The district council gets the status of an autonomous unit. The district council can make laws on cultural, social and economic issues. The Bhukti Committee of Anand Marg Pracharak Sangh was further strengthened and established. Our Bhukti is strong under the leadership of a Bhukti Pradhan, which helps its consumers and makes arrangements for overall social, economic and cultural issues on its own. It gives 1/8th of its share to the province, state, country and central committee and does not take anything from them in return. Therefore, giving autonomy to the district councils is the foundation of economic democracy. Our Samaj Andolan supports this. A Samaj unit generates finances on its own and makes arrangements on its own for cultural, social and economic issues. We encourage the creation and implementation of sub-division or block level plans. Therefore, we should have a detailed discussion in the context of Articles 244(2) and 275(1) of the Indian Constitution and develop a PRUT perspective on this.

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[Mr.] Anand Kiran "Dev"

चालो आपां प्रउत री दुनिया मांय जावां (Let us  We go to the world of Prout.)
हर कोई एक सुखी समाज बणाणो चावै है। जठै किणी मिनख नै रोटी रै खातर आपरै परिवार नै छोड’र किणी अणजाण जगै नीं जावणो पड़ै अर खुद रै परिवार रै सागै रैय’र एक सुखी समाज रो निर्माण कर सकै इणी वास्तै म्हैं थानै प्रउत री दुनिया मांय ले जाऊं। जठै पैला नागरिक नै समाज सूं कीं अधिकार मिलै अर समाज आपरा कर्तव्यां नै सार्वजनिक करै।

प्रउत समाज नै पैली जिम्मेदारी आपरै नागरिकां री न्यूनतम जरूरतां - रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा अर शिक्षा री गारंटी देण री दैवे है। इण भांत समाज नै एडी व्यवस्था देवणी पडला की जिण सूं हरैक नागरिक अपणी न्यूनतम आवश्यकताओं ने सहजता सूं पूरी कर सके। जे कोई समाज ओ काम नीं कर सकै तो उणनै समाज कैवण रो कोई अधिकार कोनी। अर्थशास्त्र री भाषा में इणनै सोलह आना रोजगार अर क्रय शक्ति री गारंटी कैवै है।

प्रउत समाज नै दूजी जिम्मेदारी देवै है कै वो गुणीलोगां यानी प्रतिभावां रो सम्मान, आदर अर सम्मान करै। जिण समाज में प्रतिभावां अर गुणी लोगां रो आदर नीं हुवै बो समाज सबद रो अरथ कदैई साबित नीं कर सकै। गुणीलोगां रो सम्मान करण रो मतलब है, सगळा नागरिकां री न्यूनतम जरूरतां नै पूरी करण रै बाद बचण आळी अतिरिक्त धन। यो गुणवानां रै मांय बां रै गुणां रै अनुपात मांय बांट दियो जावै है।

प्रउत समाज नै तीजी जिम्मेदारी देवै है कै वो नागरिकां रै जीवन स्तर नै लगातार ऊंचा उठावै। जुग री जरूरत मुजब समाज रै न्यूनतम मानकां में बढ़ोतरी खुद समाज रै अस्तित्व रो लक्षण है। जद तांई समाज नागरिकां रै जीवन स्तर नै नीं सुधारैला, नागरिक समाज सूं दूर रैवैला। नागरिक नै समाज सूं जोड़ राखण खातर समाज नै जुग रै हिसाब सूं उणरी न्यूनतम जरूरतां रो सम्मान करणो पड़सी।

समाज नागरिकां री न्यूनतम जरूरतां री गारंटी देवै, अतिरिक्त धन मांय सूं गुणवान नागरिकां नै वांरै गुण रै अनुपात मांय धन देवै अर जुग मुजब नागरिकां रै न्यूनतम जीवन स्तर नै बधाबा री जिम्मेदारी लेवै, इण वास्तै समाज नागरिक सूं कीं भी लेणो पड़ै है अर इण रो अधिकार भी देवै है। तो, समाज नागरिक सूं कांई चावै है? प्रउत भी आ बात साफ कर देवै है। इण वास्तै, आपां समाज रै अधिकारां अर नागरिक रै कर्तव्यां नै समझण रै वास्तै प्रउत री दुनिया मांय रवाना हुया।

प्रउत खुद समाज नै बतावै है कै ओ किणी भी नागरिक नै समाज री अनुमति रै बिना अनधिकृत रूप सूं धन संचय करण रो अधिकार कोनी देवै। इण तरै सूं धन जमा करणो गैरकानूनी है। इण भांत समाज हरेक नागरिक री निजी संपत्ति माथै नजर राख सकै। जिणरै जरियै समाज सगला जगत रै मांय आर्थिक न्याय बणाय राख सकै। जिण समाज नै ओ अधिकार कोनी है वो अेक कमजोर संगठन है। एक कमजोर संगठन कदैई एक मजबूत व्यवस्था कोनी दे सकै। इस खातर समाज नै सारी सम्पति पै नजर राखणी पड़ैगी चाहे वा निजी हो या सार्वजनिक। कोई भी नागरिक सामाजिक जिम्मेदारी नै आपरी निजी संपत्ति कैय'र टाळ नीं सकै।

प्रउत स्थूल, सूक्ष्म अर कारण जगत मायनै चरम उत्कर्ष कर अर नागरिकां नै जरूरतरी संपदा नै ढूंढर अर उणनै विवेकपूर्ण ढंग सूं बांटबा रो अधिकार देय'र समाज नै दूजो अधिकार देवै है। इण वास्तै, समाज इण काम रै वास्तै नागरिक शक्ति रो उपयोग कर सकै है। इण वास्तै, नागरिकां री क्षमतावां रो उपयोग करणो समाज रै हाथां मांय रैसी।

प्रउत समाज नै तीजो अधिकार देवै है कै वो व्यक्ति री शारीरिक, मानसिक अर आध्यात्मिक क्षमता रो अधिकतम उपयोग कर सकै। इणरै तहत हरेक मिनख नै आपरी शारीरिक, मानसिक अर आध्यात्मिक क्षमता रै हिसाब सूं समाज नै जनशक्ति मुहैया कराणी पड़ैला। जे समाज व्यक्ति री क्षमता रो पूरो उपयोग नीं कर सकै तो व्यक्ति री अतिरिक्त क्षमता अप्रयुक्त रैय जावैला, जिणसूं व्यष्टि अर समष्टि जग री भलौ नी हो सकै।

