[25/08, 9:23 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
अंधविश्वास माँ और शराब पिता (खतरनाकों में बड़ा कौन?)
पिता की आँखों में छलके, रात का गहरा साया,
लड़खड़ाते कदमों ने, घर में आँधी लाया।
मगर उस आँधी में, एक दर्द छिपा होता था,
वो जानता था ज़हर है ये, जो खुद पीता था।।
उसने कभी न चाहा, मेरे बच्चे भी ये ज़हर चखें,
अपनी बर्बादी की राह पर, वे कभी न चलें।
टूटे हुए शीशे से भी, उसने हमें बचा रखा,
अपनी हार का बोझ, हम पर नहीं रखा।।
मगर माँ का वो प्यार, जो ढँका था भ्रम से,
धर्म के नाम पर, जो भर देता था डर से।
एक-एक धागे में, वो जादू भरती थी,
अंधविश्वास की रस्सी से, हमें कसती थी।।
वो कहती थी यही राह, यही है तेरा जीवन,
बिना इसके सब व्यर्थ, बिना इसके अँधेरा वन।
उसे लगता था मेरा पुत्र, मुझसे भी बड़ा अंधभक्त हो,
भ्रम की दुनिया में, वो मुझसे भी आगे सक्त हो।।
एक ज़हर तन को मिटाए, दूजा मन को खाए,
एक से निकल सकते, दूजे में उलझते जाए।
पिता ने तो गलती से, खुद को ही जलाया,
माँ ने तो विश्वास से, हमें अंधा बनाया।।
इसलिए सच है ये, जो आपने कहा,
एक ने दर्द दिया, दूजे ने जीवन ही मिटा दिया।
एक ने तोड़ा खुद को, दूजे ने हमें भी तोड़ दिया,
अंधविश्वास ने, हमें बेड़ियों में जकड़ दिया।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[26/08, 11:54 am]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
मैं अभिमन्यु, चक्रव्यूह में फँसा,
द्वार खुले, पर निकलने का मार्ग न सुझा।
शिक्षा का धनुष, ज्ञान की ढाल,
पर पेट की आग बुझाए कौन, ये है सवाल।।
*कैसा है यह विकास, जहाँ पेट है भूखा, और हाथ है खाली?*
रोजगार की आस में, भटकता दर-दर,
डिग्री का बोझ, और खाली है घर।
माथे पर चिंता, आँखों में निराशा,
देश की युवा शक्ति, आज है हताशा।।
*कैसा है यह विकास, जहाँ पेट है भूखा, और हाथ है खाली?*
सरकारें आतीं, जातीं, वादों का जाल,
चुनावों में गूँजती, मीठी-मीठी चाल।
युवाओं के सपने, बस कागज़ पर लिख दिए,
आज भी यहाँ, हजारों ने भूखे पेट सो लिए।।
*कैसा है यह विकास, जहाँ पेट है भूखा, और हाथ है खाली?*
पिताजी से नज़रे मिलाना है मुश्किल,
माँ के आँसुओं को, देख रहा है दिल।
"कुछ तो करो," वो कहते हैं बार-बार,
पर क्या करूँ, जब हर जगह है बंद द्वार।।
*कैसा है यह विकास, जहाँ पेट है भूखा, और हाथ है खाली?*
भूख से तड़पता, यह मेरा भारत,
क्या यही है मेरे देश की हकीकत?
सपनों का बोझ, और उम्मीदों की लाश,
क्या कोई नहीं है, जो बुझाए यह प्यास?
*कैसा है यह विकास, जहाँ पेट है भूखा, और हाथ है खाली?*
प्रउत व्यवस्था में, यह तो है समाधान,
रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा का हो विधान।
सभी को मिले जीवन की मूलभूत सुरक्षा,
तभी तो देश में हो, सही मायने में प्रगति-व्यवस्था।।
*ऐसा होगा यह विकास, जहाँ न पेट है भूखा, और न हाथ है खाली?*
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[26/08, 12:15 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
घर-घर में फैला है देखो, झूठ का अंधियारा।
सच्चाई को रौंदकर, नेता बन बैठा है हत्यारा।।
भले ही मिल जाए सिंहासन, और मिले सम्मान।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
जनता को तो बहकाया है, मीठी-मीठी बातों से।
विकास को तो रोका है, झूठे-झूठे वादों से।।
स्वार्थ ने तो फैलाया है, घिनौना जाल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
भ्रष्टाचार की जड़ें देखो, कितनी हैं गहरी।
रिश्वतखोरी के बिना, न हो कोई भी फाइल पूरी।।
सरकारी दफ्तरों का हाल, है देखो बेहाल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
जनता की सेवा का, नारा तो देते हैं हर पल।
पर गरीबों का तो देखो, लूटते हैं ये हर पल।।
गरीबों का खून चूसते, ये तो बने हैं नरभक्षी।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा, परवाह नहीं है किसी को।
अस्पतालों में मरते हैं लोग, परवाह नहीं है किसी को।।
युवाओं का भविष्य तो देखो, लग रहा है अधर में।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
किसान सड़कों पर मरता है, पर किसी को कोई गम नहीं।
महंगाई की मार से देखो, जनता को कोई रहम नहीं।।
महंगाई ने तो मचा रखा है, हर जगह हाहाकार।।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
धर्म और जाति के नाम पर, ये तो फैलाते हैं नफरत।
भाई-भाई को लड़ाकर, ये तो बने हैं मुजरिम।।
सामाजिक सद्भाव को तो, इन्होंने मिटाया है।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
सच्चे देशभक्तों का तो देखो, कहीं नामोनिशान नहीं।
झूठे राष्ट्रवाद का, कहीं अंत नहीं।।
देश की सेवा का दिखावा, ये तो करते हैं हर पल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
स्वतंत्रता के नाम पर, ये तो करते हैं गुलामी।
लोकतंत्र की दुर्दशा तो देखो, है बड़ी ही दर्दनाक।।
संविधान का सम्मान, ये तो करते नहीं।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
प्रउत व्यवस्था में न कोई नेता होगा, न होगी नेतागिरी,
राजनीति में वही रहेगा, जिसको करनी होगी सेवा।
तब होगा भारत स्वच्छ, और जागेगा हर इंसान।।
तब ही तो होगा, देश का कल्याण।
तब कोई नहीं बोलेगा, भगवान बचाए नेता बनने से।।
[26/08, 1:48 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
घर-घर में फैला है देखो, झूठ का अंधियारा।
सच्चाई को रौंदकर, नेता बन बैठा है हत्यारा।।
भले ही मिल जाए सिंहासन, और मिले सम्मान।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
जनता को तो बहकाया है, मीठी-मीठी बातों से।
विकास को तो रोका है, झूठे-झूठे वादों से।।
स्वार्थ ने तो फैलाया है, घिनौना जाल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
भ्रष्टाचार की जड़ें देखो, कितनी हैं गहरी।
रिश्वतखोरी के बिना, न हो कोई भी फाइल पूरी।।
सरकारी दफ्तरों का हाल, है देखो बेहाल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
जनता की सेवा का, नारा तो देते हैं हर पल।
