मैं आनन्द मार्गी हूँ (I am an Anand Margii)
                    भाग (1) 

यहाँ एक आध्यात्मिक-तार्किक चर्चा नाटक प्रस्तुत है:
 (_नाटककार - [श्री] आनन्द किरण "देव"_) 

पात्र:
 * *आनंद* : एक शांत, आध्यात्मिक व्यक्ति जो जीवन के गहरे अर्थों में विश्वास रखता है।
 * *किरण* : एक नास्तिक, तार्किक और शांत स्वभाव का व्यक्ति।

 _(दृश्य: एक शांत, आरामदायक जागृति कक्ष। आनंद और किरण बैठे हैं। बाहर हल्की बारिश हो रही है।)_ 

 *आनंद* : (मुस्कुराते हुए) तो किरण, आज का दिन कैसा रहा?

 *किरण* : (कुछ रखते हुए) हमेशा की तरह, तार्किक और वास्तविक। कोई खास बात नहीं। और तुम्हारा?

 *आनंद* : मेरा भी अच्छा रहा। मैंने आज सुबह ध्यान किया, मन को बहुत शांति मिली।

 *किरण* : (हल्की मुस्कान के साथ) ध्यान? मुझे अभी भी समझ नहीं आता कि लोग इस 'आध्यात्मिक' चीज़ में इतना समय क्यों लगाते हैं। मैं तो बस वही देखता हूँ जो सामने है, जिसे विज्ञान साबित कर सके।

 *आनंद* : मुझे पता है तुम ऐसा सोचते हो। लेकिन क्या तुमने कभी सोचा है कि कुछ चीजें ऐसी भी हो सकती हैं जिन्हें विज्ञान अभी तक पूरी तरह से समझा नहीं पाया है?

 *किरण* : हो सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे 'दैवीय' या 'आध्यात्मिक' हैं। बस इतना है कि हमने अभी तक उन्हें समझने का तरीका नहीं खोजा है। मेरे लिए, अगर मैं उसे देख या महसूस नहीं कर सकता, या अगर उसे साबित नहीं किया जा सकता, तो वह अस्तित्व में नहीं है। मैं नास्तिक हूँ, आनंद। और मैं इसमें शांति महसूस करता हूँ।

 *आनंद* : मुझे तुम्हारी बात समझ आती है। पर क्या तुम वास्तव में हर उस चीज़ पर विश्वास करते हो जिसे तुम 'देख' या 'महसूस' करते हो? उदाहरण के लिए, क्या तुमने कभी हवा देखी है?

 *किरण* : नहीं, लेकिन मैं उसे महसूस कर सकता हूँ, और उसके प्रभाव देख सकती हूँ। पेड़ हिलते हैं, कपड़े उड़ते हैं।

 *आनंद* : बिल्कुल। और क्या तुमने कभी गुरुत्वाकर्षण देखा है?

 *किरण* : नहीं, लेकिन इसका प्रभाव स्पष्ट है। सेब नीचे गिरता है, हम पृथ्वी पर टिके रहते हैं। यह एक सिद्ध वैज्ञानिक नियम है।

 *आनंद* : तो तुम ऐसी चीज़ों पर विश्वास करते हो जो अदृश्य हैं, लेकिन जिनके प्रभाव स्पष्ट हैं?

 *किरण* : हाँ, अगर उनके प्रभाव तार्किक रूप से सिद्ध किए जा सकें।

 *आनंद* : अच्छा। तो अब एक और बात बताओ। क्या तुमने कभी प्रेम देखा है? या करुणा? या खुशी?

 *किरण* : (थोड़ा रुककर) नहीं, इन्हें देखा नहीं जा सकता। ये भावनाएं हैं, जो हमारे दिमाग में उत्पन्न होती हैं।

 *आनंद* : बिल्कुल। ये भावनाएं हैं, और हम सब इन्हें महसूस करते हैं। इनका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है, इन्हें किसी लैब में पैदा नहीं किया जा सकता, लेकिन क्या तुम इनके अस्तित्व से इनकार करोगे? क्या तुम कहोगे कि प्रेम इसलिए मौजूद नहीं है क्योंकि हम उसे छू नहीं सकते या देख नहीं सकते?

 *किरण* : नहीं, मैं इनकार नहीं करूंगा। प्रेम निश्चित रूप से मौजूद है, और यह एक शक्तिशाली भावना है।

 *आनंद* : तो फिर, क्या यह संभव नहीं है कि कुछ ऐसी 'ऊर्जा' या 'शक्ति' हो, जिसे हम 'ईश्वर' या 'ब्रह्मांडीय चेतना' कहते हैं, जो अदृश्य हो, लेकिन जिसके प्रभाव हमारे जीवन में स्पष्ट रूप से दिखाई दें? जैसे, हमारे अंदर की अंतरात्मा की आवाज, जो हमें सही-गलत का बोध कराती है? या जीवन का क्रम, जो इतने व्यवस्थित तरीके से चल रहा है? या प्रकृति का सौंदर्य, जो हमें अचंभित करता है?

 *किरण* : (गंभीर होकर) अंतरात्मा की आवाज को नैतिक मूल्य कहा जा सकता है, जो समाज और परवरिश से बनते हैं। जीवन का क्रम बस विज्ञान के नियमों का पालन है, और प्रकृति का सौंदर्य सिर्फ रासायनिक और भौतिक प्रतिक्रियाएं हैं।

 *आनंद* : मैं मानता हूँ कि विज्ञान इन सभी चीजों को समझाने का प्रयास करता है, और कुछ हद तक करता भी है। लेकिन क्या तुमने कभी सोचा है कि ये नियम कहाँ से आए? ये प्रतिक्रियाएं क्यों हो रही हैं? क्या ये सब बस एक संयोग है? या इसके पीछे कोई बड़ी व्यवस्था है? जब तुम रात में आकाशगंगा को देखते हो, क्या तुम्हें लगता है कि यह सब सिर्फ एक यादृच्छिक घटना है? या कोई अदृश्य शक्ति है जो इस सब को नियंत्रित कर रही है?

 *किरण* : (खिड़की से बाहर देखते हुए, बारिश की बूंदों को निहारते हुए) यह एक विचारणीय प्रश्न है। मैंने कभी इस तरह से नहीं सोचा। मैं हमेशा विज्ञान और तर्क की सीमाओं में रहा हूँ।

 *आनंद* : और यह ठीक है। तर्क महत्वपूर्ण है। लेकिन क्या तर्क हमेशा सब कुछ समझा सकता है? जब तुम्हें बहुत दुःख होता है, और अचानक तुम्हें अंदर से एक ताकत महसूस होती है जो तुम्हें आगे बढ़ने में मदद करती है, तो क्या वह सिर्फ दिमाग की रासायनिक प्रक्रिया है? या कुछ और है? जब तुम किसी बड़े खतरे से बाल-बाल बचते हो, तो क्या वह सिर्फ 'किस्मत' है?

 *किरण* : (चुपचाप सुनता है, उसके चेहरे पर विचारशीलता के भाव हैं) तुम कहना चाहते हो कि कुछ चीजें ऐसी हैं जो हमारे तर्क से परे हैं, लेकिन वे फिर भी हमें प्रभावित करती हैं?

 *आनंद* : बिल्कुल। जैसे हवा और गुरुत्वाकर्षण। हम उन्हें देख नहीं सकते, लेकिन उनके प्रभाव महसूस करते हैं। उसी तरह, 'आध्यात्मिक' पहलू भी ऐसा ही हो सकता है। यह सिर्फ पूजा-पाठ या धार्मिक रीति-रिवाज नहीं है, बल्कि यह जीवन के गहरे अर्थ को खोजने और उससे जुड़ने की बात है। यह तुम्हारे अंदर की उस असीम क्षमता को महसूस करने की बात है, जो तुम्हें जीवन में संतुलन और शांति देती है।

 *किरण* : (धीरे से सिर हिलाते है) तो तुम कह रहे हो कि नास्तिक होना भी ठीक है, लेकिन जीवन में कुछ ऐसी चीजें हैं जो सिर्फ भौतिक नहीं हैं?

 *आनंद* : मैं सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि जिस तरह तुमने अदृश्य हवा और गुरुत्वाकर्षण के अस्तित्व को उनके प्रभावों के आधार पर स्वीकार किया, क्या तुम जीवन में उन अनुभवों को भी उसी तरह स्वीकार नहीं कर सकते, जो तुम्हें प्रेरणा देते हैं, आशा देते हैं, और तुम्हें अर्थ महसूस कराते हैं, भले ही तुम उन्हें सीधे देख न पाओ? क्या तुम उन अनुभवों को 'आध्यात्मिक' नहीं कह सकते?

 *किरण* : (एक गहरी सांस लेते है, उसके चेहरे पर एक अलग तरह की शांति दिखाई देती है) शायद मैं बहुत सीमित सोच रहा था। मैं हमेशा 'अस्तित्व' को सिर्फ 'भौतिक' रूप में देखता था। लेकिन भावनाओं, प्रेरणा, और जीवन के कुछ अनुभवों को इस तरह से समझाया नहीं जा सकता। शायद तुम सही हो, आनंद। शायद कुछ 'अदृश्य' है जो हमारे जीवन को अर्थ देता है। शायद यह सिर्फ तर्क से परे है।

 *आनंद* : (मुस्कुराते हुए) और यही वह जगह है जहाँ 'विश्वास' आता है। यह अंधविश्वास नहीं है, बल्कि यह इस बात पर भरोसा है कि जीवन में कुछ ऐसा है जो हमें एक बड़ी तस्वीर का हिस्सा बनाता है, हमें उद्देश्य देता है। यह जानने की बात है कि हम अकेले नहीं हैं, और इस ब्रह्मांड में एक गहरा संबंध है।

 *किरण* : (आनंद की ओर देखता है, उसकी आँखों में एक नई चमक है) मैं नास्तिक था, और मैं तर्क पर चलता था। लेकिन तुमने मुझे सोचने का एक नया तरीका दिया है। तुमने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि शायद कुछ और भी है, कुछ ऐसा जिसे मैं महसूस कर सकता हूँ, भले ही मैं उसे देख न सकूँ। शायद नास्तिक होना केवल भौतिकवादी होना नहीं है। शायद यह बस यह मानने की अनिच्छा है कि कुछ अदृश्य है। लेकिन अगर अदृश्य का प्रभाव इतना स्पष्ट है...

 *आनंद* : (धीरे से) तो उसे स्वीकार करने में क्या हर्ज है? यह तुम्हें कमजोर नहीं, बल्कि और समृद्ध बनाएगा। यह तुम्हें जीवन को एक अलग दृष्टिकोण से देखने की क्षमता देगा।

 *किरण* : (एक पल के लिए आंखें बंद करता है, फिर उन्हें खोलता है) मुझे लगता है कि मैंने आज कुछ नया सीखा है। मैं अभी भी पूरी तरह से 'आस्तिक' नहीं हूँ, लेकिन मैंने 'संभावना' के लिए अपना दिमाग खोल लिया है। और शायद, यही पहला कदम है।

 *आनंद* : (प्यार से) और यह एक बहुत बड़ा कदम है, किरण।

 _(किरण मुस्कुराता है, उसकी मुस्कान में एक नई समझ और शांति है। आनंद भी मुस्कुराता है। बाहर बारिश रुक जाती है, और सूरज की किरणें खिड़की से अंदर आती हैं।)_

                  भाग (2) 

(एक तार्किक आध्यात्मिक चर्चा) 

[श्री] आनन्द किरण "देव"

पात्र:
 * आनंद: एक महान आध्यात्मिक पुरुष, शांत और ज्ञानी।
 * किरण: एक जिज्ञासु, जिसने हाल ही में आस्तिकता अपनाई है।

(दृश्य: एक शांत बगीचा। आनंद एक बेंच पर बैठे हैं, ध्यानमग्न। किरण उनके पास आकर बैठता है।)

 *किरण* : (विनम्रता से) नमस्कार, दादा।

 *आनंद* : (आँखें खोलते हुए, मुस्कान के साथ) नमस्कार‌ किरण। कैसे हो?

 *किरण* : मैं ठीक हूँ, दादा। बस... कुछ प्रश्न हैं जो मन में घूम रहे हैं। जैसा कि आप जानते हैं, मैं हाल ही में आस्तिक बना हूँ। मन्दिर में जाता हूँ, पूजा-पाठ करता हूँ, भगवान में मेरी श्रद्धा बढ़ी है। पर कभी-कभी लगता है कि क्या बस इतना ही पर्याप्त है?

 *आनंद* : (शांत भाव से) बहुत अच्छा प्रश्न है, किरण। तुम्हारी यह जिज्ञासा ही तुम्हें आगे ले जाएगी। बताओ, तुम्हें क्या लगता है, 'आस्तिक' होने का क्या अर्थ है?

 *किरण* : मेरे लिए, आस्तिक होने का मतलब है किसी एक परम शक्ति में विश्वास करना, जो इस सृष्टि का निर्माता और संचालक है। उसकी पूजा करना, उसके प्रति श्रद्धा रखना, और यह मानना कि वह हमारी रक्षा करता है।

 *आनंद* : बिल्कुल सही कहा तुमने। यह आस्तिकता की पहली सीढ़ी है। यह मन को स्थिरता देती है, आशा जगाती है। पर क्या तुमने कभी सोचा है कि जिस परम शक्ति में तुम विश्वास करते हो, उसका अनुभव कैसे किया जाए?

 *किरण* : अनुभव? मतलब, मैंने तो कभी भगवान को देखा नहीं, बस महसूस करता हूँ कि वे हैं। यही तो विश्वास है।

 *आनंद* : हाँ, यह विश्वास है। लेकिन आध्यात्मिकता इससे कहीं आगे है। आध्यात्मिकता का अर्थ है उस परम शक्ति को अपने भीतर खोजना। उसे केवल बाहर मंदिरों में नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व के कण-कण में अनुभव करना।

 *किरण* : अपने भीतर? यह कैसे संभव है, दादा? मुझे तो लगता है कि भगवान कहीं दूर स्वर्ग में रहते हैं।

 *आनंद* : (हँसते हुए) स्वर्ग कहाँ है, किरण? क्या यह कोई भौगोलिक स्थान है? या यह मन की एक अवस्था है? जब तुम शांत होते हो, जब तुम्हारे भीतर कोई द्वेष नहीं होता, जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तो क्या तुम्हें स्वर्ग का अनुभव नहीं होता?

 *किरण* : (सोचते हुए) हाँ, जब मैं दूसरों की मदद करता हूँ या जब मैं प्रकृति की सुंदरता देखता हूँ, तो एक अजीब सी शांति मिलती है। क्या वही आध्यात्मिक अनुभव है?

 *आनंद* : वह उसका एक छोटा सा हिस्सा है। आस्तिकता तुम्हें एक बाहरी भगवान से जोड़ती है। तुम उसकी पूजा करते हो, उससे प्रार्थना करते हो। आध्यात्मिकता तुम्हें स्वयं से जोड़ती है, तुम्हारे भीतर के ब्रह्मांड से। जब तुम क्रोध करते हो, तो क्या तुम भगवान को प्रसन्न कर सकते हो? जब तुम ईर्ष्या करते हो, तो क्या तुम्हें शांति मिल सकती है?

 *किरण* : नहीं, बिल्कुल नहीं।

 *आनंद* : तो फिर उस परम शक्ति को प्रसन्न करने का वास्तविक अर्थ क्या हुआ? क्या वह केवल तुम्हारी बाहरी पूजा-पाठ से प्रसन्न होगी, या तुम्हारे आंतरिक शुद्धिकरण से? आध्यात्मिकता तुम्हें सिखाती है कि तुम अपने कर्मों के लिए स्वयं जिम्मेदार हो, और तुम्हारे भीतर ही वह शक्ति है जो तुम्हें सही राह दिखा सकती है।

 *किरण* : तो क्या आस्तिकता एक बाधा है? 