प्रउत समाज नै नागरिकां री शारीरिक, मानसिक अर आध्यात्मिक शक्तियां रो सही संतुलित उपयोग करण रो चौथो अधिकार देवै है। जे समाज नागरिकां री क्षमतावां रो सही संतुलित उपयोग नीं कर सकै तो बो नागरिकां रै साथै न्याय नीं कर सकै, जिणसूं व्यक्ति अर समाज दोनूं नै नुकसान हुवै।

प्रउत समाज नै देश, बगत अर पात्र रै मुजब उपयोगिता में बदलाव करण रो पांचवो अर आखरी अधिकार देवै है। इण तरै सूं समाज उपयोगिता नै प्रगतिशील राख सकै है। उपयोगिता एक मानक तत्व है। इणनै सर्वमान्य बणाबा रै वास्तै देस, बगत अर पात्र अर परिस्थितियां मुजब बदळाव राखणा जरूरी है। जे समाज आ नीं कर सकै तो बो जड़ता अर अवास्तविकता नै प्राप्त कर लेवै है। जो व्यक्ति अर समाज दोनूं रै वास्तै हानिकारक है।

इण तरै सूं, प्रउत पैली समाज नै नागरिक रै प्रति जिम्मेदार बणबा री ताकत देवै है अर पछै नागरिक नै समाज रै प्रति जिम्मेदार बणाबा री ताकत भी देवै है। इण तरै सूं समाज नागरिक अर नागरिक समाज रै प्रति जिम्मेदार रैवै है। यो समाज रो धरम है।

आखिर मांय, प्रउत समाज नै बतावै है कै एक आत्मनिर्भर समाज स्थानीय क्षेत्र नै एक सामाजिक-आर्थिक इकाई जैड़ा समाज में बदल'र दियो जाणो चाइजै। इणरी राजशक्ति अर अर्थशक्ति नै न्यारी-न्यारी राखणी पड़सी अर इणनै न्यारा-न्यारा तरीका सूं संचालित करणो पड़सी। प्रउत री नीति नै अर्थशास्त्र री भाषा रै मांय आर्थिक लोकतंत्र री स्थापना कैवै है। इण वास्तै आपां कैय सकां कै आर्थिक लोकतंत्र ई लोकतंत्र है। राजनीतिक लोकतंत्र एक संगठित धोखो है जिको जनता माथै करियो जावै है।


प्रउत री दुनिया मांय कोई भी रोजी रोटी रै वास्तै आपरी जलम री भौम नै नीं छोडैला। आपरै परिवार रै साथै एक सुखी समाज बणावैला।

[श्री] आनंद किरण "देव"


हिन्दी अनुवाद 

हम प्रउत की दुनिया में चलते हैं

खुशहाल समाज का निर्माण करना सभी की चाहत है। जहाँ रोटी के खातिर व्यक्ति को अपने परिजनों को छोड़कर अनजान स्थान पर नहीं जाना पड़े तथा अपने ही परिजनों के साथ रहते हुए ही एक एक खुशहाल समाज का निर्माण कर सके।इसलिए मैं आपको ले चलता हूँ - प्रउत की दुनिया में। जहाँ प्रथम नागरिक समाज से कुछ अधिकार प्राप्त करता है तथा समाज अपने कर्तव्यों को सार्वजनिक करता है। 

प्रउत समाज को पहली जिम्मेदारी उसके नागरिकों की न्यूनतम आवश्यकता - अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की गारंटी देने की दी गई है। इसके तहत समाज को ऐसी व्यवस्था देनी होगी कि उसका प्रत्येक नागरिक अपनी न्यूनतम आवश्यक सरलता एवं सुगमता से पूर्ण कर सके। यदि समाज ऐसा नहीं कर सकता तो उसे समाज कहलाने का अधिकार नहीं है। इसको अर्थशास्त्र की भाषा में शतप्रतिशत रोजगार एवं क्रयशक्ति की गारंटी कहते हैं।

प्रउत समाज को दूसरी जिम्मेदारी गुणीजन अर्थात प्रतिभाओं का आदर, सम्मान एवं सत्कार करनी की देता है। जिस समाज में प्रतिभाओं एवं गुणीजनों का आदर नहीं होता है, वह समाज कभी भी समाज शब्द के अर्थ को सिद्ध नहीं कर सकता है। गुणीजन का सम्मान का अर्थ सभी नागरिकों की न्यूनतम आवश्यकता पूर्ण करने के बाद जो अतिरिक्त संपदा बचेंगी। उसको गुणीजन में गुण के अनुपात में बांटी जाती है। 

प्रउत समाज को तीसरी जिम्मेदारी नागरिकों के जीवन स्तर के मान को उत्तरोत्तर ऊपर बढ़ाते रहने की देता है। युग की आवश्यकता के अनुसार समाज के न्यूनतम मान में वृद्धि होना, स्वयं समाज के जीवित रहने का लक्षण हैं। जब तक समाज नागरिकों के जीवन स्तर को उन्नयन की ओर नहीं ले चलता है, तब तक नागरिक समाज से दूर रहता है। नागरिक को समाज जोड़े रखने के लिए समाज को युग के अनुसार उसकी न्यूनतम आवश्यकता का मान सम्मान करना ही होगा। 

समाज को नागरिकों को न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी देता है, गुणी नागरिकों को अतिरिक्त संपदा में से गुण के अनुपात में संपदा देता है तथा नागरिक के जीवन स्तर के न्यूनतम मान को युग के अनुसार बढ़ाते रहने की जिम्मेदारी लेता है तो नागरिक से समाज को कुछ लेने का अधिकार भी देता है। अतः समाज नागरिक से क्या चाहता है। यह भी प्रउत स्पष्ट कर देता है। अतः हम प्रउत की दुनिया में समाज के अधिकार एवं नागरिक के कर्तव्य को समझने के लिए निकलते हैं। 

