प्रउत  : एक सरकार अथवा समाज (PROUT : GOVERNMENT AND SAMAJ)

 प्रउत को प्रगतिशील उपयोग तत्व (Progressive Utilization Theory) कहा जाता है। यह एक ऐसा दर्शन है जो श्री पी.आर. सरकार (प्रभात रंजन सरकार) द्वारा प्रतिपादित किया गया है। आज हम उसके समाज आंदोलन एवं एक आदर्श राजनैतिक दल के स्वरूप के संदर्भ में समझेंगे। 


आज की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में, जब प्रचलित प्रणालियाँ अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही हैं, एक मौलिक प्रश्न उभर कर सामने आता है: प्रउत (PROUT) – एक सरकार अथवा समाज? यह प्रश्न मात्र शब्दाडंबर का नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के भविष्य की दिशा तय करने वाला है। इसलिए, हमें अन्य सभी विषयों को रोककर, इस प्रगतिशील दर्शन की प्रकृति और विस्तार को गहराई से समझना होगा।

प्रउत का पूरा नाम प्रगतिशील उपयोग तत्व (Progressive Utilization Theory) है। प्रथम दृष्टया, 'उपयोग तत्व' शब्द का संबंध अर्थव्यवस्था से होने के कारण यह एक अर्थव्यवस्था के रूप में नजर आता है। इसका मुख्य उद्देश्य संसाधनों का अधिकतम उपयोग और तर्कसंगत वितरण सुनिश्चित करना है। लेकिन, प्रउत को केवल एक आर्थिक मॉडल मान लेना उसके साथ न्याय नहीं होगा। यह एक बहुआयामी दर्शन है जो आध्यात्मिक नैतिकता, सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक उत्थान और पर्यावरण संरक्षण को अपनी बुनियाद बनाता है। इसलिए, प्रउत को मात्र एक अर्थव्यवस्था या एक राजनीतिक व्यवस्था कहना अपूर्ण है; यह वास्तव में एक सम्पूर्ण व्यवस्था है।


प्रउत दर्शन पाँच मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है, जो इसकी व्यापकता को दर्शाते हैं:

 उपयोग का सिद्धांत : संसार की सभी वस्तुओं (भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक) का उपयोग विवेकपूर्ण एवं अधिकतम होना चाहिए।

 वितरण का सिद्धांत : संसार के संसाधनों का वितरण सभी मनुष्यों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के आधार पर होना चाहिए।

 प्रगति का सिद्धांत : व्यक्ति और समाज की प्रगति एक साथ और समन्वित रूप से होनी चाहिए।

 मनुष्य का आध्यात्मिक विकास : मनुष्य को अपने आंतरिक और आध्यात्मिक विकास के लिए पूर्ण अवसर मिलना चाहिए।

 सामूहिक विकास : व्यक्ति और समाज की उन्नति के साथ-साथ सभी जीव-जंतुओं और प्रकृति का भी संरक्षण एवं विकास सुनिश्चित होना चाहिए।

ये सिद्धांत स्पष्ट करते हैं कि प्रउत केवल उत्पादन और वितरण की बात नहीं करता, बल्कि यह मनुष्य के अध्यात्मिक विकास और सर्वोच्च नैतिकता पर भी जोर देता है। नैतिकता के बिना अर्थशास्त्र एक शोषणकारी यंत्र बन सकता है, और केवल अर्थशास्त्र के बिना आध्यात्मिकता एकाकी हो सकती है। प्रउत इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह दर्शन इस बात पर बल देता है कि समाज और सरकार दोनों ही आध्यात्मिक मूल्यों से निर्देशित हों।


यह समझने के लिए कि प्रउत समाज और सरकार दोनों क्यों है, हमें इन दोनों संस्थाओं के मध्य के मौलिक संबंध को समझना होगा। सरकार शब्द का अर्थ है 'समाज को चलाने की एक सुव्यवस्था' (Good System of Governance)। वहीं, समाज का एक महत्वपूर्ण कार्य है कि वह सरकार को सुव्यवस्थित रखने का सशक्त साधन बने। यह संबंध एक द्विपक्षीय क्रिया है, जिसे एक प्रसिद्ध उक्ति में पिरोया जा सकता है: "जैसा समाज, वैसी सरकार; जैसी सरकार, वैसा समाज।"