 *आनंद* : नहीं, बिल्कुल नहीं। आस्तिकता एक नींव है, एक शुरुआत है। यह तुम्हें अनुशासन सिखाती है, श्रद्धा विकसित करती है। लेकिन तुम्हें उस नींव पर एक भव्य इमारत खड़ी करनी है - आध्यात्मिकता की इमारत। जैसे कोई बच्चा पहले अक्षर सीखता है, फिर शब्द, फिर वाक्य, और अंत में साहित्य का ज्ञान प्राप्त करता है। आस्तिकता अक्षर सीखने जैसी है, और आध्यात्मिकता साहित्य को समझने जैसी।

 *किरण* : तो आध्यात्मिक बनने के लिए मुझे क्या करना होगा?

 *आनंद* : तुम्हें अपने भीतर देखना होगा। अपने विचारों को समझना होगा, अपनी भावनाओं को पहचानना होगा। ध्यान करो। परमपुरुष के साथ समय बिताओ। दूसरों के प्रति करुणा और प्रेम रखो। अपनी स्वार्थपरता को कम करो। जब तुम अपने भीतर से शुद्ध होगे, तब तुम अनुभव करोगे कि जिस परम शक्ति को तुम बाहर खोज रहे थे, वह तो तुम्हारे ही भीतर निवास करती है।

 *किरण* : (एक गहरी साँस लेते हुए) यह तो बहुत गहरा है, दादा। मुझे लगता था कि आस्तिक होना ही सब कुछ है। पर अब समझ में आ रहा है कि यह तो बस एक शुरुआत है।

 *आनंद* : हाँ, यह शुरुआत है। और यह यात्रा बहुत सुंदर है। यह तुम्हें केवल भगवान से ही नहीं, बल्कि स्वयं से भी मिलाएगी। जब तुम अपने भीतर की दिव्यता को पहचान लोगे, तब तुम सचमुच 'मैं आस्तिक हूँ' से 'मैं ही वह हूँ' की ओर बढ़ोगे।

 *किरण* : (उत्साहित होकर) मैं इस यात्रा पर चलने के लिए तैयार हूँ, दादा। आपके मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद।

 *आनंद* : मेरी शुभेच्छा हमेशा तुम्हारे साथ है, किरण। बस याद रखना, असली मंदिर तुम्हारे भीतर है, और असली पूजा तुम्हारे मन की शुद्धि है।

(आनंद मुस्कुराते हैं, किरण भी मुस्कुराता है। दोनों कुछ देर शांत बैठे रहते हैं, मानो नए विचारों को आत्मसात कर रहे हों।)

                 भाग (3) 

`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`

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     (एक आध्यात्मिक तार्किक चर्चा) 

**पात्र:**

* *आनन्द:* उच्च आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त व्यक्ति, जो उच्च कोटि का भक्त शिरोमणि है।
* *किरण:* एक जिज्ञासु जो अभी-अभी आध्यात्मिक बना है तथा भक्ति को जानना चाहता है।

*दृश्य:* एक शांत, प्राकृतिक वातावरण जहाँ एक पेड़ के नीचे आनंद बैठा है। किरण उसके पास आता है।

*(पर्दा उठता है)*

**किरण:** (विनम्रता से) नमस्कार, दादा जी।

*आनन्द:* (मुस्कुराते हुए) नमस्कार, किरण। आओ, बैठो।

*किरण:* मैं आजकल आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर हूँ, और मैंने काफी कुछ पढ़ा है। ध्यान, योग, आत्म-ज्ञान... यह सब मुझे बहुत आकर्षित करता है। लेकिन एक बात है जो मुझे उलझन में डालती है।

*आनन्द:* कौन सी बात?

*किरण:* आप उच्च आध्यात्मिक उपलब्धि प्राप्त व्यक्ति हैं। आप घंटों ध्यान करते हैं, आपने गहन सत्य का अनुभव किया है। लेकिन फिर भी, लोग आपको एक भक्त कहते हैं। आप जागृति में जाते हैं, कीर्तन करते हैं... मुझे यह समझ नहीं आता। यदि कोई आत्म-ज्ञानी है, तो उसे भक्ति की क्या आवश्यकता है? क्या भक्ति निचले स्तर की चीज़ नहीं है, उन लोगों के लिए जो अभी आध्यात्मिक मार्ग पर चलना सीख रहे हैं?

*आनन्द:* (शांत और गंभीर स्वर में) तुम्हारा प्रश्न बहुत स्वाभाविक है, किरण। अक्सर लोग आध्यात्मिकता और भक्ति को दो अलग-अलग रास्तों के रूप में देखते हैं। कुछ मानते हैं कि आध्यात्मिकता का अर्थ है स्वयं को जानना, और भक्ति का अर्थ है किसी बाहरी शक्ति की पूजा करना।

*किरण:* हाँ, बिलकुल! मैं भी ऐसा ही सोचता हूँ। जब मैंने पहली बार आध्यात्मिकता को समझा, तो मुझे लगा कि यह सब 'मैं' के बारे में है - 'मैं कौन हूँ', 'मेरी वास्तविकता क्या है'। इसमें किसी ईश्वर की क्या भूमिका?

*आनन्द:* तुम्हारी सोच गलत नहीं है। आध्यात्मिकता का प्रारंभिक चरण वास्तव में आत्म-ज्ञान की ओर ले जाता है। तुम अपनी भीतर की शांति को खोजते हो, अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण पाते हो। यह सब आवश्यक है। लेकिन सोचो, किरण, जब तुम गहन ध्यान में होते हो, तो तुम्हें क्या अनुभव होता है?

*किरण:* एक असीम शांति, एक विस्तार का एहसास... कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे मेरा अस्तित्व इस शरीर से भी परे है।

*आनन्द:* बिल्कुल! और यह विस्तार तुम्हें किस ओर ले जाता है? क्या यह तुम्हें अकेला महसूस कराता है, या तुम्हें भूमा सत्ता के साथ एकात्म होने का अनुभव होता है?

*किरण:* एकात्म होने का। ऐसा लगता है जैसे मैं इस भूमा सत्ता का एक हिस्सा हूँ, उससे जुड़ा हुआ हूँ।

*आनन्द:* यही वह मोड़ है, किरण, जहाँ आध्यात्मिकता भक्ति में परिवर्तित होने लगती है। जब तुम अपनी आंतरिक यात्रा में इतनी गहराई तक जाते हो कि तुम्हें यह अनुभव हो जाता है कि तुम केवल एक अलग इकाई नहीं हो, बल्कि उस विराट चेतना का ही एक अंश हो जिसने इस पूरे ब्रह्मांड की रचना की है - तब क्या होता है?

*किरण:* (विचार करते हुए) तब... तब उस चेतना के प्रति एक कृतज्ञता का भाव उत्पन्न होता है? एक प्रेम का?

*आनन्द:* ठीक कहा! वह कृतज्ञता, वह प्रेम, वही भक्ति का आधार है। जब तुम्हें यह स्पष्ट हो जाता है कि तुम्हारी स्वयं की चेतना और उस परम चेतना में कोई भेद नहीं है, तो तुम उस परम चेतना को प्रेम करने लगते हो। तुम उसके प्रति समर्पित हो जाते हो, क्योंकि तुम जानते हो कि तुम उससे अलग नहीं हो। यह भक्ति किसी डर से नहीं उपजती, बल्कि प्रेम और गहन समझ से उत्पन्न होती है।

*किरण:* तो आप कहना चाहते हैं कि आध्यात्मिकता एक नदी की तरह है, और भक्ति उसका महासागर?

*आनन्द:* बहुत सुंदर उपमा दी तुमने! आध्यात्मिकता तुम्हें उस नदी के स्रोत तक ले जाती है, जहाँ से तुम बहना शुरू करते हो। लेकिन जब तुम नदी के अंतिम पड़ाव पर पहुँचते हो, तो तुम पाते हो कि वह नदी अंततः महासागर में समाहित हो जाती है। वही महासागर भक्ति है – जहाँ तुम्हारा व्यक्तिगत अस्तित्व उस विराट परम अस्तित्व में विलीन हो जाता है।

*किरण:* तो फिर, जागृति जाना, कीर्तन करना... यह सब क्या है? क्या यह सिर्फ बाहरी कर्मकांड नहीं?

*आनन्द:* बाहरी कर्मकांड हो सकते हैं, यदि उन्हें बिना समझ के किया जाए। लेकिन एक ज्ञानी भक्त के लिए, ये सब उसके प्रेम और समर्पण की अभिव्यक्ति हैं। जब तुम उस परम शक्ति के साथ एकात्मता अनुभव करते हो, तो तुम्हें उसके गुणों का गायन करने में आनंद आता है। उसकी महिमा का बखान करने में तुम्हें संतोष मिलता है। जागृति एक प्रतीक है, कीर्तन एक माध्यम है – ये सब उस आंतरिक प्रेम को व्यक्त करने के तरीके हैं। ये बंधन नहीं, बल्कि मुक्ति का मार्ग हैं।

*किरण:* मैं समझ रहा हूँ। तो एक उच्च आध्यात्मिक व्यक्ति भक्ति से दूर नहीं होता, बल्कि उसकी आध्यात्मिकता ही उसे भक्ति की ओर ले जाती है?

*आनन्द:* बिलकुल! भक्ति आध्यात्मिकता की परिणति है, उसकी अंतिम मंजिल। जब तुम उस परम सत्य को जान लेते हो, तो तुम उससे प्रेम किए बिना नहीं रह सकते। और जब तुम प्रेम करते हो, तो तुम भक्ति करते हो। यह भक्ति कोई मजबूरी नहीं, बल्कि एक सहज प्रवाह है – ठीक वैसे ही जैसे नदी का सागर की ओर बहना। मैं आध्यात्मिक व्यक्ति हूँ, और मेरी आध्यात्मिकता ही मुझे भक्त बनाती है। मैं उस परम चेतना में विलीन हो चुका हूँ, और उसी प्रेम में डूबा हुआ हूँ।

*किरण:* (आँखों में चमक के साथ) दादा जी, आपने मेरी बहुत बड़ी उलझन सुलझा दी। अब मुझे समझ आ रहा है कि आध्यात्मिकता और भक्ति अलग-अलग नहीं, बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक यात्रा है, और दूसरी उस यात्रा का परिणाम।

*आनन्द:* (मुस्कुराते हुए) यह यात्रा अनवरत है, किरण। जब तुम इस सत्य को हृदय से स्वीकार कर लेते हो, तो तुम्हारा जीवन ही एक भक्ति बन जाता है। अब आओ, और अपनी आध्यात्मिक यात्रा में इस नए दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ो।

*किरण:* मैं अवश्य आऊँगा, दादा जी। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

*(किरण, कृतज्ञतापूर्वक नमस्कार करता है और आनन्द मुस्कुराते हुए उसे देखता एवं प्रति नमस्कार करता है।)*

*(पर्दा गिरता है)*

              भाग (4) 

`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`

                  *मैं भक्त हूँ*
       (आध्यात्मिक-तार्किक चर्चा) 

पात्र:
 * आनन्द: धर्मनिष्ठ भक्त एवं उच्च आध्यात्मिक संपन्न पुरुष
 * किरण: एक जिज्ञासु जो अभी-अभी भक्त बना है

(मंच पर एक शांत वातावरण है, शायद एक आश्रम का आंगन में एक बगीचा। आनन्द एक आसन पर बैठे हुए हैं, आँखें बंद किए हुए। किरण उनके पास आकर बैठता है, कुछ उत्सुक और कुछ बेचैन।)

 *किरण* : (धीरे से) नमस्कार दादा जी, क्या मैं आपको थोड़ा परेशान कर सकता हूँ?

 *आनन्द* : (आँखें खोलते हुए, मुस्कान के साथ) अरे किरण, नमस्कार, परेशान क्यों? तुम तो मेरे अपने हो। कहो, क्या बात है?

 *किरण* : दादा जी, मैं अभी नया-नया ही भक्ति मार्ग पर चला हूँ। बहुत शांति मिलती है, मन हल्का होता है। लेकिन एक बात है जो मुझे अक्सर परेशान करती है।

 *आनन्द* : कौन सी बात, मेरे मित्र?

 *किरण* : यह कि क्या भक्ति का अर्थ केवल साधना, भजन-कीर्तन और ध्यान ही है? क्या हमें अपने बाकी के दायित्वों अथवा धर्म से मुंह मोड़ लेना चाहिए?

 *आनन्द* : (हंसते हुए) अच्छा! तुम्हें लगता है कि भक्ति हमें दायित्व अथवा धर्महीन बनाती है?

 *किरण* : कुछ ऐसा ही लगता है। मैंने कई लोगों को देखा है, जो भक्ति के नाम पर अपने परिवार, अपने काम, अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से दूर हो जाते हैं। वे कहते हैं, "हमें तो बस भगवान की भक्ति करनी है, बाकी सब मोह-माया है।" क्या यह सही है?

 *आनन्द* : तुम्हारे प्रश्न में बहुत गहराई है, किरण। यह प्रश्न हर उस व्यक्ति के मन में आता है जो भक्ति के मार्ग पर चलता है। देखो, भक्ति का अर्थ पलायन नहीं है, बल्कि जीवन में और अधिक सार्थकता लाना है।

 *किरण* : सार्थकता? पर कैसे?

 *आनन्द* : सोचो, जब तुम भगवान से प्रेम करते हो, तो तुम उनके बनाए हुए संसार से भी प्रेम करोगे, है ना? यह संसार उनका ही रूप है। और इस संसार में तुम्हारा क्या स्थान है? तुम एक पुत्र हो, एक पिता हो सकते हो, एक कर्मचारी हो, एक नागरिक हो। ये सब तुम्हारे धर्म हैं।

 *किरण* : धर्म? आप दायित्वों की बात कर रहे हैं?

 *आनन्द* : बिल्कुल! धर्म का अर्थ केवल पूजा-पाठ नहीं है, बल्कि अपने कर्तव्यों का ईमानदारी और निष्ठा से पालन करना है। जब तुम अपने परिवार के प्रति, अपने काम के प्रति, अपने समाज के प्रति अपने धर्म का पालन करते हो, तो तुम वास्तव में भगवान की ही सेवा कर रहे होते हो।

 *किरण* : यह कैसे? मुझे समझ नहीं आया।

 *आनन्द* : जब तुम अपने माता-पिता की सेवा करते हो, क्या वह भक्ति नहीं है? जब तुम अपने बच्चों को सही संस्कार देते हो, क्या वह ईश्वर के प्रति तुम्हारा आभार नहीं है? जब तुम अपने काम को पूरी लगन से करते हो, बिना किसी बेईमानी के, क्या वह तुम्हारे भीतर की ईमानदारी नहीं है, जो ईश्वर का ही अंश है?

 *किरण* : पर भक्ति में तो मन भगवान में लीन होता है। अगर मैं अपने दायित्वों में लगा रहूंगा, तो मेरा मन कैसे भगवान में लगेगा?

 *आनन्द* : यही तो असली भक्ति है, किरण! अपने दायित्वों को निभाते हुए भी भगवान को न भूलना। इसे ऐसे समझो, तुम एक पेड़ को पानी देते हो। पानी देना तुम्हारा कर्म है। लेकिन अगर तुम यह सोचकर पानी देते हो कि यह भगवान की ही सृष्टि है, और यह कर्म तुम भगवान को अर्पित कर रहे हो, तो वही कर्म भक्ति बन जाता है।

 *किरण* : तो, कर्म को भक्ति का रूप देना है। 

 *आनन्द* : ठीक समझे! गीता में भगवान कृष्ण ने यही तो कहा है, "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" अपने कर्मों पर तुम्हारा अधिकार है, फल पर नहीं। जब तुम अपने कर्तव्यों का पालन करते हो, फल की चिंता छोड़ देते हो, और उस कर्म को ईश्वर को समर्पित कर देते हो, वही सच्ची भक्ति है। तुम्हारा हर कार्य एक भक्ति बन जाता है।

 *किरण* : तो क्या भक्त को समाज से कटा हुआ नहीं रहना चाहिए?

