बाबा का मिशन और संगठन : एक गहन विश्लेषण                                           (Baba's Mission and Organization : An In-depth Analysis)


जीवन और दर्शन के हर मोड़ पर हमें यह समझने की आवश्यकता होती है कि हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और हमारा अंतिम लक्ष्य क्या है। यह प्रश्न व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक और आध्यात्मिक आंदोलनों तक हर जगह महत्वपूर्ण है। जब हम परम पूज्य गुरुदेव श्री श्री आनंदमूर्ति जी, जिन्हें हम प्रेम से बाबा कहते हैं, के मिशन की बात करते हैं, तो यह प्रश्न और भी गहन हो जाता है। उनके द्वारा स्थापित 'आनंद मार्ग' केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक व्यापक और चिरस्थायी मिशन है। यह लेख इसी सूक्ष्म अंतर को स्पष्ट करने का प्रयास करेगा कि बाबा का मिशन क्या है और उनके द्वारा निर्मित संगठन या संस्थाएँ किस तरह से उस मिशन का एक हिस्सा मात्र हैं।


बाबा का मिशन एक अमूर्त अवधारणा है, जो समय और स्थान की सीमाओं से परे है। जैसा कि कहा गया है, "बाबा का मिशन - अमूर्त है, मूर्त तो युग की धारा का परिणाम है।" यह समझना अत्यंत आवश्यक है। मूर्त वस्तुएँ, जैसे कि संगठन, संस्थाएँ, या कोई विशेष कार्यप्रणाली, समय के साथ बदलती रहती हैं। वे युग की ज़रूरतों के अनुसार नया रूप लेती हैं, परिपक्व होती हैं, और कभी-कभी समाप्त भी हो जाती हैं। लेकिन मिशन, जो एक विचार, एक उद्देश्य, एक आदर्श है, वह अविनाशी होता है।

बाबा का मिशन नव्य मानवतावाद की स्थापना है, जिसमें मानवता के साथ-साथ इस ब्रह्मांड के हर जीव के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना समाहित है। यह एक ऐसा समाज बनाने का लक्ष्य है जहाँ कोई भी प्राणी दुखी न हो और सब सुखी हों। इसके साथ ही, उनका मिशन प्रउत (Progressive Utilization Theory) की स्थापना करना है। यह सिर्फ एक आर्थिक या सामाजिक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन-दर्शन है। यह मानता है कि इस संसार के सभी संसाधन सबके लिए हैं, और उनका उपयोग इस तरह से होना चाहिए कि किसी का शोषण न हो और सभी का विकास हो सके। ये दोनों ही मिशन मूर्त नहीं हैं; ये विचार और आदर्श हैं, जिन्हें हम अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं।


संगठन, चाहे वह आनंद मार्ग प्रचारक संघ हो, अन्य संबंधित संस्थान हों, या प्रउत, सेवा, धर्म, सुरक्षा के लिए बने संस्थान हों, वे सभी बाबा के मिशन को साकार करने के लिए बनाए गए साधन मात्र हैं। वे एक माध्यम हैं जिसके ज़रिए बाबा का विचार लोगों तक पहुँचाया जाता है, और उनके आदर्शों को व्यवहार में लाया जाता है। जैसा कि कहा गया है, "प्रचारक संघ तो उसके लिए एक निमित्त है," "संगठन तो उसका एक निमित्त है," और "संस्थान तो उसके निमित्त है।"

यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि ये संगठन लचीले होते हैं। वे युग की ज़रूरतों के अनुसार बदल सकते हैं। यदि कोई संगठन अपने मूल उद्देश्य से भटक जाए, तो वह अपनी प्रासंगिकता खो देता है। संगठन को अपने मूल मिशन के प्रति हमेशा समर्पित रहना चाहिए। यदि वह स्वयं को मिशन से बड़ा समझने लगे, तो यह एक बड़ी भूल होगी।

बाबा ने स्वयं कहा था, "मैंने अपने आप को अपने मिशन में मिला दिया है, संगठन में मिलाने की बात नहीं कही थी।" यह कथन इस बात को स्पष्ट करता है कि बाबा के लिए संगठन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उनका मिशन था। उन्होंने अपने जीवन को उस अमूर्त आदर्श को समर्पित किया, न कि किसी मूर्त संस्था को।


यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि कई बार लोग संगठन को ही मिशन मान बैठते हैं। जब ऐसा होता है, तो संघर्ष शुरू हो जाता है। व्यक्ति संगठन की सीमाओं में सिमटकर रह जाता है और बाबा के व्यापक दर्शन को भूल जाता है। जो लोग संगठन के नियमों और रीति-रिवाजों को बाबा के मिशन से बड़ा मानने लगते हैं, वे अपनी सोच को संकुचित कर लेते हैं। यह बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है, "जो बाबा के मिशन को अपनी अल्प सोच में नोचने लगे हुए हैं, वह नाली के कीड़े बनने की यात्रा पर हैं।" यह एक कठोर सत्य है। यदि हम बाबा के मिशन को अपनी छोटी-छोटी स्वार्थों या संगठनात्मक सीमाओं में कैद करने का प्रयास करते हैं, तो हम उस महान उद्देश्य से भटक जाते हैं। यह केवल आध्यात्मिक पतन की ओर ले जाता है।
एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि "जिनको लगता है कि बाबा के मिशन से संगठन बड़ा है, वह नादान है।" यह बात सिर्फ आनंद मार्ग के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि हर बड़े आंदोलन के संदर्भ में सच है। संगठन साधन है, साध्य नहीं। यदि साधन को ही साध्य मान लिया जाए, तो पूरी यात्रा निरर्थक हो जाती है।


बाबा का मिशन सिर्फ सामाजिक या आर्थिक बदलाव तक ही सीमित नहीं, बल्कि यह एक गहरी आध्यात्मिक क्रांति भी है। "बाबा का मिशन - भक्ति की धारा बहाना है, गोष्ठी उसके निमित्त है।" यह भक्ति की धारा हर व्यक्ति के भीतर बहती है। इसका संबंध किसी बाहरी दिखावे या नियम से नहीं, बल्कि यह व्यक्ति के हृदय की गहराई से जुड़ा है। गोष्ठियाँ और अन्य आध्यात्मिक सभाएँ सिर्फ इस भक्ति को पोषण देने का माध्यम हैं।

इसलिए, जो लोग बाबा के चिंतन को व्यक्तिगत साधना के रूप में अपनाते हैं और अपने जीवन में इसे प्रतिफलित करते हैं, वे भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि संगठनात्मक कार्यों में लगे लोग। कहा गया है, "अतः जो संस्था के किसी भी स्वरूप के साथ बाबा के चिंतन को प्रतिफलित करने लगे हैं अथवा व्यक्तिगत बाबा के लिए काम कर रहे हैं, समान आदरणीय हैं।" यह समानता का सिद्धांत बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह हमें यह सिखाता है कि हम किसी भी रूप में बाबा के मिशन से जुड़ सकते हैं, और हमारा योगदान उतना ही मूल्यवान है।


जीवन में कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ आ सकती हैं जब हमें मिशन और संगठन के बीच में से एक को चुनना पड़े। यह एक कठिन परीक्षा हो सकती है। लेकिन बाबा के दर्शन के अनुसार, "संगठन एवं मिशन में से एक चुनने की बारी आए तो हर बार मिशन को चुनना ही धर्म है।" यह धर्म सिर्फ एक कर्तव्य नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक समझ है। जब हम मिशन को चुनते हैं, तो हम बाबा के व्यापक, अमूर्त और शाश्वत आदर्शों को चुनते हैं। हम एक ऐसी यात्रा को चुनते हैं जो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर मुक्ति और विकास की ओर ले जाती है।

इस प्रकार, हमें हमेशा इस बात को याद रखना चाहिए कि संगठन एक साधन है, और मिशन हमारा अंतिम लक्ष्य। हमें संगठन के नियमों का पालन करना चाहिए, लेकिन सिर्फ इसलिए क्योंकि वे मिशन को आगे बढ़ाते हैं। हमें संगठन से प्रेम करना चाहिए, लेकिन मिशन को कभी नहीं भूलना चाहिए। बाबा का मिशन एक ऐसी प्रकाश की किरण है, जो हमें अंधकार से मुक्ति की ओर ले जाती है, और हमें उस अमूर्त सत्य से जोड़ती है जो चिरस्थायी है। हमारा कर्तव्य है कि हम इस प्रकाश को अपने जीवन में जलाएँ और इसे दूसरों तक फैलाएँ, बिना किसी संकुचित विचार या संगठनात्मक सीमाओं में उलझे। यही बाबा के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी और यही हमारे अस्तित्व का परम लक्ष्य है।


योग्य व्यक्ति की विवशता: एक संकट का संकेत (The helplessness of a capable person: A sign of crisis)
"योग्य एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति जब विवश हो जाए, तो समझना चाहिए कि संकट उस देश, समाज अथवा संस्था के आसपास ही मंडरा रहा है।" यह कथन अपने आप में एक गहन सत्य को समेटे हुए है। किसी भी राष्ट्र, समाज या संस्था की उन्नति और स्थिरता उसके गुणवान, चरित्रवान और योग्य व्यक्तियों पर निर्भर करती है। जब ऐसे लोग अपनी योग्यता और क्षमता का सही उपयोग नहीं कर पाते, जब उनके विचारों और योगदान को महत्व नहीं दिया जाता, और जब उन्हें परिस्थितिजन्य दबावों के कारण अपनी राह बदलनी पड़ती है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उस व्यवस्था की नींव हिल रही है। यह स्थिति न केवल व्यक्ति के लिए निराशाजनक होती है, बल्कि यह पूरे तंत्र के लिए घातक सिद्ध होती है।
प्राचीन भारतीय दर्शन में इस बात को बड़े विस्तार से समझाया गया है। चाणक्य ने अपने नीतिशास्त्र में कहा है कि किसी भी राज्य की समृद्धि उसके सुयोग्य मंत्रियों और बुद्धिमान नागरिकों पर निर्भर करती है। यदि राजा अयोग्य है या योग्य लोगों की उपेक्षा करता है, तो राज्य का पतन निश्चित है। इसी तरह, महाभारत में भीष्म पितामह ने धर्म और न्याय के ह्रास को राज्य के पतन का कारण बताया है। योग्य व्यक्तियों का सम्मान और उनकी भागीदारी एक स्वस्थ समाज का लक्षण है।

> यत्र विद्वज्जनो यत्नाद् गुणवांसम् न शोभते।
> तत्र दोषो महान् भवति, न तस्य स्थानं शोभते।

अर्थात्, जहाँ विद्वान् और गुणवान व्यक्ति को यत्न करने पर भी सम्मान नहीं मिलता, वहाँ यह एक महान दोष होता है और वह स्थान शोभा नहीं देता। यह श्लोक सीधे तौर पर योग्य व्यक्ति की उपेक्षा के परिणामों को दर्शाता है। 

इसी प्रकार, यह भी कहा गया है:

> न स सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः, वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
> नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति, न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम्।।

इसका तात्पर्य है कि वह सभा, सभा नहीं है जहाँ वृद्ध (अनुभवी) नहीं हैं; वे वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात नहीं करते; वह धर्म नहीं है जिसमें सत्य नहीं है; और वह सत्य नहीं है जो छल से मिला हो। योग्य व्यक्तियों की विवशता का सीधा संबंध इस सत्य से है कि जब उन्हें अपनी बात कहने और धर्म (कर्तव्य) का पालन करने से रोका जाता है, तो उस समाज का नैतिक पतन शुरू हो जाता है।


जब हम आधुनिक संदर्भ में इस विषय पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। एक कंपनी में, जब एक प्रतिभाशाली इंजीनियर को उसकी विशेषज्ञता के बजाय चाटुकारिता के कारण आगे बढ़ने दिया जाता, तो वह अपनी क्षमताओं को पूर्ण रूप से उपयोग नहीं कर पाता। इससे वह निराश होकर या तो कंपनी छोड़ देता है या उसकी उत्पादकता घट जाती है। इसका परिणाम कंपनी के लिए नुकसान होता है। इसी तरह, राजनीति में जब ईमानदार और योग्य नेताओं को गुंडागर्दी और भ्रष्टाचार के कारण पीछे हटना पड़ता है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है। यह एक ऐसा दुष्चक्र है, जहाँ अयोग्य लोग सत्ता में आ जाते हैं और योग्य लोगों के लिए कोई स्थान नहीं बचता।

> योग्य पुरुष का मान जहाँ, घटत रहे दिन-रात।
> समझो उस समाज का, होने वाला घात।।

यह दोहा सीधे-सीधे चेतावनी देता है कि योग्य व्यक्तियों के सम्मान में कमी समाज के पतन का कारण बनती है। 

एक और दोहा इस पर प्रकाश डालता है:

> गुनियन को गुन देख के, अज्ञानी गर हँसे।
> पतन उसका निश्चित है, काल शीघ्र ही कसे।।

अर्थात्, जब अज्ञानी लोग गुणवान व्यक्तियों का उपहास करते हैं, तो उनका पतन निश्चित है। यह एक प्राकृतिक नियम है।
योग्य व्यक्तियों की विवशता के कई कारण हो सकते हैं। इनमें पक्षपात, भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, और योग्यता के बजाय चाटुकारिता को महत्व देना प्रमुख हैं। जब किसी संस्था में काम के बजाय चाटू लोगों की जय-जयकार होती है, तो यह योग्य लोगों के मन में कुंठा पैदा करती है। वे देखते हैं कि उनकी मेहनत और ईमानदारी का कोई मूल्य नहीं है, जबकि अयोग्य व्यक्ति केवल संबंधों के बल पर आगे बढ़ रहा है। इस स्थिति को देखकर उनका मनोबल टूट जाता है और वे या तो मुखौटा पहनकर रहना सीख लेते हैं या अपनी योग्यता को दबाकर बैठ जाते हैं।

 जब एक योग्य व्यक्ति को लगता है कि उसकी दाल नहीं गल रही, तो वह हाथ-पाँव छोड़ देता है। यह स्थिति उस समय आती है जब उसकी सारी मेहनत पानी में चली जाती है। एक कहावत है, "कोयला होए न उजला, सौ मन साबुन धोए", जिसका अर्थ है कि अयोग्य व्यक्ति को चाहे कितना भी मौका दिया जाए, वह अपनी प्रकृति नहीं बदलता, जबकि योग्य व्यक्ति की अनदेखी समाज के लिए घातक होती है।

प्रसिद्ध ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था:

> "The nation that forgets its defenders will itself be forgotten."