प्रउत स्वयं समाज से कहता है कि समाज की अनुमति के बिना किसी भी नागरिक को अनाधिकृत रुप से धन संचय अधिकार नहीं देता है। इस प्रकार से धन संचय करना अवैधानिक है। इस प्रकार समाज प्रत्येक नागरिक के निजी संपत्ति पर निगरानी रख सकता है। जिससे समाज समष्टि जगत में आर्थिक न्याय बनाए रख सकता है। जिस समाज के पास यह अधिकार नहीं है, वह समाज एक कमजोर संगठन है। कमजोर संगठन कभी भी मजबूत व्यवस्था नहीं दे सकता है। अतः समाज को सम्पूर्ण संपदा पर निगरानी रखनी होगी, चाहे वह निजी हो अथवा सार्वजनिक। कोई भी नागरिक अपनी निजी संपत्ति कहकर सामाजिक जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकता है। 

प्रउत समाज को दूसरा अधिकार स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण जगत का चरमोत्कर्ष करके नागरिकों के आवश्यकता की संपदा खोज निकालकर उसके विवेकपूर्ण वितरण का अधिकार देता है। इसके लिए समाज नागरिक शक्ति को इस काम में लगा सकता है। अतः नागरिकों की कार्यक्षमता को उपयोग करना समाज के हाथ में होगा। 

प्रउत समाज को तीसरा अधिकार व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक संभावना के चरम उपयोग करने का देता है। इसके तहत प्रति व्यक्ति को अपनी शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमता के अनुसार समाज को श्रमशक्ति देनी होगी। यदि समाज व्यक्ति की क्षमता का सम्पूर्ण उपयोग करने में असमर्थ रहता है तो व्यक्ति की अधिशेष रही क्षमता अनुपयोगी रह जाएगी, जिससे व्यष्टि एवं समष्टि जगत का अकल्याण हो सकता है। 

प्रउत समाज को चतुर्थ अधिकार नागरिकों की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक शक्ति के सुसंतुलित उपयोग का देता है। यदि समाज नागरिक की कार्यक्षमता के उपयोग में सुसंतुलित नहीं रख पाता है तो वह नागरिकों के साथ न्याय नहीं कर पाता है, जिससे व्यष्टि एवं समष्टि दोनों का ही अहित हो जाता है। 

प्रउत समाज को पंचम एवं अन्तिम अधिकार के तहत देश, काल एवं पात्र के अनुसार उपयोगिता के परिवर्तन करने का देता है। इस प्रकार समाज उपयोगिता को प्रगतिशील बनाकर रख सकता है। उपयोगिता एक मानक तत्व है। उसे सर्वमान्य बनाने के लिए देश, काल एवं पात्र की परिस्थिति एवं स्थित के अनुसार परिवर्तन रखना आवश्यक है‌। यदि समाज ऐसा नहीं कर पाता है तो वह जड़ता एवं अवास्तविकता को प्राप्त कर जाता है। जो व्यष्टि एवं समष्टि दोनों के क्षतिकारक है। 

इस प्रकार प्रउत समाज को नागरिक के प्रति पहले जिम्मेदार बनने की शक्ति देता है तथा फिर नागरिक को समाज के प्रति जिम्मेदार बनाने शक्ति भी देता है। इस प्रकार समाज नागरिक के प्रति एवं नागरिक समाज के प्रति उत्तरदायी रहता है। यही समाज धर्म है। 

अन्त में प्रउत समाज से कहता कि स्थानीय क्षेत्र को एक सामाजिक आर्थिक इकाई रुपी समाज में परिवर्तित कर एक आत्मनिर्भर समाज देना ही‌ होगा है। इसके राजशक्ति एवं अर्थशक्ति को पृथक रखना होगा तथा उसका पृथक रीति से संचालन करना होगा। प्रउत की रीति नीति को अर्थशास्त्र की भाषा में आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना कहते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि आर्थिक लोकतंत्र ही लोकतंत्र है। राजनैतिक लोकतंत्र जनता के साथ एक किया गया एक संगठित छल है। 


प्रउत की दुनिया में कोई रोजीरोटी के खातिर जन्म भूमि छोड़कर नहीं जाएगा। अपनी परिजनों के साथ मिलकर एक खुशहाल समाज का निर्माण करेगा। 

[श्री] आनन्द किरण "देव"

अंग्रेजी अनुवाद
Let us go to the world of Prout.

Everyone wants to build a happy society. Where a person does not have to leave his family and go to an unknown place for the sake of bread and can build a happy society while living with his own family. That is why I take you to the world of Prout. Where the first citizen gets some rights from the society and the society makes its duties public.

The first responsibility of Prout society is to guarantee the minimum needs of its citizens - food, clothing, housing, medical care and education. Under this, the society will have to provide such a system that every citizen of it can fulfill his minimum needs with ease and convenience. If the society cannot do this, then it does not have the right to be called a society. In the language of economics, this is called the guarantee of 100% employment and purchasing power.

The second responsibility of Prout society is to respect, honor and felicitate the talented people. The society in which talents and talented people are not respected, that society can never prove the meaning of the word society. Respect for the virtuous means that the extra wealth that remains after fulfilling the minimum needs of all the citizens is distributed among the virtuous people in proportion to their qualities.

Prout gives the third responsibility to the society to keep on increasing the standard of living of the citizens. The increase in the minimum standard of the society according to the need of the era is itself a sign of the survival of the society. Till the society does not take the standard of living of the citizens towards upliftment, the citizen remains away from the society. To keep the citizen connected to the society, the society will have to respect his minimum requirement according to the era.

The society guarantees the minimum requirement to the citizens, gives wealth to the virtuous citizens in proportion to their qualities from the extra wealth and takes the responsibility of increasing the minimum standard of living of the citizen according to the era and also gives the society the right to take something from the citizen. So, what does the society want from the citizen. Prout also clarifies this. So, we set out in the world of Prout to understand the rights of the society and the duty of the citizen.

Prout itself tells the society that it does not give the right to any citizen to accumulate wealth without the permission of the society. Accumulating wealth in this manner is illegal. In this way, the society can keep a watch on the personal property of every citizen. Due to which the society can maintain economic justice in the macrocosm. The society which does not have this right is a weak organization. A weak organization can never provide a strong system. Therefore, the society will have to keep a watch on the entire wealth, whether it is private or public. No citizen can shirk social responsibility by calling it his personal property.