 *आनन्द* : कदापि नहीं! सच्चा भक्त तो समाज का सबसे उपयोगी सदस्य होता है। वह अपनी जिम्मेदारियों से भागता नहीं, बल्कि उन्हें और भी अधिक निष्ठा से निभाता है। क्योंकि वह जानता है कि उसके कर्मों का प्रभाव केवल उस पर ही नहीं, बल्कि उसके आसपास के लोगों पर भी पड़ेगा, और अंततः यह सब भगवान को ही अर्पित होगा। एक भक्त का जीवन दूसरों के लिए प्रेरणा बनता है।

 *किरण* : मैं समझ रहा हूँ आनन्द जी। तो भक्ति हमें कमजोर नहीं, बल्कि और अधिक शक्तिशाली बनाती है, ताकि हम अपने धर्म का पालन कर सकें?

 *आनन्द* : बिल्कुल! भक्ति तुम्हें आंतरिक शक्ति देती है, विवेक देती है, और संतुलन देती है। यह तुम्हें सिखाती है कि कैसे जीवन के उतार-चढ़ावों में भी शांत और स्थिर रहा जाए। यह तुम्हें सिखाती है कि कैसे अपने दायित्वों को बोझ न मानकर, एक सेवा के रूप में स्वीकार किया जाए।

 *किरण* : (एक गहरी सांस लेता हुआ) अब मेरे मन की उलझन दूर हुई है दादा जी। मैं पहले सोचता था कि भक्त बनने के लिए मुझे सब कुछ छोड़ना होगा, पर अब मैं समझ गया कि मुझे सब कुछ स्वीकार करके उसे ईश्वर को समर्पित करना होगा।

 *आनन्द* : यही तो जीवन का सौंदर्य है, किरण। भक्ति और धर्म एक-दूसरे के पूरक हैं। धर्म के बिना भक्ति अधूरी है, और भक्ति के बिना धर्म नीरस। जब तुम इन दोनों को एक साथ जीते हो, तभी तुम्हें सच्ची शांति और आनंद मिलता है।

 *किरण* : धन्यवाद दादा जी। आपने मेरी आँखें खोल दीं। अब मैं समझ गया कि एक सच्चा भक्त वही है जो अपनी भक्ति के साथ अपने धर्म का भी पूर्ण रूप से पालन करता है।

 *आनन्द* : (किरण के कंधे पर हाथ रखते हुए, मुस्कान के साथ) शाबाश, किरण! अब तुम सही मार्ग पर हो। याद रखना, तुम भक्त हो, और यह तुम्हारा परम धर्म है कि तुम अपने हर दायित्व को ईश्वर का ही कार्य मानकर करो।

(आनन्द और किरण दोनों मुस्कुराते हैं। मंच पर शांति छा जाती है।)

पर्दा गिर जाता है

                 भाग (5) 

`एकांकीकार - [श्री] आनन्द किरण "देव"`

(आध्यात्मिक और तार्किक चर्चा) 
(धर्म का आचरण करने वाला) 

 *पात्र* :
 * *आनन्द* : एक धर्म का आचरण करने वाले आध्यात्मिक नैतिकवान पुरुष
 * *किरण* : एक जिज्ञासु भक्त जिसने अभी-अभी धर्म पालन का संकल्प लिया है।

 *दृश्य* : एक शांत उपवन। आनन्द एक पेड़ के नीचे ध्यानमग्न बैठे हैं। किरण उनके पास आकर बैठ जाता है।

        (पर्दा उठता है)

 *किरण* : (विनम्रता से) नमस्कार, दादा।

 *आनन्द* : (आँखें खोलते हुए, मुस्कान के साथ) नमस्कार किरण। कैसे हो? आज मन कुछ अशांत लग रहा है?

 *किरण* : आपने सही पहचाना, दादा। मैंने हाल ही में धर्म पथ पर चलने का संकल्प लिया है, लेकिन कुछ प्रश्न मेरे मन में उठ रहे हैं।

 *आनन्द* : अवश्य पूछो, जिज्ञासा ही ज्ञान का द्वार खोलती है।

 *किरण* : दादा, मैं देखता हूँ कि बहुत से लोग खुद को धर्म का आचरण करने वाला कहते हैं, खुब साधना करते हैं, दायित्व पालन करते, प्रवचन भी बड़े-बड़े करते हैं, लेकिन उनके व्यवहार में नैतिकता की कमी दिखती है। फिर यह धर्म के आचरण का क्या अर्थ है? 

 *आनन्द* : बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है, किरण। यह केवल पूजा या बाहरी दिखावे तक सीमित नहीं है। सच्ची धर्मनिष्ठा का अर्थ है स्वयं को जानना और अपने दायित्वों का निर्वहन करना, जिसमें नैतिकता एक अटूट हिस्सा है। यदि कोई व्यक्ति धर्मनिष्ठ होने का दावा करता है, लेकिन उसके कर्मों में शुद्धता और नैतिक मूल्यों का अभाव है, तो उसकी धर्मनिष्ठा खोखली है।

 *किरण* : लेकिन क्यों, दादा? भगवान तो सबका भला करते हैं, क्या वे ऐसे व्यक्ति को भी स्वीकार नहीं करेंगे?

 *आनन्द* : स्वीकार करने और स्वीकार्यता पाने में अंतर है, किरण। ईश्वर करुणा के सागर हैं, वे सभी पर कृपा करते हैं। लेकिन आध्यात्मिक उन्नति और आत्मिक शांति तभी प्राप्त होती है जब हमारा मन, वचन और कर्म शुद्ध हों। नैतिकता ही वह नींव है जिस पर सच्ची आध्यात्मिकता की इमारत खड़ी होती है।

 *किरण* : क्या आप इसे और स्पष्ट कर सकते हैं? नैतिकता का पालन करने से क्या लाभ होता है?

 *आनन्द* : अवश्य। हमारे प्राचीन ग्रंथों में, विशेषकर योग दर्शन में, यम और नियम का विस्तृत वर्णन है। ये नैतिक आचरण के मूलभूत सिद्धांत हैं जो हमें एक संतुलित और आध्यात्मिक जीवन जीने में मदद करते हैं। आधुनिक युग में तो यम-नियम, जीवन वेद के रूप में आये है। 

 *किरण* : यम और नियम? मैंने इनके बारे में सुना तो है, पर गहराई से नहीं जानता।

 *आनन्द* : यम वे सार्वभौमिक नैतिक नियम हैं जिनका हमें दूसरों के प्रति पालन करना चाहिए। ये पाँच हैं:
 * (१) *अहिंसा* : मन, वचन और कर्म से किसी को भी हानि न पहुँचाना तथा ऐसा भाव भी नहीं रखना। यदि हम किसी के प्रति हिंसा का भाव रखते हैं, तो हमारा मन अशांत रहेगा और हम कभी भी सच्ची शांति का अनुभव नहीं कर पाएंगे। 
 (२) *सत्य* : हमेशा सच बोलना, लेकिन ऐसा सच जो किसी को चोट न पहुँचाए। इसलिए सत्य परहित में बोले गए शब्द को कहते हैं।‌ सत्य बोलने से मन में स्थिरता आती है और आत्मविश्वास बढ़ता है।
 * (३) *अस्तेय* : चोरी न करना। यह केवल वस्तुओं की चोरी नहीं है, बल्कि किसी के अधिकार या श्रम का अनुचित लाभ उठाना भी है। इसका भाव भी मन में नहीं आने देना ही अस्तेय का सही अर्थ में पालन है। जब हम अस्तेय का पालन करते हैं, तो हमारे अंदर संतोष का भाव बढ़ता है।
 * (४) *ब्रह्मचर्य* : ब्रह्म में मन को रत रखना।‌ इसका अर्थ यौन संयम नहीं है, बल्कि अपनी ऊर्जा को सही दिशा में लगाना भी है। इससे हमारी एकाग्रता और संकल्प शक्ति बढ़ती है।
 * (५) *अपरिग्रह* : आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना। संग्रह से मोह उत्पन्न होता है और मोह दुख का कारण बनता है। अपरिग्रह से व्यक्ति हल्का महसूस करता है और उसकी आसक्ति कम होती है।

 *आनन्द* : और नियम वे व्यक्तिगत अनुशासन हैं जिनका हमें स्वयं के प्रति पालन करना चाहिए। ये भी पाँच हैं:
 * (१) *शौच* : शारीरिक और मानसिक शुद्धता। शरीर को स्वच्छ रखना और मन में शुद्ध विचार लाना। शुद्ध मन ही साधना के लिए अनुकूल होता है।
 * (२) *संतोष* : बिना मांगे जो कुछ भी हमारे पास है, उसमें संतुष्ट रहना। संतोष से लोभ और ईर्ष्या समाप्त होती है और हम वर्तमान में जीना सीखते हैं।
 * (३) *तप* : परहित के लिए स्वेच्छा से कष्ट सहना। यह इंद्रियों पर नियंत्रण पाने और इच्छाशक्ति को मजबूत करने में मदद करता है।
 * (४) *स्वाध्याय* : आत्म-अध्ययन और अर्थ जानकर धर्म ग्रंथों का अध्ययन करना। इससे हमें ज्ञान प्राप्त होता है और हम अपने जीवन के उद्देश्य को समझते हैं।
 *(५) *ईश्वर प्रणिधान* : ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। अपने सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित करना और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना। यह अहंकार को कम करता है और हमें विनम्र बनाता है।

 *किरण* : (सोचते हुए) ओह, तो ये यम और नियम ही सच्ची नैतिकता की आधारशिला हैं! मैं समझ रहा हूँ कि जब हम इनका पालन करते हैं, तो हमारा मन शुद्ध होता है, हम दूसरों के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं, और स्वयं भी अधिक शांति और संतोष का अनुभव करते हैं।

 *आनन्द* : बिल्कुल! जब हम इन नैतिक सिद्धांतों का पालन करते हैं, तो हमारा चित्त शांत होता है। यह शांत चित्त ही हमें ध्यान और साधना में गहराई तक जाने में मदद करता है। यदि हमारा मन अशांत है, क्रोध, लोभ या ईर्ष्या से भरा है, तो हम कभी भी ईश्वर के करीब नहीं पहुँच सकते। ईश्वर तो प्रेम, शांति और करुणा का स्वरूप है।

 *किरण* : तो क्या इसका मतलब यह है कि धर्म का अनुसरण करने वाले को आध्यात्मिक नैतिकवान होना जरूरी है?

 *आनन्द* : हाँ। यह एक दूसरे के पूरक हैं, किरण। नैतिकता आध्यात्मिकता का मार्ग प्रशस्त करती है, और आध्यात्मिकता नैतिकता को मजबूत करती है। एक सच्चा भक्त केवल साधना ही नहीं करता, बल्कि अपने हर कर्म में ब्रह्म को देखता है। वह जानता है कि ब्रह्म कण-कण में व्याप्त हैं, और इसलिए किसी भी जीव को कष्ट पहुँचाना ईश्वर को ही कष्ट पहुँचाना है।

 *किरण* : (आँखों में चमक के साथ) अब मुझे स्पष्ट हो रहा है, दादा। धर्म का अनुसरण केवल बाहरी प्रदर्शन नहीं है, बल्कि आंतरिक परिवर्तन है। मुझे समझ आ गया है कि एक सच्चे भक्त के लिए नैतिकता का पालन करना क्यों अनिवार्य है। यह हमारे स्वयं के विकास और आध्यात्मिक यात्रा के लिए आवश्यक है। मैं इन यम-नियमों को अपने जीवन में उतारने का पूरा प्रयास करूंगा।

 *आनन्द* : यही तो है, किरण। जब तुम इन सिद्धांतों का पालन करोगे, तो तुम्हें स्वयं ही अनुभव होगा कि तुम्हारा जीवन कितना शांत और सार्थक हो जाएगा। यही सच्ची धर्मनिष्ठा है – अपने दायित्वों को समझते हुए, नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए, ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भाव से जीना। यह नैतिकता आध्यात्मिक नैतिकता कहलाती है। 

 *किरण* : आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, दादा। मेरे सारे संशय दूर हो गए।

 *आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) बस याद रखना, किरण, धर्म केवल आस्था नहीं है, यह आचरण भी है। और यही आचरण हमें 'मैं धर्म का आचरण करता हूँ' कहने का सच्चा अधिकार देता है।

(पर्दा गिरता है)

                   भाग (6) 

`एकांकीकार [श्री] आनन्द किरण "देव"`


पात्र:
 * *आनंद* : एक उच्च आध्यात्मिक नैतिकवान धर्मनिष्ठ भक्त शिरोमणि।
 * *किरण* : एक जिज्ञासु भक्त जो अभी-अभी आध्यात्मिक नैतिकवान बना है।

(दृश्य: एक शांत, हरे-भरे बगीचे में, जहां हल्की धूप छनकर आ रही है। आनंद एक बेंच पर ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। किरण उत्सुकता से उनके पास आते हैं।)

किरण: (विनम्रता से) नमस्कार, दादा!

 *आनंद* : (आँखें खोलते हुए, मुस्कान के साथ) नमस्कार, किरण। आओ बैठो। कैसा रहा आज का दिन?

 *किरण* : बहुत अच्छा रहा, दादा। मैंने सुबह ध्यान किया, दिन भर अपने काम में ईमानदारी बरती और शाम को थोड़ी देर कीर्तन भी गाए। मुझे लगता है, अब मैं सच में एक आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्ति बन गया हूँ।

 *आनंद* : (मुस्कुराते हुए) यह सुनकर प्रसन्नता हुई, किरण। लेकिन क्या तुम वाकई समझते हो कि "आध्यात्मिक नैतिकवान" होने का अर्थ क्या है?

 *किरण* : जी दादा। मेरे हिसाब से आध्यात्मिक नैतिकवान वह है जो सत्य बोलता है, चोरी नहीं करता, इंद्रियों पर संयम रखता है, दूसरों के प्रति दयालु है, और ईश्वर में विश्वास रखता है। यही तो सारी नैतिकता है, और यही अध्यात्म का मार्ग है, है ना?

 *आनंद* : बहुत सही कहा तुमने, किरण। ये सभी गुण निश्चित रूप से आध्यात्मिक नैतिकता के आधार हैं। लेकिन, क्या तुम्हें नहीं लगता कि इसमें कुछ कमी है?

 *किरण* : कमी? मुझे नहीं लगता, दादा। अगर कोई इन सभी गुणों का पालन करता है, तो वह पूरी तरह से आध्यात्मिक और नैतिक कैसे नहीं हो सकता?

 *आनंद* : चलो एक उदाहरण से समझते हैं। मान लो, एक व्यक्ति है जो बहुत ईमानदार है, कभी झूठ नहीं बोलता, किसी को नुकसान नहीं पहुँचाता, दान-पुण्य भी करता है। क्या हम उसे पूरी तरह से आध्यात्मिक कह सकते हैं?

 *किरण* : हाँ, बिलकुल कह सकते हैं। वह तो एक आदर्श व्यक्ति होगा!

 *आनंद* : ठीक है। अब सोचो, क्या वह व्यक्ति कभी क्रोधित नहीं होता? क्या उसके मन में कभी कोई नकारात्मक विचार नहीं आते? क्या वह हमेशा शांत और प्रसन्न रहता है, चाहे जैसी भी परिस्थिति हो?