पर गरीबों का तो देखो, लूटते हैं ये हर पल।।
गरीबों का खून चूसते, ये तो बने हैं नरभक्षी।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा, परवाह नहीं है किसी को।
अस्पतालों में मरते हैं लोग, परवाह नहीं है किसी को।।
युवाओं का भविष्य तो देखो, लग रहा है अधर में।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
किसान सड़कों पर मरता है, पर किसी को कोई गम नहीं।
महंगाई की मार से देखो, जनता को कोई रहम नहीं।।
महंगाई ने तो मचा रखा है, हर जगह हाहाकार।।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
धर्म और जाति के नाम पर, ये तो फैलाते हैं नफरत।
भाई-भाई को लड़ाकर, ये तो बने हैं मुजरिम।।
सामाजिक सद्भाव को तो, इन्होंने मिटाया है।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
सच्चे देशभक्तों का तो देखो, कहीं नामोनिशान नहीं।
झूठे राष्ट्रवाद का, कहीं अंत नहीं।।
देश की सेवा का दिखावा, ये तो करते हैं हर पल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
स्वतंत्रता के नाम पर, ये तो करते हैं गुलामी।
लोकतंत्र की दुर्दशा तो देखो, है बड़ी ही दर्दनाक।।
संविधान का सम्मान, ये तो करते नहीं।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।
प्रउत व्यवस्था में न कोई नेता होगा, न होगी नेतागिरी,
राजनीति में वही रहेगा, जिसको करनी होगी सेवा।
तब होगा भारत स्वच्छ, और जागेगा हर इंसान।।
तब ही तो होगा, देश का कल्याण।
तब कोई नहीं बोलेगा, भगवान बचाए नेता बनने से।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[27/08, 12:51 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी।
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।।
अंधेरी रात थी, फैला था मौन।
संस्था का शिखर, हो गया था गौण।।
ज्ञान के दीपक बुझने लगे थे।
प्रतिष्ठा के धागे छूटने लगे थे।।
मुख्यालय में सन्नाटा पसरा।
प्रेम का भाव कहीं खो गया था।।
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी।
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।।
लड़खड़ाती संस्था की नींव।
फैला था हर ओर संदेह और अविश्वास।।
शासन का केंद्र टूट गया था।
हर कार्यकर्ता अपने पथ से भटक गया था।।
सत्य के स्थान पर झूठ था।
प्रेम के स्थान पर द्वेष था।।
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी।
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।।
अराजकता का था हर ओर वास।
नियमों का था नहीं कोई आस-पास।।
कार्यकर्ताओं में मच गई थी भगदड़।
हर कोई था खुद के लिए निष्ठुर।।
विखंडन की चरमसीमा।
नहीं थी कोई मर्यादा, कोई गरिमा।।
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी।
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।।
फिर कुछ आध्यात्मिक योद्धा जागे।
धर्म की रक्षा के लिए आगे भागे।।
सत्य की मशाल हाथों में लेकर
ज्ञान की तलवार से अज्ञान को काटकर।।
अधर्मियों से उन्होंने लड़ाई लड़ी।
धर्म की राह फिर से गढ़ दी।।
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी।
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।।
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी,
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।
भले ही पुरोधा प्रमुख चोरी हो गए।
पर उनका दिया पद और सम्मान नहीं खो जाए।।
धर्म के सिपाही लड़ रहे हैं।
फिर से सबको एक कर रहे हैं।।
विश्वास और भक्ति का दीप जलाकर।
संस्था को वापस से खड़ा कर रहे हैं।।
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी।
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[27/08, 1:25 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): •
(एक पाखंडी इंसान की कथा)
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।
कहे वचन मीठे हैं जैसे मिश्री,
मन में विष का भाव भरा।
ऊपर से साधु का बाना पहने,
अंदर से छल ही खरा।।
जप-तप की माला लेकर बैठे,
और मन में लोभ पला।
आडंबर की दुनिया रचे,
जिसमें सत्य छिप चला।।
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।
मंदिर-मस्जिद में शीश नवाए,
बाहर आकर झूठ बोले।
धर्म के नाम पर धंधा चलाए,
पाप की गठरी खोले।।
ज्ञान की बातें वो सबको सुनाए,
खुद अज्ञान में डूबा है।
धर्म का चोला ओढ़े नास्तिक,
ईश्वर से भी रूठा है।।
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।
ऊंचे आसन पर बैठ उपदेश दे,
खुद आचरण से खाली।
दिखावटी भक्ति का खेल रचे,
चेहरे पर लगा के लाली।।
साधु का वेश धरकर घूमता,
भोले भक्तों को बहलाता।
अंदर से है वो कसाई,
जो धर्म को भी बेच खाता।।
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।
सत्य को ढँके झूठ के पर्दों से,
और खुद को ज्ञानी बताए।
धर्म का पाठ पढ़ाए दूसरों को,
पर खुद ही भटका जाए।।
वस्त्रों में धर्म को छिपाए,
मुख पर झूठी हँसी लावे।
अंधविश्वास की चादर ओढ़कर,
वो खुद को संत कहावे।।
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।
हर मोड़ पर रंग बदलता,
जैसे मौसम बदले।
आज धर्म की बात करे,
कल अधर्म के संग चले।।
पाखंड का मुखौटा पहनकर,
वह खुद को बड़ा दिखाए।
अंदर से खोखला वह इंसान,
हर दिन धर्म को शर्मिंदा कराए।।
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।
प्रस्तुति : *आनन्द किरण*
[27/08, 3:17 pm] करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): *दोगला मित्र*
बचपन का साथी वो, संग था खेला।
प्यार का बंधन था, ना कोई झमेला।।
अब मतलब के लिए, बदलता है रंग।
करके वादा मीठा, देता है धोखा।।
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।
जब धन का सागर, उमड़कर आया।
गरीब के दिल को, उसने दुखाया।।
झूठे वादों से, वो रिश्ता निभाता।
खुशहाली देखके, पास आता है।।
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।
जब मुश्किलों का, पहाड़ टूट जाता।
तब भी वो, मुँह फेर लेता।।
पीछे से देता, बुरी-बुरी बातें।
सामने से मीठी, करता है बातें।।