यद्यपि यह कथन सैनिकों के संदर्भ में कहा गया था, इसका व्यापक अर्थ यह है कि जो समाज अपने योग्य और समर्पित लोगों की अनदेखी करता है, वह खुद इतिहास के पन्नों से मिट जाता है। 

एक और उद्धरण है:

> "A society that does not respect its wise men, is a society that has no wisdom."

यह कथन स्पष्ट रूप से बताता है कि जिस समाज में बुद्धिमान व्यक्तियों का सम्मान नहीं होता, वह समाज स्वयं बुद्धिहीन हो जाता है। जब योग्य व्यक्ति मजबूर होते हैं, तो वे अपनी प्रतिभा को या तो छिपाने के लिए मजबूर होते हैं या ऐसी जगह चले जाते हैं जहाँ उनकी कद्र हो। इसे "ब्रेन ड्रेन" (brain drain) भी कहा जाता है, जहाँ योग्य लोग अपने देश, समाज या संस्था को छोड़कर चले जाते हैं। यह स्थिति उस देश के लिए अत्यधिक हानिकारक होती है।

निष्कर्ष में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी भी समाज, देश या संस्था की सच्ची प्रगति तब तक नहीं हो सकती जब तक वह अपने योग्य और प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सम्मान नहीं करती और उन्हें उनकी क्षमताओं के अनुसार कार्य करने का अवसर नहीं देती। जब ऐसे लोग विवशता की बेड़ियों में जकड़ जाते हैं, तो यह अंधेरे की आहट होती है। यह एक अलार्म की तरह है जो हमें यह बताता है कि यदि हमने समय रहते इन कारणों को दूर नहीं किया, तो पतन निश्चित है। इसलिए, यह हमारा सामूहिक कर्तव्य है कि हम ऐसी व्यवस्था का निर्माण करें जहाँ योग्यता की कद्र हो, जहाँ सम्मान कार्य से मिले न कि चाटुकारिता से, और जहाँ हर योग्य व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के आगे बढ़ने का मौका मिले। तभी हम एक स्वस्थ, समृद्ध और प्रगतिशील समाज का निर्माण कर सकते हैं।

यह आवश्यक है कि हम इस बात को समझें कि योग्य व्यक्ति की विवशता मात्र उसकी व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि यह पूरे समाज की नाकामी है। यह एक ऐसी बीमारी है जिसका यदि समय पर इलाज न किया जाए तो यह पूरे शरीर को खोखला कर देती है। हमें अपनी संस्थाओं और समाज में ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए जहाँ गुणों की पूजा हो, न कि पदों की।

 प्रस्तुति : आनन्द किरण
प्रउत की दृष्टि में जनसंख्या समस्या के  चार समाधान (Prout's View: Four Solutions to the Population Problem.)

आज के समय में जनसंख्या वृद्धि को अक्सर एक गंभीर समस्या के रूप में देखा जाता है, जो गरीबी, बेरोजगारी और संसाधनों की कमी का मूल कारण मानी जाती है। पारंपरिक अर्थशास्त्र और सामाजिक सिद्धांतों ने इसे एक बोझ के रूप में चित्रित किया है, जिसके परिणामस्वरूप कई राष्ट्रों ने जनसंख्या नियंत्रण के कठोर उपाय अपनाए हैं। हालाँकि, प्रउत (प्रगतिशील उपयोगिता सिद्धांत) एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। प्रउत का मानना है कि मानव शक्ति, अगर सही ढंग से उपयोग की जाए, तो वह बोझ नहीं, बल्कि एक मूल्यवान संसाधन है। असली समस्या जनसंख्या की मात्रा में नहीं, बल्कि उचित आर्थिक, जैविक, मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक समाधानों की अनुपस्थिति में है। यह आलेख इसी दृष्टिकोण को विस्तार से समझाता है, यह दर्शाता है कि कैसे जनसंख्या को एक समस्या के बजाय एक अवसर में बदला जा सकता है।


जब जनसंख्या बढ़ती है, तो सबसे बड़ी चिंता भोजन और पोषण की होती है। प्रउत के अनुसार, यह चिंता तभी उत्पन्न होती है जब आर्थिक व्यवस्था शोषण पर आधारित होती है। प्रउत अर्थव्यवस्था का उद्देश्य सभी के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की गारंटी देना है, जिसमें पौष्टिक भोजन भी शामिल है। यह केवल पर्याप्त कैलोरी की उपलब्धता के बारे में नहीं है, बल्कि गुणवत्तापूर्ण और संतुलित आहार की उपलब्धता के बारे में है।

आर्थिक सम्पन्नता का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की क्रय शक्ति इतनी हो कि वह अपने और अपने परिवार के लिए पौष्टिक भोजन खरीद सके। यह स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा देकर, सहकारिता को मजबूत करके और शोषण-मुक्त वितरण प्रणाली स्थापित करके संभव है। जब लोगों के पास पर्याप्त आय होती है, तो वे केवल जीवित रहने के लिए संघर्ष नहीं करते, बल्कि अपने स्वास्थ्य और विकास पर ध्यान केंद्रित कर पाते हैं।


जनसंख्या का अच्छा स्वास्थ्य न केवल व्यक्तिगत कल्याण के लिए, बल्कि राष्ट्र के समग्र विकास के लिए भी महत्वपूर्ण है। एक अस्वस्थ समाज अपनी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर सकता। जनसंख्या को एक समस्या के रूप में देखने के बजाय, हमें प्रत्येक व्यक्ति को स्वस्थ और मजबूत बनाने पर ध्यान देना चाहिए।
प्रउत के अनुसार, स्वास्थ्य केवल बीमारी की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि एक समग्र अवस्था है जिसमें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य शामिल है। इसके लिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ और किफायती बनाना आवश्यक है। स्वच्छ पानी, स्वच्छता, पौष्टिक भोजन और तनाव-मुक्त वातावरण प्रदान करके हम प्रत्येक व्यक्ति को सशक्त कर सकते हैं। जब लोग स्वस्थ होते हैं, तो वे समाज के उत्पादक सदस्य बन सकते हैं और आर्थिक विकास में योगदान दे सकते हैं।


जनसंख्या वृद्धि अक्सर तनाव, चिंता और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनती है। बेरोजगारी, गरीबी और असुरक्षा की भावना लोगों को मानसिक रूप से कमजोर कर देती है। प्रउत का मानना है कि जब व्यक्ति अनावश्यक तनाव और उद्वेग से मुक्त होते हैं, तो वे अपनी रचनात्मक और उत्पादक क्षमताओं का बेहतर उपयोग कर पाते हैं।

जनसंख्या को एक बोझ के रूप में देखने से लोगों में हीन भावना पैदा हो सकती है। इसके विपरीत, उन्हें उचित सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार के अवसर, सम्मानजनक जीवन और भविष्य की सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए। जब व्यक्ति सुरक्षित महसूस करते हैं, तो वे समाज और अपने परिवार के कल्याण के लिए अधिक योगदान देने को प्रेरित होते हैं।


जनसंख्या को एक बड़ी समस्या के रूप में देखने का एक और कारण यह है कि हम अक्सर शिक्षा के महत्व को नजरअंदाज कर देते हैं। एक शिक्षित और जागरूक आबादी अपने जीवन और समाज के लिए बेहतर निर्णय ले सकती है। जनसंख्या वृद्धि को एक अवसर के रूप में बदलने के लिए, हमें लोगों के बौद्धिक स्तर को बढ़ाना होगा।
प्रउत के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी देना नहीं, बल्कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। इसमें नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक मूल्यों को शामिल किया जाना चाहिए। जब लोग शिक्षित और बौद्धिक रूप से उन्नत होते हैं, तो वे न केवल अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान कर सकते हैं, बल्कि नवाचार, रचनात्मकता और सामाजिक प्रगति में भी योगदान दे सकते हैं। 


जनसंख्या वृद्धि स्वयं में कोई समस्या नहीं है। असली समस्या हमारे सामाजिक और आर्थिक ढांचे की कमियों में निहित है। जनसंख्या को एक बोझ मानने के बजाय, हमें प्रत्येक व्यक्ति को एक मूल्यवान संसाधन के रूप में देखना चाहिए।

प्रउत का दृष्टिकोण एक मौलिक बदलाव की मांग करता है: हमें जनसंख्या नियंत्रण के बजाय मानव शक्ति के सही उपयोग पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जब हम आर्थिक सम्पन्नता, बेहतर स्वास्थ्य, मानसिक सुरक्षा और उन्नत बौद्धिक स्तर पर ध्यान देंगे, तो जनसंख्या एक समस्या के बजाय एक शक्तिशाली शक्ति बन जाएगी जो मानव समाज को नई ऊंचाइयों पर ले जाएगी। अतः, हमें इस सोच से बाहर निकलना होगा कि जनसंख्या समस्या है, और इसके बजाय उन समाधानों पर ध्यान देना होगा जो प्रत्येक व्यक्ति को एक सुखी, स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने में सक्षम बना सकें।





Today, population growth is often seen as a serious problem, considered to be the root cause of poverty, unemployment and lack of resources. Traditional economics and social theories have portrayed it as a burden, resulting in many nations adopting drastic measures of population control. However, Prout (Progressive Utility Theory) presents a revolutionary view. Praut believes that human power, if used correctly, is not a burden, but a valuable resource. The real problem lies not in the quantity of population, but in the absence of proper economic, biological, psychological and intellectual solutions. This article explains this view in detail, showing how population can be turned into an opportunity rather than a problem.

*1. There should be economic prosperity in the society, so that people can have access to nutritious food*

When the population grows, the biggest concern is food and nutrition. According to Prout, this concern arises only when the economic system is based on exploitation. The aim of the Prout economy is to guarantee basic needs for everyone, including nutritious food. It is not just about the availability of sufficient calories, but about the availability of a quality and balanced diet.

Economic prosperity means that every person has enough purchasing power to buy nutritious food for himself and his family. This is possible by promoting local production, strengthening cooperatives and establishing an exploitation-free distribution system. When people have adequate income, they do not struggle only to survive, but are able to focus on their health and development.

*2. Every individual should have good health*

The good health of the population is important not only for individual well-being, but also for the overall development of the nation. An unhealthy society cannot utilise its full potential. Instead of looking at population as a problem, we should focus on making each individual healthy and strong.

According to Prout, health is not just the absence of disease, but a holistic state that includes physical, mental and spiritual health. For this, it is necessary to make public health services accessible and affordable. By providing clean water, sanitation, nutritious food and a stress-free environment, we can empower each individual. When people are healthy, they can become productive members of society and contribute to economic development.

*3. Keeping the general public free from unnecessary worry and anxiety*

Population growth often causes stress, anxiety and mental health problems. Unemployment, poverty and a feeling of insecurity make people mentally weak. Praut believes that when individuals are free from unnecessary stress and anxiety, they are able to better use their creative and productive abilities.

Looking at population as a burden can create a feeling of inferiority in people. On the contrary, it is necessary to provide them with proper social and economic security. Every individual should get the assurance of employment opportunities, dignified life and future security. When individuals feel secure, they are motivated to contribute more towards the welfare of society and their families.

*4. Intellectual level of people has to be improved*

Another reason for seeing population as a big problem is that we often ignore the importance of education. An educated and aware population can make better decisions for their lives and society. To turn population growth into an opportunity, we have to increase the intellectual level of people.

According to Prout, the purpose of education is not just to provide jobs but to develop the individual all round. It should include moral, spiritual and social values. When people are educated and intellectually advanced, they can not only solve their personal problems but also contribute to innovation, creativity and social progress.

Population growth is not a problem in itself. The real problem lies in the shortcomings of our social and economic structure. Instead of considering population a burden, we should see each individual as a valuable resource.

Prout's approach calls for a fundamental shift: we should focus on the right use of human power instead of population control. When we focus on economic prosperity, better health, mental security and improved intellectual level, population will become a powerful force rather than a problem that will take human society to new heights. So, we have to get out of the mindset that population is a problem, and instead focus on solutions that can enable each individual to live a happy, healthy and productive life.