 *किरण* : (सोचते हुए) शायद नहीं, दादा। मनुष्य है, क्रोध और विचार तो आएंगे ही।

 *आनंद* : बिलकुल! यहीं पर योग की भूमिका आती है। केवल बाहरी कर्मों में नैतिकता का पालन करना पर्याप्त नहीं है। सच्चा आध्यात्मिक नैतिकवान वही है जो अपने मन और इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर ले, जो भीतर से भी शुद्ध और स्थिर हो। और यह बिना योग के संभव नहीं है।

 *किरण* : योग? आप आसनों की बात कर रहे हैं, दादा? मैं थोड़ा-बहुत करता हूँ।

 *आनंद* : (सिर हिलाते हुए) नहीं, किरण। मैं केवल आसनों की बात नहीं कर रहा। मैं अष्टांग योग की बात कर रहा हूँ, जो महर्षि पतंजलि ने प्रतिपादित किया है। यह जीवन जीने की एक संपूर्ण प्रणाली है, जो हमें बाहरी और आंतरिक दोनों तरह से शुद्ध करती है।

 *किरण* : अष्टांग योग? मैंने इसके बारे में सुना है, लेकिन गहराई से नहीं जानता। कृपया समझाइए, दादा।

 *आनंद* : देखो, अष्टांग योग आठ अंगों का एक सीढ़ीनुमा मार्ग है:
 * *यम* : यह नैतिक आचरण के नियम हैं – अहिंसा (किसी को नुकसान न पहुँचाना), सत्य (सच बोलना), अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (मन ब्रह्म में रत रखना), और अपरिग्रह (आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना)। तुम जो नैतिकता की बात कर रहे थे, वह यम का ही हिस्सा है। यह हमें समाज में सही ढंग से रहना सिखाता है।

 *किरण* : ओह, तो मेरी शुरुआती समझ सही थी, लेकिन वह सिर्फ पहला कदम था!

 *आनंद* : बिलकुल! अब दूसरा अंग है:
 * नियम: यह व्यक्तिगत अनुशासन और शुद्धिकरण के नियम हैं – शौच (शारीरिक और मानसिक शुद्धि), संतोष (जो है उसमें प्रसन्न रहना), तप (कष्ट सहना अथवा सहनशीलता), स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन और धर्म ग्रंथों का अध्ययन), और ईश्वर प्राणिधान (ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण)।

 *किरण* : (उत्सुकता से) यह तो मुझे और गहराई तक ले जाता हुआ लग रहा है!

 *आनंद* : और आगे बढ़ते हैं:
 * *आसन* : यह शारीरिक स्थिरता और स्वास्थ्य के लिए विभिन्न योग मुद्राएं व‌ बंध हैं। एक स्थिर और स्वस्थ शरीर मन को भी स्थिर रखने में मदद करता है।
 * *प्राणायाम* : यह श्वास नियंत्रण की तकनीकें हैं। श्वास पर नियंत्रण करके हम अपने मन को नियंत्रित कर सकते हैं, क्योंकि श्वास और मन गहरे से जुड़े हुए हैं। इसमें ब्रह्म भाव रहना आवश्यक है। 

 *किरण* : यह तो बहुत महत्वपूर्ण है! मैंने महसूस किया है कि जब मैं तनाव में होता हूँ, तो मेरी साँसें तेज़ हो जाती हैं।

 *आनंद* : बिलकुल! फिर आता है:
 * *प्रत्याहार* : यह इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर भीतर की ओर मोड़ना है। हमारी इंद्रियाँ हमें बाहर की ओर खींचती हैं, जिससे मन चंचल होता है। प्रत्याहार हमें अपनी ऊर्जा को भीतर केंद्रित करने में मदद करता है।

 *किरण* : यह तो बहुत मुश्किल लगता है, दादा। इतनी सारी बाहरी चीज़ें हमें लुभाती हैं।

 *आनंद* : हाँ, मुश्किल है, लेकिन अभ्यास से संभव है। इसके बाद आते हैं आंतरिक योग के तीन अंग, जिन्हें ध्यान साधना कहा जाता है:
 * *धारणा* : यह किसी एक बिंदु पर मन को एकाग्र करना है। यह ध्यान का पहला चरण है।
 * *ध्यान* : यह एकाग्रता की एक निरंतर और निर्बाध धारा है, जहाँ मन पूरी तरह से केंद्रित हो जाता है और बाहरी विचार शांत हो जाते हैं।
 * *समाधि* : यह योग का अंतिम चरण है, जहाँ व्यक्ति अपने ध्यान के विषय के साथ एकाकार हो जाता है। यह आत्मज्ञान और परमानंद की स्थिति है।

 *किरण* : (आश्चर्य से) यह तो एक पूरी यात्रा है! मुझे लगा था कि आध्यात्मिक नैतिकवान बनने का मतलब सिर्फ अच्छा व्यवहार करना है, लेकिन यह तो अपने आप को पूरी तरह से बदलने का विज्ञान है।

 *आनंद* : बिलकुल! तुम सोचो, अगर तुम्हारा मन अशांत है, तुम बार-बार क्रोधित होते हो, या तुम्हारी इंद्रियाँ तुम्हें विचलित करती हैं, तो तुम कैसे सच में नैतिक बने रह सकते हो? बाहरी नैतिकता तभी तक टिकेगी जब तक तुम्हारा आंतरिक आधार मजबूत न हो। योग, विशेषकर अष्टांग योग, हमें वह आंतरिक शक्ति और स्थिरता प्रदान करता है जो हमें वास्तविक आध्यात्मिक नैतिकवान बनाता है।

 *किरण* : अब मुझे समझ आया, दादा एक आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्ति का जीवन योग के बिना सचमुच अधूरा है। योग न केवल हमें नैतिक बनाता है, बल्कि हमें उस नैतिकता को बनाए रखने और भीतर से शांत, शुद्ध और आनंदमय रहने की शक्ति भी देता है। मैं आज से अष्टांग योग को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाऊंगा।

 *आनंद* : बहुत बढ़िया, किरण! यह केवल आसनों का अभ्यास नहीं है, बल्कि एक जीवनशैली है। जब तुम यम और नियम का पालन करोगे, आसन और प्राणायाम से शरीर और मन को स्थिर करोगे, और फिर प्रत्याहार, धारणा, ध्यान के माध्यम से अपने भीतर प्रवेश करोगे, तभी तुम सच्चे अर्थों में आध्यात्मिक नैतिकवान बन पाओगे और परमानंद का अनुभव कर सकोगे।

 *किरण* : (कृतज्ञतापूर्वक) आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, दादा! आपने मेरी आँखें खोल दीं। अब मुझे पता है कि मेरा मार्ग और गहरा है, और मैं उसे पूरे मन से अपनाने को तैयार हूँ। 

 *आनंद* : (मुस्कुराते हुए) यही तो जीवन का असली उद्देश्य है, किरण। अपने भीतर के प्रकाश को खोजना। और योग उसमें तुम्हारा सबसे बड़ा सहायक है।

(आनंद और किरण एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराते हैं, और सूरज की किरणें उन पर पड़ रही होती हैं, जैसे वे एक नई समझ के साथ चमक रहे हों।)

पर्दा गिर जाता है

                 भाग (7) 
`एकांकीकार [श्री] आनन्द किरण "देव"`

पात्र:
 * *आनन्द* : एक उच्च आध्यात्मिक धर्मनिष्ठ योगी भक्त शिरोमणि।
 * *किरण* : एक जिज्ञासु जो एक भक्त है तथा अभी-अभी ब्रह्म योगी बना है।
दृश्य: एक प्राचीन गुफा, जहाँ कुछ धार्मिक प्रतीक और आसन बिछे हुए हैं। मंद रोशनी है।

(पर्दा उठता है। आनन्द गहरे ध्यान में लीन बैठे हैं। कुछ देर बाद, किरण संकोच करते हुए प्रवेश करता है और उनके सामने बैठ जाता है।)

 *किरण* : (धीरे से) दादा...

 *आनन्द* : (आँखें खोलते हुए, हल्की मुस्कान के साथ) आओ किरण, बैठो। तुम्हारा आगमन शुभ है। आज कुछ विशेष जिज्ञासा है?

 *किरण* : दादा, मैं ब्रह्म साधना की दीक्षा ली है। मैंने वर्षों तक ध्यान, योग और भक्ति का अभ्यास किया है। मुझे लगता है कि मैंने एक गहरी शांति और एकांतता प्राप्त की है। परंतु...

 *आनन्द* : परंतु क्या, प्रिय? बेझिझक कहो।

 *किरण* : मुझे कभी-कभी लगता है कि इस मार्ग में कुछ अधूरा है। ऐसा महसूस होता है जैसे एक महत्वपूर्ण अंग अभी भी गायब है। मैं ब्रह्म को अनुभव करता हूँ, उसकी व्यापकता को महसूस करता हूँ, लेकिन... एक क्रियात्मक शक्ति की कमी सी लगती है।

 *आनन्द* : (मुस्कुराते हुए) तुम्हारी यह जिज्ञासा स्वाभाविक है, किरण। यह अक्सर उन लोगों के मन में उठती है जो ब्रह्म साधना मार्ग पर गहराई से उतरते हैं। तुम्हें क्या लगता है, वह कमी क्या हो सकती है?

किरण: मुझे नहीं पता, दादा। बस एक अस्पष्ट सी अनुभूति है। क्या ब्रह्मभाव के साधक का जीवन केवल ध्यान और आत्म-चिंतन तक ही सीमित है?

 *आनन्द* : नहीं, मेरे प्रिय, बिल्कुल नहीं। यही वह बिंदु है जहाँ तंत्र की आवश्यकता महसूस होती है।

 *किरण* : तंत्र? लेकिन दादा, तंत्र को तो अक्सर कुछ रहस्यात्मक और कभी-कभी नकारात्मक गतिविधियों से जोड़कर देखा जाता है। मैंने हमेशा सोचा था कि यह हमारे आध्यात्मिक मार्ग से भिन्न है।

 *आनन्द* : (शांत भाव से) यह एक सामान्य भ्रांति है, किरण। जैसे पवित्र जल भी गलत हाथों में जाकर दूषित हो सकता है, वैसे ही तंत्र के मूल सिद्धांतों को भी गलत समझा गया है। तंत्र केवल क्रिया और शक्ति का विज्ञान है, जो ब्रह्म की असीम ऊर्जा को हमारे जीवन में प्रकट करने का मार्ग प्रशस्त करता है।

 *किरण* : तो आप कह रहे हैं कि एक ब्रह्मभाव के साधक के लिए तंत्र आवश्यक है?

 *आनन्द* : बिल्कुल। ब्रह्म स्वयं निराकार, अनंत और निराभास प्रतीत हो सकता है, लेकिन उसकी अभिव्यक्ति ही शक्ति है। शिव स्वयं ब्रह्म हैं, और शक्ति उनकी क्रियात्मक अभिव्यक्ति है । केवल शिव ही पर्याप्त नहीं, और केवल शक्ति भी नहीं। उनका मिलन ही पूर्णता है। इसी तरह, ब्रह्म योगी को अपनी आध्यात्मिक अनुभूति को वास्तविक जीवन में प्रकट करने के लिए तंत्र की आवश्यकता होती है।

 *किरण* : क्या आप विद्या तंत्र की बात कर रहे हैं?

 *आनन्द* : हाँ, किरण। तुमने सही पकड़ा। तंत्र की कई शाखाएँ हैं, और उनमें से विद्या तंत्र सबसे महत्वपूर्ण है। यह ज्ञान, मंत्र और यंत्रों के माध्यम से आंतरिक शक्ति को जागृत करने और उसे सही दिशा देने का मार्ग है। यह ब्रह्म ज्ञान को व्यवहारिक रूप देता है।

 *किरण* : दादा, कृपया इसे और स्पष्ट करें।

 *आनन्द* : देखो, जब तुम ध्यान में बैठते हो और ब्रह्म का अनुभव करते हो, तो तुम उसकी निराकार स्थिति से जुड़ते हो। यह अद्भुत है। लेकिन क्या तुम उस अनुभव को अपनी चेतना में धारण कर पाते हो? क्या तुम उस ऊर्जा को अपनी क्रियाओं में ढाल पाते हो? क्या तुम उस दिव्यता को दूसरों के साथ साझा कर पाते हो? यहीं विद्या तंत्र का महत्व आता है।
विद्या तंत्र हमें सिखाता है कि कैसे मंत्रों की ध्वनि कंपन, यंत्रों के ज्यामितीय आकार और विभिन्न साधनाओं के माध्यम से उस ब्रह्म शक्ति को अपने भीतर केंद्रित किया जाए। यह हमें अपनी कुल कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने और उसे ऊपरी चक्रों में उठाने में मदद करता है, जिससे हम न केवल ब्रह्म को जानते हैं, बल्कि उसे जीते भी हैं। यह तुम्हें अपनी इच्छा शक्ति को मजबूत करने, अपनी एकाग्रता को बढ़ाने और अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा को निर्देशित करने में सहायता करेगा।

 *किरण* : तो, विद्या तंत्र हमें ब्रह्म को जानने के बाद उसे सक्रिय रूप से जीवन में उतारने में मदद करता है?

 *आनन्द* : ठीक यही। एक योगी जो केवल निष्क्रिय ध्यान में लीन रहता है, वह अपनी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर पाता। वह एक ऐसे महान योद्धा के समान है जिसके पास असीम शक्ति तो है, लेकिन उसे प्रयोग करने का विज्ञान नहीं पता। तंत्र, विशेषकर विद्या तंत्र, उस विज्ञान को प्रदान करता है। यह तुम्हें केवल ब्रह्म का अनुभव करने वाला नहीं, बल्कि ब्रह्म की शक्ति को धारण करने वाला बनाता है।

 *किरण* : इसका मतलब है कि तंत्र हमें बाहरी दुनिया से जुड़ने और अपनी आध्यात्मिक शक्ति का उपयोग करने में मदद करता है, जबकि हमारा ध्यान और भक्ति हमें आंतरिक रूप से ब्रह्म से जोड़ती है?

 *आनन्द* : बहुत सुंदर! तुमने बिल्कुल सही समझा, किरण। ब्रह्म योगी का जीवन तभी पूर्ण होता है जब वह आंतरिक शांति (ब्रह्म ज्ञान) को बाहरी शक्ति (तंत्र) के साथ संतुलित करता है। तंत्र तुम्हें तुम्हारी आध्यात्मिक यात्रा में एक उपकरण प्रदान करता है ताकि तुम न केवल स्वयं को रूपांतरित करो, बल्कि अपने आसपास की दुनिया को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित कर सको। यह तुम्हें लोक कल्याण के मार्ग पर चलने में भी सक्षम बनाता है।

 *किरण* : मुझे लगता है कि मैं अब समझ रहा हूँ, दादा। मेरी जिज्ञासा शांत हुई है। यह अधूरापन अब एक पूर्णता में बदलता दिख रहा है। मैं तंत्र की इस शाखा को सीखने के लिए उत्सुक हूँ।

आनन्द: (प्रसन्नतापूर्वक) यही सही दिशा है, प्रिय। अब तुम वास्तव में एक पूर्ण ब्रह्म योगी बनने के मार्ग पर अग्रसर हो। याद रखना, तंत्र कोई जादू नहीं है, यह एक गहन विज्ञान है जिसके लिए अनुशासन, शुद्धता और गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है। आओ, हम इस पवित्र ज्ञान के अगले चरण में प्रवेश करें।

(आनन्द अपनी आँखें बंद करते हैं, किरण भी धीरे-धीरे ध्यान मुद्रा में आ जाता है। प्रकाश मंद होता जाता है।)

(पर्दा गिरता है।)

                  भाग (8) 
`एकांकीकार [श्री] आनन्द किरण "देव"`

  ( एक आध्यात्मिक तार्किक चर्चा) 

मैं ब्रह्म साधना करता हूँ। मेरी दीक्षा तंत्र दीक्षा है। 

पात्र:
 * *आनन्द* : एक महान सदविप्र
 * *किरण* : एक जिज्ञासु भक्त जिसने अभी-अभी विद्या तंत्र की दीक्षा ली है।

                  *दृश्य* :
एक शांत, सात्विक वातावरण वाला कक्ष। कुछ आध्यात्मिक ग्रंथ रखे हैं और धीमी रोशनी है। आनन्द आसन पर बैठे हैं और किरण उनके सामने विनयपूर्वक बैठा है।

(दृश्य आरंभ होता है)

किरण: (विनम्रता से) दादाजी, आपने मुझे विद्या तंत्र की दीक्षा दी है, और मैं समझ रहा हूँ कि  उसे हम अपने जीवन में कैसे उतारें?