Prout gives the second right to the society to find the wealth of the citizens' need by reaching the peak of the gross, subtle and causal world and then distribute it judiciously. For this, the society can use the citizen power in this work. Therefore, it will be in the hands of the society to use the efficiency of the citizens.

Prout gives the third right to the society to make the extreme use of the physical, mental and spiritual potential of the individual. Under this, every individual will have to give labor power to the society according to his physical, mental and spiritual capacity. If the society is unable to make full use of the individual's potential, then the surplus potential of the individual will remain unused, which can lead to ill-being of the individual and the collective world.

The fourth right of Prout gives the society the right to make a balanced use of the physical, mental and spiritual power of the citizens. If the society is unable to maintain a good balance in the use of the citizen's capability, then it is unable to do justice to the citizens, which causes harm to both the individual and the collective.

The fifth and final right of Prout gives the society the right to change the utility according to the country, time and person. In this way, the society can keep the utility progressive. Utility is a standard element. To make it acceptable to all, it is necessary to keep changing it according to the circumstances and situation of the country, time and person. If the society is unable to do this, then it attains inertia and unreality. Which is harmful to both the individual and the collective.

In this way, Prout gives the society the power to be responsible towards the citizen first and then also gives the power to make the citizen responsible towards the society. In this way, the society remains responsible towards the citizen and the citizen towards the society. This is the social duty.

In the end, Prout tells the society that the local area has to be transformed into a socio-economic unit of society and a self-reliant society has to be given. For this, the political power and economic power have to be kept separate and have to be operated in a separate manner. In the language of economics, the policy of Prout is called establishing economic democracy. Therefore, we can say that economic democracy is democracy. Political democracy is an organized deception done with the people.

In the world of Prout, no one will leave the birthplace for livelihood. Together with his family, he will build a happy society.

[Shri] Anand Kiran "Dev"

आनन्दोत्सव अर विज्ञान (Anandotasav and Science)
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[श्री] आनंद किरण "देव" रो शोधपत्र
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 आनंद मारग दर्शन अर आदर्श रै मांय आनन्द रो दर्शन है। इण वास्तै, दर्शन नै लागू करण आळा समाज रै मांय आनन्द उत्सव भी सामिल है।

(1) पूर्ण शून्य अर आनंद पूर्णिमा- शून्य अनंत रो वैज्ञानिक नाम है। इण वास्तै ओ सृजित जगत मांय आनंद रै रूप मांय प्रदर्शित हुवै है। इण वास्तै इण दिन नै आनंद पूर्णिमा रै नाम सूं प्रसिद्धि मिलै है। सृष्टि रै उदय रै बगत, जद ऋषि-मुनि अर देवगण सामाजिक अनुष्ठान री योजना बणा रैया हा। उण बगत उणरो ध्यान इण ब्रह्मांडीय पूर्ण शून्य कानी गयो। इण ब्रह्मांडीय रूप मांय पूरो शून्य बण जावै है। जिसकी ऊर्जा ब्राह्मण के हर कण में समाई है। इण वास्तै ब्रह्माण्ड रो पैलो अंकुरण भी इण दिन हुयो। अस्यां शोधकर्तावां रो ओ अंदाजो है। इण वास्तै इण मंच नै आनंद पूर्णिमा रै रूप में चित्रित करियो गयो है। बगत रै सागै दुख री दुनिया मांय शून्य देख्यो गयो अर पछै महापरिनिर्वाण मांय पूरो शून्य देखण नै मिलण लागग्यो। शून्य महापरिनिर्वाण कोनी है पण महान आगमन आनन्द है। इण वास्तै श्री श्री आनन्दमूर्ति जी मिनख री बुद्धि नै मुक्त कर उणरो नांव आनंद पूर्णिमा राख्यो। यो वैशाख पर्व वैशाखी पूर्णिमा रै दिन पूरै रूप में देख्यो जावे है।

(2) आधा शून्य अर ज्योति रो त्योहार - ऋषि देव परिषद रै साम्हीं दूजो सवाल ब्रह्माण्ड रै मांय होबा आळा आधा शून्य री तरफ गयो। जो पूरा शून्य रै लगभग छह महीने बाद दिखाई दे रियो हो। इण वास्तै कार्तिक अमावस्या नै इण भांत चिन्हित करियो गयो। चूंकि आ घटना आधा शून्य रो प्रतिनिधित्व करै है। इण कारण पूर्णिमा री जगां अमावस्या चुणीजी। काळ रै सागै महावीर स्वामी रै निर्वाण री दीपोत्सव रै साथै व्यापारी समाज घणो चावो होयो अर भौतिक सुख-सुविधावां में आपरी विशिष्टता देखण लागग्यो। रामायण री लोकप्रिय कथा बांनै अपार आनंद सूं भर दी। दीपावली नै आनंद रो पर्व मानता थका श्री श्री आनंदमार्टी जी इणनै एक आनन्दोत्सव रै रूप में भी दिखायो है जो किसान समुदाय में कीटों री भरमार सूं छुटकारा पावा में मदद करै है। इणरै साथै आत्मदीप भी दिखायो गयो है। पूर्ण शून्य सफेदी नै दर्शावै है जदकै आधा शून्य काळापन नै दर्शावै है, इण वास्तै दीयो जला'र इणनै सफेदी में बदलबा री कोशिश करी जावै है। जदकै धावलता नै घणी खुशी सूं भरण सूं बढ़ायो जावै है।