मनु और आदम: दो सभ्यता के आदि स्रोत (Manu and Adam: two origins of civilization)


मानव जाति के इतिहास में, हर संस्कृति और सभ्यता ने अपने आरंभ की कहानी को परिभाषित करने के लिए आदि-पूर्वजों की अवधारणा को गढ़ा है। ये आदि-पूर्वज न केवल जैविक पिता-माता होते हैं, बल्कि वे नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक नियमों के संस्थापक भी होते हैं। हिंदू धर्म में मनु और अब्राहमिक धर्मों (यहूदी, ईसाई और इस्लाम) में आदम, ये दोनों ऐसे ही मौलिक पात्र हैं जो मानव सभ्यता के आरंभ और विकास की कहानियों के केंद्र में हैं। इन दोनों की कहानियों में कई समानताएँ और गहन अंतर हैं, जो उनकी-उनकी परंपराओं के मूल सिद्धांतों को दर्शाते हैं।

 *अर्थ*  :  मनु एवं आदम शब्द का अर्थ क्रमशः मनुष्य एवं आदमी होता है। जो इंसान के लिए प्रयोग होता है। 

 *मनु शब्द का अर्थ* : मनु शब्द से मनुष्य शब्द बना है। जिसका अर्थ मन प्रधान प्राणी है। जो मनन, चिन्तन एवं स्मरण कर सकता है। प्राणी जगत के शेष प्राणी शरीर प्रधान है। 

 *आदम शब्द का अर्थ* : आदम शब्द से आदमी शब्द आया है। जिसका अर्थ - आद+म - म की शुरुआत से मन शब्द आया है। जान-ए-मन। अर्थात कही न कहीं आदमी भी मन प्रधान प्राणी से ही लिया गया शब्द है। 

 *मनु: भारतीय परंपरा के प्रथम पुरुष* 

हिंदू धर्म में, मनु को मानव जाति का आदि-पुरुष और प्रथम राजा माना जाता है। "मनुस्मृति" जैसे ग्रंथों में उनका उल्लेख मिलता है, जहाँ उन्हें धार्मिक और सामाजिक नियमों का प्रणेता बताया गया है। मनु की कहानी की सबसे महत्वपूर्ण घटना जलप्रलय की है।पौराणिक कथाओं के अनुसार, भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार ने मनु को चेतावनी दी कि एक महाविनाशक जलप्रलय आने वाला है। भगवान के निर्देश पर, मनु ने सभी प्रकार के बीजों, वनस्पतियों, और जानवरों के जोड़ों को एक नाव में सुरक्षित रखा। जब जलप्रलय आया, तो मत्स्य अवतार ने उस नाव को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। इस प्रकार, मनु ने न केवल मानव जाति को बल्कि पूरे जीवन को बचाया और एक नई सृष्टि की नींव रखी।

मनु की कहानी केवल एक जैविक उत्पत्ति की कहानी नहीं है। वे एक धार्मिक और सामाजिक विधानकर्ता के रूप में अधिक महत्वपूर्ण हैं। "मनुस्मृति" में दिए गए नियम, सामाजिक व्यवस्था (वर्ण व्यवस्था), विवाह, न्याय और नैतिकता के सिद्धांत आज भी भारतीय चिंतन का हिस्सा हैं। मनु को "मन्वंतर" का जनक भी माना जाता है, जो ब्रह्मांडीय समय चक्र की एक इकाई है। प्रत्येक मन्वंतर का नेतृत्व एक अलग मनु करता है, जो उस युग के लिए नियमों को स्थापित करता है। यह दर्शाता है कि हिंदू धर्म में सृष्टि एक बार की घटना नहीं है, बल्कि यह एक चक्रीय प्रक्रिया है जहाँ हर युग में एक नया आरंभ होता है।

 *आदम: अब्राहमिक परंपरा के प्रथम पुरुष* 

अब्राहमिक धर्मों में, आदम को ईश्वर (यहूदी धर्म में याहवेह, ईसाई धर्म में गॉड, इस्लाम में अल्लाह) द्वारा सीधे मिट्टी से बनाया गया पहला पुरुष माना जाता है। बाइबिल (जेनेसिस) और कुरान में उनकी कहानी विस्तार से वर्णित है। ईश्वर ने उन्हें स्वर्ग (ईडन का बगीचा) में रखा और उनकी पसली से पहली महिला, हव्वा (ईव) को बनाया। उन्हें एक ही नियम दिया गया था—एक विशेष वृक्ष का फल न खाना। हालाँकि, साँप (शैतान) के बहकावे में आकर आदम और हव्वा ने वह फल खा लिया, जिससे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। इस अवज्ञा के कारण, उन्हें स्वर्ग से निकाल दिया गया।

आदम की कहानी मानव इतिहास में पतन (fall from grace) की अवधारणा को दर्शाती है। उनके एक पाप (मूल पाप) ने पूरी मानव जाति को प्रभावित किया। आदम को न केवल एक आदि-पुरुष के रूप में देखा जाता है, बल्कि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में भी देखा जाता है जिसने अपनी अवज्ञा के कारण मानवता के लिए दुःख और मृत्यु का मार्ग प्रशस्त किया। इस्लाम में आदम को एक पैगंबर (नबी) भी माना जाता है, जिन्हें ईश्वर ने सीधे ज्ञान दिया। उनकी कहानी में नैतिकता और ईश्वर के प्रति आज्ञाकारिता पर अधिक जोर दिया गया है।

 *तुलनात्मक विश्लेषण: समानताएँ और अंतर* 

मनु और आदम की कहानियों में कुछ महत्वपूर्ण *समानताएँ* हैं:

  *मानव जाति के जनक:* दोनों को अपनी-अपनी परंपराओं में मानव जाति का आदि-पुरुष माना जाता है।

 *ईश्वरीय हस्तक्षेप:* दोनों ही सीधे तौर पर ईश्वर की कृपा और हस्तक्षेप से जुड़े हैं। मनु को भगवान विष्णु ने बचाया, जबकि आदम को सीधे ईश्वर ने बनाया।

 *नैतिक और सामाजिक भूमिका* : दोनों केवल जैविक पूर्वज नहीं हैं, बल्कि नैतिक और सामाजिक नियमों के निर्माता भी हैं। मनु ने "धर्म" को स्थापित किया, जबकि आदम ने पाप और पश्चाताप की अवधारणा को परिभाषित किया।

हालाँकि, दोनों के बीच गहरे वैचारिक *अंतर* भी हैं:

 *सृष्टि की अवधारणा:* आदम की कहानी में सृष्टि एक रैखिक (linear) प्रक्रिया है—एक ही बार हुई और अनंत तक चलेगी। इसके विपरीत, मनु की कहानी में सृष्टि चक्रीय (cyclic) है। प्रलय और पुनर्सृजन का चक्र चलता रहता है, जिससे हर नए युग में एक नया मनु आता है।

 *पाप और कर्म* : आदम की कहानी में "मूल पाप" (original sin) की अवधारणा केंद्रीय है, जिसके कारण मानवता को कष्ट भुगतना पड़ता है। इसके विपरीत, मनु की कहानी में "पाप" की अवधारणा व्यक्तिगत कर्मों से जुड़ी है, न कि किसी आदि-पुरुष के एकल पाप से। हिंदू धर्म में, व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार ही फल प्राप्त करता है, न कि आदम के पाप के कारण।

 *व्यक्तित्व का स्वरूप* : आदम को एक आज्ञाकारी लेकिन अंततः अवज्ञाकारी सेवक के रूप में दर्शाया गया है, जिसने अपनी गलती से मानवता का भविष्य बदल दिया। मनु को एक राजा, ऋषि और उद्धारकर्ता के रूप में देखा जाता है, जो प्रलय से सृष्टि को बचाता है और "धर्म" को फिर से स्थापित करता है। उनका व्यक्तित्व अधिक सकारात्मक और रचनात्मक है।

 *प्रलय का उद्देश्य* : आदम की कहानी में "पतन" के कारण स्वर्ग से निष्कासन होता है। मनु की कहानी में जलप्रलय एक विनाशकारी घटना है, लेकिन यह सृष्टि को शुद्ध करने और एक नई शुरुआत देने का एक अवसर भी है।

 *निष्कर्ष* 

मनु और आदम की कहानियाँ, अपनी-अपनी परंपराओं के दर्शन को दर्शाती हैं। मनु की कहानी चक्रीय समय, धर्म, और निरंतर पुनर्जीवन के भारतीय दर्शन को प्रतिध्वनित करती है, जबकि आदम की कहानी रैखिक इतिहास, पाप और मोचन की अब्राहमिक सोच को दर्शाती है।
           ये दोनों ही पात्र हमें सिखाते हैं कि मानव जाति का आरंभ सिर्फ एक जैविक घटना नहीं था, बल्कि यह नैतिकता, ज्ञान और उत्तरदायित्व की एक आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत थी। मनु ने हमें धर्म के मार्ग पर चलना सिखाया और आदम ने हमें अपनी पसंद और उसके परिणामों के प्रति जवाबदेह होना सिखाया। इन दोनों के माध्यम से, हम समझ सकते हैं कि हर संस्कृति ने अपनी जड़ों को कैसे परिभाषित किया है और मानव अस्तित्व के गहन प्रश्नों का उत्तर कैसे दिया है।

 *प्रस्तुति : करण सिंह शिवतलाव*
समाज के विकास की अवधारणा: क्रमिक विकास                                           (Concept of development of samaj : gradual evolution)
 *शूद्र युग* 

यह समाज के विकास की प्रारंभिक अवस्था है। इस काल में मनुष्य का जीवन अन्यज्ञ प्राणियों के समान ही था और वह अपनी आवश्यकताओं के लिए प्रकृति पर निर्भर रहता था। इस युग में, मनुष्य में चिंतन शक्ति और संगठित समाज का अभाव था। उनके आपसी संबंध केवल भावनात्मक थे, जो किसी भी ठोस सामाजिक संगठन से रहित थे। यह अवस्था मानव सभ्यता के शुरुआती चरण को दर्शाती है, जहाँ ज्ञान और शक्ति का अभाव था।

 *क्षत्रिय युग* 

शूद्र युग के बाद शारीरिक शक्ति का महत्व बढ़ा और क्षत्रिय युग का उदय हुआ। इस अवस्था में एक शक्तिशाली व्यक्ति नायक बनकर सामने आया, जिसने एक मजबूत संगठन का निर्माण किया। लोग स्वेच्छा से उसके अनुशासन को स्वीकार करने लगे। यह युग शारीरिक बल पर आधारित था और इसी ने एक समाज के रूप में मनुष्य के संगठित होने की शुरुआत की।

 *विप्र युग* 

क्षत्रिय युग के बाद ज्ञान और बुद्धि का महत्व स्थापित हुआ और विप्र युग का आगमन हुआ। इस काल में, ज्ञानवान और योग्य व्यक्ति ही समाज के मुखिया बने। उन्हें 'पुरोहित राजा' के रूप में भी जाना जाता था। ये लोग धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मामलों में समाज का नेतृत्व करते थे। यह युग ज्ञान और विवेक की श्रेष्ठता को दर्शाता है।

 *वैश्य युग* 
विप्र युग के बाद व्यावहारिक विषयों और धन-संपत्ति को प्राथमिकता मिली और वैश्य युग की शुरुआत हुई। इस काल में धनवान व्यक्ति नायक बन गए। हालांकि, इस युग में बुद्धि का उपयोग छल और कपट के लिए होने लगा, जिससे समाज में अराजकता और अव्यवस्था फैलने लगी। यह अवस्था समाज की नैतिक अवनति को दर्शाती है।

 *समाज का चक्रीय स्वरूप* 

आनंद मार्ग दर्शन के अनुसार, समाज का विकास एक सीधी रेखा में न होकर एक चक्रीय गति में होता है। वैश्य युग में उत्पन्न हुई अराजकता के बाद समाज फिर से शूद्र युग जैसी अवस्था में लौट आता है, जिसे नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ जैसे कठोर अनुशासन की आवश्यकता होती है। यह मार्शल लॉ ही क्षत्रिय युग की शुरुआत का संकेत देता है, जिसके बाद पुनः विप्र और वैश्य युग आते हैं। यह चक्र निरंतर चलता रहता है, जिससे समाज का विकास और परिवर्तन होता रहता है।
जात का जहर, संस्था पर कहर                  (The poison of caste is wreaking havoc on the institution)

बाबा ने एक अखंड और अविभाज्य मानव समाज की रचना के क्रम में इस बात का ध्यान रखा कि हमारी संस्था भौम और सामाजिक भाव प्रवणता से ऊपर रहे। हमारी संस्था को दूर-दूर तक मानव-मानव में विभाजन का दैत्य छू न पाए। उनके इस आदेश का पालन करते हुए, सभी गृहियों ने ध्यान रखा कि उनका ऑब्जेक्टिव भाव, उनके महान सब्जेक्टिव भाव को छू न पाए। यदि किसी में यह कमजोरी दिख जाए तो सभी गृहस्थ उन्हें ठीक करने के लिए साम, दाम, दंड एवं भेद, कोई भी उपाय अपनाने से पीछे नहीं हटे हैं। इस कमजोरी के कारण किसी गृही को आध्यात्मिक प्रगति के अलावा कोई सामाजिक प्रगति नहीं मिलती है। इस बात को सभी ने हृदय की अंतरतम गहराइयों से स्वीकार किया। इतने कठोर उपायों के बावजूद भी यदि संस्था पर जातिवाद और क्षेत्रवाद की छाया दिख जाए तो यह महा-शोक का विषय है, लेकिन जब यह कहर बनकर टूट पड़े तो और भी दुख का विषय है।

 *एक गृही का दोष* 

"बंगाली, हिंदी में संस्था टूट गई, बिहारी, उड़िया में संस्था फूट गई।" क्या यह महान आदर्शों पर प्रश्नचिह्न नहीं था? इस पर गृहियों ने संस्था के शीर्ष पर आसीन सत्ताधारियों की कुत्सित सोच के विरुद्ध हुंकार नहीं भरी। आज अपना परिचय गुटवाद से देना एक परिपाटी बन गई है। हम सबने इस परिपाटी को स्वीकार कर लिया है, जबकि इसमें हमारा कोई दोष ही नहीं। फिर भी कभी नहीं बोला, ऐसा क्यों? 

 *पर्दे के पीछे का एक सच* 

भारी मन से यह लिखना पड़ रहा है कि हमारे संन्यासियों में आजकल जातिवाद चलता है। यदि पर्दे के पीछे का एक सच सामने लाना पड़ जाए तो क्या कहेंगे! कुछ संन्यासी व्यक्तिगत रूप से मुझे बता चुके हैं कि एक गुट की गुप्त प्रशासन समिति ने एक संगठन विरोधी संन्यासी को संस्था में लाकर बड़े पद से इसलिए नवाजा क्योंकि उसका शरीर तथाकथित ब्राह्मण घर से आया था। यह सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक जानी चाहिए थी, लेकिन हमारे मन ने इस हकीकत को स्वीकार कर लिया है, इसलिए यह कोई अनहोनी नहीं लगी। मैंने पूछा, "ऐसा क्यों?" तो उत्तर आया, "सत्ता को पर्दे के पीछे से चलाने वाले का शरीर भी ब्राह्मण का है।"
मेरे मन ने और भी खोज करनी चाही तो पता चला कि पर्दे के पीछे वाला नेता जब बीमार पड़ा तो रक्त भी उसी का लिया गया, जो ब्राह्मण परिवार से आया एक नवयुवक संन्यासी था। रक्त ने भी यह परिभाषा सीख ली, यह सुनकर मानवता भी शर्मिंदा हो जाती है। वहाँ, "विश्व बंधुत्व कायम हो" और "मानव-मानव एक है" का नारा लगाने वाले की आत्मा क्यों नहीं काँप उठी? इसका कारण यही है कि हमने अपनी इस कमजोरी को भांप लिया है। मैं नहीं जानता कि यह तथ्य सत्य है अथवा स्वार्थ, जलन और ईर्ष्या से भरी गंदी राजनीति का पत्थर है।
मैं इस महान परंपरा पर लगने वाले इस अपवाद को प्रकाशित करना नहीं चाहता था। लेकिन एक डर ने यह सब लिखवा दिया कि हमारी संस्था का नाश करने का कोई अदृश्य संकल्प तो शैतान के मन में नहीं है। यदि ऐसा है तो उनके विरुद्ध लड़ेगा कौन? क्या बाबा मुझे क्षमा करेंगे?