 *आनन्द* : (मुस्कुराते हुए)  किरण, तुम्हारे प्रश्न गहरे हैं और यही एक सच्चे साधक की पहचान है। 'ब्रह्मभाव युक्त विद्या तांत्रिक' होने का अर्थ केवल साधनाओं में निपुण होना नहीं है, बल्कि उस परम चेतना, उस ब्रह्म के साथ एकत्व का अनुभव करना है। जब यह ब्रह्मभाव हमारे भीतर जागृत होता है, तभी हमारी तंत्र साधनाएं सही मायने में फलित होती हैं और हमें लोक कल्याण के लिए शक्ति प्रदान करती हैं।

 *किरण* : तो क्या यह ब्रह्मभाव केवल ध्यान या उच्च समाधि की स्थिति में ही प्राप्त होता है?

 *आनन्द* : नहीं, यह केवल ध्यान या समाधि का विषय नहीं है। यह जीवन के हर क्षण में, हर कर्म में उस ब्रह्म की उपस्थिति का बोध है। और यही मुझे 'सद् विप्र' की अवधारणा पर लाता है। समाज में रहकर आध्यात्मिक पथ पर चलना एक चुनौती है, और इसी चुनौती को स्वीकार करने के लिए हमें सद् विप्र बनना होगा।

 *किरण* : सद् विप्र? आप इसकी व्याख्या कर सकते हैं, दादाजी?

 *आनन्द* : अवश्य। 'सद् विप्र'  एक जीवन शैली है, एक आदर्श चरित्र है। इसमें चार गुणों का संगम होता है, जो  वर्ण व्यवस्था का वास्तविक मर्म है।

 *किरण* : कृपया विस्तार से बताएं।

 *आनन्द* : सद् विप्र का पहला गुण है विप्र सा ज्ञान। एक सद् विप्र में वह गहन ज्ञान होना चाहिए जो उसे धर्म, अधर्म, सत्य और असत्य का भेद करना सिखाए। यह केवल पोथी-पंडित होना नहीं है, बल्कि आत्मज्ञान और जगत ज्ञान का समन्वय है। यह ज्ञान ही उसे सही दिशा दिखाता है और भ्रम से बचाता है।

 *किरण* : और अगला?

 *आनन्द* : दूसरा गुण है क्षत्रिय सी शक्ति। यह केवल शारीरिक बल नहीं है, बल्कि अन्याय और अधर्म के विरुद्ध खड़े होने का नैतिक साहस और इच्छा शक्ति है। जब तुम ब्रह्मभाव से युक्त होते हो, तो तुम्हारे भीतर यह शक्ति स्वतः स्फूर्त होती है। यह शक्ति केवल अपनी रक्षा के लिए नहीं, बल्कि समाज के कमजोर और पीड़ितों की रक्षा के लिए भी होती है। एक सद् विप्र अपने ज्ञान का उपयोग केवल स्वयं के लिए नहीं, बल्कि दूसरों के उत्थान और अधर्म के नाश के लिए करता है।

 *किरण* : यह तो बहुत महत्वपूर्ण है। अक्सर लोग सोचते हैं कि आध्यात्मिक व्यक्ति को सांसारिक मामलों से दूर रहना चाहिए।

 *आनन्द* : यही तो भ्रम है! आध्यात्मिक व्यक्ति को पलायनवादी नहीं, बल्कि समाज का स्तंभ होना चाहिए। तीसरा गुण है वैश्य सा व्यवसाय कौशल। इसका अर्थ यह नहीं कि हमें केवल धन संग्रह करना है। इसका अर्थ है कि हमें अपने जीवन यापन के लिए साधन संपन्न होना चाहिए, ईमानदारी और धर्मसम्मत तरीके से धन कमाना चाहिए। इससे हम दूसरों पर निर्भर नहीं रहते और अपने आध्यात्मिक कार्यों तथा परोपकार के लिए भी सक्षम होते हैं। यह हमारी आत्मनिर्भरता का प्रतीक है।

 *किरण* : यह भी एक नई दृष्टि है। मैं हमेशा सोचता था कि भौतिक संसार से दूरी ही अध्यात्म है।

 *आनन्द* : नहीं, भौतिक संसार से दूरी नहीं, बल्कि उस पर नियंत्रण और उसका सदुपयोग अध्यात्म है। और अंतिम गुण है शूद्र सी सेवा। यह सबसे महत्वपूर्ण है। जब तुम ब्रह्मभाव में होते हो, तो तुम हर जीव में उस परम ब्रह्म को देखते हो। तब तुम्हारे भीतर सेवा का भाव स्वतः ही जागृत होता है। यह निस्वार्थ सेवा का भाव है, बिना किसी अपेक्षा के समाज और मानवता की सेवा करना। यह विनम्रता का प्रतीक है और अहंकार को नष्ट करता है।

 *किरण* : (आँखों में चमक के साथ) दादा, आपने मेरी आँखों से पर्दा हटा दिया। तो एक सद् विप्र वह है जो ब्रह्मभाव से युक्त होकर ज्ञान, शक्ति, व्यवसाय कौशल और सेवा के गुणों को एक साथ धारण करता है।

 *आनन्द* : बिल्कुल सही! और यही सद् विप्र की पूर्ण परिभाषा है: एक ब्रह्म भाव का आध्यात्मिक नैतिकवान व्यक्तित्व, जो अन्याय एवं अधर्म को जड़ से खत्म करने की क्षमता रखता है। जब हम इन चारों गुणों को अपने भीतर समाहित कर लेते हैं, तभी हम सही मायने में ब्रह्मभाव युक्त विद्या तांत्रिक बन पाते हैं। हमारा तंत्र केवल व्यक्तिगत मोक्ष के लिए नहीं, बल्कि लोक कल्याण और धर्म की स्थापना के लिए एक शक्तिशाली साधन बन जाता है।

 *किरण* : अब मैं समझी कि मेरा मार्ग केवल साधनाओं का नहीं, बल्कि एक पूर्ण और संतुलित जीवन जीने का है, जिसमें अध्यात्म और व्यवहार दोनों का संगम हो। मैं इस पथ पर चलने का पूरा प्रयास करूँगा, दादाजी।

आनन्द: (किरण के सिर पर हाथ रखते हुए) यही मेरी कामना है, किरण। याद रखना, सच्चा अध्यात्म जीवन से पलायन नहीं सिखाता, बल्कि उसे दिव्य बनाता है।

(दोनों शांत मुद्रा में बैठते हैं। आज प्रकाश में अदृश्य आनन्द की  झलक मिलती है। तभी......)

(पर्दा गिर जाता है)
अणुजीवत (Microvita)

            

सामान्यतः माइक्रोवाइटा चिकित्सा शास्त्रियों एवं वैज्ञानिक गवेषणा कर्ताओं की विषय वस्तु है लेकिन इसकी समझ सबको रखने की आवश्यकता है। इसलिए हम इसकी गहराई में तो नहीं जाएंगे लेकिन माइक्रोवाइटा सिद्धांत के मूल को समझने की कोशिश करते हैं। माइक्रोवाइटा सिद्धांत श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा प्रतिपादित आधुनिक वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक सिद्धांत है। जो चेतना के उत्पन्न एवं जीव के विकास के विज्ञान को समझने में मदद करता है, साथ ही मानसाध्यात्मिक यात्रा को भी समझने के लिए कारगर है। 

अणुजीवत् की स्थूलतम श्रेणी साधारण सूक्ष्मदर्शी द्वारा दृश्य है। इन्हें सामान्यतः सूक्ष्मजीव कहते हैं। जो वैज्ञानिक शब्दावली में बैक्टीरिया, आर्किया, कवक, शैवाल, प्रोटोजोआ और वायरस इत्यादि नामों से जाने जाते हैं। इसका अध्ययन माइक्रोबायोलॉजी के अन्तर्गत किया जाता है। यह मित्र तथा शत्रु दोनों ही प्रकार के होते हैं। जिन्हें दर्शन की भाषा में सकारात्मक एवं नकारात्मक अणुजीवत् कहते हैं। अणुजीवत् की द्वितीय श्रेणी विशेष प्रकार सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से देखा जा सकता अथवा अनुभव किया जा सकता है। यह मूलतः सूक्ष्मजीवों की विशेष श्रेणी है, जो अतिसूक्ष्म होने के कारण साधारण पकड़ के बार होते हैं, लेकिन यह जीव विज्ञान के सिद्धांत को प्रभावित करते हैं। अणुजीवत् की सबसे सूक्ष्मतम श्रेणी जीव विज्ञान के सिद्धांत से उपर होते हैं लेकिन उनका अस्तित्व होता है। मूलतः इस श्रेणी को ही अणुजीवत् कहा जाता है। यद्यपि यह जीव की भौतिक अवस्था के ही अंग है लेकिन यह पृथ्वी एवं जल तत्व विहिन होने के कारण दिव्यदृष्टि की आवश्यकता है। अत: सूक्ष्मदर्शी यंत्र की पकड़ के बार है। यद्यपि यह जैववैज्ञानिक तथ्यों को तो प्रभावित नहीं करते हैं लेकिन जैव मनोवैज्ञानिक को नियंत्रित करते हैं। अत: इन्हें जीव विज्ञान से पृथक नहीं माना जाता है। इस प्रकार के जीवों को दर्शन की भाषा में पराभौतिक जीव (Metaphysical organisms) कहते हैं। इनका शरीर अग्नि, वायु एवं आकाश नामक तीन तत्वों से मिलकर बना होता है। अतः जीव उत्पत्ति का विज्ञान यहाँ तक नहीं पहुंच पाता है। क्योंकि यह जल में सृष्टि तक पहुँच पाया है। अणुजीवत् सिद्धांत में यही चर्चा के विषय है। 

अणुजीवत् की प्रथम दो श्रेणियों के संदर्भ में बारें में जीव विज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान काफी कुछ जानकारी देते हैं और भी अधिक जानने के जैव मनोविज्ञान (bio psychology) भी इसके संदर्भ काफी कुछ अनुसंधान प्रस्तुत करता है। अत: इनके संदर्भ में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन पराभौतिक जीवों के संदर्भ में अधिक चर्चा की आवश्यकता है। अणुजीवत् की इस श्रेणी में भी मित्रवत तथा शत्रुवत दोनों ही श्रेणियाँ है। जिस हम समझने की सुविधा के लिए क्रमशः देव योनी एवं दैत्य योनी कह लेते हैं। देवयोनी मित्रवत अणुजीवत् है, जो मनुष्य की प्रगति एवं विकास में सहायक है। यह जीवत् आध्यात्मिक कर्म भजन, कीर्तन, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा इत्यादि से अधिक मात्रा में विकसित होने है। इसके विपरीत नकारात्मक अणुजीवत् अश्लील, कामुक, क्रोधात्मक, मोहग्रस्त, लोभ वृत्ति, अहंकार वृत्ति इसके अलावा धृणा, शंका, इत्यादि नकारात्मक वृत्तियों के कारण विकसित होते हैं। 

अणु जीवत् मानव मन, पर्यावरण एवं नेचर को प्रभावित करते है। जब सकारात्मक अणुजीवत् की प्रचुरता होती है, तब एक शुभ अथवा सु परिवेश का निर्माण होता है। इसके विपरीत नकारात्मक अणुजीवत् की प्रचुरता कु अथवा अशुभ परिवेश का निर्माण करती है। संभवतया उदासीन अणुजीवत् भी होते होंगे। जो किसी भी प्रकार से वातावरण को प्रभावित नहीं करते हैं। लेकिन इसके संदर्भ में अबतक इतनी जानकारी नहीं है। बड़ी बात यह नहीं है कि अणुजीवत् अपनी क्या भूमिका अदा करते हैं। बड़ी बात तो यह है कि अणुजीवत् की भूमिका के बीच मनुष्य को कैसे जीना है? नकारात्मक अणुजीवत् के प्रभाव को किस प्रकार निस्तेज करना है तथा सकारात्मक अणुजीवत् की शक्ति का कैसे उपयोग करना है? यह विज्ञान ही समझना अणुजीवत् अध्याय का उद्देश्य है। आओ हम इस विषय पर आगे बढ़ते हैं। 

(१) नकारात्मक अणुजीवत् को सकारात्मक ऊर्जा में बदलने में दक्ष होना : - व्यष्टिगत जीवन में नकारात्मक सोच एवं जड़त्व मुखी गति के कारण नकारात्मक अणुजीवत् ऐसे मनुष्य के मन को अपने अधीन कर लेता है। पराधीन मन इनसे लड़ने अक्षम होता है। इसलिए उसे बाह्य सहायता की आवश्यकता होती है। जब यह सहायता उचित समय तथा उचित मात्रा में मिल जाती है तब वह नकारात्मक अणुजीवत् के साम्राज्य से बाहर निकलने में समक्ष होता है, लेकिन इस लड़ाई में भी एक स्तर आने पर स्वयं को लड़ना होता है। एक नकारात्मक ऊर्जा अथवा नकारात्मक अणुजीवत् से घिरा मनुष्य अपने सामान्य सुझबुझ खो चुका है अथवा उसकी जिजीविषा लुप्त होने के कगार पर है, उस मनुष्य को पतन के इस विकराल हाथों से बचाने के लिए शुभ शक्तियों को आगे आना ही होगा। उसके आस पास के परिवेश एवं मन को सत्संग,भजन, कीर्तन, स्वाध्याय, सामूहिक साधना इत्यादि द्वारा सकारात्मक बनाने में मदद करनी ही होगी। यदि आवश्यकता पड़े तो ऐसे रोगियों के लिए विशेष चिकित्सालय की व्यवस्था करनी होगी, जहाँ नियमित धर्मचक्र कर नकारात्मक ऊर्जा में जी रहे मनुष्य को स्वस्थ करना होगा। यदि ऐसे रोगी के रोग की बढ़ी हुई अवस्था में अधिक से अधिक समय जागृति में रखा जाए अथवा तंत्र पीठ के संपर्क में रखा जाए तो अल्प ही समय में सकारात्मक परिणाम आएंगे। जब रोगी खुद से लड़ने की हालत में आ जाए तब उसे अष्टांग योग की दीक्षा देकर स्वयं को लड़ने के लिए सक्षम बनाना ही होगा। समष्टिगत जगत में नकारात्मक अणुजीवत् से मुक्ति के साधन अखंड कीर्तन, आवर्त कीर्तन, तत्वसभा, धर्मचक्र, धर्म महासम्मेलन एवं धर्म महाचक्र है। 

(2) सकारात्मक अणुजीवत् का सदुपयोग करना :- सकारात्मक सोच, शुभकर्म, मानसाध्यात्मिक प्रयास एवं आध्यात्मिक अनुशीलन द्वारा व्यष्टिगत जीवन मित्र में अणुजीवत् की अधिक से अधिक सर्जन कर अपने शक्ति का सदुपयोग किया जा सकता है। इस उपयोग विश्व प्रेम, आध्यात्मिक विकास एवं आनन्दमय जीवन जीने में करना चाहिए। 