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।
आज यहाँ दोस्ती, कल वहाँ दोस्ती।
लाभ जहां मिले, वहीं करता दोस्ती।।
सच्चे दोस्त को, वो ठुकराता है।
और झूठे यार से, हाथ मिलाता है।।
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।
कभी मीठा बोल, कभी कड़वा बोल।
अपने मतलब का, वो खोलता है पोल।।
मतलब पूरा हो, तो सब कुछ देता।
नहीं तो फिर, वो सब कुछ ले लेता।।
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।
जब उसकी जरूरत, तो वो आता है।
जब तेरी जरूरत, वो भाग जाता है।।
मतलबी दुनिया में, वो जीता है।
और दूसरों को, वो दुःख देता है।।
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।
ऐसे मित्र से, दूर रहना चाहिए।
अपने दिल को, समझाना चाहिए।।
जो पीठ पीछे, बुरी बात करता है।
वो कभी भी, सच्चा मित्र नहीं होता।।
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।
सच्ची दोस्ती, तो वो है जो,
अच्छे और बुरे में, साथ निभाए।
दोगले मित्र का, साथ छोड़ दो,
सच्चे मित्र का, हाथ पकड़ लो।।
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।
प्रस्तुति *आनन्द किरण*
[27/08, 3:40 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
नभ में अंधकार घना छाया,
अग्नि ज्वाला सी लपटों ने, एक अशुभ दिन को सजाया।
माथे पर चंदन, फूलों की माला,
साजिश की चादर ओढ़े बैठा, एक हथियारधारी बाला।।
उल्लास की जगह, पसरा सन्नाटा।
एक प्रखर नेता का जीवन, हुआ असमय ही छोटा।।
शैतान ने अपना रूप दिखाया।
मासूमों का लहू बहाया।।
लाल सलाम का जहर
लाल झंडे लिए कुछ लोगों ने, दुनिया को समता का सपना दिखाया।
मगर उसकी ही एक धारा ने, मासूमों का लहू बहाया।।
गरीबी, लाचारी का नाटक कर,
देश के जवानों का खून पिया।
छद्म विचारधारा की आड़ में,
देश को खोखला कर दिया।।
शैतान ने अपना रूप दिखाया।
मासूमों का लहू बहाया।।
बंटवारे का दंश
पंजाब की धरती पर, शस्त्रों की गूँज।
स्वर्ण मंदिर में गूँजती, नफरत की गूँज।।
कश्मीर की वादियों में, बंदूक की छाया।
हिन्दू और मुसलमान को आपस में भिड़ाया।।
असम की धरती पर, रंगों की होली,
धर्मांधता ने खेली, लाशों की होली।
तमिलनाडु का तट भी, खून से रंगा,
एक निर्दोष का जीवन, हिंसा ने डसा।।
शैतान ने अपना रूप दिखाया
मासूमों का लहू बहाया।।
अंध आस्था की ज्वाला
धर्म के नाम पर, आस्था का सौदा।
अंधविश्वास ने फैलाया, आतंक का पौधा।।
आज़ादी के नाम पर, इंसान को मारा
खुदा और भगवान के नाम पर, नरसंहार पसारा।।
इन आतंकवादी शैतानों का,
न है कोई मजहब, न कोई ईमान।
इनके दिल में बस हिंसा है,
और पशुता का ही इल्म।।
शैतान ने अपना रूप दिखाया।
मासूमों का लहू बहाया।।
विजय की आशा
जब तक रहेगा, सत्य और अहिंसा का ज्ञान।
तब तक हारेगा, शैतान और आतंक का अभियान।।
नफरत को प्रेम से मिटाओ।
अंधेरे में ज्ञान का दीपक जलाओ।।
सत्य की राह पर चलो।
और मानवता को बचाओ।।
शैतान ने अपना रूप दिखाया,
मासूमों का लहू बहाया।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[29/08, 5:54 am]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
अणुचैतन्य कण कण में समाया,
जीवन का यह अंश कहलाता है।
जन्म मरण के बंधन से परे,
अविनाशी यह रूप अनन्त है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
यह जीवात्मा हर जीव में है,
कर्मों का लेखा-जोखा धारता है।
सुख-दुःख की यात्रा को जी कर,
अपनी ही पहचान तलाशता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
क्षणभंगुर इस जग में,
अमिट ज्योति सा चमकता है।
अविनाशी, अनन्त यह जीवात्मा,
अपना पथ स्वयं ही बनाता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
वह भूमाचैतन्य है जो सब में है,
पर फिर भी सबसे अलग रहता है।
नित्य, शुद्ध और निराकार,
कभी किसी रूप में नहीं दिखता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
वह निराभास और निरंजन,
इस सृष्टि का आधार है।
सागर की तरह विशाल,
शांति का भंडार है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
उसके नाम से ही सृष्टि चली,
उसमें ही सब कुछ समाया है।
वह परम आत्मा है जो,
हर चेतन और अचेतन में छाया है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
वह भूमाचैतन्य ज्ञान का सागर है,
जिसमें सब कुछ विलीन होता है।
वह परब्रह्म और परमेश्वर,
जो अनंत काल से रहता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
उसकी महिमा अपरंपार है,
उसकी शक्ति का कोई अंत नहीं।
वह सर्वव्यापी और सर्वज्ञ है,
उसकी सीमा का कोई खंड नहीं।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
वह निराकार होते हुए भी,
हर आकार में दिखता है।
वह भूमाचैतन्य है जो,
हर जगह ही बसता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
जब जीवात्मा को हो परम ज्ञान,
परम सत्य की होती है पहचान।
अणुचैतन्य भूमाचैतन्य से,
जुड़ जाता है फिर अनजान।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
तब अणुचैतन्य भूमा में समाता है,
अपने ही घर में लौट आता है।
अनन्त की खोज में निकला था,
उसी में विलीन हो जाता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
मिलन का यह क्षण कितना पावन,
जीव का परम लक्ष्य पूरा होता है।
आत्मा परमात्मा से मिलकर,
जन्म मरण के बंधन तोड़ता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
तब न अणु है, न भूमा है,
केवल एक ही सत्ता है।
एकाकार यह परम दशा है,
जिसे पाना ही सब कुछ है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[30/08, 6:35 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
(भ्रष्टाचार पर एक व्यंग्य कविता)
चाँद की नगरी में थी अद्भुत शांति,
पुलिसकर्मी लेते थे विश्राम, न थी कोई भ्रांति।
वेतन था ऊँचा, कार्य था बस सोना-खाना,
सम्राट को ना भाया उनका आलस पुराना।
भेजा दल पृथ्वी पर, खोजने सक्रिय बल,
देख भारतीय पुलिस को, हुआ वे बेकल।
दिन-रात दौड़ते, चालान काटते, करते दंगा शांत,
भारत की पुलिस देख, दल हुआ अति प्रशांत।
मेरा भारत महान!