 *आदर्शों से विमुखता के कारण* 

संन्यासी जातिवाद एवं क्षेत्रवाद की भावधारा में क्यों बह गए हैं, यह विचार करने का विषय है। यदि समय रहते विचार नहीं किया गया तो हम बाबा के स्नेह के अधिकारी नहीं कहला पाएंगे। इसका एक बड़ा कारण यह है कि संरक्षक अपने आप को संरक्षित मान बैठा है, और संरक्षित अपने संरक्षक। अभिभावक वार्ड बन गया है, और वार्ड अभिभावक। यही कारण है कि संन्यासी आदर्शों से विमुख हो गया है।
दूसरा कारण यह है कि एक आचार्य के कारण प्रत्येक संन्यासी को मिलने वाला सम्मान, वह संन्यासी होने का हक समझ बैठा। तीसरा कारण है- धन, शक्ति एवं सत्ता का विकेंद्रीकरण के स्थान पर केंद्रीकरण हो गया है। चौथा कारण यह कि जिसने फकीरी की झोली उठाई थी, उसकी तिजोरी भर गई है।

 *समाधान* 

क्या इसका कोई हल नहीं है? हाँ, हल है। जो कार्य संस्था को करने थे, समाज उन कार्यों को अपने हाथ में ले ले। सभी रचनात्मक कार्य जो संस्था नहीं कर पाई है या नहीं कर पा रही है, उन्हें समाज अपने हाथों से करे।
धन्यवाद
लेखक : अज्ञात
स्वदेशी आंदोलन एवं आत्मनिर्भर भारत पर एक दृष्टि (A look at the Swadeshi movement and self-reliant India)
स्वदेशी आंदोलन की नींव कांग्रेस ने डाली थी। तब उसे स्वराज चाहिए था। कालांतर में यह मुद्दा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) समर्थित संस्थान के पास आ गया। उन्हें स्वराज में 'स्वयंराज' दिखाई दिया। कोरोना ने देश को एहसास दिलाया था कि आत्मनिर्भर जन्मभूमि दुनिया की चकाचौंध से बहुत भली है। तभी मौके की नजाकत देखते हुए, हमारे प्रधानमंत्री जी ने अपने राजनीतिक तुणीर से ब्रह्मास्त्र निकालते हुए, 'आत्मनिर्भर भारत' का फॉर्मूला भारतवासियों के मन-मस्तिष्क में बिठा दिया। लेकिन, खतरे के बादल हटते ही इस दिशा में ठोस काम करने के बदले, भारत को अयोध्या के श्रीराम, ज्ञानवापी मस्जिद इत्यादि की ओर ले गए। ट्रंप की टैरिफ नीति ने फिर से प्रधानमंत्री जी को खोया सपना याद दिलाया। आशा है कि इस बार प्रधानमंत्री जी इस पर ठोस कार्य करेंगे।

अब हम भूमिका से आगे बढ़कर मूल विषय की ओर चलते हैं।
स्वदेशी आंदोलन एवं आत्मनिर्भर भारत की आवश्यकता ही नहीं, बल्कि यह विश्व गुरु भारत बनाने की ओर बढ़ता हुआ ठोस कदम है। इसके लिए हमें त्याग, तपस्या एवं परिश्रम का रास्ता चुनना होगा। स्वदेशी का सीधा-साधा अर्थ अपने देश की वस्तु है, लेकिन इसका गूढ़ार्थ 'अपनी वस्तु' है, जो हमारे सामने, हमारे अपनों के द्वारा, हमारे पहुँच क्षेत्र के अंतर्गत बनी हो, वह वस्तु स्वदेशी है। स्वदेशी के इसी गूढ़ार्थ से आत्मनिर्भर भारत का रास्ता निकलता है। भारत एक राजनीतिक इकाई है, जिसमें एक से अधिक सामाजिक-आर्थिक इकाइयां हैं। यहाँ अवश्य ही अर्थशास्त्रियों की प्याली में तूफान उठा होगा। स्वदेशी एवं आत्मनिर्भर भारत दोनों आर्थिक विषय हैं। इसमें सामाजिक विषय कैसे आ सकता है? यदि कोई अर्थशास्त्री ऐसा सोचता है तो वह भारतीय अर्थव्यवस्था एवं भारतीय समाज के साथ न्याय नहीं कर सकता है। कोई भी देश सर्वप्रथम अपनी सांस्कृतिक विरासत को संजोकर आगे बढ़ता है, तत्पश्चात् सामाजिक और उसके बाद आर्थिक सुदृढ़ीकरण आता है। अतः हमें समझना होगा कि भारतवर्ष एक साझा सांस्कृतिक विरासत लेकर खड़ा है। उसकी संपूर्ण संस्कृति को एक करना अथवा एक रूप में बिठाने का अर्थ है कि हम भारतवर्ष की हत्या करने जा रहे हैं। साझा संस्कृति का अर्थ है कि भारतवर्ष की सभी सांस्कृतिक विरासतों को फलने-फूलने एवं आगे बढ़ने का अवसर मिले। किसी भी लोक संस्कृति की मौत नहीं हो। अतः हमें एक सामाजिक-आर्थिक इकाई का निर्माण करते समय भावनात्मक बिंदु का समावेश करना होगा। वह भावनात्मक बिंदु कृत्रिम एवं बाहरी प्रेरक द्वारा बनाया गया नहीं हो, अपितु वह 'स्वभाव' से निकला हुआ हो। अतः स्वदेशी का मर्म यहाँ से शुरू होता है। स्वदेशी अर्थात एक सामाजिक-आर्थिक इकाई, जो समान आर्थिक समस्या, समान आर्थिक संभावना एवं भावनात्मक एकता के साथ नस्लीय समानता जैसे नैसर्गिक तत्व के साथ भी खड़ी होना आवश्यक है। यहाँ नस्लीय समानता का जिक्र आते ही समाजशास्त्री तलवारें लेकर खड़े हो जाएंगे कि भारतवर्ष को जाति एवं संप्रदाय के आधार पर बाँटने की साजिश हो रही है। जो समाजशास्त्री नस्ल एवं जाति को एक समझता है, वह समाज विज्ञान का 'अ, आ' भी नहीं जानता है। नस्ल का अर्थ जाति अथवा संप्रदाय नहीं, बल्कि भौगोलिक परिवेश है। भारतवर्ष भौगोलिक दृष्टि से भी विभिन्नता का सागर है। अतः भौगोलिक विभिन्नता का आदर करना ही होगा।

निष्कर्ष

विषय के सार की ओर चलते हैं। स्वदेशी आंदोलन एवं आत्मनिर्भर भारत को उस मूलाधार पर खड़ा करना होगा, जो विश्व गुरु भारतवर्ष, घी-दूध की बहती नदियों वाला भारतवर्ष, सोने की चिड़िया वाला भारतवर्ष, और महान भारतवर्ष बना सके। इसका एकमात्र आधार है—समान आर्थिक समस्या, समान आर्थिक संभावना, नस्लीय समानता एवं भावनात्मक एकता। इसी आधार पर खड़ी सामाजिक-आर्थिक इकाई को आत्मनिर्भर, स्वावलंबी एवं गौरवान्वित समाज बनाया जा सकता है।

प्रउत अर्थव्यवस्था

स्वदेशी आंदोलन एवं आत्मनिर्भर भारत की योजना तब तक अधूरी है, जब तक उसकी अर्थव्यवस्था उपयोग तत्व को प्रगतिशील बनाने की दिशा में कार्य नहीं करती है। एक स्वच्छ, स्वस्थ एवं पुष्ट उपयोग तत्व ही अर्थव्यवस्था को आधार देता है। इसलिए प्रगतिशील उपयोग तत्व की आवश्यकता है। इसलिए स्वदेशी आंदोलन एवं आत्मनिर्भर भारत को प्रगतिशील उपयोग तत्व वाली अर्थव्यवस्था को अंगीकार करना होगा। यही भारतीय अर्थव्यवस्था की आत्मा है। अर्थव्यवस्था में आध्यात्मिक, नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का समावेश करने वाली प्रउत (PROUT) अर्थव्यवस्था को अपनाना होगा। उसके अभाव में भारतवर्ष आत्मनिर्भर नहीं बन सकता तथा नहीं स्वदेशी रह सकता है। जिस प्रकार बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ किसी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को निगलती हैं, उसी प्रकार बड़ी-बड़ी स्वदेशी कंपनियाँ भी समाज के मूल तत्व को खा जाती हैं।

प्रस्तुति: आनंद किरण
आनन्द किरण की कविताएँ -2            (Poems of Anand Kiran -2)
         [25/08, 9:23 pm]
 करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 
अंधविश्वास माँ और शराब पिता
   (खतरनाकों में बड़ा कौन?) 

पिता की आँखों में छलके, रात का गहरा साया,
लड़खड़ाते कदमों ने, घर में आँधी लाया।
मगर उस आँधी में, एक दर्द छिपा होता था,
वो जानता था ज़हर है ये, जो खुद पीता था।। 

उसने कभी न चाहा, मेरे बच्चे भी ये ज़हर चखें,
अपनी बर्बादी की राह पर, वे कभी न चलें।
टूटे हुए शीशे से भी, उसने हमें बचा रखा,
अपनी हार का बोझ, हम पर नहीं रखा।। 

मगर माँ का वो प्यार, जो ढँका था भ्रम से,
धर्म के नाम पर, जो भर देता था डर से।
एक-एक धागे में, वो जादू भरती थी,
अंधविश्वास की रस्सी से, हमें कसती थी।। 

वो कहती थी यही राह, यही है तेरा जीवन,
बिना इसके सब व्यर्थ, बिना इसके अँधेरा वन।
उसे लगता था मेरा पुत्र, मुझसे भी बड़ा अंधभक्त हो,
भ्रम की दुनिया में, वो मुझसे भी आगे सक्त हो।। 

एक ज़हर तन को मिटाए, दूजा मन को खाए,
एक से निकल सकते, दूजे में उलझते जाए।
पिता ने तो गलती से, खुद को ही जलाया,
माँ ने तो विश्वास से, हमें अंधा बनाया।। 

इसलिए सच है ये, जो आपने कहा,
एक ने दर्द दिया, दूजे ने जीवन ही मिटा दिया।
एक ने तोड़ा खुद को, दूजे ने हमें भी तोड़ दिया,
अंधविश्वास ने, हमें बेड़ियों में जकड़ दिया।। 

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*

[26/08, 11:54 am] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 

मैं अभिमन्यु, चक्रव्यूह में फँसा,
द्वार खुले, पर निकलने का मार्ग न सुझा।
शिक्षा का धनुष, ज्ञान की ढाल,
पर पेट की आग बुझाए कौन, ये है सवाल।। 

 *कैसा है यह विकास, जहाँ पेट है भूखा, और हाथ है खाली?* 

रोजगार की आस में, भटकता दर-दर,
डिग्री का बोझ, और खाली है घर।
माथे पर चिंता, आँखों में निराशा,
देश की युवा शक्ति, आज है हताशा।। 

 *कैसा है यह विकास, जहाँ पेट है भूखा, और हाथ है खाली?* 

सरकारें आतीं, जातीं, वादों का जाल,
चुनावों में गूँजती, मीठी-मीठी चाल।
युवाओं के सपने, बस कागज़ पर लिख दिए,
आज भी यहाँ, हजारों ने भूखे पेट सो लिए।। 

 *कैसा है यह विकास, जहाँ पेट है भूखा, और हाथ है खाली?* 

पिताजी से नज़रे मिलाना है मुश्किल,
माँ के आँसुओं को, देख रहा है दिल।
"कुछ तो करो," वो कहते हैं बार-बार,
पर क्या करूँ, जब हर जगह है बंद द्वार।‌। 

 *कैसा है यह विकास, जहाँ पेट है भूखा, और हाथ है खाली?* 

भूख से तड़पता, यह मेरा भारत,
क्या यही है मेरे देश की हकीकत?
सपनों का बोझ, और उम्मीदों की लाश,
क्या कोई नहीं है, जो बुझाए यह प्यास?