(3) अल्प शुन्य अर श्रावण उत्सव अर बसनोत्सव - ब्रह्माण्ड में शून्य री दो अवस्थावां श्रावण अर फलगुन माह में आवै है। इण वास्तै ऋषिदेव परिषद भी इण माथै ध्यान दियो अर इणनै सिद्धि रो रूप देता थका श्रावणी पूर्णिमा अर फलगुणी पूर्णिमा नै त्योहार रै रूप में दिखायो गयो। फलगुन पूर्णिमा रो आनंदमय पर्व पलाश रै रंग सूं मिलता-जुलता होवण रै कारण रंगां रो पर्व अर श्रावणी पूर्णिमा नै आध्यात्मिक सुख रै रूप में शिक्षा अर दीक्षा रो पर्व मनायो जातो हो। भलांई श्रवणोत्सव श्रावणी पूर्णिमा सूं पैली अर बसंतोत्सव फलगुण पूर्णिमा रै पछै ज्यादा दीखै है, पण फेर भी पूरा होवण री निकटतम पूर्णिमा नै क्रमशः श्रावणी पूर्णिमा अर फलगुणी पूर्णिमा रै रूप में चिन्हित करियो गयो हो। श्री श्री आनंदमूर्ति जी इन दोनों पर्वों को आनंदोत्सव में स्थान दिया।

(4) नववर्ष अर नूंवा अन्न त्यौहार अर आनन्द उत्सव - ब्रह्मांडीय विज्ञान रै बाद श्री श्री आनंदमूर्ति जी पंचांग अर सामुदायिक सुख कानी मुड़ग्या। वैश्विक अर क्षेत्रीय कैलेंडर रै पैलै दिन नै खुशी रै साथै मनाबा री परम्परा विकसित करी। नवा अन्न रो त्योहार है पूर्णिमा, नूंवा अन्न रो आगमन। ओ सामुदायिक खुशी री भावना है। नयो खाणो पुराणा खाणा री जगां ले लेवै है। इण वास्तै, न्यू रो आगमन एक खुशी अर उत्सव है।

(5) शारदीय पर्व व आनन्दोत्सव - श्री श्री आनंदमूर्ति जी ने अश्विन शुक्ल षष्ठी न ले'र दशमी सुदी पांच दिन शारदीय पर्व रे रुपयों दिखाया। जिन्हें क्रमशः शिशु दिवस, साधारण दिवस, ललित दिवस, संगीत कला दिवस एवं विजयत्सव के रूप मां दिया गया। यो एक पूरी तरह सूं सामाजिक त्योहार है। जिण मांय समाज रो हर पहलू जुड़्योड़ो है अर पुरी जीत री तरफ ले जावै है। समाज नै आध्यात्मिक प्रगति री तरफ ले जावै है।

(6) भाई दूज अर आनंदोत्सव - कार्तिक सुद ने दूज को श्री श्री आनंदमूर्ति जी भाई दूज के रूप में मनावा रो आदेश दिया है। बहन भाई रै सिर माथै तिलक लगाय भाई री दीर्घायु री प्रार्थना करै अर भाई सु आशीर्वाद लैव अर देवै। आ बात मिनख अर लुगायां रै प्रति चौखी नजर नै दर्शावै है। विश्व भाईचारे रै समाज में इणनै पारिवारिक उत्सव रै रूप में मनाणो जरूरी है। बहन परिवार री ऐड़ी ताकत है, जिकी मां-बाप रै मर्यां पछै भी परिवार नै साथै राखै। नींतर भाई कदैई-कदैई घणा आगै बध जावै है।

ओ तो बस म्हारो निजी शोध पत्र है।


         अंग्रेजी अनुवाद
Anandotsav and Science
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[Shri] Anand Kiran "Dev"
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Ananda is visible in the philosophy and ideals of Anand Marga. Therefore Anandotsav is included in the society that implements the philosophy.

(1) Complete Zero and Anand Purnima - The scientific name of infinity is zero. Therefore, it is shown as Anand in the created world. Therefore, this day is famous as Anand Purnima. In the dawn of creation, when the sages and gods were planning a social ritual. At that time, their attention went towards this cosmic complete zero. This cosmic form of complete zero is created. Whose energy is included in every particle of Brahmand. Therefore, the first germination of the creation also happened on this day. This is the estimate of the researchers. Therefore, this state is depicted as Anand Purnima. In the course of time, zero was seen in the form of sorrow, then complete zero started being seen in Mahaparinirvana. Zero is not Mahaparinirvana, but the great arrival Anand. Therefore, Shri Shri Anand Murti, while making the intellect of man Buddha as free intellect, named it as Anand Purnima. This Vaishakh festival, whose full form is seen on the day of Vaishakhi Purnima.

(2) Half Zero and Deepotsav - The second question before the Rishi Dev Parishad went towards the half zero occurring in the universe. Which was visible about six months after the full zero. Therefore, Kartik Amavasya was identified as it. Since this event represents the half zero. Therefore, Amavasya was chosen instead of Purnima. Over time, Deepotsav of Mahavir Swami's Nirvana became very popular among the merchant community and began to see its specialty in material comforts. The popular story of Ramayana filled that immense joy. While identifying it as Deepawali in the line of Anandotsav, Shri Shri Anand Murti ji has also shown it as a festival that provides relief to the farmer community from the excess of insects. Along with this, Atmadeep has also been shown. Complete zero is full of whiteness while semi zero is black, therefore an attempt is made to convert it into whiteness by lighting a lamp. While whiteness is made more beautiful by filling it with happiness.

(3) Short zero and Shravanotsav and Basantotsav - Two states of zero occur in the universe in the months of Shravan and Phalgun. Therefore, Rishi Dev Parishad also paid attention to this and giving it the form of completeness, Shravani Poornima and Phalguni Poornima were shown as festivals. On finding the Anandotsav of Phalgun Poornima similar to the colour of Palash, Rangotsav and Shravani Poornima were shown as the festival of education and initiation in the form of spiritual happiness. Although Shravanotsav is more visible before Shravan Poornima and Basantotsav after Phalgun Poornima, however, the nearest full moons to give completeness were identified as Shravan Poornima and Phalguni Poornima respectively. Sri Sri Anandmurti Ji gave place to both these festivals in Anandotsav.

(4) New Year and Navanna Festival and Anandotsav - After cosmological science, Sri Sri Anandmurti Ji turned towards calendar and community happiness. He developed the tradition of celebrating the first day of global and regional calendars with joy. Navanna festival is the full moon day of the arrival of new food grains. It is a feeling of community happiness. New food replaces the old food grains. Hence, the arrival of the new food is joyous and Anandotsav.