अणुजीवत् पर चर्चा कर रहे हैं तो पराभौतिक जीवों के विज्ञान को समझना आवश्यक है। पराभौतिक जीवों को सजीव अथवा निर्जीव किस श्रेणी में रखा जाए, यह स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। उनके शरीर में पृथ्वी एवं जल तत्व का अभाव होने के कारण उन्हें सामान्य जैविक क्रिया करने की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन इनमें चेतना मनुष्य की तुलना में अधिक विकसित होती है। इसलिए इन पराभौतिक जीवों का अध्ययन आवश्यक होता है। यह पराभौतिक जीव भी सकारात्मक एवं नकारात्मक अणुजीवत् होते हैं। विद्या साधक जागतिक इच्छा के अधिशेष रहने पर देह का त्याग कर देता है अथवा मृत्यु हो जाती है, तो वे धनात्मक अणुजीवत् अथवा देवयोनी वाले प्राणी कहलाते हैं। चूंकि धनात्मक अणुजीवत् होने के कारण यह मनुष्य के भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कल्याण में सहायक होते हैं। इसके विपरीत अविद्या साधक की विनाशकारी एवं अवांछित इच्छाएँ उन्हें नकारात्मक अणुजीवत् अथवा दैत्य योनी अथवा पिशाच योनी अथवा प्रेत योनी कहा जाता है। देवयोनी एवं दैत्य/पिशाच/प्रेत योनी के संदर्भ में प्राचीन साहित्य कुछ कथा कहानियाँ मिलती है। वस्तुतः यह एक प्रकार के अणुजीवत् है, जो मनुष्य से कभी भी सक्षम नहीं है। लेकिन मनुष्य यदि मानसिक दृष्टि मजबूत नहीं है, तो यह अणुजीवत् उनके मन के उपर अपना प्रभाव स्थापित कर सकते हैं‌। इसलिए कहा जाता है कि कमजोर मानसिक बीमारी आधि से पीड़ित होता है। मानसाध्यात्मिक प्रगाढ़ मनुष्य इनके साथ हँसी ठिठोली का खेल खेलने में सक्षम हो सकता है। यहाँ एक बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि धनात्मक अणुजीवत् अर्थात देवयोनी तथा ऋणात्मक अणुजीवत् अर्थात दैत्य योनी दोनों ही मनुष्य का लक्ष्य नहीं है। मनुष्य का लक्ष्य परमब्रह्म है। जो इन पराभौतिक जीवों की सीमाओ से काफी है, जहाँ तक इन पहूंच कदापि नहीं होती है। अतः यह केवल ज्ञान विज्ञान एवं जानकारी के लिए है। आध्यात्मिक यात्रा में इसमें खोने की आवश्यकता नहीं है। चलो इन अणुजीवत् के बारे विस्तार से समझते हैं। 

(A) धनात्मक अणुजीवत् अर्थात देवयोनी :- इस वर्ग के पराभौतिक प्राणियों को मोटे रुप से सात अथवा आठ श्रेणियों में बांटा जा सकता है। 

(१) यक्ष :- यह धन, धान्य एवं भौतिक वस्तुओं की अधिशेष इच्छा का परिणाम वाले अणुजीवत् है। यह धन, धान्य एवं भौतिक इच्छाओं को लेकर आकृष्ट साधनों के आसपास मंडराते रहते हैं। उसके मन ओर अधिक उसकी ओर ले जाते हैं। 

(२) रक्ष :- युद्धेषणा, साहसिक शक्ति प्रदर्शन, शारीरिक बल प्राप्त इच्छा का परिणाम है। यह साहसिक वृत्ति, सैन्य शक्ति एवं करतब जीवी साधकों के आसपास मंडराते है तथा उनके मन को इस ओर अधिक वेग से खींचते है। 

(३) किन्नर :- यह शारीरिक सौंदर्य एवं सज्ज-धज्ज के शौकीन इच्छा का परिणाम है। यह इसी प्रकार की वृत्ति प्रेरित साधकों के मन घेरे रहते हैं। इनके मन को इस ओर तीव्र वेग से खींच लेते हैं। 

(४) गंधर्व : - संगीत, वाद्य तथा नृत्य इत्यादि अधिशेष इच्छा का परिणाम है। यह संगीत, वाद्य एवं नृत्य साधकों के मन को इस विद्या सिखने अधिक कारगर मदद करते हैं। इनका अधिकार क्षेत्र यहाँ तक मन रोके रखना है। 

(५) विद्याधर :- यह ज्ञान, विज्ञान, शोध, अनुसंधान की अधिशेष इच्छा का परिणाम है। यह बौद्धिक साधक, दार्शनिक, वैज्ञानिक साधक के लिए साहयता करने में आनन्द की अनुभूति करते हैं। 

(६) विदेहीलीन :- यह सिद्धियों की चाहत का परिणाम है। आध्यात्मिक शक्ति की चाहत रखने वाले साधकों के आसपास मंडराते है। 

(७) सिद्ध :- यह सबसे उन्नत वर्ग का अणुजीवत् है। यह आध्यात्मिक साधकों के लिए मदद करते हैं। इन्हें इस प्रकार के कार्य करना अच्छा लगता है। यह आध्यात्मिक शक्तियों की प्राप्ति की अधिशेष इच्छा का परिणाम है।  

(८) प्रकृतिलीन :- यह बहुत ही दुर्गम अवस्था है अथवा साधक की अधोगति है। प्रकृति उपासना, मूर्तिपूजा एवं जड़ साधना की अधिशेष इच्छा का परिणाम है। यह इस प्रकार के साधकों के आस पास रहते हैं।

(B) ऋणात्मक अणुजीवत् अर्थात दैत्य/पिशाच/प्रेत योनी :- इस के अणुजीवत् की सात श्रेणियों का ज्ञान होता है। 

(१) पिशाच :- जो लोग हर चीज़ को अपने भोग की वस्तु के रूप में देखते हैं, बिना यह सोचे कि वह खाने योग्य है या नहीं, मरने के बाद उन्हें यह दर्जा मिलता है। वे एक तरह के नकारात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं।

(२) आकाश पिशाच :- जो लोग अपनी महत्वाकांक्षा के कारण सदैव विध्वंसकारी कार्यों में लगे रहते हैं, चाहे उनकी योग्यता कितनी भी हो, तथा जो अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए कोई भी जघन्य अपराध करने से पीछे नहीं हटते, उन्हें मृत्यु के पश्चात यह पद प्राप्त होता है।

(३) ब्रह्म पिशाच :- जो बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि का उपयोग रचनात्मक उद्देश्यों के लिए नहीं करते, बल्कि दूसरों को दबाने या दूसरों में हीन भावना पैदा करने के लिए अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करते हैं, उन्हें मृत्यु के बाद यह दर्जा प्राप्त होता है।

(४) दुर्मुख प्रेतयोनि :- गंदे मुख वाला प्राणी। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी शिक्षा की कमी या किसी अन्य कारण से दूसरों को मानसिक संघर्ष देते हैं। मृत्यु के बाद वे दुर्मुख प्रेतयोनि के रूप में दूसरों को मानसिक संघर्ष देना जारी रखना चाहते हैं। ये प्रेतयोनियाँ मृत्यु के पश्चात मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेती हैं।

(५) कबंध :- बिना सिर वाला पिशाच। जो लोग अपमान, मानसिक विकृति, कुंठा या अत्यधिक मोह, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि के प्रबल प्रभाव के कारण आत्महत्या करते हैं, उन्हें कबंधयोनि का दर्जा प्राप्त होता है।

(६) महाकपाल : - जो लोग अपने स्वार्थ को पूरा करने की कोशिश करते हुए दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं, जो विद्या तंत्र के नाम पर अविद्या तंत्र का अभ्यास करते हैं, और जो पापी, परपीड़क स्वभाव वाले हैं

(७) मध्य कपाल :- यह भी एक प्रकार का नकारात्मक अणुजीवत् है। 

इस प्रकार हमने धनात्मक(सकारात्मक) एवं ऋणात्मक(नकारात्मक) अणुजीवत् को देखा। यह प्राणी भी संसार में व्याप्त है। इनके जीवों के लिए पृथ्वी तत्व एवं जल तत्व की आवश्यकता नहीं है। अतः सजीवों सामान्य जैविक क्रिया इनके लिए आवश्यक नहीं है। लेकिन फिर भी यह जीवित प्राणी है। इनका भी संसार में अस्तित्व है। यह मानव मन को प्रभावित कर सकते हैं। सुख दुःख के कारण में सहयोगी बन सकते हैं। लेकिन फिर भी यह मानव से शक्तिशाली नही है। मानव की भांति संसार में कर्म नहीं कर सकते हैं। मनुष्य की भांति सूक्ष्म चिन्तन इनके पास नहीं है। मनुष्य की भांति शारीरीक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकते हैं। अतः यह अणुजीवत् देवयोनी में हो अथवा पिशाच योनी में कभी मनुष्य का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। यह कमजोर, दुर्बल, मोहग्रस्त, क्रोधी, भयभीत, कामी, लोभी, लालची, अंहकारी तथा जागतिक चाहत रखने वाले मनुष्य को अपने गिप्त में ले सकते हैं। अपने मुताबिक चला सकते हैं। लेकिन मजबूत तन, मन एवं संकल्प वाले के समक्ष यह कभी नहीं टिक सकते है। आध्यात्मिक साधक के आसपास भी उनकी इच्छा तथा उसकी सहायता करने के अतिरिक्त नहीं आ सकते हैं। अतः मनुष्य आत्मिक विकास के पथ‌ पर चलना चाहिए, मानसिक दृष्टि मजबूत होना चाहिए तथा शारीरिक ताकतवर भी होना आवश्यक है। 

बाबानाम केवलम का अर्थ (Meaning of Babanam Kevalam)


बाबानाम केवलम दो शब्द का अष्टाक्षरी मंत्र है। इसमें प्रथम शब्द बाबानाम तथा द्वितीय शब्द केवलम है। बाबानाम शब्द का परमब्रह्म तथा केवलम का अर्थ वही है। अर्थात बाबानाम केवलम का अर्थ हुआ परमब्रह्म ही है। यहाँ, वहाँ जहाँ तहाँ वही है। यत्र, तत्र एवं सर्वत्र वही है। यह दृष्टि ही बाबानाम केवलम है। अतः प्रभु के प्रेम में इतना डुब जाना कि प्रभु के अलावा कुछ भी नहीं दिखे, यही बाबानाम केवलम का अर्थ है।
सबकुछ परमब्रह्म का ही विकास है। अतः सब केवल परमपुरुष का ही नाम है। उसके अतिरिक्त कोई नाम नहीं है। भक्त के मन, तन एवं जीवन में एक मात्र परमपिता का ही नाम है। यही बाबानाम केवलम का अर्थ है। 
शब्द विकास का इतिहास कहता है कि बप्प्र से बप्प तथा बप्प से बाबा शब्द आया है। शब्द विन्यास बताता है कि बाबा शब्द का अर्थ बताता है कि 'प्रिय' अर्थात 'प्राणों से अधिक प्रिय'। भक्ति कहती है कि बाबा मेरे इष्ट का पुकारूँ नाम है। शिष्य कहता है कि बाबा मेरे गुरुदेव के लिए संबोधन है। भक्त कहता है कि यही मेरा जीवन है। इसलिए तो मैं गाता हूँ बाबानाम केवलम। यही बाबानाम केवलम का अर्थ है। 
इतिहास कहता है कि भक्त की अपने प्रियतम को मिलने की अहैतुकी भावना सभी अवरोध को दूर करने के लिए 'बाबा केवल' अथवा :केवल बाबा' की गुहार लगाता है तब प्रभु उसे अन्तरीक्ष में सुनाते हैं तो वह सुनता है बाबानाम केवलम एवं दुनिया को मिलता है - बाबानाम केवलम कीर्तन। यही बाबानाम केवलम का अर्थ है। 
दर्शन के आलोक में कीर्तन का अभ्यास कहता है कि जब भी मैं मेरे इष्ट जो कि मेरे गुरुदेव भी है, उनको पुकारता हूँ तो बाबा के नाम से पुकारता हूँ। इस अवस्था में नाम साइलेंट रहता है। लेकिन जब मैं इसको संगीतमय गाता हूँ तब नाम उच्चारण में आ जाता है। इसिलिए बाबा तथा नाम दो शब्द नहीं दोनों एक ही शब्द बाबानाम है। चूंकि यह सबद (शब्द) ही केवल हैं। इसलिए संगीतमय रुप में केवलम गाकर मेरे भावना को प्रकट करता हूँ। अतः मेरा कीर्तन बाबानाम केवलम है। यही बाबानाम केवलम का अर्थ है। 
लेखन विज्ञान कहता है कि बाबा एक नाम एक ही शब्द है तथा केवल व म एक ही शब्द है। अतः बाबा नाम केवलम नहीं बाबानाम केवलम कीर्तन का लेखन स्वरूप है। मेरा उच्चारण एवं गायन बाबानाम केवलम है तो बाबा नाम केवलम लेखन नहीं बाबानाम केवलम है। यही है बाबानाम केवलम का अर्थ। 
छंद, काव्य, गीत एवं संगीत विज्ञान कहता है कि स्वीकृत कीर्तन अष्टाक्षरी के दो शब्द में होता है। प्रथम शब्द प्रियतम का साक्षात्कार कराता है तथा द्वितीय शब्द महामिलन कराता है। यही तो कीर्तन का का सार है। अतः यही है बाबानाम केवलम का अर्थ। 
भावना एवं आध्यात्म विज्ञान कहता है कि बाबा नाम है, नाम बाबा है। अतः दो नहीं एक है। नाम क्या? - "बाबा", बाबा क्या ? - 'नाम' अत: बाबा व नाम पृथक नहीं बाबा व नाम 'बाबानाम' इसलिए मैं कहता हूँ बाबानाम केवलम। यही है बाबानाम केवलम का अर्थ।

 
बाबानाम केवलम 
के अर्थ के 
दर्शन करने वाला
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  [श्री] आनन्द किरण "देव"
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हम मध्यमपंथी है। [we are centrist (Middle path)]

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           आनन्द किरण
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(Man's thinking, conduct and life have been divided into two branches. First is left wing and second is right wing. Both left wing and right wing are not the basis of man's thinking, conduct and life. That is, no one can follow left wing or right wing in the pure sense. Hence, in reality man is a centrist(Middle path). 

(Let us understand the movements of left wing, right wing and centre wing(Middle path) in different areas of society.) 

(१) सामाजिक क्षेत्र में (in social field) :- सामाजिक क्षेत्र में रुढ़िवादी एवं परंपरागत ढंग से चलना दक्षिण पंथ है। जबकि सब कुछ को परिवर्तन करते हुए चलना, वाम पंथ है। मध्यम पंथ सद् परंपरा को आधुनिक बनाकर ग्रहण करता है जबकि रुढ़, रुग्ण एवं बोझिल मान्यताओं को छोड़कर नूतन एवं उपयुक्त व्यवस्था का सृजन करता है। अतः कहा जा सकता है कि मध्यम पंथ वैज्ञानिक एवं क्रांतिकारी पथ है। (In the social sphere, following a conservative and traditional path is the right wing. While following everything by changing it is the left wing. The centrist wing(Middle path) adopts the good tradition by making it modern while leaving behind the orthodox, sick and cumbersome beliefs and creates a new and suitable system. Hence, it can be said that the centrist wing(Middle path) is a scientific and revolutionary path.) 

(२) आर्थिक क्षेत्र में (in the economic field) :- आर्थिक क्षेत्र में वामपंथ संसाधनों पर राज्य का अधिकार मानकर चलता है। जबकि दक्षिण पंथ व्यक्ति का अधिकार सिद्ध करता है। मध्यम पंथ बड़े एवं सार्वजनिक महत्व के संसाधनों पर समाज का तथा छोटे एवं व्यक्तिगत महत्व के संसाधनों पर व्यक्ति का अधिकार को मान्यता देता है। मध्यम तथा जन महत्व के संसाधनों पर सहकारी संस्था के महत्व को स्वीकार करता है। (In the economic sphere, the left wing believes that the state has the right over resources, while the right wing proves the right of the individual. The centrist wing(Middle path) recognises the right of society over resources of large and public importance and the individual over resources of small and personal importance. It accepts the importance of cooperative institutions over resources of medium and public importance.) 

(३) धार्मिक क्षेत्र में (in the belief field) :- वामपंथ‌ ईश्वर एवं ईश्वरीय वस्तु का मान्यता नहीं देता है तथा विध्वंसकारी छवि बना रखी है।जबकि दक्षिण पंथ भावजड़ता को मान्यता देता है तथा अंधविश्वास को मानकर चलता है। मध्यम पंथ ईश्वर को स्वीकार करता है तथा प्रगतिशील विचारधारा का समर्थक हैं। (The left wing does not accept the existence of God or divine things and has created a destructive image. Whereas the right wing accepts dogma and believes in superstition. The centrist wing (Middle path) accepts the existence of God and is a supporter of progressive ideology.) 