*प्रशिक्षु की होड़*
भारत से प्रशिक्षक भेजने की जब खबर उठी,
चाँद जाने की होड़ हर पुलिसकर्मी में मच उठी।
सबने सोचा, ये तो है कमाई का अवसर,
रिश्वत और पहुँच से, मेरा हुआ चयन, प्रधान।
सोचा, जो दिया है, सौ गुना कमाकर ही लौटूँगा,
यही मेरा लक्ष्य है, इसी पर मैं डटूँगा।
पायलट से रिश्वत माँगी, उसने दी धमकी,
डरा-सहमा बैठ गया, हो गई हवा फीकी।
मेरा भारत महान!
*वेतन में कटौती*
चाँद पर स्वागत हुआ, मिली मुझे सारी सत्ता,
देखा वेतन-पंजिका, तुरंत दिया फैसला।
"महाराज, समस्या का हल है यही सही,"
वेतन दस गुना घटा दो, कह दी मैंने वही।
पुलिसकर्मी घबराए, मचा हाहाकार,
"यह क्या किया आपने?", बोले वो बारंबार।
मुस्कुराकर मैंने कहा, "घबराओ मत यार,
आओ, दिखाऊँ तुम्हें कमाई का नया द्वार।"
मेरा भारत महान!
*कमाई का रास्ता*
गरीबों को धमकाया, अमीरों से ली रिश्वत,
बेकसूरों को फँसाया, ले ली खूब दौलत।
अपराधी को जेल में रखा, फिर मोटी ज़मानत,
"ये तुम्हारे कमाऊ बेटे हैं," दी उन्हें ये हिदायत।
लाइसेंस, हेलमेट से कमाओ, छिपाओ सरकारी धन,
एक प्रतिशत ही जमा करो, बाकी है तुम्हारा मन।
यही शिक्षा देकर लौटा, छोड़ दिया वो देश,
चाँद की पुलिस अब करती, दिन-रात भाग-दौड़।
मेरा भारत महान!
*निष्कर्ष*
चाँद के सम्राट हुए पहले तो प्रसन्न,
देख पुलिस को दौड़ते, हो गया मन मग्न।
पर एक युग बाद, जब देखा दिवाला,
भारत को भेजा आपत्ति-पत्र, हुआ वो हताश।
उत्तर मिला हमारे सचिव से, "यह सब वर्षों से जारी,
फिर भी हम हैं ज़िंदा, यही है हमारी शान।"
हमारी व्यवस्था की यही है अनोखी पहचान।
यह है हमारा भारत, जो है दुनिया में महान।
मेरा भारत महान!
प्रस्तुति : आनन्द किरण
[30/08, 8:44 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
• ॐ •
---
ज्ञान की ज्योति जलाई,
जीवन राह दिखाई।
शब्दों की माला पिरोकर,
अंधकार से मुक्ति दिलाई।।
हरि ॐ तत्सत
गुरु ने जब माँगा,
वो गुरु दक्षिणा का दान।
स्वार्थ नहीं था उसमें,
शिष्य के हित का ही सम्मान।।
हरि ॐ तत्सत
गुरुत्व ने था माँगा,
शिष्य के जीवन का सार।
सार्थक हो जाए उसका पथ,
हो जाए भव से पार।।
हरि ॐ तत्सत
शिष्य ने भी दिया,
अपना सब कुछ कर अर्पण।
स्वार्थ था बस इतना,
गुरु के चरणों में हो जीवन समर्पण।।
हरि ॐ तत्सत
यह राशी नहीं,
गुरु-शिष्य का है बंधन।
एक आदर्श की स्थापना,
एक पवित्र समर्पण।।
हरि ॐ तत्सत
गुरु का गुरुत्व,
शिष्यत्व की पहचान।
गुरु दक्षिणा है वो,
जो करती जीवन को महान।।
हरि ॐ तत्सत
नव जीवन का मार्ग,
गुरु ने था दिखलाया।
जीवन की हर ठोकर से,
शिष्य को था बचाया।।
हरि ॐ तत्सत
यही है सच्ची दक्षिणा,
गुरु की कृपा अपार।
शिष्य का भी समर्पण,
जिससे हो जाए भव से पार।।
हरि ॐ तत्सत
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[01/09, 10:03 pm] करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
ज़हरीले घूँट कब तक पीते रहेंगे,
पापी को कब तक सहन करते रहेंगे?
सत्य कब तक चुपचाप बैठा रहेगा,
अन्याय के आगे कब तक सिर झुकाता रहेगा?