(5) Sharadiya festival and Anandotsav - Sri Sri Anandmurti Ji has given the five-day festival garland of Sharadotsav from Ashwin Shukla Shashthi to Dashami. Which respectively includes Shishu Diwas, Ordinary Day, Lalit art Diwas, Music Art Day and Vijayotsav. It is a completely social festival. It takes every aspect of society towards victory by connecting it. It takes society towards spiritual progress.

(6) Bhraata Dwitiya and Anandotsav - Sri Sri Anandmurti Ji has ordered to celebrate Kartik Shukla Dwitiya as Bhaarata Dwitiya. Sister applies Tilak on brother's forehead and prays for brother's long life and brother takes blessings and greets her and gives her blessings. This signifies good vision of man and woman towards man. In a society with universal brotherhood, it is necessary to celebrate it as a family festival. Sister is such a power in the family, who keeps the family together even after the death of parents. Otherwise sometimes brothers go very far away.

This is only my personal research paper.

      
        हिन्दी अनुवाद
आनन्दोत्सव एवं विज्ञान
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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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 आनन्द मार्ग दर्शन एवं आदर्श में आनन्द के दर्शन हैं। इसलिए दर्शन को क्रियांवित करने वाले समाज में आनन्दोत्सव का समावेश है। 

(१) पूर्ण शुन्य एवं आनन्द पूर्णिमा - शून्य अनन्त का वैज्ञानिक नाम है। इसलिए सृष्ट जगत में आनन्द के रूप में प्रदर्शित होता है। अतः यह दिन आनन्द पूर्णिमा के नाम ख्याति पाता है। सृष्टि के उषाकाल में जब ऋषि देव गण सामाजिक अनुष्ठान की योजना बना रहे थे। उस समय उनका ध्यान इस ब्रह्माण्डीय पूर्ण शून्य की ओर गया। इस जागतिक रूप पूर्ण शून्य का निर्माण होता है। जिसकी ऊर्जा ब्राह्मण के कण कण में समाविष्ट होती है। इसलिए सृष्टि का प्रथम अंकुरण भी इस दिन हुआ था। ऐसा शोधकर्ताओं का अनुमान है। अतः इस अवस्था को आनन्द पूर्णिमा के रूप में चित्रित किया जाता है। कालांतर में शून्य को दु:ख वाद में देखा तब पूर्ण शून्य महापरिनिर्वाण में देखा जाने लगा। शून्य महापरिनिर्वाण नहीं महान आगमन आनन्द है। इसलिए श्री श्री आनन्द मूर्ति ने मनुष्य बुद्ध बुद्धि को मुक्त बुद्धि करते हुए इसका नामकरण आनन्द पूर्णिमा के रूप में किया गया। यह वैशाख उत्सव जिसका पूर्ण रूप वैशाखी पूर्णिमा के दिन देखा जाता है। 

(२) अर्द्ध शून्य एवं दीपोत्सव - ऋषि देव परिषद के समक्ष दूसरा प्रश्न ब्रह्माण्ड में घटित होने वाले अर्द्ध शून्य की ओर गया। जो पूर्ण शून्य के लगभग छ माह बाद में दृष्टिगोचर होता था। इसलिए कार्तिक अमावस्या को इसके रूप में चिन्हित किया गया। चूंकि यह घटना अर्द्ध शून्य को प्रदर्शित करती है। इसलिए पूर्णिमा के स्थान पर अमावस्या को चुना गया। कालांतर महावीर स्वामी के निर्वाण के दीपोत्सव वणिक समाज अति लोकप्रिय हो गया था तथा अपनी विशिष्टता को भौतिक सुख सुविधा में देखने लगा। रामायण के प्रचलित कहानी ने उस अपार आनन्द भरा। श्री श्री आनन्दमर्ति जी ने आनन्दोत्सव की पंक्ति में दीपावली के रूप में चिन्हित करते समय कृषक समुदाय के कीटों के आधिक्य से निजात दिलाने वाले उत्सव के रूप में भी दिखा है। साथ में आत्मदीप को भी दिखाया गया है। पूर्ण शून्य धवलता को लिए होता है जबकि अर्द्ध शून्य कालिमा को इसलिए इसे दीप जलाकर धवलता में बदलने का प्रयास किया जाता है। जबकि धवलता को खुशियों का अंबार भरकर धवलता में चार चांद लगया जाता है। 

(३) अल्प शून्य एवं श्रावणोत्सव एवं बंसतोत्सव - ब्रह्माण्ड में शून्य की दो ओर अवस्था श्रावण एवं फाल्गुन माह में घटित होती है। अतः ऋषि देव परिषद ने इस ओर भी ध्यान दिया तथा उसे पूर्णत्व का रूप देते हुए श्रावणी पूर्णिमा एवं फाल्गुनी पूर्णिमा को उत्सव के रूप में दिखाया गया। फाल्गुन पूर्णिमा के आनन्दोत्सव को पलाश के रंग सदृश्य पाने पर रंगोत्सव एवं श्रावणी पूर्णिमा को आत्मिक सुख के रूप शिक्षा-दीक्षा उत्सव के रूप प्रदर्शित किया गया। यद्यपि‌श्रावणोत्सव श्रावणी पूर्णिमा के पहले तथा बंसतोत्सव फाल्गुन पूर्णिमा के बाद अधिक दृश्य मान होता है तथापि पूर्णत्व देने के निकटवर्ती पूर्णिमा क्रमशः श्रावणी पूर्णिमा एवं फाल्गुनी पूर्णिमा को चिन्हित किया गया था। श्री श्री आनन्दमूर्ति जी इन दोनों उत्सव को आनन्दोत्सव में स्थान दिया। 

(४) नववर्ष एवं नवान्न पर्व एवं आनन्दोत्सव - ब्रह्माण्डीय विज्ञान के बाद श्री श्री आनन्दमूर्ति जी पंचाग तथा सामुदायिक खुशी की ओर दिया। वैश्विक एवं क्षेत्रीय पंचागों के प्रथम दिवस आनन्द के साथ मनाने परंपरा को विकसित किया। नवान्न पर्व नव अन्न के आगमन पूर्णिमा है। यह एक सामुदायिक खुशी अहसास है। पुराने अन्न का स्थान नया अन्न लेता है। अतः नव का आगमन का आनन्द एवं आनन्दोत्सव है। 