 *कैसा है यह विकास, जहाँ पेट है भूखा, और हाथ है खाली?* 

प्रउत व्यवस्था में, यह तो है समाधान,
रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा का हो विधान।
सभी को मिले जीवन की मूलभूत सुरक्षा,
तभी तो देश में हो, सही मायने में प्रगति-व्यवस्था।। 

 *ऐसा होगा यह विकास, जहाँ न पेट है भूखा, और न हाथ है खाली?* 

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*


[26/08, 12:15 pm] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 


घर-घर में फैला है देखो, झूठ का अंधियारा।
सच्चाई को रौंदकर, नेता बन बैठा है हत्यारा।।
भले ही मिल जाए सिंहासन, और मिले सम्मान।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

जनता को तो बहकाया है, मीठी-मीठी बातों से।
विकास को तो रोका है, झूठे-झूठे वादों से।।
स्वार्थ ने तो फैलाया है, घिनौना जाल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

भ्रष्टाचार की जड़ें देखो, कितनी हैं गहरी।
रिश्वतखोरी के बिना, न हो कोई भी फाइल पूरी।।
सरकारी दफ्तरों का हाल, है देखो बेहाल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

जनता की सेवा का, नारा तो देते हैं हर पल।
पर गरीबों का तो देखो, लूटते हैं ये हर पल।।
गरीबों का खून चूसते, ये तो बने हैं नरभक्षी।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा, परवाह नहीं है किसी को।
अस्पतालों में मरते हैं लोग, परवाह नहीं है किसी को।।
युवाओं का भविष्य तो देखो, लग रहा है अधर में।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

किसान सड़कों पर मरता है, पर किसी को कोई गम नहीं।
महंगाई की मार से देखो, जनता को कोई रहम नहीं।।
महंगाई ने तो मचा रखा है, हर जगह हाहाकार।।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

धर्म और जाति के नाम पर, ये तो फैलाते हैं नफरत।
भाई-भाई को लड़ाकर, ये तो बने हैं मुजरिम।।
सामाजिक सद्भाव को तो, इन्होंने मिटाया है।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

सच्चे देशभक्तों का तो देखो, कहीं नामोनिशान नहीं।
झूठे राष्ट्रवाद का, कहीं अंत नहीं।।
देश की सेवा का दिखावा, ये तो करते हैं हर पल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

स्वतंत्रता के नाम पर, ये तो करते हैं गुलामी।
लोकतंत्र की दुर्दशा तो देखो, है बड़ी ही दर्दनाक।।
संविधान का सम्मान, ये तो करते नहीं।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

प्रउत व्यवस्था में न कोई नेता होगा, न होगी नेतागिरी,
राजनीति में वही रहेगा, जिसको करनी होगी सेवा।
तब होगा भारत स्वच्छ, और जागेगा हर इंसान।। 
तब ही तो होगा, देश का कल्याण।
तब कोई नहीं बोलेगा, भगवान बचाए नेता बनने से।।

[26/08, 1:48 pm] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 


घर-घर में फैला है देखो, झूठ का अंधियारा।
सच्चाई को रौंदकर, नेता बन बैठा है हत्यारा।।
भले ही मिल जाए सिंहासन, और मिले सम्मान।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

जनता को तो बहकाया है, मीठी-मीठी बातों से।
विकास को तो रोका है, झूठे-झूठे वादों से।।
स्वार्थ ने तो फैलाया है, घिनौना जाल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

भ्रष्टाचार की जड़ें देखो, कितनी हैं गहरी।
रिश्वतखोरी के बिना, न हो कोई भी फाइल पूरी।।
सरकारी दफ्तरों का हाल, है देखो बेहाल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

जनता की सेवा का, नारा तो देते हैं हर पल।
पर गरीबों का तो देखो, लूटते हैं ये हर पल।।
गरीबों का खून चूसते, ये तो बने हैं नरभक्षी।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा, परवाह नहीं है किसी को।
अस्पतालों में मरते हैं लोग, परवाह नहीं है किसी को।।
युवाओं का भविष्य तो देखो, लग रहा है अधर में।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

किसान सड़कों पर मरता है, पर किसी को कोई गम नहीं।
महंगाई की मार से देखो, जनता को कोई रहम नहीं।।
महंगाई ने तो मचा रखा है, हर जगह हाहाकार।।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

धर्म और जाति के नाम पर, ये तो फैलाते हैं नफरत।
भाई-भाई को लड़ाकर, ये तो बने हैं मुजरिम।।
सामाजिक सद्भाव को तो, इन्होंने मिटाया है।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

सच्चे देशभक्तों का तो देखो, कहीं नामोनिशान नहीं।
झूठे राष्ट्रवाद का, कहीं अंत नहीं।।
देश की सेवा का दिखावा, ये तो करते हैं हर पल।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

स्वतंत्रता के नाम पर, ये तो करते हैं गुलामी।
लोकतंत्र की दुर्दशा तो देखो, है बड़ी ही दर्दनाक।।
संविधान का सम्मान, ये तो करते नहीं।
भगवान बचाए नेता बनने से, ईश्वर ही बचाए देश को गलने से।।

प्रउत व्यवस्था में न कोई नेता होगा, न होगी नेतागिरी,
राजनीति में वही रहेगा, जिसको करनी होगी सेवा।
तब होगा भारत स्वच्छ, और जागेगा हर इंसान।। 
तब ही तो होगा, देश का कल्याण।
तब कोई नहीं बोलेगा, भगवान बचाए नेता बनने से।।

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*

[27/08, 12:51 pm] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):


जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी। 
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।। 

अंधेरी रात थी, फैला था मौन। 
संस्था का शिखर, हो गया था गौण।। 
ज्ञान के दीपक बुझने लगे थे। 
प्रतिष्ठा के धागे छूटने लगे थे।। 
मुख्यालय में सन्नाटा पसरा। 
प्रेम का भाव कहीं खो गया था।। 
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी। 
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।। 

लड़खड़ाती संस्था की नींव। 
फैला था हर ओर संदेह और अविश्वास।। 
शासन का केंद्र टूट गया था। 
हर कार्यकर्ता अपने पथ से भटक गया था।। 
सत्य के स्थान पर झूठ था। 
प्रेम के स्थान पर द्वेष था।। 
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी। 
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।। 

अराजकता का था हर ओर वास। 
नियमों का था नहीं कोई आस-पास।। 
कार्यकर्ताओं में मच गई थी भगदड़। 
हर कोई था खुद के लिए निष्ठुर।। 
विखंडन की चरमसीमा।
नहीं थी कोई मर्यादा, कोई गरिमा।। 
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी। 
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।। 

फिर कुछ आध्यात्मिक योद्धा जागे। 
धर्म की रक्षा के लिए आगे भागे।। 
सत्य की मशाल हाथों में लेकर
ज्ञान की तलवार से अज्ञान को काटकर।। 
अधर्मियों से उन्होंने लड़ाई लड़ी। 
धर्म की राह फिर से गढ़ दी।। 
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी। 
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।। 

जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी,
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।

भले ही पुरोधा प्रमुख चोरी हो गए। 
पर उनका दिया पद और सम्मान नहीं खो जाए।। 
धर्म के सिपाही लड़ रहे हैं। 
फिर से सबको एक कर रहे हैं।। 
विश्वास और भक्ति का दीप जलाकर। 
संस्था को वापस से खड़ा कर रहे हैं।। 
जब हुई पुरोधा प्रमुख की चोरी। 
उस ही दिन हो गई थी धर्म की हानि।। 

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण‌*

[27/08, 1:25 pm] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): •

(एक पाखंडी इंसान की कथा) 

अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।
कहे वचन मीठे हैं जैसे मिश्री,
मन में विष का भाव भरा। 
ऊपर से साधु का बाना पहने,
अंदर से छल ही खरा।। 
जप-तप की माला लेकर बैठे,
और मन में लोभ पला।
आडंबर की दुनिया रचे,
जिसमें सत्य छिप चला।। 
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।

मंदिर-मस्जिद में शीश नवाए,
बाहर आकर झूठ बोले। 
धर्म के नाम पर धंधा चलाए,
पाप की गठरी खोले।। 
ज्ञान की बातें वो सबको सुनाए,
खुद अज्ञान में डूबा है।
धर्म का चोला ओढ़े नास्तिक,
ईश्वर से भी रूठा है।। 
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।

ऊंचे आसन पर बैठ उपदेश दे,
खुद आचरण से खाली। 
दिखावटी भक्ति का खेल रचे,
चेहरे पर लगा के लाली।। 
साधु का वेश धरकर घूमता,
भोले भक्तों को बहलाता। 
अंदर से है वो कसाई,
जो धर्म को भी बेच खाता।। 
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।

सत्य को ढँके झूठ के पर्दों से,
और खुद को ज्ञानी बताए। 
धर्म का पाठ पढ़ाए दूसरों को,
पर खुद ही भटका जाए।। 
वस्त्रों में धर्म को छिपाए,
मुख पर झूठी हँसी लावे। 
अंधविश्वास की चादर ओढ़कर,
वो खुद को संत कहावे।। 
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।

हर मोड़ पर रंग बदलता,
जैसे मौसम बदले। 
आज धर्म की बात करे,
कल अधर्म के संग चले।। 
पाखंड का मुखौटा पहनकर,
वह खुद को बड़ा दिखाए। 
अंदर से खोखला वह इंसान,
हर दिन धर्म को शर्मिंदा कराए।। 
अशोक नहीं यह शोक है।
धर्म रक्षक का विमोहक है।।

प्रस्तुति : *आनन्द किरण*
[27/08, 3:17 pm] करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): *दोगला मित्र* 
बचपन का साथी वो, संग था खेला।
प्यार का बंधन था, ना कोई झमेला।। 
अब मतलब के लिए, बदलता है रंग। 
करके वादा मीठा, देता है धोखा।। 
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।

जब धन का सागर, उमड़कर आया।
गरीब के दिल को, उसने दुखाया।। 
झूठे वादों से, वो रिश्ता निभाता। 
खुशहाली देखके, पास आता है।।
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।

जब मुश्किलों का, पहाड़ टूट जाता।
तब भी वो, मुँह फेर लेता।। 
पीछे से देता, बुरी-बुरी बातें। 
सामने से मीठी, करता है बातें।।
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।

आज यहाँ दोस्ती, कल वहाँ दोस्ती।
लाभ जहां मिले, वहीं करता दोस्ती।। 
सच्चे दोस्त को, वो ठुकराता है। 
और झूठे यार से, हाथ मिलाता है।। 
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।

कभी मीठा बोल, कभी कड़वा बोल।
अपने मतलब का, वो खोलता है पोल।। 
मतलब पूरा हो, तो सब कुछ देता। 
नहीं तो फिर, वो सब कुछ ले लेता।। 
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।

जब उसकी जरूरत, तो वो आता है।
जब तेरी जरूरत, वो भाग जाता है।। 
मतलबी दुनिया में, वो जीता है। 
और दूसरों को, वो दुःख देता है।। 
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।

ऐसे मित्र से, दूर रहना चाहिए।
अपने दिल को, समझाना चाहिए।। 
जो पीठ पीछे, बुरी बात करता है। 
वो कभी भी, सच्चा मित्र नहीं होता।। 
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।

सच्ची दोस्ती, तो वो है जो,
अच्छे और बुरे में, साथ निभाए।
दोगले मित्र का, साथ छोड़ दो,
सच्चे मित्र का, हाथ पकड़ लो।। 
मित्रता का यह खेल निराला।
स्वार्थ के खातिर बदल देता पाला।।

प्रस्तुति *आनन्द किरण*


[27/08, 3:40 pm] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):


नभ में अंधकार घना छाया,
अग्नि ज्वाला सी लपटों ने, एक अशुभ दिन को सजाया।
माथे पर चंदन, फूलों की माला,
साजिश की चादर ओढ़े बैठा, एक हथियारधारी बाला।। 
उल्लास की जगह, पसरा सन्नाटा। 
एक प्रखर नेता का जीवन, हुआ असमय ही छोटा।। 
शैतान ने अपना रूप दिखाया। 
मासूमों का लहू बहाया।। 

लाल सलाम का जहर
लाल झंडे लिए कुछ लोगों ने, दुनिया को समता का सपना दिखाया। 
मगर उसकी ही एक धारा ने, मासूमों का लहू बहाया।। 
गरीबी, लाचारी का नाटक कर,
देश के जवानों का खून पिया। 
छद्म विचारधारा की आड़ में,
देश को खोखला कर दिया।। 
शैतान ने अपना रूप दिखाया। 
मासूमों का लहू बहाया।। 

बंटवारे का दंश
पंजाब की धरती पर, शस्त्रों की गूँज। 
स्वर्ण मंदिर में गूँजती, नफरत की गूँज।। 
कश्मीर की वादियों में, बंदूक की छाया। 
हिन्दू और मुसलमान को आपस में भिड़ाया।। 
असम की धरती पर, रंगों की होली,
धर्मांधता ने खेली, लाशों की होली।
तमिलनाडु का तट भी, खून से रंगा,
एक निर्दोष का जीवन, हिंसा ने डसा।। 
शैतान ने अपना रूप दिखाया
मासूमों का लहू बहाया।। 

अंध आस्था की ज्वाला
धर्म के नाम पर, आस्था का सौदा। 
अंधविश्वास ने फैलाया, आतंक का पौधा।। 
आज़ादी के नाम पर, इंसान को मारा
खुदा और भगवान के नाम पर, नरसंहार पसारा।। 
इन आतंकवादी शैतानों का,
न है कोई मजहब, न कोई ईमान। 
इनके दिल में बस हिंसा है,
और पशुता का ही इल्म।। 
शैतान ने अपना रूप दिखाया। 
मासूमों का लहू बहाया।। 

विजय की आशा
जब तक रहेगा, सत्य और अहिंसा का ज्ञान। 
तब तक हारेगा, शैतान और आतंक का अभियान।। 
नफरत को प्रेम से मिटाओ। 
अंधेरे में ज्ञान का दीपक जलाओ।। 
सत्य की राह पर चलो। 
और मानवता को बचाओ।। 
शैतान ने अपना रूप दिखाया,
मासूमों का लहू बहाया।

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*

[29/08, 5:54 am] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):

अणुचैतन्य कण कण में समाया,
जीवन का यह अंश कहलाता है।
जन्म मरण के बंधन से परे,
अविनाशी यह रूप अनन्त है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

यह जीवात्मा हर जीव में है,
कर्मों का लेखा-जोखा धारता है।
सुख-दुःख की यात्रा को जी कर,
अपनी ही पहचान तलाशता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

क्षणभंगुर इस जग में,
अमिट ज्योति सा चमकता है।
अविनाशी, अनन्त यह जीवात्मा,
अपना पथ स्वयं ही बनाता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

वह भूमाचैतन्य है जो सब में है,
पर फिर भी सबसे अलग रहता है।
नित्य, शुद्ध और निराकार,
कभी किसी रूप में नहीं दिखता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

वह निराभास और निरंजन,
इस सृष्टि का आधार है।
सागर की तरह विशाल,
शांति का भंडार है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

उसके नाम से ही सृष्टि चली,
उसमें ही सब कुछ समाया है।
वह परम आत्मा है जो,
हर चेतन और अचेतन में छाया है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

वह भूमाचैतन्य ज्ञान का सागर है,
जिसमें सब कुछ विलीन होता है।
वह परब्रह्म और परमेश्वर,
जो अनंत काल से रहता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

उसकी महिमा अपरंपार है,
उसकी शक्ति का कोई अंत नहीं।
वह सर्वव्यापी और सर्वज्ञ है,
उसकी सीमा का कोई खंड नहीं।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

वह निराकार होते हुए भी,
हर आकार में दिखता है।
वह भूमाचैतन्य है जो,
हर जगह ही बसता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

जब जीवात्मा को हो परम ज्ञान,
परम सत्य की होती है पहचान।
अणुचैतन्य भूमाचैतन्य से,
जुड़ जाता है फिर अनजान।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

तब अणुचैतन्य भूमा में समाता है,
अपने ही घर में लौट आता है।
अनन्त की खोज में निकला था,
उसी में विलीन हो जाता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

मिलन का यह क्षण कितना पावन,
जीव का परम लक्ष्य पूरा होता है।
आत्मा परमात्मा से मिलकर,
जन्म मरण के बंधन तोड़ता है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

तब न अणु है, न भूमा है,
केवल एक ही सत्ता है।
एकाकार यह परम दशा है,
जिसे पाना ही सब कुछ है।
बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम, बाबानाम केवलम।

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*



[30/08, 6:35 pm] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 

(भ्रष्टाचार पर एक व्यंग्य कविता) 

चाँद की नगरी में थी अद्भुत शांति,
पुलिसकर्मी लेते थे विश्राम, न थी कोई भ्रांति।
वेतन था ऊँचा, कार्य था बस सोना-खाना,
सम्राट को ना भाया उनका आलस पुराना।
भेजा दल पृथ्वी पर, खोजने सक्रिय बल,
देख भारतीय पुलिस को, हुआ वे बेकल।
दिन-रात दौड़ते, चालान काटते, करते दंगा शांत,
भारत की पुलिस देख, दल हुआ अति प्रशांत।
मेरा भारत महान!