घड़ी की टिक-टिक चलती रही,
पाप की छाया बढ़ती रही।
सत्य की आवाज़ धीमी होती गई,
अधर्म की लपटें ऊँची उठती गईं।
यह कैसा काल आ गया है,
इंसानियत का चेहरा धुंधला गया है।
हर गली में झूठ का साया है,
सच्चाई जैसे गुम हो गई है।
कभी तो सूरज निकलेगा,
अंधेरा दूर भागेगा।
सत्य की ज्वाला भड़केगी,
हर तरफ़ रोशनी फैलेगी।
पाप का घड़ा जब भर जाएगा,
अहंकार जब टूट जाएगा।
सत्य अपनी शक्ति दिखाएगा,
न्याय का डंका फिर बज जाएगा।
कभी तो हिम्मत जुटाओगे,
झूठ से तुम लड़ जाओगे।
विष के घूँट अब और नहीं,
अन्याय को अब और नहीं सह पाओगे।
सत्य को आज़माओगे,
खुद पर भरोसा लाओगे।
एक दिन तुम जीत जाओगे,
पाप को तुम हरा पाओगे।
अब और चुप नहीं रहना है,
अन्याय को अब नहीं सहना है।
सत्य का साथ हमें देना है,
सच्चाई का रास्ता अब चुनना है।
विष का स्वाद फीका होगा,
सत्य का रंग गहरा होगा।
आज नहीं तो कल सही,
पाप का अंत होकर रहेगा।
सत्य की जीत निश्चित है,
यह बात बिलकुल सही है।
थोड़ा धैर्य और हिम्मत रखो,
हमारे साथ परमपुरुष खड़े है, यही सच है।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[02/09, 5:30 am]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
नींद वो नहीं जो शून्यता दे,
नींद वो है जो शुद्धता दे।
सपना वो नहीं जो उलझन दे,
सपना वो है जो सुलझन दे।
जागरण वो नहीं जो बेचैनी दे,
जागरण वो है जो चैनी दे।
नींद वो है जो थकी आँखें शांत कर दे,
सपना वो है जो नए कल का द्वार खोल दे।
जागरण वो है जो राह पर चलने की शक्ति दे,
जीवन को एक नया संगीत दे।
हर रात नई उम्मीद लेकर आए,
हर सुबह नई शुरुआत लाए।
नींद है विश्राम, मन को शांत करने का,
सपना है भविष्य को बुनने का।
जागरण है उस बुने हुए स्वप्न को साकार करने का,
प्रयासों से जीवन को सजाने का।
नींद, सपना और जागरण का यही संगम है,
जीवन को सार्थक बनाने का।
जब नींद आती है, दुनिया ठहर जाती है,
जब सपना आता है, एक नई दुनिया बन जाती है।
जब जागरण आता है, वो दुनिया हकीकत बन जाती है,
मेहनत से हर मुश्किल आसान हो जाती है।
यह चक्र चलता है, जीवन चलता रहता है,
हर पल एक नया पाठ सिखाता रहता है।
नींद में खोकर हम खुद को पाते हैं,
सपनों में खोकर नए रास्ते बनाते हैं।
जागरण में आकर उन रास्तों पर चलते हैं,
हर बाधा को साहस से पार करते हैं।
यह यात्रा है आत्म-ज्ञान की,
नींद से जागरण तक, नए आसमान की।
नींद देती है शरीर को आराम,
सपना दिखाता है मन को अंजाम।
जागरण देता है उस अंजाम तक पहुँचने का काम,
यही है जीवन का असली मुकाम।
हर रात एक नई कहानी लिखती है,
हर सुबह एक नई राह दिखती है।
नींद है एक गहरा सागर,
सपना है उसमें तैरती हुई नाव।
जागरण है वो तट, जहाँ वो नाव लगती है,
सफलता की रोशनी जहाँ जगमगाती है।
नींद, सपना और जागरण की इस यात्रा में,
हम पाते हैं अपने जीवन का असली सार।
नींद में विचार शांत होते हैं,
सपनों में वो विचार आकार लेते हैं।
जागरण में वो आकार हकीकत बनते हैं,
जीवन को एक नई दिशा देते हैं।
यह अद्भुत संगम है मन और कर्म का,
यह अद्भुत प्रवाह है जीवन के धर्म का।
नींद, सपनों को पनाह देती है,
सपना, जागरण को राह दिखाता है।
जागरण, मंजिल तक पहुंचाता है,
यही जीवन का सत्य बताता है।
यह तीनों मिलकर जीवन को पूर्ण करते हैं,
हर पल को नया अर्थ देते हैं।
नींद से मिलती है ताजगी,
सपनों से मिलती है ऊर्जा।
जागरण से मिलती है प्रगति,
यही है जीवन की सच्ची पूजा।
स्वप्न से जागृति तक की यह यात्रा,
है स्वयं को जानने की एक नई गाथा।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[02/09, 12:59 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
मुसलमान का विरोध, शेख से प्रेम।।
ईसाईयत से परहेज, पुतिन से अपनापन।
चीनी वस्तुओं का बहिष्कार, चीन से दोस्ती।
आत्मनिर्भर भारत, विदेश की गलियों में व्यापार।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
मजदूरों की पुकार अनसुनी, कॉर्पोरेट को सलाम।
विकास की परिभाषा में, बस कुछ ही नाम।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
शिक्षा पर भाषण, पर बजट में कटौती।
ज्ञान के मंदिरों में, लगती है अब जंजीर।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
लोकतंत्र की बातें, फैसले में एकाधिकार।
संसद की दीवारों में, गूंजता है सन्नाटा।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
किसानों का दर्द, चुनावी मुद्दा भर।
अन्नदाता की थाली में, खालीपन का डर।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
पर्यावरण की चिंता, पर जंगल कट रहे।
नदियों का पानी, शहरों की प्यास से सूख रहे।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
सांप्रदायिक एकता पर, होते हैं अब वार।
मजहब के नाम पर, दिलों में पनप रही दरार।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
स्वास्थ्य सेवा पर नारे, पर अस्पताल में भीड़।
गरीबों की जिंदगी, बन गई एक पीड़।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
युवाओं को सपने, पर रोजगार का अभाव।
डिग्रियों का बोझ, और भविष्य पर घाव।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
सत्य पर पर्दा, झूठ का बोलबाला।
सच कहने वाला, बन गया अब अपराधी।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
मुसलमान का विरोध, शेख से प्रेम।।
ईसाईयत से परहेज, पुतिन से अपनापन।
चीनी वस्तुओं का बहिष्कार, चीन से दोस्ती।
आत्मनिर्भर भारत, विदेश की गलियों में व्यापार।।