(५) शारदीय पर्व एवं आनन्दोत्सव - श्री श्री आनन्दमूर्ति जी ने अश्विन शुक्ला षष्ठी से दशमी तक शरदोत्सव की पंच दिवसीय उत्सव माला दी है। जो क्रमशः शिशु दिवस, साधारण दिवस, ललित दिवस, संगीत कला दिवस एवं विजयत्सव दिये है। यह पूर्णतया सामाजिक उत्सव है। जिसमें समाज के हर पहलू को जोड़कर विजय की ओर ले चलता है। समाज को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले चलता है। 

(६) भ्राता द्वितीया एवं आनन्दोत्सव - कार्तिक शुक्ला द्वितीया को श्री श्री आनन्दमूर्ति जी भ्राता द्वितीया के रूप में मनाने का आदेश दिया है। बहिन भाई के मस्तिष्क पर तिलक लगाकर भ्राता के चिरायु की कामना करती है तथा भाई आशीर्वाद एवं प्रणाम लेती एवं देती है। यह स्त्री पुरुष के प्रति सुदृष्टि द्योतक है। जो विश्व बंधुत्व वाले समाज एक पारीवारिक उत्सव के रूप में रहना अनिवार्य है। परिवार में बहिन ऐसी शक्ति है, जो माता पिता के जाने के बाद भी परिवार जोड़कर रखती है। वरना तो भाई कभी कभी बहुत दूर चले जाते हैं। 

यह मात्र मेरा निजी शोधपत्र है।
बाबा के रेलवे कार्यालय की कुर्सी जिस पर बैठकर बाबा लेखा अधिकारी के रचयिता में काम करते थे। 
योग और आनन्द मार्ग ( Yoga and Anand Marga)
योग अर आनंद मार्ग
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`[श्री] आनंद किरण "देव"`
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आनंद मार्ग  जीव आत्मा अर परम आत्मा रै एकीकरण नै योग रै रूप में परिभाषित करै है। महा मिलन री इण प्रक्रिया नै प्रारंभिक योग, साधारण योग, सहज योग अर विशेष योग रै रूप में रेखांकित करीजी है। आज आपां आनन्द रै मारग साथै योग री जातरा माथै रवाना होस्यां।

(१) प्रारंभिक योग – साधना रै मार्ग माथै यात्रा रो पैलो रूप प्रारंभिक योग कैवै है। इण मांय खावण जोग अर अखावण जोग नीं मानीजै। जद आचार्य नै आ बात समझ में आवै है कै उणरो दीक्षित भाई आसन आद सरल प्रक्रियावां करण में असमर्थ है, तो वो उणनै प्रारंभिक योग सिखावै है। ताकि उणरी शारीरिक या मानसिक विकलांगता रै कारण उणरी आध्यात्मिक यात्रा में कोई नुकसान नीं हुवै। प्रारंभिक योग रै मांय आम तौर सूं नाम मंत्र, गुरु वंदना, प्रभात संगीत, कीर्तन अर साष्टांग शामिल है। आध्यात्मिक भाषा गुरु दर्शन अर गुरु प्रणाम भी प्रारंभिक योग रो एक हिस्सो है।

(२) साधारण योग - आध्यात्मिक यात्रा रै वास्तै जरूरी सरल प्रक्रिया नै साधारण योग कैवै है। यम-नियम, ईश्वर प्राणिधान, मधु विद्या, तत्व धारना, चक्र शोधन अर ध्यान साधारण योग रा अंग है। फगत इण मांय कोई आसन अर प्राणायाम कोनी है। जद आचार्य नै आ बात समझ में आवै है कै उणरो दीक्षित भाई आसन प्राणायाम, सहज योग री प्रक्रिया करण में सक्षम कोनी है, तो वे उणरी आध्यात्मिक यात्रा नै नीं रोकै है अर उणनै तीजै पाठ में भी ले जावै है। साधारण योग रै मांय ध्यान आधारित आसन जियां कै पदमासन, सिद्धासन, वीरासन, वज्रासन आद करिया जा सकै है।

(३) सहज योग – आसन अर साधारण प्राणायाम करण आळा नै सहायक कैवै है। जद आचार्य नै लागै कै साधक शारीरिक रूप सूं मजबूत अर मानसिक रूप सूं उन्नत है तो वो सहज योग री दीक्षा देवै है। इण मांय खाद्य पदार्थां माथै विचार करियो जावै है। वे तत्विक अर आचार्य री शिक्षा ले सकै है।

(४) विशेष योग - पुरोधा, आचार्य सूं सहज योग री शिक्षा प्राप्त साधक नै विषेष योग में शिक्षा दिरावै है। विशेष योग में प्रशिक्षित व्यक्ति पुरोधा री शिक्षा प्राप्त कर सकै है। इण मांय आसन, प्राणायाम अर योग री विशेष शिक्षा दी जावै है।

प्राथमिक योग प्राप्त कर चुक्या मिनख मोक्ष मुक्ति भी प्राप्त कर सकै है। इण कारण शारीरिक अर मानसिक कारणां सूं मिनख उच्च अर उच्च योग शिक्षा प्राप्त नीं कर सकै। बांनै दुखी होबा री जरूरत कोनी है। शारीरिक अर मानसिक रूप सूं साधारण अर सहज योग सीखण में सक्षम लोग आलस, गैर जिम्मेदारी या किणी दूजा कारण सूं योग री उच्च प्रक्रिया नीं सीखै। वो खुद रै साथै अन्याय करै है अर जाणबूझर आपरी आध्यात्मिक यात्रा नै लांबी कर देवै है। यो योग मिनख रै जैव-धर्म रो दोषी है। मिनख पूर्णता प्राप्त करणो चावै है पण बो खुद नै पूर्णता सूं जाणबूझ’र दूर कर लेवै है। जिका लोगां रै कनै पर्याप्त बगत है अर वै पारिवारिक अर सांसारिक जिम्मेदारी रै साथै-साथै आध्यात्मिक जिम्मेदारी नै भी संभाळ सकै है, बांनै विशेष योग शिक्षा री जरूर लैवणी चावै। इणनै करबा सूं, यो किणी रै लक्ष्य नै जल्दी हासिल करण में मदद करै है अर इणरै माध्यम सूं कोई भी समाज री सेवा नै और ज्यादा आसानी, सहजता अर सूक्ष्मता सूं कर सकै है।
पितृ तर्पण की सर्वोच्च विधि -पितृयज्ञ (The highest method of offering to ancestors - Pitriyagya)