(४) राजनैतिक क्षेत्र में (in the political field) :- राजनैतिक क्षेत्र में वामपंथ समतावाद, समाजवाद एवं साम्यवाद का हिमायती है जबकि दक्षिण पंथ व्यक्तिवाद, पूंजीवाद एवं बोझिल विचारधारा को ढ़ो कर चलता है। मध्यम पंथ प्रगतिशील उपयोग तत्व तथा नव्य मानवतावाद को अंगीकार करता है। (In the political field, the left wing advocates egalitarianism, socialism and communism, while the right wing carries individualism, capitalism and cumbersome ideology. The centrist wing(Middle path) adopts Progressive utilization theory and Neo-humanism.) 

(५) सांस्कृतिक एवं साहित्यक क्षेत्र में (in the cultural and literary field) :- यहाँ वाम पंथ अश्लीलता, नग्नता एवं खुलापन को बढ़ावा देता है। जबकि दक्षिण पंथ लकीर का फकीर बनकर पुरातन के मोह को उठाकर चलता है। मध्यम पंथ यहाँ सांस्कृतिक एवं साहित्यक मूल्यों पुनर्जागरण पर बल देता है। (Here the left wing promotes obscenity, nudity and openness. While the right wing remains a stickler for tradition and follows the fascination for the past. The centrist wing (Middle path) here emphasizes on the renaissance of cultural and literary values.) 

(६) वैज्ञानिक क्षेत्र में (in the scientific field) :- वाम पंथ अंध वैज्ञानिककरण का समर्थक हैं। जबकि दक्षिण पंथ वैज्ञानिककरण मन से नहीं मजबूरी में अंगीकार करता है। मध्यम पंथ विज्ञान को समाज मित्र मानता है तथा मानव हित विज्ञान को बढ़ाने की सलाह देता है। (The left wing supports blind scientification. Whereas the right wing does not accept scientification willingly but out of compulsion. The centrist wing (Middle path) considers science a friend of society and advises to promote science for the benefit of mankind.) 

(७) कला के क्षेत्र में (In the field of art):- वामपंथ यहाँ अनियंत्रित एवं धनामुखी दृष्टिकोण रखता है जबकि दक्षिण पंथ अति मान्यतावादी दृष्टिकोण रखता है। मध्यम पंथ कला मानवीय भावना के विकास समाज हित में विकास की ओर ले चलता है। (The left wing here has an uncontrolled and money-oriented approach while the right wing has a very religious approach. The centrist wing (Middle path) leads towards development in the interest of society and development of art and human feelings.) 

(८) मनोरंजन के क्षेत्र में (In the field of entertainment) :- वाम पंथ मनभावन, कामुक तथा भावनात्मक मनोरंजन की धारा में चलता है। जबकि दक्षिण पंथ परंपरागत मनोरंजन को तो लेकर चलता है नव परिवर्तन में संदेह रखता है। मध्यम पंथ‌ मनोरंजन की आदर्श विधा को स्थापित करता है। जिसमें मनुष्य का हित एवं सुख निहित हो। (The left wing moves in the direction of pleasing, sensual and emotional entertainment. While the right wing moves forward with traditional entertainment but is skeptical about new changes. The centrist wing (Middle path) establishes the ideal mode of entertainment in which human welfare and happiness are inherent.) 

(९) आध्यात्मिक क्षेत्र में (in the spiritual realm) :- वाम पंथ की आध्यात्मिक क्रिया अविद्या तंत्र मूलक होती है। यह प्रकृति को खुली चुनौती देता है तथा प्रकृति के विरूद्ध चलते हैं। जबकि दक्षिण पंथी अंधविश्वास, पाखंड, आडंबर एवं अवांछित पूजा पद्धति को आध्यात्म मानता है तथा कठोर तप, व्रत, यज्ञादि को लेकर चलते हैं। मध्यम पंथ विद्या तंत्र, योग, भक्ति एवं धर्म साधना को अंगीकार करता है। (The spiritual practices of the left wing are based on ignorance(Avidhya) tantra. It openly challenges nature and goes against nature. Whereas the right wing considers superstition, hypocrisy, ostentation and unwanted worship methods as spirituality and follows strict penance, fasts, yagna etc. The centrist wing (Middle path) accepts knowledge, norance (Vidhya) tantra, yoga, devotion and Dharm sadhana (spiritual practice. )

(१०) ईश्वर के मामले में (In the case of God) :- वाम पंथ नास्तिक है, ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता है। दक्षिण पंथ आस्तिक है, ईश्वर को मानता है लेकिन जानता नहीं है। मध्यम पंथ ईश्वर को मानता भी है तथा जानता भी है, इसलिए पूर्णत्व की साधना करता है। (The left wing is atheist, does not believe in the existence of God. The right wing is theist, believes in God but does not know Him. The centrist wing (Middle path) believes in God and also knows Him, hence strives for perfection.) 

(११) सृष्टि के संदर्भ में (In the context of creation) :- वाम पंथ के दर्शन सृष्टि निर्माण में प्रकृति को प्रधान तत्व मानता है अथवा इसके संदर्भ एक नकारात्मक धारणा है‌‌। दक्षिण पंथ‌ सृष्टि को ईश्वर कृत मानता है तथा इसके संदर्भ मत मतांतर की धारणा को अधिक मान्यता देता है‌। मध्यम पंथ ईश्वर को सृष्टि आदिकारक मानते हुए, एक वैज्ञानिक व व्यवहारिक दर्शन प्रस्तुत करता है। जिस पर चलने आनन्द मिलता है। (The philosophy of the left wing considers nature to be the main element in the creation of the universe or there is a negative perception in this context. The right wing considers the universe to be created by God and gives more importance to the concept of differences in opinion in this context. The centrist wing (Middle path) considers God to be the originator of the universe and presents a scientific and practical philosophy, which gives pleasure to follow.) 

(१२) ज्ञान एवं कर्म के संदर्भ में (in the context of knowledge and action) :- वाम पंथ का ज्ञान एवं कर्म जड़ वादी तथा पदार्थ प्रधान होते हैं। भौतिकवादी ज्ञान एवं कर्म इनका विषय है। जबकि दक्षिण पंथ के ज्ञान एवं कर्म का आधार भावजड़ता (डोगमा) होता है। रिलीजनल एवं साम्प्रदायिक ज्ञान एवं कर्म इनकी विषयवस्तु है। मध्यम पंथ के ज्ञान एवं कर्म का आधार ईश्वर केन्द्रित है। आत्मज्ञान एवं आत्मसाक्षात्कार इनका प्रधान विषय है। (The knowledge and actions of the left wing are materialistic and materialistic. Materialistic knowledge and actions are their subject. Whereas the basis of the knowledge and actions of the right wing is dogma. Religious and communal knowledge and actions are their subject matter. The basis of the knowledge and actions of the centrist wing (Middle path) is God-centred. Self-knowledge and self-realisation are their main subjects.) 


(१३) मनोविज्ञान के क्षेत्र में (in the field of psychology) : - वाम पंथ का मनोविज्ञान मानवीय भावनाओं का बाहरी प्रदर्शन पर आधारित है। जबकि दक्षिण पंथ का मनोविज्ञान मान्यता एवं आस्था पर आधारित होता है। मध्यम पंथ का मनोविज्ञान मन को सम्पूर्ण रूप से समझने के आधार पर विकसित होता है। (Leftist psychology is based on the outward display of human emotions. Whereas rightist psychology is based on belief and faith. centrist (Middle path) psychology develops on the basis of understanding the mind as a whole.) 

(१४) सिद्धांत के क्षेत्र में (in the field of theory) :- वाम पंथ के सिद्धांत प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं। जबकि दक्षिण पंथ के सिद्धांत का आधार धारणा है। मध्यम पंथ के सिद्धांत थोड़ा गहरा है, वह वास्तविकता, आदर्श एवं सत्यता को प्रमाण मानकर चलता है। (The left wing theory considers direct perception as evidence. Whereas the right wing theory is based on perception. The centrist wing (Middle path) theory is a little deeper, it considers reality, ideal and truth as evidence.)

(१५) मान्यता के क्षेत्र में (in the area of ​​recognition) :- वाम पंथ की मान्यता का आधार दृश्य का है। जो देखा अथवा जो दिखता वही सत्य है। जबकि दक्षिण पंथ की मान्यता आस्था में प्रवाहित है। जिस पर आस्था है, वही सत्य है। मध्यम पंथ‌ की मान्यता विज्ञान एवं आध्यात्मिक पर आधारित है, जिस प्रगति निहित होती है। (The basis of the left wing's belief is the visible. Whatever is seen or what is visible is the truth. Whereas the right wing's belief is based on faith. Whatever is believed in is the truth. The centrist wing's (Middle path) belief is based on science and spirituality, in which progress is inherent.) 

(१६) भक्ति के क्षेत्र में (in the field of devotion) :- वाम पंथ भक्ति व्यक्तिगत एवं समुदायगत है। जबकि दक्षिण पंथ भक्ति के क्षेत्र रूढ मान्यता है, जिसमें अविज्ञान हो सकता है। मध्यम पंथ के पास भक्ति का विशुद्ध विज्ञान है। जो आत्म मोक्ष एवं जगत हित का उद्देश्य लेकर चलता है। (Left wing devotion is personal and community based. Whereas right wing devotion has traditional beliefs in the field of devotion, which may contain misunderstanding. The centrist wing (Middle path)has a pure science of devotion. Which moves forward with the objective of self liberation and welfare of the world.)

मनुष्य वास्तव एक न तो वामपंथी है तथा न ही दक्षिण पंथी है। वह तो मध्यम मार्गी है। वाम मार्ग व दक्षिण मार्ग पर जो भी चलता है। वह अहितकर जीवन पथ का वरण करता है। मनुष्य तो चाहकर भी वाम पथ अथवा दक्षिण पथ पर नहीं चल सकता है लेकिन अन्य को वामपंथी अथवा दक्षिण पंथी करार दे सकता है। (In reality, man is neither a leftist nor a rightist. He is a middle path. Whoever walks on the left or right path, chooses an unfavorable path of life. Man cannot walk on the left or right path even if he wants to, but he can label others as leftists or rightists.
नव्य मानवतावाद (Neo humanism)

श्री आनन्द किरण "देव" का आलेख
मनुष्य के चलने, सोचने एवं जीने की दिशा तय करने के लिए विचारक सदैव प्रयत्नशील रहे हैं। मनुष्य की बुद्धि सेन्टिमेंट एवं विचारपूर्ण मानसिकता के द्वारा संचालित होती है। सेन्टिमेंट अथवा भाव प्रवणता मनुष्य की अपनी नहीं परिवेश एवं परिस्थितियों से उत्पन्न बाहरी शक्ति है, जो मनुष्य को अंदर से झकझोर कर विवेक को किसी खंड में आबद्ध कर देता है, जिसके कारण वह अपने स्वतंत्र एवं समग्र विचार शक्ति उस खंड में बांधकर रख देता है। यह मनुष्य की बुद्धि की अमुक्ति की अवस्था है‌। वही विचारपूर्ण मानसिकता (rational mentality) मनुष्य की अपनी धरोहर है, जो मनुष्य एक स्वतंत्र बौद्धिक शक्ति प्रदान करती है; जिसके कारण मनुष्य अंधभक्त नहीं बनता है। ऐसे लोग मनुष्य कहलाने के अधिकरी है।

आओ हम जानते हैं कि मनुष्य ने अब तक अपने चलने, सोचने एवं जीने के क्या-क्या रास्ते तय किये है? इस खोज में चलने से पूर्व हम उनके दिशा को वर्गीकरण कर लेते हैं, जिससे अध्ययन करने में सुविधा होगी। मनुष्य के चिन्तन की प्रथमधारा को‌ भूमि केन्द्रित मानसिकता, दूसरी गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता,तीसरी मनुष्य केन्द्रित मानसिकता तथा चौथी समग्र मानसिकता है। हम प्रत्येक वर्ग में आने वाले चिन्तन का परिचय लेते हुए विषय के मूल में जाएंगे।

भू केन्द्रित चिन्तन में मुख्यतः साम्राज्यवाद, राष्ट्रवाद एवं उपनिवेशवाद आते हैं। इसके अलावा क्षेत्रवाद व अन्य खंडवाद को ले सकते हैं। राजा, नरेश, महाराजाओं, किंग, सुल्तान, नवाब एवं बादशाहओं की साम्राज्यवादी नीति ने बहते रक्त की धार पर विश्व भूगोल बनाया एवं बिगाड़ा है। उसके जबाब में राष्ट्रवाद आया, वह आया तो था अपने राष्ट्र को सत्यम् शिवम् सुन्दरम बनाने लेकिन जन्म दे दिया उपनिवेशवाद को जिसके चलते एक नये साम्राज्यवाद उदय हुआ। उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद सभी बुरा समझते हैं लेकिन राष्ट्रवाद में कमी नजर नहीं आती है। इसलिए हम राष्ट्रवाद को चर्चा में लेते हैं। राष्ट्रवाद मूलतः एक भावप्रवणता है। देश की भौगोलिक सीमा बदलते ही राष्ट्रवाद की परिभाषा बदल जाती है। जो कल तक ब्रिटिश इंडिया को अपना एक राष्ट्र समझते थे, वे आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमार, बाग्लादेश, श्रीलंका इत्यादि नामों अलग-अलग नेशनलिज्म को परिभाषित करते हैं। अतः मातृभूमि, पितृभूमि की परिभाषा राजनीति की सीमारेखा निर्धारित करती है। जैसे एक समय कराची के नागरिक की मातृभूमि हिन्दुस्तान थी, आज उनकी मातृभूमि हिन्दुस्तान तो बिलकुल नहीं। राष्ट्रवाद का मूल स्वराज को सत्यम् शिवम् सुन्दरम में प्रतिष्ठित करना, लेकिन उसमें प्रदेशवाद अपने प्रदेश को सत्यम् शिवम् सुन्दरम में बदलने के लिए बाहरी प्रदेश अथवा शेष देश की जानमाल को अपने प्रदेश में रोक ले तो राष्ट्रवाद की नींव हिल जाती है। गतिविज्ञान के नियमानुसार राष्ट्रवाद में क्षेत्रवाद जन्म लेना स्वभाविक है। राष्ट्रवाद खंड पर स्थापित है, इसलिए उसमें भौतिकवाद भी जन्म ले लेता है। यह भौतिकवाद कहता है कि मेरा भारत महान है तो मेरा नागालैंड महान क्यों नहीं? यदि पंजाब मेरी महान मातृभूमि है तो मुझे भारतमाता की आवश्यकता क्या? मैं तो मेरा कश्मीर अलग ही बना दूंगा। यह अलगाववाद जन्म ले लेता है। अतः राष्ट्रवाद सफलता राजनैतिक धारणा नहीं है। अतः भू केन्द्रित मानसिकता व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक नहीं है तथा समाज शब्द के अर्थ राष्ट्रवाद बैठने योग्य नहीं है। 

गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता जातिवाद, नस्लवाद, रंगभेद, साम्प्रदयवाद, मजहबवाद, मतवाद, पंथवाद, रिलिजनलिस्ट तथा नक्सलवाद इत्यादि के नाम से चिन्हित है। इसने मानवता को काल्पनिक आधार में विभाजित करके रखने के लिए धरती माँ को अपने पुत्र, पुत्रियों के रक्त से नहलाया है। ईसाई राष्ट्र, इस्लाम राष्ट्र, हिन्दूराष्ट्र, यहुदीराष्ट्र, सिख राष्ट्र (खालिस्तान), बंगालिस्तान इत्यादि धारणा मानवता को खून के ही आंसू देंगे, इसलिए यह सामाजिक भावप्रवणता को जन्म देता है। जो सम्पूर्ण मनुष्यत्व का विकास होने नहीं देती है। संस्कृतिवाद के नाम से गोष्ठी केन्द्रित नव मानसिकता का विकास हुआ है। जो संस्कृति के वैश्विक स्वरुप विकसित नहीं होने देता है। संस्कृति के नाम भाव जड़ता (Dogma) को अधिक पोषित होता है। टोपी पहनता, दाढ़ी रखना, मुछ काटना, तिलक लगाना, जनैऊ धारणा करना, शिखा बढ़ना, क्रोस पहनना, पगड़ी इत्यादि भौगोलिक विविधता से निखरने वाले अंश है। यह मनुष्य की अपनी संस्कृति नहीं है। मनुष्य की संस्कृति का संबंध सीधा सदवृत्ति एवं मानवीय गुणों से संबंधित है। जो सम्पूर्ण धरा के लिए समभाव सिखाती है। अतः संस्कृति को गोष्ठी में देखना मनुष्य की भूल है तथा ऐसा भाव गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता है। संघवाद, संस्थावाद, समुदायवाद समाज नहीं गोष्ठीवाद का नया नामान्तर है।