*क्या यही है चाणक्य नीति?*
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[02/09, 8:44 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
जर्जर हो चली राजनीति की नींव, सहनशीलता जब खो जाए।
समझो अपनी जगह से वह, अब विचलित होकर गिर जाए॥
जो आस लगाते बैठे हैं, उन दीवारों के गिरने की।
वो देखते ही रह जाते हैं, घड़ी उन पर ही आन पड़े, उनके ही आँगन में छाए॥
इस जर्जरता के दौर में, जब शक्तिहीनता छाई हो।
तब बुद्धि कहती यह बात, कि नई नींव अब डाली जाए॥
इन दीवारों को ढहा दो, जो अब केवल बोझ हैं।
नए भवन का निर्माण करो, जिसमें आशा की ज्योति जागे॥
सत्ता की गलियां सूनी हैं, जहाँ स्वार्थ का राज चला।
जनता की पुकार नहीं सुनता, बस अपने हित को देखता॥
विश्वास का धागा टूट चुका, अब जोड़ने से क्या होगा।
जब नींव ही खोखली हो गई, तो खड़ा महल कैसे होगा॥
यह क्रांति का आह्वान है, जो सबको आगे बुलाता है।
भविष्य की उज्ज्वल राह पर, जो सबको राह दिखाता है॥
आओ मिलकर हाथ बढ़ाओ, इस कर्तव्य को पूरा कर।
एक नया इतिहास रचो, जो युगों-युगों तक याद रहे॥
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[03/09, 6:41 am]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
*स्वतंत्रता*
आजाद भारत की नई कहानी,
ज्ञान-विज्ञान की है जिंदगानी।
संस्कृति की खुशबू हर गाँव-गाँव,
फैले मानवता का सुंदर भाव।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।
*आधुनिकता*
आधुनिकता का नया प्रकाश,
प्रौद्योगिकी में है विश्वास।
डिजिटल भारत की नई पहचान,
शिक्षा, स्वास्थ्य में है सम्मान।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।
*आदर्श भारतवर्ष*
आदर्शों पर हम चलें सदा,
नीति, धर्म का हो आधार।
समृद्धि का हर घर में वास,
प्रेम और सद्भाव का प्रकाश।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।
*एक मानव समाज*
समानता और न्याय का हो राज,
हर कोई जीए एक-साथ।
ना कोई बड़ा, ना कोई छोटा,
सबके लिए हो एक ही रास्ता।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।
*कृषि को उद्योग दर्जा*
किसान का हो मान-सम्मान,
फसलों को मिले उचित दाम।
खेती में हो नई तकनीक,
हर अन्नदाता का जीवन हो सुखद।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।
*नारीशक्ति का सम्मान*
नारी है शक्ति का प्रतीक,
वह समाज की दिशा।
हर क्षेत्र में मिले समान अधिकार,
अबला नहीं, वह है सशक्त और महान।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।
*व्यवसायीकरण मुक्त शिक्षा*
शिक्षा हो सबका अधिकार,
ज्ञान का हो प्रसार।
गरीब-अमीर का ना हो भेद,
सबको मिले उत्तम ज्ञान।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।
*स्वच्छ पर्यावरण*
प्रकृति का करें हम संरक्षण,
पेड़-पौधों का हो हर पल ध्यान।
धरती को रखें स्वच्छ-सुंदर,
स्वस्थ जीवन का हो वरदान।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।
*चिकित्सा का बाजार बंद हो*
स्वास्थ्य सेवा हो सबकी पहुँच में,
ना हो व्यापार का खेल।
हर रोगी को मिले सही इलाज,
जीवन की रक्षा हो सबका लक्ष्य।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।
*समृद्ध भारतवर्ष*
धन-धान्य से हो घर-घर भरा,
कोई ना रहे भूखा-प्यासा।
खुशहाली का हो हर तरफ राज,
भारत बने विश्व गुरु।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[03/09, 11:16 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
अंधकार भरा है आज, शब्दों की तलवारों में,
क्यों सम्मान खो रहा, झगड़ों और तकरारो में।
राजनीति की गलियों में, विष घुल रहा है बातों का,
माँ का अपमान क्यों हो रहा, सम्मान की रातों का।।
माँ तो माँ है, चाहे वो सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की,
उसका स्थान है सबसे ऊपर, वो है आधार हर शख्स की।
कैसे कह देते हो, उन पर अपशब्दों का वार,
क्या यही है हमारी संस्कृति, क्या यही है हमारा संस्कार??
बहन का भी मान करो, हर नारी का सम्मान हो,
चाहे वो किसी भी कोई भी हो, हर जगह उसका गुणगान हो।
पुरुष भी तो इंसान है, उसे भी तो दर्द होता है,
जब कोई अपशब्द कहे, उसका भी दिल रोता है।।
जिसको बुरा लगता है, जब कोई उसकी माँ को गाली दे,
वो भी क्यों दूसरों की माँ पर, शब्दों के बाण चलाए।
यह द्वेष की आग है, जो दिल में जल रही है,
इस आग को बुझाना होगा, तभी शांति मिल रही है।।
शब्दों का मान, रिश्तों का सम्मान
शब्दों की धार से क्यों, यह ज़मीं लहूलुहान है?
क्यों हर तरफ फैला, यह झूठा अभिमान है?
कोई कहता है नेता की माँ, कोई कहता है विरोधी की,
पर भूल गए हम सब, कि हर माँ एक समान है।
राजनीति के इस रण में, मर्यादा क्यों भूल गए?
सभ्यता के सारे पाठ, क्यों तुम पीछे छोड़ गए?
जिस माँ ने दिया जीवन, जिस माँ ने दी पहचान,
उसी माँ पर क्यों करते हो, तुम शब्दों से वार?
यह अपमान केवल माँ का नहीं, यह अपमान है राष्ट्र का।
यह चोट केवल व्यक्ति को नहीं, यह चोट है हमारे संस्कार को।।
सत्ता की कुर्सी का खेल, यह इतना भी बड़ा नहीं,
कि तुम भूल जाओ, अपना नैतिक और सामाजिक भार।
गाली केवल गाली नहीं, वह विष है, जो घुलता है,
एक रिश्ते को तोड़कर, दूसरे को छल देता है।।
जो आज तुमने बोला, कल वही वापस आएगा,
कड़वे वचन बोने वाला, कड़वे फल ही पाएगा।
माँ तो माँ है, उसकी जगह कोई नहीं ले सकता,
चाहे वो हो राजनेता की, या एक गरीब की।।
वह ममता की मूरत है, वह त्याग की प्रतिमा है,