 *प्रशिक्षु की होड़* 

भारत से प्रशिक्षक भेजने की जब खबर उठी,
चाँद जाने की होड़ हर पुलिसकर्मी में मच उठी।
सबने सोचा, ये तो है कमाई का अवसर,
रिश्वत और पहुँच से, मेरा हुआ चयन, प्रधान।
सोचा, जो दिया है, सौ गुना कमाकर ही लौटूँगा,
यही मेरा लक्ष्य है, इसी पर मैं डटूँगा।
पायलट से रिश्वत माँगी, उसने दी धमकी,
डरा-सहमा बैठ गया, हो गई हवा फीकी।
मेरा भारत महान!

 *वेतन में कटौती* 

चाँद पर स्वागत हुआ, मिली मुझे सारी सत्ता,
देखा वेतन-पंजिका, तुरंत दिया फैसला।
"महाराज, समस्या का हल है यही सही,"
वेतन दस गुना घटा दो, कह दी मैंने वही।
पुलिसकर्मी घबराए, मचा हाहाकार,
"यह क्या किया आपने?", बोले वो बारंबार।
मुस्कुराकर मैंने कहा, "घबराओ मत यार,
आओ, दिखाऊँ तुम्हें कमाई का नया द्वार।"
मेरा भारत महान!

 *कमाई का रास्ता* 

गरीबों को धमकाया, अमीरों से ली रिश्वत,
बेकसूरों को फँसाया, ले ली खूब दौलत।
अपराधी को जेल में रखा, फिर मोटी ज़मानत,
"ये तुम्हारे कमाऊ बेटे हैं," दी उन्हें ये हिदायत।
लाइसेंस, हेलमेट से कमाओ, छिपाओ सरकारी धन,
एक प्रतिशत ही जमा करो, बाकी है तुम्हारा मन।
यही शिक्षा देकर लौटा, छोड़ दिया वो देश,
चाँद की पुलिस अब करती, दिन-रात भाग-दौड़।
मेरा भारत महान!

 *निष्कर्ष* 
चाँद के सम्राट हुए पहले तो प्रसन्न,
देख पुलिस को दौड़ते, हो गया मन मग्न।
पर एक युग बाद, जब देखा दिवाला,
भारत को भेजा आपत्ति-पत्र, हुआ वो हताश।
उत्तर मिला हमारे सचिव से, "यह सब वर्षों से जारी,
फिर भी हम हैं ज़िंदा, यही है हमारी शान।"
हमारी व्यवस्था की यही है अनोखी पहचान।
यह है हमारा भारत, जो है दुनिया में महान।
मेरा भारत महान!

प्रस्तुति : आनन्द किरण



[30/08, 8:44 pm] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 

              • ॐ •
              ---
ज्ञान की ज्योति जलाई,
जीवन राह दिखाई।
शब्दों की माला पिरोकर,
अंधकार से मुक्ति दिलाई।।
हरि ॐ तत्सत

गुरु ने जब माँगा,
वो गुरु दक्षिणा का दान।
स्वार्थ नहीं था उसमें,
शिष्य के हित का ही सम्मान।।
हरि ॐ तत्सत

गुरुत्व ने था माँगा,
शिष्य के जीवन का सार।
सार्थक हो जाए उसका पथ,
हो जाए भव से पार।।
हरि ॐ तत्सत

शिष्य ने भी दिया,
अपना सब कुछ कर अर्पण।
स्वार्थ था बस इतना,
गुरु के चरणों में हो जीवन समर्पण।।
हरि ॐ तत्सत

यह राशी नहीं,
गुरु-शिष्य का है बंधन।
एक आदर्श की स्थापना,
एक पवित्र समर्पण।।
हरि ॐ तत्सत

गुरु का गुरुत्व,
शिष्यत्व की पहचान।
गुरु दक्षिणा है वो,
जो करती जीवन को महान।।
हरि ॐ तत्सत

नव जीवन का मार्ग,
गुरु ने था दिखलाया।
जीवन की हर ठोकर से,
शिष्य को था बचाया।।
हरि ॐ तत्सत

यही है सच्ची दक्षिणा,
गुरु की कृपा अपार।
शिष्य का भी समर्पण,
जिससे हो जाए भव से पार।।
हरि ॐ तत्सत

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*


[01/09, 10:03 pm] करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 


ज़हरीले घूँट कब तक पीते रहेंगे,
पापी को कब तक सहन करते रहेंगे?
सत्य कब तक चुपचाप बैठा रहेगा,
अन्याय के आगे कब तक सिर झुकाता रहेगा?

घड़ी की टिक-टिक चलती रही,
पाप की छाया बढ़ती रही।
सत्य की आवाज़ धीमी होती गई,
अधर्म की लपटें ऊँची उठती गईं।

यह कैसा काल आ गया है,
इंसानियत का चेहरा धुंधला गया है।
हर गली में झूठ का साया है,
सच्चाई जैसे गुम हो गई है।

कभी तो सूरज निकलेगा,
अंधेरा दूर भागेगा।
सत्य की ज्वाला भड़केगी,
हर तरफ़ रोशनी फैलेगी।

पाप का घड़ा जब भर जाएगा,
अहंकार जब टूट जाएगा।
सत्य अपनी शक्ति दिखाएगा,
न्याय का डंका फिर बज जाएगा।

कभी तो हिम्मत जुटाओगे,
झूठ से तुम लड़ जाओगे।
विष के घूँट अब और नहीं,
अन्याय को अब और नहीं सह पाओगे।

सत्य को आज़माओगे,
खुद पर भरोसा लाओगे।
एक दिन तुम जीत जाओगे,
पाप को तुम हरा पाओगे।

अब और चुप नहीं रहना है,
अन्याय को अब नहीं सहना है।
सत्य का साथ हमें देना है,
सच्चाई का रास्ता अब चुनना है।

विष का स्वाद फीका होगा,
सत्य का रंग गहरा होगा।
आज नहीं तो कल सही,
पाप का अंत होकर रहेगा।

सत्य की जीत निश्चित है,
यह बात बिलकुल सही है।
थोड़ा धैर्य और हिम्मत रखो,
हमारे साथ परमपुरुष खड़े है, यही सच है।

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*



[02/09, 5:30 am] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 


​नींद वो नहीं जो शून्यता दे,
नींद वो है जो शुद्धता दे।
सपना वो नहीं जो उलझन दे,
सपना वो है जो सुलझन दे।
जागरण वो नहीं जो बेचैनी दे,
जागरण वो है जो चैनी दे।
​नींद वो है जो थकी आँखें शांत कर दे,
सपना वो है जो नए कल का द्वार खोल दे।
जागरण वो है जो राह पर चलने की शक्ति दे,
जीवन को एक नया संगीत दे।
हर रात नई उम्मीद लेकर आए,
हर सुबह नई शुरुआत लाए।
​नींद है विश्राम, मन को शांत करने का,
सपना है भविष्य को बुनने का।
जागरण है उस बुने हुए स्वप्न को साकार करने का,
प्रयासों से जीवन को सजाने का।
नींद, सपना और जागरण का यही संगम है,
जीवन को सार्थक बनाने का।
​जब नींद आती है, दुनिया ठहर जाती है,
जब सपना आता है, एक नई दुनिया बन जाती है।
जब जागरण आता है, वो दुनिया हकीकत बन जाती है,
मेहनत से हर मुश्किल आसान हो जाती है।
यह चक्र चलता है, जीवन चलता रहता है,
हर पल एक नया पाठ सिखाता रहता है।
​नींद में खोकर हम खुद को पाते हैं,
सपनों में खोकर नए रास्ते बनाते हैं।
जागरण में आकर उन रास्तों पर चलते हैं,
हर बाधा को साहस से पार करते हैं।
यह यात्रा है आत्म-ज्ञान की,
नींद से जागरण तक, नए आसमान की।
​नींद देती है शरीर को आराम,
सपना दिखाता है मन को अंजाम।
जागरण देता है उस अंजाम तक पहुँचने का काम,
यही है जीवन का असली मुकाम।
हर रात एक नई कहानी लिखती है,
हर सुबह एक नई राह दिखती है।
​नींद है एक गहरा सागर,
सपना है उसमें तैरती हुई नाव।
जागरण है वो तट, जहाँ वो नाव लगती है,
सफलता की रोशनी जहाँ जगमगाती है।
नींद, सपना और जागरण की इस यात्रा में,
हम पाते हैं अपने जीवन का असली सार।
​नींद में विचार शांत होते हैं,
सपनों में वो विचार आकार लेते हैं।
जागरण में वो आकार हकीकत बनते हैं,
जीवन को एक नई दिशा देते हैं।
यह अद्भुत संगम है मन और कर्म का,
यह अद्भुत प्रवाह है जीवन के धर्म का।
​नींद, सपनों को पनाह देती है,
सपना, जागरण को राह दिखाता है।
जागरण, मंजिल तक पहुंचाता है,
यही जीवन का सत्य बताता है।
यह तीनों मिलकर जीवन को पूर्ण करते हैं,
हर पल को नया अर्थ देते हैं।
​नींद से मिलती है ताजगी,
सपनों से मिलती है ऊर्जा।
जागरण से मिलती है प्रगति,
यही है जीवन की सच्ची पूजा।
स्वप्न से जागृति तक की यह यात्रा,
है स्वयं को जानने की एक नई गाथा।

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*



[02/09, 12:59 pm] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 


मुसलमान का विरोध, शेख से प्रेम।। 
ईसाईयत से परहेज, पुतिन से अपनापन।
चीनी वस्तुओं का बहिष्कार, चीन से दोस्ती।
आत्मनिर्भर भारत, विदेश की गलियों में व्यापार।। 

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

मजदूरों की पुकार अनसुनी, कॉर्पोरेट को सलाम। 
विकास की परिभाषा में, बस कुछ ही नाम।। 

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

शिक्षा पर भाषण, पर बजट में कटौती। 
ज्ञान के मंदिरों में, लगती है अब जंजीर।। 

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

लोकतंत्र की बातें, फैसले में एकाधिकार। 
संसद की दीवारों में, गूंजता है सन्नाटा।। 

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

किसानों का दर्द, चुनावी मुद्दा भर। 
अन्नदाता की थाली में, खालीपन का डर।। 

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

पर्यावरण की चिंता, पर जंगल कट रहे। 
नदियों का पानी, शहरों की प्यास से सूख रहे।। 

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

सांप्रदायिक एकता पर, होते हैं अब वार। 
मजहब के नाम पर, दिलों में पनप रही दरार।। 

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

स्वास्थ्य सेवा पर नारे, पर अस्पताल में भीड़। 
गरीबों की जिंदगी, बन गई एक पीड़।। 

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

युवाओं को सपने, पर रोजगार का अभाव। 
डिग्रियों का बोझ, और भविष्य पर घाव।। 

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

सत्य पर पर्दा, झूठ का बोलबाला। 
सच कहने वाला, बन गया अब अपराधी।। 

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

मुसलमान का विरोध, शेख से प्रेम।।
ईसाईयत से परहेज, पुतिन से अपनापन।
चीनी वस्तुओं का बहिष्कार, चीन से दोस्ती।
आत्मनिर्भर भारत, विदेश की गलियों में व्यापार।।

 *क्या यही है चाणक्य नीति?* 

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*


[02/09, 8:44 pm] 

करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):



जर्जर हो चली राजनीति की नींव, सहनशीलता जब खो जाए।
समझो अपनी जगह से वह, अब विचलित होकर गिर जाए॥

जो आस लगाते बैठे हैं, उन दीवारों के गिरने की।
वो देखते ही रह जाते हैं, घड़ी उन पर ही आन पड़े, उनके ही आँगन में छाए॥

इस जर्जरता के दौर में, जब शक्तिहीनता छाई हो।
तब बुद्धि कहती यह बात, कि नई नींव अब डाली जाए॥

इन दीवारों को ढहा दो, जो अब केवल बोझ हैं।
नए भवन का निर्माण करो, जिसमें आशा की ज्योति जागे॥

सत्ता की गलियां सूनी हैं, जहाँ स्वार्थ का राज चला।
जनता की पुकार नहीं सुनता, बस अपने हित को देखता॥