समाजवाद, उदारवाद, भूमंडलीयवाद इत्यादि मनुष्य केन्द्रित मानसिकता है, जो मानववाद, एकात्म मानववाद एवं मानवतावाद का चिन्तन देते हैं। लेकिन यह चिन्तन भी पूर्ण नहीं है। यद्यपि भू केन्द्रित व गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता से थोड़ा उच्चा है लेकिन इसने भी विश्व के साथ न्याय नहीं किया है। यह धरती, आसमान मनुष्य अकेले की बपौती नहीं है, यह अजीव, जीव, जन्तु, पेड़, पौधे, लतागुल्म, पशु, पक्षी, पर्यावरणीय अन्य सभी घटकों की साझा संपदा है। इसलिए मात्र मनुष्य को केन्द्रित कर चिन्तन का विकास जगत के साथ न्याय नहीं कर सकता है। पर्यावरणीय सोच, रिडिकल अथवा नव मानववाद (Radical or new Humanism), सर्व कल्याणकारी चिन्तन इत्यादि भी मनुष्य से उपर उठकर चिन्तन देते हैं लेकिन यह भी विश्व के न्याय किये बिना ही अतीत के अंधकार में समा जाते हैं। इसने अवश्य मनुष्य को सबके बारे सोचने का अवसर दिया लेकिन सबका कल्याण नहीं कर पाए। 

 मनुष्य एवं मनुष्योत्तर चिन्तन से भी उपर एक सर्वांगीण चिन्तन की आवश्यकता थी, जो लेकर आए युग के महानायक श्री प्रभात रंजन सरकार जिन्होंने सबके, सर्वांगीण कल्याण के लिए नव्य मानवतावाद (Neo humanism) का चिन्तन दिया। यह रिडिकल मानववाद से प्रभावित नहीं है। यह एक विशुद्ध नया चिन्तन है। अतः हम श्री प्रभात रंजन सरकार के नव्य मानवतावाद को समझने की कोशिश करते हैं। नव्य मानवतावाद अणु-परमाणु, जीव-अजीव तथा विश्व ब्रह्माण्ड के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण सभी घटकों के लिए चिन्तन है। जब तक इन सभी अवयवों के साथ उचित न्याय नहीं किया जाता है तब मनुष्य के चलने, सोचने एवं जीने का कोई भी चिन्तन मनुष्य को मानव कहलाने का हक नहीं दिला सकते हैं। जीवदया जीवों के साथ न्याय नहीं है, अपितु जीव-अजीव को उसका उचित अधिकार देना जगत के साथ न्याय है। नव्य मानवतावाद सेवा को नारायण सेवा का रुप प्रदान करता है। जिससे सेव्य एवं सेवक में भेद नहीं रहता है। इसलिए नव्य मानवतावाद सृष्टि के भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों पहलूओं को लेकर आगे बढ़ता है‌। मानवेन्द्र नाथ राय के रेडिकल मानववाद जिसे नव मानववाद कहा जाता है ने भौतिक एवं नैतिक पक्ष को तो महत्व दिया लेकिन आत्मिक पक्ष को छोड़ देने के कारण वैश्विक कल्याण नहीं कर पाये। नव्य मानवतावाद जीव-अजीव में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। अतः नव्य मानवतावाद मनुष्य का ही नहीं समग्र सृष्टि के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कल्याण का चिन्तन प्रस्तुत करता है। व्यष्टि के रूप सभी घटक के व्यष्टिगत तथा समष्टि के रूप में समष्टिगत कल्याण का चिन्तन देते हैं। अतः नव्य मानवतावाद के संदर्भ में सबसे बड़ी बात लिखी जा सकती है कि यह एक पिपिलिका एवं एरावत के दर्द एवं हीत का समान अनुभव करता है। अतः निर्विवाद एवं निर्विघ्न कहा जा सकता है कि नव्य मानवतावाद केवल मनुष्य का ही हितकारी एवं सुखकारी चिन्तन नहीं है। यह सभी के हित एवं सुख को मध्य नज़र रखकर प्रदान किया गया है। यह बात सही है कि इसको अब मनुष्य ही समझ पाता है लेकिन वह दिन अधिक दूर नहीं है कि इसकी समझ अन्य में भी विकसित होगी।

नव्य मानवतावाद अकेले पर बहुत कुछ लिखा जाना है लेकिन आलेख के सारांश यही लिखा जाएगा कि भू, गोष्ठी, मनुष्य, मनुष्योत्तर केन्द्रित चिन्तन बुद्धि की मुक्ति की अवस्था नहीं है। बुद्धि की मुक्ति की अवस्था मात्र एवं मात्र नव्य मानवतावाद है। यही नव्य मानवतावाद का गागर में सागर समावेश है। आलेख को विराम देने की वेला है लेकिन नव्य मानवतावाद के बारे एक बात लिखे बिना आलेख को समाप्त कर दिया तो स्वयं नव्य मानवतावाद के साथ न्याय नहीं है। नव्य मानवतावाद ईश्वर केन्द्रित चिन्तन है। इसका ईश्वर जगतपिता, जगतपति और जगतगुरु है, इसलिए यह जीव में शिव का दर्शन कराता है। यही नव्य मानवतावाद के संदर्भ सबसे बड़ी एवं चोखी बात है।
बुद्धि की मुक्ति (liberation of the intellection)
 
         
मनुष्य की बुद्धि, जहाँ अटक कर रह जाती है। वहाँ जकड़ जाती है। इसलिए मनुष्य को अपनी बुद्धि की मुक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए। इस पाठ में जानना चाहिए कि हमारी बुद्धि कहाँ कहाँ अटक कर रह सकती है तथा उस अटकन से क्या क्या परिणाम निकलते हैं? तत्पश्चात बुद्धि की मुक्ति का अन्तिम पाठ 'मुक्ति' कैसे? पढ़ने की आवश्यकता है। अतः बिना विलंब किये बुद्धि की मुक्ति का पाठ पढ़ने की ओर चलते हैं। 

बुद्धि की मुक्ति का पाठ पढ़ने निकले हैं, तो यह भी देखना होगी कि हमसे पहले इस पाठ किसी ने पढ़ा है? उनका अध्ययन पत्र क्या बताता है? बुद्धि पर दुनिया में ढ़ेरों अध्ययन पत्र लिखें गए लेकिन बुद्धि की मुक्ति का एकमात्र अध्ययन पत्र श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा तैयार किया गया। इसलिए श्री प्रभात रंजन सरकार के अध्ययन पत्र को आधार मानकर हम बुद्धि की मुक्ति पाठ पढ़ने को चलेंगे। उनके अध्ययन पत्र से मिलता है कि मनुष्य की बुद्धि के विकास की यात्रा सामाजिक भावप्रवणता (Socio sentiment) एवं भौम भावप्रवणता (Geo sentiment) के आपेक्षिक तत्वों के बीच से होकर गुजरती है। अतः उस पर सामाजिक भावप्रवणता एवं भौम भावप्रवणता के छींटे लगते है। जब मनुष्य के समक्ष कोई विराट आदर्श नहीं होता है तब मनुष्य की यह बुद्धि सामाजिक भावप्रवणता एवं भौम भावप्रवणता में अटक कर रह जाती है। इसलिए बुद्धि की मुक्ति का एक अभियान चलाने की आवश्यक है। 

भावप्रवणता (sentiment) से बुद्धि की मुक्ति की ओर :- मनुष्य जैसे उन्नत चैतन्य युक्त प्राणी की बुद्धि का भावप्रवणता की ओट में गोते खाते रहना निस्संदेह दुखद विषय है। भावप्रवणता सामाजिक हो अथवा भौगोलिक हो दोनों ही मनुष्यत्व के विकास को अवरुद्ध कर देती है। इसलिए ऐसी स्थिति को गाढ़ देना ही मनुष्य का कर्तव्य है। बुद्धि की मुक्ति यात्रा को कुछ समय के लिए यहाँ रोक कर सामाजिक भावप्रवणता एवं भौम भावप्रवणता की भयानक तस्वीर को देख लेते हैं।

सामाजिक भावप्रवणता एक गोष्ठी में मनुष्य की बुद्धि को आबद्ध कर देती है। यह गोष्ठीगत बुद्धि ने इतिहास में कई लहूलुहान पृष्ठ को लिखे है, जिसने मनुष्य की विकास यात्रा को दूषित किया है। अतः सामाजिक भावप्रवणता की भयानक तस्वीर मनुष्य के समक्ष रखना आवश्यक है। जाति एवं सम्प्रदाय की यह लड़ाइयाँ विकास की नहीं अवनति की कहानियाँ लिखती हैं, जो मनुष्य के मस्तिष्क पर एक कलंक का काला टिका लगाती है। अतः इस दैत्यो चित्त तस्वीर फाड़ देना ही होगा। जाति एवं सम्प्रदाय मनुष्य के नैसर्गिक गुण नहीं है, यह‌ परिस्थितियों से उत्पन्न मानवता पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव है। इसने मानवता को ग्रहण लगाने का काम किया है। इन राहु-केतु के हाथों मानवता को बचाना ही बुद्धि की मुक्ति की यात्रा का प्रथम चरण है। जब मनुष्य जाति अथवा सम्प्रदाय की ओट में अपनी पहचान खो देता है तब वह स्वधर्म को छोड़कर परधर्म में खो जाता है। उसकी दशा हड्डी चबाते श्वान जैसी हो जाती है, जो अपने ही रक्त का रसास्वादन कर खुशी का एहसास करता है। यह दृश्य मनुष्य को परम शांति अर्थात आनन्द नहीं दे सकता है। अतः मनुष्य की बुद्धि को रुग्ण करने वाली इस मानसिकता के विरुद्ध मनुष्य को लड़ना ही होगा। जातिवाद एवं साम्प्रदायिकता की जहर को उगलने वाले इन विषधर नागों के फन कुचल देने होगें। इससे लड़कर मनुष्य को आगे बढ़ना ही होगा। अन्यथा मानव के वेश में हमें शैतान मिलेगा। 

भौम भावप्रवणता भी सामाजिक भावप्रवणता जैसा ही दूसरा दैत्य है। जो गोष्ठी की बजाए भूमि में समाया होता है। भूमि केन्द्रित मानसिकता को लेकर यह बुद्धि अपने कुएँ को ही समुद्र मान लेते हैं। उसकी रंगरोगन में दूसरे कुओं की बालू मिट्टी खोद खोदकर सुखा देते हैं। उदाहरण के लिए उग्र राष्ट्रवाद ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया था। इस उपनिवेशवाद ने मानवता को अपने पैरों तले कुचल डाला था।यह उपनिवेशवाद आज भी मरा नहीं है। यह नया रूप लेकर अपने आपको आर्थिक जगत में स्थापित कर दिया है। उसके जरीये उसने सामाजिक आर्थिक इकाइयों के स्व:निर्भर होने की जिजीविषा को ही खत्म करने में आतुर है। इसके चलते भौम भावप्रवणता ने सामाजिक भावप्रवणता से भी खतरनाक तस्वीर बना दी है। इससे बुद्धि को मुक्त होने के लिए बहुत अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता है। यह देशप्रेम जैसे आदर्श को मनुष्य के समक्ष रखकर अपने शोषण के यंत्र चलाते रहते हैं। मैं देशप्रेम का विरोधी नहीं हूँ लेकिन देशप्रेम की उक्ति देकर दूसरे देश के प्रति जहर उगलना तथा दूसरे देश प्रदेश के संसाधनों का हित में प्रयोग करना निस्संदेह बुद्धि के साथ किया जाने वाला दुष्कर्म है। कभी कभी तो यह वैश्विककरण का नाम देकर निजी कंपनियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नाम पर मानव मस्तिष्क में उतारकर स्थानीय उत्पाद को शून्य में धकेल देती है तथा स्थानीय बाजार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर देती है। जिससे स्थानीय जनता का जीवन नौकर सा बनकर रह जाता है और स्थानीय पूंजी एवं संसाधनों का दोहन निजी कंपनियाँ जो तथाकथित तौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहलाती है, वे अपने हित में करती है‌। यहाँ मनुष्य की बुद्धि किसी भी रुप से मुक्त नहीं है। अतः बुद्धि की मुक्ति के अभियान को यहाँ रोकने से नहीं चलेगा। उसे आगे बढ़ना ही होगा। अपनी सामाजिक आर्थिक इकाई को सभी दृष्टि से सशक्त बनाना ही होगा लेकिन इस तस्वीर को बनाते समय सार्वभौमिक चिन्तन को अवरुद्ध करने से काम नहीं चलेगा। 

मनुष्य बुद्धि की मुक्ति की क्रमिक यात्रा सामाजिक भावप्रवणता (Socio sentiment) तथा भौम भावप्रवणता (Geo sentiment) के हाथों स्वयं को किसी न किसी रुप से बचाकर मानववाद अथवा मानवतावाद में लटक जाता है। श्री प्रभात रंजन सरकार का शोधपत्र कहता है कि यहाँ भी बुद्धि की मुक्ति नहीं है। मानववाद, एकात्मक मानववाद एवं मानवतावाद मनुष्य की बुद्धि को मनुष्य तक सीमित करके रख देते हैं। जीव‌जन्तु, पर्यावरण तथा विश्व ब्रह्माण्ड में पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़े हुए हैं। मनुष्य की बुद्धि की मुक्ति के लिए मानववाद, एकात्मक मानववाद तथा मानवतावाद कारगर नहीं है। इसके लिए एक नूतन अवधारणा नव्य मानवतावाद की आवश्यकता है।

मानववाद सीधा मानव को ही प्राथमिकता देता है, जबकि मानवतावाद मानवीय गुणों को लेता है। फिर भी मानवतावाद मनुष्य के साथ न्याय नहीं करता है। इसका उद्देश्य मानववाद के तुल्य ही होता है। मानववाद सीधा मानव तक ही ले जाता है जबकि मानवतावाद घुमा फिरा कर मानव तक ही सीमित रखता है। अब यदि एकात्मक मानववाद को देखा जाए तो यह मनुष्य को सपना बड़ा दिखाकर मानव में लाकर पटक देता है। यह ब्रह्माण्ड अवश्य ही दिखाते हैं लेकिन चैतन्य में प्रतिष्ठित करने की बजाएं जड़ भौतिक अवस्था में ही मनुष्य को बिठा देता है। अतः एकात्मक मानववाद भी बुद्धि की मुक्ति नहीं दे सकता है। 

नव्य मानवतावाद में बुद्धि की मुक्ति होती है। यह शास्वत चैतन्य में मनुष्य प्रतिष्ठित करने के लिए ले चलता है। यह सभी मनुष्य को सामाजिक भावप्रवणता,भौम भावप्रवणता, मानववाद, एकात्मक मानववाद तथा मानवतावाद से बुद्धि को मुक्त करने के साथ बौद्धिक मायाजाल से स्वतंत्र करता है। नव्यमानवतावाद यही नहीं रुकता है। यह मनुष्य को परम चैतन्य में भी अधिष्ठ करने के लिए आनन्द मार्ग पर ले चलता है। जब तक मनुष्य के एक विराट आदर्श नहीं होता है तब मनुष्य की मुक्ति कई अटक रह जाती है। अतः सप्रमाण सिद्ध होता है कि एक मात्र नव्यमानवतावाद में ही बुद्धि की मुक्ति प्रदान करता है।