उसे गाली देना, स्वयं को ही नीचा गिराना है।
नारी का सम्मान करो, हर बहन का मान रखो,
चाहे वह किसी भी घर की हो, उसे तुम सम्मान दो।।
यह बात सिर्फ माँ की नहीं, यह बात हर इंसान की,
यह बात है इंसानियत की, यह बात है ईमान की।
तोड़ दो ये जंजीरें, जो नफरत की है बुनीं,
फेक दो ये तलवारें, जो शब्दों से है बनी।।
आओ मिलकर एक नया अध्याय लिखें,
शब्दों से नहीं, सम्मान से हर रिश्ता जीतें।।
कोई किसी को गाली न दे, यह संकल्प हो हमारा,
तभी तो होगा एक स्वस्थ और सुंदर समाज प्यारा।।
आओ मिलके एक नया इतिहास लिखें,
जिसमें हो प्रेम का विस्तार, और सम्मान की रोशनी।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[04/09, 9:26 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
मनुष्यत्व को जो जगाए, वही है सच्ची विद्या।
नैतिकता का पथ दिखाए, वही है सच्ची विद्या।।
विमुक्ति का भाव हो जिसमें, वही है शिक्षा।
परमपद तक जो पहुचा दे, वही है दीक्षा।।
सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, जीवन का हो सार।
हर प्राणी में देखे, उस परम सत्ता का प्यार।।
*शिक्षक का समर्पण*
वह जो अज्ञान का तिमिर मिटाए।।
वह जो हर बालक में मानवता उगाए।।
पशुता से ऊपर उठकर देवत्व को जगाना।
सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, आत्मनिर्भर बनाना।।
उसमें हो समाया समाज का भी ज्ञान।
प्रगतिशील अर्थनीति से भी हो उसका प्रस्थान।।
जो करे हर जीवन का आध्यात्मिक उद्धार।
वही है सच्चा शिक्षक और ज्ञान का भंडार।।
*ज्ञान का उत्सव*
यह दिन है ज्ञान का, प्रेम का, प्रकाश का।
यह उत्सव है, आत्म-जागृति का।।
जब मन में जागे आनंद की धारा।
जब हर क्षण हो पूर्णत्व की साधना।।
शिक्षा का लक्ष्य हो परम से मिलन।
स्वयं को जानना और दूसरों को जगाना।।
यह केवल दिवस नहीं, जीवन का उत्सव है।
जब शिक्षा दीक्षा से ही जीवन का सुख मिले।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[05/09, 4:08 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
`(मेरे आचार्य Dada Ramashrayananda को समर्पित)`
जग के माया-मोह को तजकर, जिसने सत्य को जाना है।
कर्म-फल की इच्छा से मुक्त, वैरागी वही सन्यासी है।।
तन पर त्याग धारण कर जिसने, स्वयं को शून्य में खोया है।
वही ब्रह्म को पाकर सच्चा, जीवन का अर्थ पाया है।।
सन्यास शब्द का अर्थ गहरा, सब कुछ त्यागने वाला है।
आश्रम, परिवार, धन-दौलत, सब बंधन से न्यारा है।।
भीतर से ही वैराग्य जगाकर, जो स्वयं में जीता है।
वही तपस्वी जीवन का सच्चा, परम आनंद लेता है।।
सन्यासी का धर्म निराला, त्याग की राह दिखाता है।
मन को शांत, चित्त को निर्मल, ब्रह्म-ज्ञान सिखाता है।।
भिक्षा से जीवन चलाकर, दीनता धारण करता है।
फिर भी अंतर्मन से वह, सबसे ऊँचा उठता है।।
ब्रह्मचर्य जीवन का नियम, इंद्रियों पर संयम सिखाता है।
मन, वाणी और कर्म से शुद्ध, ब्रह्म में ध्यान लगाता है।।
कामुकता का त्याग करे जो, ब्रह्मचारी कहलाता है।
ज्ञान-मार्ग पर चलकर, वह मुक्ति का द्वार पाता है।।
अवधूत की परिभाषा सुनो, जो सभी बंधनों से परे है।
समाज के नियमों को जोड़ा, जो सबसे परे खड़ा है।।
न वस्त्र की चिंता, न घर की, वो बस स्वयं में लीन है।
जो परम सत्ता को पाकर, जगत से पूरी तरह भिन्न है।।
सत्य, अहिंसा, अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य है, ये यम इसके आभूषण हैं।
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान जीवन के नियम हैं।।
यम-नियम ही उसकी, शक्ति का आधार बनते हैं।
इन सिद्धांतों से ही वे मुक्ति, के सच्चे अधिकारी बनते हैं।।
न किसी से राग, न द्वेष, न किसी से कोई आसक्ति है।
उसकी वाणी में केवल, सत्य और शांति की शक्ति है।।
धर्म ही उसका धन है, और धैर्य ही उसकी पूंजी है।
वह न किसी का शत्रु, न किसी का मित्र, बस समाज उसकी पूजी है।।
दिन-रात ध्यान में डूबा, प्रकृति से नाता जोड़ता है।
हर जीव में ईश्वर का रूप, देखकर मन को मोड़ता है।।
वह पर्वत, वन, नदियां सब, अपना घर मानता है।
इस विशाल ब्रह्मांड को ही, अपना सच्चा धाम मानता है।।
क्रोध, लोभ, अहंकार से, वह कोसों दूर रहता है।
अपने भीतर के विकार को, जलाकर राख करता है।।
ये विकार जब जल जाते हैं, तभी निर्मल मन होता है।
और उस निर्मल मन में ही, ईश्वर का वास होता है।।
ज्ञान-अग्नि से जिसने, अज्ञान का अंधकार मिटाया है।
अविद्या को दूर कर जिसने, स्वयं को ज्ञान में पाया है।।
ऐसे ही सन्यासी के जीवन में, मुक्ति की किरण होती है।
उसकी आत्मा में ही तब, परम शांति रहती है।।
वह न भविष्य की चिंता करता, न अतीत को याद करता है।
वर्तमान के हर पल को, वह ध्यान से स्वीकारता है।।
हर क्षण को ही जीवन मानकर, वह निर्भय होकर जीता है।
यही तो है सन्यासी का धर्म, जो उसे सच्चा सुख देता है।।
उसके लिए मान-अपमान, सब एक समान होते हैं।
सुख-दुःख के बंधन से मुक्त, वह हमेशा शांत होते हैं।।
निंदा और स्तुति का उस पर, कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
उसके मन का सागर, हमेशा शांत ही रहता है।।
सन्यासी का मुख्य कर्तव्य, ब्रह्म-ज्ञान का प्रचार है।
अज्ञानियों को ज्ञान देना, यही उसका परम सार है।।
वह अपनी वाणी से सबके, मन का भ्रम मिटाता है।
और मोक्ष के मार्ग पर, सबको चलना सिखाता है।।
उसके लिए जाति, धर्म, वर्ण, सब का कोई मोल नहीं।
वह केवल आत्मा की बात करता, शरीर का कोई खेल नहीं।।
वह सबको एक समान देखता, क्योंकि सब ब्रह्म के अंश हैं।