विश्वास का धागा टूट चुका, अब जोड़ने से क्या होगा।
जब नींव ही खोखली हो गई, तो खड़ा महल कैसे होगा॥

यह क्रांति का आह्वान है, जो सबको आगे बुलाता है।
भविष्य की उज्ज्वल राह पर, जो सबको राह दिखाता है॥

आओ मिलकर हाथ बढ़ाओ, इस कर्तव्य को पूरा कर।
एक नया इतिहास रचो, जो युगों-युगों तक याद रहे॥

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*



[03/09, 6:41 am] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 


          *स्वतंत्रता* 
आजाद भारत की नई कहानी,
ज्ञान-विज्ञान की है जिंदगानी।
संस्कृति की खुशबू हर गाँव-गाँव,
फैले मानवता का सुंदर भाव।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।

         *आधुनिकता* 
आधुनिकता का नया प्रकाश,
प्रौद्योगिकी में है विश्वास।
डिजिटल भारत की नई पहचान,
शिक्षा, स्वास्थ्य में है सम्मान।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।

   *आदर्श भारतवर्ष* 
आदर्शों पर हम चलें सदा,
नीति, धर्म का हो आधार।
समृद्धि का हर घर में वास,
प्रेम और सद्भाव का प्रकाश।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।

     *एक मानव समाज* 
समानता और न्याय का हो राज,
हर कोई जीए एक-साथ।
ना कोई बड़ा, ना कोई छोटा,
सबके लिए हो एक ही रास्ता।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।

  *कृषि को उद्योग दर्जा* 
किसान का हो मान-सम्मान,
फसलों को मिले उचित दाम।
खेती में हो नई तकनीक,
हर अन्नदाता का जीवन हो सुखद।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।

*नारीशक्ति का सम्मान* 
नारी है शक्ति का प्रतीक,
वह समाज की दिशा।
हर क्षेत्र में मिले समान अधिकार,
अबला नहीं, वह है सशक्त और महान।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।

 *व्यवसायीकरण मुक्त शिक्षा* 
शिक्षा हो सबका अधिकार,
ज्ञान का हो प्रसार।
गरीब-अमीर का ना हो भेद,
सबको मिले उत्तम ज्ञान।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।

     *स्वच्छ पर्यावरण* 
प्रकृति का करें हम संरक्षण,
पेड़-पौधों का हो हर पल ध्यान।
धरती को रखें स्वच्छ-सुंदर,
स्वस्थ जीवन का हो वरदान।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।

 *चिकित्सा का बाजार बंद हो* 

स्वास्थ्य सेवा हो सबकी पहुँच में,
ना हो व्यापार का खेल।
हर रोगी को मिले सही इलाज,
जीवन की रक्षा हो सबका लक्ष्य।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।

     *समृद्ध भारतवर्ष* 
धन-धान्य से हो घर-घर भरा,
कोई ना रहे भूखा-प्यासा।
खुशहाली का हो हर तरफ राज,
भारत बने विश्व गुरु।
आओ प्रउत के संग चलते हैं आदर्श भारतवर्ष की ओर।

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*
[03/09, 11:16 pm] 

करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 




अंधकार भरा है आज, शब्दों की तलवारों में,
क्यों सम्मान खो रहा, झगड़ों और तकरारो में।
राजनीति की गलियों में, विष घुल रहा है बातों का,
माँ का अपमान क्यों हो रहा, सम्मान की रातों का।। 

माँ तो माँ है, चाहे वो सत्ता पक्ष की हो या विपक्ष की,
उसका स्थान है सबसे ऊपर, वो है आधार हर शख्स की।
कैसे कह देते हो, उन पर अपशब्दों का वार,
क्या यही है हमारी संस्कृति, क्या यही है हमारा संस्कार?? 

बहन का भी मान करो, हर नारी का सम्मान हो,
चाहे वो किसी भी कोई भी हो, हर जगह उसका गुणगान हो।
पुरुष भी तो इंसान है, उसे भी तो दर्द होता है,
जब कोई अपशब्द कहे, उसका भी दिल रोता है।। 

जिसको बुरा लगता है, जब कोई उसकी माँ को गाली दे,
वो भी क्यों दूसरों की माँ पर, शब्दों के बाण चलाए।
यह द्वेष की आग है, जो दिल में जल रही है,
इस आग को बुझाना होगा, तभी शांति मिल रही है।। 

शब्दों का मान, रिश्तों का सम्मान
शब्दों की धार से क्यों, यह ज़मीं लहूलुहान है?
क्यों हर तरफ फैला, यह झूठा अभिमान है?

कोई कहता है नेता की माँ, कोई कहता है विरोधी की,
पर भूल गए हम सब, कि हर माँ एक समान है।
राजनीति के इस रण में, मर्यादा क्यों भूल गए?

सभ्यता के सारे पाठ, क्यों तुम पीछे छोड़ गए?
जिस माँ ने दिया जीवन, जिस माँ ने दी पहचान,
उसी माँ पर क्यों करते हो, तुम शब्दों से वार?

यह अपमान केवल माँ का नहीं, यह अपमान है राष्ट्र का। 
यह चोट केवल व्यक्ति को नहीं, यह चोट है हमारे संस्कार को।। 

सत्ता की कुर्सी का खेल, यह इतना भी बड़ा नहीं,
कि तुम भूल जाओ, अपना नैतिक और सामाजिक भार।
गाली केवल गाली नहीं, वह विष है, जो घुलता है,
एक रिश्ते को तोड़कर, दूसरे को छल देता है।। 

जो आज तुमने बोला, कल वही वापस आएगा,
कड़वे वचन बोने वाला, कड़वे फल ही पाएगा।
माँ तो माँ है, उसकी जगह कोई नहीं ले सकता,
चाहे वो हो राजनेता की, या एक गरीब की।। 

वह ममता की मूरत है, वह त्याग की प्रतिमा है,
उसे गाली देना, स्वयं को ही नीचा गिराना है।
नारी का सम्मान करो, हर बहन का मान रखो,
चाहे वह किसी भी घर की हो, उसे तुम सम्मान दो।। 

यह बात सिर्फ माँ की नहीं, यह बात हर इंसान की,
यह बात है इंसानियत की, यह बात है ईमान की।
तोड़ दो ये जंजीरें, जो नफरत की है बुनीं,
फेक दो ये तलवारें, जो शब्दों से है बनी।। 

आओ मिलकर एक नया अध्याय लिखें,
शब्दों से नहीं, सम्मान से हर रिश्ता जीतें।। 
कोई किसी को गाली न दे, यह संकल्प हो हमारा,
तभी तो होगा एक स्वस्थ और सुंदर समाज प्यारा।। 

आओ मिलके एक नया इतिहास लिखें,
जिसमें हो प्रेम का विस्तार, और सम्मान की रोशनी।

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*




[04/09, 9:26 pm] 

करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 


 

मनुष्यत्व को जो जगाए, वही है सच्ची विद्या। 
नैतिकता का पथ दिखाए, वही है सच्ची विद्या।। 
विमुक्ति का भाव हो जिसमें, वही है शिक्षा। 
परमपद तक जो पहुचा दे, वही है दीक्षा।। 
सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, जीवन का हो सार। 
हर प्राणी में देखे, उस परम सत्ता का प्यार।। 

 *शिक्षक का समर्पण* 

वह जो अज्ञान का तिमिर मिटाए।। 
वह जो हर बालक में मानवता उगाए।। 
पशुता से ऊपर उठकर देवत्व को जगाना। 
सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं, आत्मनिर्भर बनाना।। 
उसमें हो समाया समाज का भी ज्ञान। 
प्रगतिशील अर्थनीति से भी हो उसका प्रस्थान।। 
जो करे हर जीवन का आध्यात्मिक उद्धार। 
वही है सच्चा शिक्षक और ज्ञान का भंडार।। 

 *ज्ञान का उत्सव* 

यह दिन है ज्ञान का, प्रेम का, प्रकाश का। 
यह उत्सव है, आत्म-जागृति का।। 
जब मन में जागे आनंद की धारा। 
जब हर क्षण हो पूर्णत्व की साधना।। 
शिक्षा का लक्ष्य हो परम से मिलन। 
स्वयं को जानना और दूसरों को जगाना।। 
यह केवल दिवस नहीं, जीवन का उत्सव है। 
जब शिक्षा दीक्षा से ही जीवन का सुख मिले।। 

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*




[05/09, 4:08 pm] 

करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 


`(मेरे आचार्य Dada Ramashrayananda को समर्पित)`

जग के माया-मोह को तजकर, जिसने सत्य को जाना है।
कर्म-फल की इच्छा से मुक्त, वैरागी वही सन्यासी है।। 
तन पर त्याग धारण कर जिसने, स्वयं को शून्य में खोया है।
वही ब्रह्म को पाकर सच्चा, जीवन का अर्थ पाया है।। 

सन्यास शब्द का अर्थ गहरा, सब कुछ त्यागने वाला है।
आश्रम, परिवार, धन-दौलत, सब बंधन से न्यारा है।। 
भीतर से ही वैराग्य जगाकर, जो स्वयं में जीता है।
वही तपस्वी जीवन का सच्चा, परम आनंद लेता है।। 

सन्यासी का धर्म निराला, त्याग की राह दिखाता है।
मन को शांत, चित्त को निर्मल, ब्रह्म-ज्ञान सिखाता है।। 
भिक्षा से जीवन चलाकर, दीनता धारण करता है।
फिर भी अंतर्मन से वह, सबसे ऊँचा उठता है।। 

ब्रह्मचर्य जीवन का नियम, इंद्रियों पर संयम सिखाता है।
मन, वाणी और कर्म से शुद्ध, ब्रह्म में ध्यान लगाता है।। 
कामुकता का त्याग करे जो, ब्रह्मचारी कहलाता है।
ज्ञान-मार्ग पर चलकर, वह मुक्ति का द्वार पाता है।। 

अवधूत की परिभाषा सुनो, जो सभी बंधनों से परे है।
समाज के नियमों को जोड़ा, जो सबसे परे खड़ा है।। 
न वस्त्र की चिंता, न घर की, वो बस स्वयं में लीन है।
जो परम सत्ता को पाकर, जगत से पूरी तरह भिन्न है।। 

सत्य, अहिंसा, अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य है, ये यम इसके आभूषण हैं।
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान जीवन के नियम हैं।। 
यम-नियम ही उसकी, शक्ति का आधार बनते हैं।
इन सिद्धांतों से ही वे मुक्ति, के सच्चे अधिकारी बनते हैं।। 

न किसी से राग, न द्वेष, न किसी से कोई आसक्ति है।
उसकी वाणी में केवल, सत्य और शांति की शक्ति है।। 
धर्म ही उसका धन है, और धैर्य ही उसकी पूंजी है।
वह न किसी का शत्रु, न किसी का मित्र, बस समाज उसकी पूजी है।। 

दिन-रात ध्यान में डूबा, प्रकृति से नाता जोड़ता है।
हर जीव में ईश्वर का रूप, देखकर मन को मोड़ता है।। 
वह पर्वत, वन, नदियां सब, अपना घर मानता है।
इस विशाल ब्रह्मांड को ही, अपना सच्चा धाम मानता है।। 

क्रोध, लोभ, अहंकार से, वह कोसों दूर रहता है।
अपने भीतर के विकार को, जलाकर राख करता है।। 
ये विकार जब जल जाते हैं, तभी निर्मल मन होता है।
और उस निर्मल मन में ही, ईश्वर का वास होता है।। 

ज्ञान-अग्नि से जिसने, अज्ञान का अंधकार मिटाया है।
अविद्या को दूर कर जिसने, स्वयं को ज्ञान में पाया है।। 
ऐसे ही सन्यासी के जीवन में, मुक्ति की किरण होती है।
उसकी आत्मा में ही तब, परम शांति रहती है।। 

वह न भविष्य की चिंता करता, न अतीत को याद करता है।
वर्तमान के हर पल को, वह ध्यान से स्वीकारता है।। 
हर क्षण को ही जीवन मानकर, वह निर्भय होकर जीता है।
यही तो है सन्यासी का धर्म, जो उसे सच्चा सुख देता है।। 

उसके लिए मान-अपमान, सब एक समान होते हैं।
सुख-दुःख के बंधन से मुक्त, वह हमेशा शांत होते हैं।। 
निंदा और स्तुति का उस पर, कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
उसके मन का सागर, हमेशा शांत ही रहता है।। 

सन्यासी का मुख्य कर्तव्य, ब्रह्म-ज्ञान का प्रचार है।
अज्ञानियों को ज्ञान देना, यही उसका परम सार है।। 
वह अपनी वाणी से सबके, मन का भ्रम मिटाता है।
और मोक्ष के मार्ग पर, सबको चलना सिखाता है।। 

उसके लिए जाति, धर्म, वर्ण, सब का कोई मोल नहीं।
वह केवल आत्मा की बात करता, शरीर का कोई खेल नहीं।। 
वह सबको एक समान देखता, क्योंकि सब ब्रह्म के अंश हैं।
यही उसका परम धर्म, यही उसके जीवन का अंश है।। 

हे आनन्द किरण, सन्यासी का जीवन, तप और त्याग का प्रतीक है।
जो इस पथ पर चलता है, वही सच्चा सन्यासी है।। 
वह समाज से वा को जोडड़कर, विश्व परिवार को धारण करता है।
वह परम लक्ष्य साधना, सेवा एवं त्याग को चुनता है।। 

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*



[07/09, 8:13 am] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran): 


गाँव की मिट्टी, तहसील की गलियाँ, 
बँधी हैं इन सब में मेरी कल्पनाएँ।
जिला, क्षेत्र, राज्य की दीवारों में, 
ज्ञान का ताना-बाना बुनता हूँ।। 

इन सरहदों से बाहर निकलना,
मेरे लिए संभव ही नहीं है।
देश की सीमाएँ मेरे विचारों को घेरती हैं,
मेरा दर्शन इसी भूमि पर टिका है।। 

विज्ञान भी इन्हीं जड़ों से उपजता है,
और मेरा सारा ज्ञान यहीं सिमट जाता है।
इन बंधनों को तोड़कर देखना,
मेरी बुद्धि को गवारा नहीं होता।। 