भारतवर्ष में इन दिनों श्राद्ध पक्ष चल रहा है। लोग नानाविध से पितृ तर्पण एवं श्राद्ध क्रिया करते हैं। इसे पितृ, मातृ, देव ऋण से मुक्ति के विकल्प एवं पितृ यज्ञ के रूप में देखा जाता है। *पितृ पुरुषों एवं देव ऋषियों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने का सर्वोत्तम तरीका पितृ यज्ञ है।* इससे पितृ पुरुषों एवं देव ऋषियों को को मुक्ति प्रदान होती है तथा अर्पण कर्ता का सारा भार हल्का हो जाता है। इसके अर्पण कर्ता द्वारा जो वस्तु जिसको को अर्पित करता है, वह उनकी मनवांक्षित वस्तु होती है तथा अर्पण की क्रिया सरल, सुगम, सुन्दर एवं सर्वोत्तम बन जाती है। हम पितृ पुरुषों एवं देव ऋषियों को क्या चाहिए, उनकी जानकारी नहीं रखते हैं। इसलिए पितृ यज्ञ, वह सरलतम एवं सर्वोत्तम उपाय है, जिसके माध्यम से उनको मनवांक्षित वस्तु प्रदान हो जाती है तथा वे इतने तृप्त हो जाते हैं कि वे अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। शास्त्रोक्त विधान के अनुसार पितृ यज्ञ में जिसमें सर्वप्रथम अर्पण क्रिया ब्रह्म बन जाती है। जिससे अर्पण विशुद्ध हो जाती है। उसमें किसी भी प्रकार त्रुटि रहने की संभावना नहीं रहती है। उसके बाद द्वितीय क्रम में जो अर्पित हो रहा होता है, वह ब्रह्म बन जाता है। जिससे सभी के मनवांक्षित वस्तु बन जाती है। यह अर्पण कर्ता एवं जिसको अथवा जिसमें अर्पण कर रहा है, उसके लिए कल्याणकारी बन जाता है। तृतीय क्रम में जिसमें अथवा जिसको अर्पित किया जा रहा है, वह ओब्जेक्ट्स ब्रह्म बन जाता है। अतः अर्पण कर्ता, अर्पण क्रिया का मूल उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। चतुर्थ क्रम में अर्पण कर्ता भी ब्रह्म बन जाता है। अतः अर्पण कर्ता सभी भार, बंधन एवं दायित्व से मुक्त हो जाता है। ताकि वह समय के शेष रहते सभी प्रकार के ब्रह्म कर्म का संपन्न कर ब्रह्म में विलीन हो जाता है। अर्थात सफल एवं सुफल जीवन जीने के बाद परमपद को प्राप्त करता है। 

पितृ यज्ञ करने की सरलतम विधि है। स्नान करने के बाद शरीर पोंछने से पूर्व सूर्य अथवा किसी ज्योतिष्मान वस्तु की ओर देखते हुए नियमानुसार मुद्रा में निम्नलिखित मंत्र का तीन बार उच्चारण करना होता है। 

पितृपुरुषेभ्यो नम: ऋषिदेवेभ्यो नम:।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम्
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।

मंत्रोच्चारण की सरलतम विधि

(१) हाथ जोड़कर आज्ञा चक्र त्रिकुटी को स्पर्श कर मंत्र प्रथम वाक्य पितृपुरुषेभ्यो नम: का उच्चारण करते हैं। 

(२) हाथ जोड़े हुए ही अनाहत चक्र सीने को स्पर्श करते हुए मंत्र का द्वितीय वाक्य ऋषिदेवेभ्यो नम: का उच्चारण करते है। 

(३) अनाहत चक्र सीने पर ही हाथों को नीचे से उपर की ओर दक्षिणावर्त घूमाते हुए मंत्र तृतीय अक्षर ब्रह्मार्पणं का उच्चारण करते हैं। 

(४) अनाहत चक्र सीने के समक्ष दक्षिणावर्त ही घूर्णन करते दोनों हाथों की मिलित हथेली को अथवा दोनों हाथों चुल्लू बनाते हुए मंत्र चतुर्थ अक्षर ब्रह्मह्विर (ब्रह्म+ह्+विर) का उच्चारण करते हैं। 

(५) इसके दोनों हाथों की मिलित हथेली को मणिपुर चक्र के समक्ष नीचे की ओर रख कर अर्थात पेट के नीचे रखते हुए मंत्र पांचवा अक्षर ब्रह्माग्णौ का उच्चारण करते हैं। 

(६) दोनों हाथों की मिलित हथेली को स्वाधिष्ठान चक्र के समक्ष नीचे की ओर फैलाते हुए अर्थात मेरुदंड के सामने रखकर मंत्र छठा अक्षर ब्रह्मणाहुतम् का उच्चारण करते हैं। 

(७) इसके हाथों शरीर से उपर सहस्त्रार चक की ओर उपर की ओर फैलाते हुए सामने की ओर खोलकर मंत्र का सातवां अक्षर ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं का उच्चारण करते हैं। 

(८) अंत में खुले हाथों शरीर के नीचे की ओर मूलाधार चक्र की ओर ले जाते हुए पीछे की ओर खोलकर मंत्र का आठवां एवं अन्तिम अक्षर ब्रह्मकर्मसमाधिना का उच्चारण करते हैं। 

इस प्रकार प्रतिदिन स्नान करने के बाद पितृ यज्ञ किया जाता है। 

यह पितृ पुरुषों एवं देव ऋषियों के प्रति सम्मान, कर्तव्य निर्वहन एवं श्रद्धा रखने का सर्वोत्तम तरीका है। 

आओ पितृ पुरुषों के अपने श्रद्धा को शास्त्राविधि के अनुसार, वैज्ञानिक तरीके से तथा प्राचीनतम, नवीनतम व आधुनिक परंपरा संगम के अनुसार करते हैं।