यही उसका परम धर्म, यही उसके जीवन का अंश है।।
हे आनन्द किरण, सन्यासी का जीवन, तप और त्याग का प्रतीक है।
जो इस पथ पर चलता है, वही सच्चा सन्यासी है।।
वह समाज से वा को जोडड़कर, विश्व परिवार को धारण करता है।
वह परम लक्ष्य साधना, सेवा एवं त्याग को चुनता है।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[07/09, 8:13 am]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
गाँव की मिट्टी, तहसील की गलियाँ,
बँधी हैं इन सब में मेरी कल्पनाएँ।
जिला, क्षेत्र, राज्य की दीवारों में,
ज्ञान का ताना-बाना बुनता हूँ।।
इन सरहदों से बाहर निकलना,
मेरे लिए संभव ही नहीं है।
देश की सीमाएँ मेरे विचारों को घेरती हैं,
मेरा दर्शन इसी भूमि पर टिका है।।
विज्ञान भी इन्हीं जड़ों से उपजता है,
और मेरा सारा ज्ञान यहीं सिमट जाता है।
इन बंधनों को तोड़कर देखना,
मेरी बुद्धि को गवारा नहीं होता।।
जाति, गोत्र की बेड़ियों में जकड़ा हूँ,
सम्प्रदाय की दीवारों से घिरा हूँ।
मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा सब कुछ,
इन पहचानों में उलझा हुआ है।।
इन संकीर्णताओं से पार पाना,
मेरे लिए एक चुनौती है।
मजहब, रिलीजन की जंजीरों में,
मेरा ज्ञान कैद हो गया है।।
समुदाय की मान्यताओं में फंसा,
मैं खुद को सही मानता रहता हूँ।
इन सीमाओं से मुक्त होना,
मेरी सोच से परे है।।
परम सत्य से जुड़ने की चाहत,
फिर भी मन में कहीं दबी है।
बुद्धि की मुक्ति का मार्ग,
नव्य मानवता के प्रेम से जुड़ा है।।
जब बुद्धि सभी बंधनों से छूट जाती है,
तब नव्य मानवतावाद का उदय होता है।
संपूर्ण जहान, सम्पूर्ण विश्व,
अब मेरी दृष्टि में समाए हैं।।
मैं हर जीव में खुद को देखता हूँ,
यह प्रेम और सहिष्णुता की एक नई दुनिया है।
बुद्धि की मुक्ति का मार्ग,
विश्व मानवता की दिशा है।।
संपूर्ण ब्रह्मांड, संपूर्ण सृष्टि,
अब मेरी बुद्धि से जुड़ गए हैं।
प्रेम की एक नई दुनिया,
सभी सीमाओं से परे है।।
अब हर प्राणी में प्रेम का संचार है,
क्योंकि बुद्धि मुक्त हो गई है।
परमब्रह्म से जुड़कर,
जीवात्मा मुक्त हो गई है।।
सभी प्राणी अब एक ही परिवार के हैं,
यह एक नई सोच का आरंभ है।
बुद्धि की मुक्ति से,
नव्य मानवतावाद का जन्म होता है।।
अब मेरा प्रेम हर प्राणी के लिए है,
इसमें कोई सीमा नहीं है।
यह एक नया युग है,
सभी के लिए प्रेम और दया का।।
बुद्धि की मुक्ति से,
नव्य मानवतावाद का जन्म होता है।
यह अवस्था ही नव्य मानवतावाद है,
जो हर प्राणी को एक ही दृष्टि से देखता है।।
बुद्धि की मुक्ति से ही,
यह संभव हो पाता है।
यह एक नई सोच है,
जो सभी बंधनों को तोड़ देती है।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[07/09, 8:25 pm]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
राजनीति नहीं है कोई खेल,
यह तो है जिम्मेदारी का मेल।
न इसमें हो झूठी कोई बात,
यह है देश के भविष्य की रात।।
जनता का विश्वास है,
हर एक नागरिक का आस है।
मत बनो तुम स्वार्थ के गुलाम,
यह नहीं तुम्हारा व्यक्तिगत मुकाम।।
सत्ता की कुर्सी न हो लक्ष्य,
जन सेवा हो परम तथ्य।
न खेलो तुम झूठ का खेल,
इसमें हो सकता है सबका झेल।।
राजनीति नहीं है तमाशा,
यह है समाज की आशा।
न हो इसमें कोई छल,
यह है देश का उज्ज्वल कल।।
पदों की न करो तुम चाह,
जनता का विश्वास न हो बेराह।
हर निर्णय का हो कोई मोल,
मत बनो तुम इसके कोई दलाल।।
बदलती रहे सरकारें,
पर न बदले देश की धारे।
राजनीति में हो नैतिकता,
यह है असली वास्तविकता।।
न बंटो तुम जाति-धर्म में,
यह देश रहे एकजुट हर कर्म में।
राजनीति का हो यही उद्देश्य,
सबका हो इसमें एक ही भविष्य।।
न करो कोई झूठा वादा,
जिससे हो जाए कोई बाधा।
राजनीति में हो सच्ची निष्ठा,
यह है देश की मूल प्रतिष्ठा।।
सत्ता में न हो अहंकार,
जनता का हो इसमें अधिकार।
राजनीति का हो सही उपयोग,
यह नहीं है कोई भोग।।
पदों को न करो तुम खरीद,
जनता की आवाज़ है इसमें रीत।
राजनीति में हो ईमान,
यह है असली शान।।
न करो तुम भ्रष्टाचार,
यह है देश के लिए एक बार।
राजनीति हो स्वच्छ और पवित्र,
यह है सबका एक ही मित्र।।
मत भूलो तुम शहीदों की गाथा,
जन सेवा में झुकाओ तुम माथा।
राजनीति में हो समर्पण का भाव,
यह है सही चुनाव का स्वभाव।।
न करो कोई द्वेष,
यह है सबका एक ही देश।
राजनीति में हो सामंजस्य,
यही है असली सुयश्य।।
यह जनता का हो सम्मान,
राजनीति में हो सबका ज्ञान।
न हो इसमें कोई भेद-भाव,
यह है देश का सच्चा लगाव।।
यह है देश का संविधान,
इसका करना है सम्मान।
राजनीति नहीं है कोई खेल,
यह है सही राहों का मेल।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[08/09, 8:06 am]
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):
मन के भीतर बसे हैं शत्रु,
जिनसे जीतना है ज़रूरी।
काम, क्रोध, लोभ और मोह,
मद, मात्सर्य, ये हैं षडरिपु।।
इन छह रिपुओं पर जो करे प्रहार,
वो पा जाए आत्म-साक्षात्कार।
इच्छा का बंधन, क्रोध का ताप,
लोभ का जाल, ये सब हैं पाप।।
फिर आठ बंधन भी हैं, जो
जकड़ते हैं हमें हर पल।
घृणा, शंका और भय,
लज्जा, जुगुप्सा, और कुल का घमंड,
शील, मान का अभिमान,
इनसे मुक्ति ही है कल्याण।।
जो इन बंधनों से हो जाए मुक्त,
उसी को मिले परम सुख।
यह संसार एक माया है,
इन बंधनों से ही बना यह ताना-बाना है।।
ये हैं मानव के आंतरिक विकार,
जो रोकते हैं मुक्ति का द्वार।
आओ, इन पर विजय पाएं,
सच्चे सुख की ओर कदम बढ़ाएं।।
*प्रस्तुति : आनन्द किरण*