जाति, गोत्र की बेड़ियों में जकड़ा हूँ,
सम्प्रदाय की दीवारों से घिरा हूँ।
मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा सब कुछ,
इन पहचानों में उलझा हुआ है।। 

इन संकीर्णताओं से पार पाना,
मेरे लिए एक चुनौती है।
मजहब, रिलीजन की जंजीरों में,
मेरा ज्ञान कैद हो गया है।। 

समुदाय की मान्यताओं में फंसा,
मैं खुद को सही मानता रहता हूँ।
इन सीमाओं से मुक्त होना,
मेरी सोच से परे है।। 

परम सत्य से जुड़ने की चाहत,
फिर भी मन में कहीं दबी है।
बुद्धि की मुक्ति का मार्ग,
नव्य मानवता के प्रेम से जुड़ा है।। 

जब बुद्धि सभी बंधनों से छूट जाती है,
तब नव्य मानवतावाद का उदय होता है।
संपूर्ण जहान, सम्पूर्ण विश्व,
अब मेरी दृष्टि में समाए हैं।। 

मैं हर जीव में खुद को देखता हूँ,
यह प्रेम और सहिष्णुता की एक नई दुनिया है।
बुद्धि की मुक्ति का मार्ग,
विश्व मानवता की दिशा है।। 

संपूर्ण ब्रह्मांड, संपूर्ण सृष्टि,
अब मेरी बुद्धि से जुड़ गए हैं।
प्रेम की एक नई दुनिया,
सभी सीमाओं से परे है।। 

अब हर प्राणी में प्रेम का संचार है,
क्योंकि बुद्धि मुक्त हो गई है।
परमब्रह्म से जुड़कर,
जीवात्मा मुक्त हो गई है।। 

सभी प्राणी अब एक ही परिवार के हैं,
यह एक नई सोच का आरंभ है।
बुद्धि की मुक्ति से,
नव्य मानवतावाद का जन्म होता है।। 

अब मेरा प्रेम हर प्राणी के लिए है,
इसमें कोई सीमा नहीं है।
यह एक नया युग है,
सभी के लिए प्रेम और दया का।। 

बुद्धि की मुक्ति से,
नव्य मानवतावाद का जन्म होता है।
यह अवस्था ही नव्य मानवतावाद है,
जो हर प्राणी को एक ही दृष्टि से देखता है।। 

बुद्धि की मुक्ति से ही,
यह संभव हो पाता है।
यह एक नई सोच है,
जो सभी बंधनों को तोड़ देती है।। 

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*



[07/09, 8:25 pm] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):


राजनीति नहीं है कोई खेल,
यह तो है जिम्मेदारी का मेल।
न इसमें हो झूठी कोई बात,
यह है देश के भविष्य की रात।। 

जनता का विश्वास है,
हर एक नागरिक का आस है।
मत बनो तुम स्वार्थ के गुलाम,
यह नहीं तुम्हारा व्यक्तिगत मुकाम।। 

सत्ता की कुर्सी न हो लक्ष्य,
जन सेवा हो परम तथ्य।
न खेलो तुम झूठ का खेल,
इसमें हो सकता है सबका झेल।। 

राजनीति नहीं है तमाशा,
यह है समाज की आशा।
न हो इसमें कोई छल,
यह है देश का उज्ज्वल कल।। 

पदों की न करो तुम चाह,
जनता का विश्वास न हो बेराह।
हर निर्णय का हो कोई मोल,
मत बनो तुम इसके कोई दलाल।। 

बदलती रहे सरकारें,
पर न बदले देश की धारे।
राजनीति में हो नैतिकता,
यह है असली वास्तविकता।। 

न बंटो तुम जाति-धर्म में,
यह देश रहे एकजुट हर कर्म में।
राजनीति का हो यही उद्देश्य,
सबका हो इसमें एक ही भविष्य।। 

न करो कोई झूठा वादा,
जिससे हो जाए कोई बाधा।
राजनीति में हो सच्ची निष्ठा,
यह है देश की मूल प्रतिष्ठा।। 

सत्ता में न हो अहंकार,
जनता का हो इसमें अधिकार।
राजनीति का हो सही उपयोग,
यह नहीं है कोई भोग।। 

पदों को न करो तुम खरीद,
जनता की आवाज़ है इसमें रीत।
राजनीति में हो ईमान,
यह है असली शान।। 

न करो तुम भ्रष्टाचार,
यह है देश के लिए एक बार।
राजनीति हो स्वच्छ और पवित्र,
यह है सबका एक ही मित्र।। 

मत भूलो तुम शहीदों की गाथा,
जन सेवा में झुकाओ तुम माथा।
राजनीति में हो समर्पण का भाव,
यह है सही चुनाव का स्वभाव।। 

न करो कोई द्वेष,
यह है सबका एक ही देश।
राजनीति में हो सामंजस्य,
यही है असली सुयश्य।। 

यह जनता का हो सम्मान,
राजनीति में हो सबका ज्ञान।
न हो इसमें कोई भेद-भाव,
यह है देश का सच्चा लगाव।। 

यह है देश का संविधान,
इसका करना है सम्मान।
राजनीति नहीं है कोई खेल,
यह है सही राहों का मेल।। 

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*

[08/09, 8:06 am] 
करणसिंह शिवतलाव (A.Kiran):

 
मन के भीतर बसे हैं शत्रु,
जिनसे जीतना है ज़रूरी।
काम, क्रोध, लोभ और मोह,
मद, मात्सर्य, ये हैं षडरिपु।। 
इन छह रिपुओं पर जो करे प्रहार,
वो पा जाए आत्म-साक्षात्कार।
इच्छा का बंधन, क्रोध का ताप,
लोभ का जाल, ये सब हैं पाप।। 

फिर आठ बंधन भी हैं, जो
जकड़ते हैं हमें हर पल।
घृणा, शंका और भय,
लज्जा, जुगुप्सा, और कुल का घमंड,
शील, मान का अभिमान,
इनसे मुक्ति ही है कल्याण।। 
जो इन बंधनों से हो जाए मुक्त,
उसी को मिले परम सुख।
यह संसार एक माया है,
इन बंधनों से ही बना यह ताना-बाना है।। 

ये हैं मानव के आंतरिक विकार,
जो रोकते हैं मुक्ति का द्वार।
आओ, इन पर विजय पाएं,
सच्चे सुख की ओर कदम बढ़ाएं।। 

 *प्रस्तुति : आनन्द किरण*


PRS, PU, PSS and PB

आज हम एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने जा रहे हैं, जो प्रउत (PROUT) व्यवस्था के संदर्भ में एक निर्णायक कदम होगा। प्रउत व्यवस्था की शुरुआत 1 जनवरी 1955 को आनंद मार्ग प्रचारक संघ के प्रथम प्रवचन 'समाज का क्रमिक विकास' से होती है। प्रउत की आधारशिला आनंद सूत्रम नामक पुस्तक में है, जिसे 1968 की आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन 'सर्वजन हित एवं सुख' के लिए प्रचारित किया गया। अतः, प्रउत आनंद मार्ग प्रचारक संघ की धरोहर है। इसके प्रचार, प्रसार, स्थापना और प्रभाव के लिए प्रउत प्रणेता ने एक सुंदर व्यवस्था दी है। आज विश्व को यही व्यवस्था समझने की आवश्यकता है।

(1) PRS (Public Relations Secretary)‌ :- आनंद मार्ग प्रचारक संघ का एक विभाग है, जिसे जनसंपर्क सचिव के नाम से जाना जाता है। यह आनंद मार्ग प्रचारक संघ की सूचना को जन-जन तक पहुंचाता है। प्रउत के लिए नीति का निर्माण करने की जिम्मेदारी आनंद मार्ग प्रचारक संघ की है, और PRS वह ज्वलंत, जीवित और चलायमान इकाई है जो इस नीति को लोगों तक पहुंचाती है। युग की आवश्यकता के अनुसार आनंद मार्ग प्रचारक संघ जो नीतियां बनाता है, वे PRS के माध्यम से प्रउत के लिए कार्य करने वाली संस्थाओं तक पहुँचती हैं।
PRS केवल नीतियों का निर्माण करता है, जबकि सिद्धांत प्रउत प्रणेता द्वारा दिए गए हैं। यदि युग किसी सूत्र या सिद्धांत को परिभाषित करने की माँग करता है या उसकी आवश्यकता महसूस करता है, तो आनंद मार्ग प्रचारक संघ आवश्यक जानकारी उपलब्ध कराता है।

(2) PU (PROUTIST Universal) : इस संगठन का निर्माण प्रउत के प्रचार, प्रसार और कार्यकर्ता निर्माण के लिए किया गया है। इसलिए, इसके प्रचारक आनंद मार्ग प्रचारक संघ द्वारा दिए जाते हैं। इसके कार्यों को थोड़ा और विस्तार से समझते हैं- 

 * प्रचार : प्रउत दर्शन के प्रचार के लिए PU एक वैश्विक संगठन है। इसकी संरचना वैश्विक स्तर से लेकर गाँव स्तर तक सुव्यवस्थित है। प्रउत प्रणेता ने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं के माध्यम से इसे जगत को परिचित करवाया है।

 * प्रसार : प्रउत को जन-जन में फैलाने के लिए PU को पाँच वैश्विक संगठनों का निर्माण करना होता है, जो प्रउत के लिए कार्य करने वाले गृहस्थों द्वारा संचालित होते हैं। विद्यार्थी, युवा, किसान, श्रमिक और बुद्धिजीवियों के लिए क्रमशः UPSF, UPYF, UPFF, UPLF और UPIF का गठन किया गया है।

 * प्रशिक्षण : PU का तीसरा कार्य प्रउत के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देना है। इसके लिए यह विभागीय स्तर पर विभिन्न प्रशिक्षण शिविरों और सेमिनारों का आयोजन करता है, जो UTC, PTC, CTC आदि के नाम से जाने जाते हैं।

 * निर्देशन : प्रउत के लिए काम करने वाले संगठनों को अप्रत्यक्ष रूप से निर्देशित करने की जिम्मेदारी PU के पास है। यहाँ आकर PU की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है।

 * इतिहास  : PU सर्वप्रथम PROUTIST Forum के रूप में दुनिया के सामने आया था। इसका पहला अंग Universal PROUTIST Student Federation के रूप में अस्तित्व में आया था।

(3) PSS (PROUTIST Sarva Samaj) :- प्रउत की व्यवस्था इकाई है, जो सामाजिक-आर्थिक इकाई के रूप में विश्व में स्थापित है। इसके पास प्रउत व्यवस्था की स्थापना की जिम्मेदारी है। इन सामाजिक-आर्थिक इकाइयों को वैश्विक स्तर पर संगठित, नियमित और समन्वित करने के लिए प्राउटिस्ट सर्व समाज अथवा प्राउटिस्ट सर्व समाज समिति एक वैश्विक स्वरूप में प्रकट है। यह राष्ट्र, राज्य और अन्य राजनीतिक इकाइयों के धरातल पर सामाजिक इकाइयों को संगठित करने के लिए अपना मंच प्रदान करता है।

 * मंच: यह प्राउटिस्ट सर्व समाज समिति अथवा प्राउटिस्ट सर्व समाज के रूप में होता है। जब सामाजिक इकाइयों को राजनीति और व्यवस्था से प्रश्न पूछने के लिए एक साझा मंच की आवश्यकता होती है, तब यह अपना मंच प्रदान करता है।

 * समाज: समाज एक सामाजिक-आर्थिक इकाई है, जिसका कार्य इस विश्व में प्रउत की स्थापना है। इसका केंद्रीय, राष्ट्रीय, प्रांतीय, संभागीय, जिला, ब्लॉक, पंचायत और ग्राम स्तर तक एक सुव्यवस्थित संगठन होता है, जो सामाजिक-आर्थिक जगत में प्रउत का प्रभाव और संकल्प स्थापित करता है।

(4) PB(PROUTIST Block) :- एक वैकल्पिक व्यवस्था है। जब भी प्रउत या इससे संबंधित व्यवस्था किसी देश, प्रदेश या सीधे विश्व से राजनीतिक प्रश्न करना चाहे या राजनीति के किसी प्रश्न का उत्तर देना चाहे, तब यह एक शुद्ध राजनीतिक संगठन के रूप में गठित किया जाता है। जब यह किसी देश-विशेष की राजनीति से सीधा प्रश्न करता है या राजनीति के प्रश्न का जवाब देता है, तब उस देश का नाम अपने साथ जोड़ लेता है, जैसे भारत में PBI, अमेरिका में PBA और ग्रेट ब्रिटेन में PBB के रूप में शुद्ध राजनीतिक संगठन दिखाई देते हैं।

(5) कुछ प्रश्न :- इस आंदोलन ने सभी की सीमा रेखा निर्धारित कर ली है, इसलिए किसी प्रश्न की आवश्यकता नहीं होती है। फिर भी, एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या समाज इकाई अथवा प्राउटिस्ट सर्व समाज एक राजनीतिक इकाई के रूप में आ सकते हैं?
इसका उत्तर है - हाँ। यदि यह आवश्यक महसूस हो कि किसी समाज को राजनीतिक माहौल तैयार करने के लिए एक भावनात्मक आधार की आवश्यकता है, तब संपूर्ण समाज का एक अंश राजनीतिक स्वरूप ले लेता है। यद्यपि यह मूल रूप से एक सामाजिक-आर्थिक इकाई के रूप में कार्य करता है, लेकिन जब राजनीतिक विकल्प देने का समय आता है, तो यह राजनीतिक स्वरूप धारण कर सकता है, जैसे अमरा बंगालीऔर तमिलकम। जब एक से अधिक समाज मिलकर भावनात्मक या व्यवस्थात्मक रूप से राजनीति में संयुक्त रूप से आना चाहें, तो वे प्राउटिस्ट सर्व समाज समिति के निर्देशन में आते हैं, जैसे प्राउटिस्ट सर्व समाज। 


निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है कि प्रउत की यह व्यवस्था सुस्पष्ट और सुव्यवस्थित है। सभी को बस अपना-अपना दायित्व निभाना है।