यह उक्ति गहन सत्य को दर्शाती है। यदि समाज नैतिक, शिक्षित और जागरूक है, तो वह ऐसी सरकार का निर्माण करेगा जो जनहितैषी हो और कानून का पालन करे। इसके विपरीत, यदि समाज स्वार्थ, भ्रष्टाचार और अज्ञानता से ग्रस्त है, तो सरकार भी उसी चरित्र को प्रतिबिंबित करेगी, चाहे वह कितनी भी अच्छी नीयत से क्यों न चुनी गई हो।

प्राचीन भारत का उदाहरण इस सत्य की पुष्टि करता है। जब भारतीय समाज नैतिक और धार्मिक मूल्यों पर आधारित था, तब वहाँ की राजव्यवस्था, जिसे 'रामराज्य' कहा जाता था, भी उत्कृष्ट थी। इसका अर्थ यह हुआ कि समाज और शासक वर्ग दोनों ही एक-दूसरे के पूरक थे।

अतः, जो लोग यह सोचते हैं कि केवल सरकार को ठीक कर देने से समाज स्वयं ही ठीक हो जाएगा (जैसे, केवल कानून बदलने से), वे अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाते। इसी प्रकार, जो केवल समाज को अच्छा बनाने की बात करते हैं और सरकार की संरचना एवं शक्ति पर ध्यान नहीं देते (जैसे, केवल आध्यात्मिक उपदेशों से क्रांति लाना चाहते हैं), वे भी सफल नहीं होते।

प्रउत इन दोनों एकांगी दृष्टिकोणों को नकारता है और एक एकीकृत दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।


प्रउत के दर्शन में सद्विप्र (Sadvipra) की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। 'सद्विप्र' वह व्यक्ति है जो:
 * आध्यात्मिक विकास के पथ पर अग्रसर हो।
 * नैतिक आचरण से युक्त हो।
 * सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत हो।
 * शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक बल से संपन्न हो।

प्रउत का लक्ष्य है ऐसे सद्विप्रों का एक समाज तैयार करना। यह समाज केवल निष्क्रिय आध्यात्मिकों का समूह नहीं, बल्कि एक गतिशील, न्यायप्रिय और संघर्षशील समूह होगा जो सामाजिक और आर्थिक शोषण का विरोध करेगा। यह सद्विप्र समाज ही प्रउत की आत्मा है।‌ साथ ही, प्रउत यह भी मानता है कि सत्ता की बागडोर भी इन्हीं सद्विप्रों के हाथों में होनी चाहिए। इसलिए, प्रउत एक ऐसी सरकार की परिकल्पना करता है जो सद्विप्रों द्वारा चलाई जाए। यह सरकार जनता के हितों की संरक्षक होगी और धन-शक्ति या बाहुबल के बजाय नैतिक-शक्ति के आधार पर शासन करेगी।

इस प्रकार, प्रउत एक सद्विप्र समाज भी है, जो प्रगतिशील विचारों की नींव रखता है, और प्रउत सद्विप्रों की सरकार भी है, जो उन विचारों को क्रियान्वित करती है। यह समाज और सरकार का एक आदर्श संतुलन है।


यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रउत को केवल एक फ्रेम में कैद करना संभव नहीं है। यह एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है जहाँ आंतरिक शुद्धि (समाज) और बाहरी व्यवस्थापन (सरकार) दोनों साथ-साथ चलते हैं।

प्रउत की स्थापना के लिए दोहरे प्रयास आवश्यक हैं:

 समाज आंदोलन (Social Movement) : सद्विप्रों को संगठित करना, लोगों में नैतिक-आध्यात्मिक चेतना जगाना, उन्हें शोषण के विरुद्ध शिक्षित करना और आर्थिक न्याय के लिए स्थानीय स्तर पर प्रयास करना। यह समाज की नींव को मजबूत करने का कार्य है।

 राजनैतिक प्रयास (Political Effort) : सद्विप्रों को सत्ता के केंद्र में लाना, ताकि वे प्रउत के सिद्धांतों को कानून, नीतियों और प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से लागू कर सकें। यह सरकार की संरचना को बदलने का कार्य है।

जब ये दोनों प्रयास — जनचेतना और सत्ता नियंत्रण — समन्वित रूप से आगे बढ़ेंगे, तभी प्रउत का दर्शन अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सकेगा। प्रउत एक आशा का प्रतीक है, जो हमें यह विश्वास दिलाता है कि मनुष्य केवल भौतिक सुखों के लिए नहीं बना है, बल्कि वह एक न्यायपूर्ण, शोषण-मुक्त और आध्यात्मिक रूप से उन्नत समाज की स्थापना कर सकता है। प्रउत एक सम्पूर्ण क्रान्ति है जो समाज और सरकार दोनों के मूल चरित्र को बदलने का आह्वान करती है।

 प्रस्तुति : आनन्द किरण
आध्यात्मिक साधना  एवं चक्र विज्ञान (Spiritual practice and chakra science)
                 
        मानव शरीर एक जैविक यंत्र है। 
                आओ हम इसके 
         यौगिक, तांत्रिक व वैज्ञानिक 
              स्वरूप को समझकर
    शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक 
           अनुभूतियों को समझते हैं। 
        
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          मूलाधार चक्र एवं साधना 
आज हम मानव चेतना के सबसे मूलभूत और शक्तिशाली केंद्र, मूलाधार चक्र की गहराइयों में उतरेंगे। यह केवल एक ऊर्जा बिंदु नहीं, बल्कि हमारे भौतिक अस्तित्व और आध्यात्मिक यात्रा की वह पवित्र नींव है जिस पर हमारा पूरा जीवन-वृक्ष खड़ा है।


मूलाधार चक्र, जिसे अंग्रेजी में रूट चक्र (Root Chakra) भी कहते हैं, हमारी रीढ़ की अंतिम अस्थि – कोक्सीक्स (अधोभाग में त्रिकास्थि के ठीक नीचे) में स्थित है। यह हमारे सात मुख्य चक्रों में से पहला है, और इसका शाब्दिक अर्थ है "मूल आधार" या "जड़ का आधार"। कल्पना कीजिए एक विशाल वृक्ष की, जिसकी जड़ें जितनी गहरी और मजबूत होंगी, वह उतना ही स्थिर और फलता-फूलता होगा। ठीक इसी प्रकार, मूलाधार चक्र हमारे शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक अस्तित्व की जड़ है, जो हमें पृथ्वी तत्व से जोड़ता है। यह हमें सुरक्षा, स्थिरता, भरोसा और जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता प्रदान करता है।


मूलाधार चक्र तीन प्रमुख नाड़ियों – इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण संगम बिंदु है। इन नाड़ियों का संतुलन हमारे समग्र स्वास्थ्य और आध्यात्मिक जागृति के लिए आवश्यक है:

  *इड़ा नाड़ी 🌬️ (चंद्र नाड़ी)* : - यह हमारी रीढ़ के बाईं ओर चलती है। यह शीतलता, अंतर्मुखता, ग्रहणशीलता और चंद्रमा की ऊर्जा का प्रतीक है। इसे 'स्त्री नाड़ी' भी कहते हैं क्योंकि यह बाईं ओर के मस्तिष्क गोलार्द्ध और रचनात्मक, सहज ज्ञान संबंधी गुणों को नियंत्रित करती हैरान। इसका रंग शुभ्र सफेद है।

 *पिंगला नाड़ी 🔥 (सूर्य नाड़ी):* यह हमारी रीढ़ के दाईं ओर चलती है। यह उष्णता, बहिर्मुखता, क्रियाशीलता और सूर्य की ऊर्जा का प्रतीक है। इसे 'पुरुष नाड़ी' भी कहते हैं क्योंकि यह दाहिने मस्तिष्क गोलार्द्ध और तार्किक, विश्लेषणात्मक गुणों को नियंत्रित करती है। इसका रंग अग्नि के समान लाल है।
 *सुषुम्ना नाड़ी 🧘 (केंद्रीय नाड़ी)* : यह रीढ़ के ठीक मध्य से होकर गुजरती है, इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन स्थापित करती है। यह आध्यात्मिक जागृति, शून्यता और परम चेतना का मार्ग है। जब हमारी कुंडलिनी शक्ति जागृत होकर सुषुम्ना में प्रवेश करती है, तभी वास्तविक आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ होती है। इसका कोई विशिष्ट रंग नहीं है, यह रंगहीन और पारदर्शी है, जो शुद्ध चेतना को दर्शाती है।

इन तीनों नाड़ियों का संतुलन हमारे शरीर के बाएं और दाएं भागों के साथ-साथ हमारी मानसिक और भावनात्मक अवस्थाओं को भी नियंत्रित करता है।

मूलाधार चक्र का प्रतीक एक सुनहरे रंग का वर्ग है, जो पृथ्वी तत्व और स्थिरता को दर्शाता है। इस वर्ग के भीतर एक चार पंखुड़ियों वाला कमल (या चार पेटल्स) होता है, जो चार मौलिक वृत्तियों या पुरुषार्थों को नियंत्रित करता है:

 *धर्म (कर्तव्य)* : यह हमें हमारे नैतिक कर्तव्यों, सिद्धांतों और सही आचरण का बोध कराता है। यह बाहरी जगत और सामाजिक संरचना में हमारी भूमिका को निर्धारित करता है, जिससे हम एक संतुलित और सार्थक जीवन जी सकें।

 *अर्थ (भौतिकता)* : यह भौतिक जगत की आवश्यकताओं, धन-संपदा, करियर और शारीरिक स्वास्थ्य से संबंधित है। यह हमें जीवन के लिए आवश्यक भौतिक संसाधनों को अर्जित करने और उनका उचित प्रबंधन करने की क्षमता प्रदान करता है।

 *काम (इच्छा)* : यह हमारी मनो-शारीरिक इच्छाओं, संवेदी अनुभवों और आनंद की अनुभूति से संबंधित है। यह मन और इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त होने वाले सुखों का प्रतीक है, जिनका संतुलन आवश्यक है।

 *मोक्ष (मुक्ति)* : यह मानसाध्यात्मिक क्रियाओं से संबंधित है और हमारी अंतिम आध्यात्मिक मुक्ति, आत्म-ज्ञान और परम शांति का मार्ग है। यह जीवन का अंतिम लक्ष्य है, जहां हम अपने सीमित अहंकार से परे जाकर अपनी दिव्य प्रकृति को पहचानते हैं।

जब इन चार वृत्तियों का मूलाधार में संतुलन स्थापित होता है, तो व्यक्ति का जीवन समग्र रूप से सुखी और समृद्ध होता है।

 *साधना और शक्तियों का सदुपयोग* 

मूलाधार चक्र की साधना से साधक को न केवल शारीरिक स्थिरता और मानसिक शांति मिलती है, बल्कि कुछ विशेष शक्तियाँ भी प्राप्त होती हैं। इन शक्तियों का उपयोग दो प्रकार से किया जा सकता है:

 *विद्या साधक* : वह साधक जो इन शक्तियों का उपयोग अपनी आध्यात्मिक उन्नति, आत्म-ज्ञान और मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए करता है। वह इन ऊर्जाओं को ऊर्ध्वगामी करता है ताकि उच्च चक्रों को जागृत कर सके।

 *अविद्या साधक* : वह साधक जो इन शक्तियों का उपयोग केवल सांसारिक प्रभुत्व, भौतिक लाभ, धन-दौलत या दूसरों पर नियंत्रण के लिए करता है। ऐसे साधक अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर अंततः पतन की ओर अग्रसर होते हैं।

 माइक्रोवाइटम विज्ञान के अनुसार, मूलाधार चक्र में यक्ष नामक सूक्ष्म जीवत् का प्रभाव रहता है, जो इस चक्र से जुड़ी ऊर्जाओं और प्रभावों को दर्शाता है। यह इस बात का संकेत है कि इस चक्र की ऊर्जाएं अत्यंत शक्तिशाली और महत्वपूर्ण हैं, जिनका उपयोग सोच-समझकर करना चाहिए।

 *निष्कर्ष: जीवन की आधारशिला* 

मूलाधार चक्र हमारी मानवीय चेतना का प्रवेश द्वार है, जो हमें पृथ्वी से जोड़कर जीवन की मूलभूत स्थिरता प्रदान करता है। इसकी साधना हमें अपने अस्तित्व के मूल को समझने, आंतरिक सुरक्षा प्राप्त करने और अपनी आध्यात्मिक यात्रा के लिए एक सुदृढ़ नींव बनाने में सहायता करती है। जब हमारी जड़ें मजबूत होती हैं, तभी हम आकाश की ओर उठ सकते हैं और अपने जीवन के उच्चतम लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं। पुराने युग में शारदीय नवरात्रि प्रथम दिन मूलाधार चक्र को समर्पित था, उसकी शक्ति एवं आध्यात्मिकता महत्व को समझा जाता था। 

 

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मानव शरीर में ऊर्जा के सात प्रमुख केंद्रों में से एक, स्वाधिष्ठान चक्र (Svadhisthana Chakra), हमारी भावनात्मक दुनिया, रचनात्मकता और जीवन शक्ति का उद्गम स्थल है। 'स्व' का अर्थ है 'मैं' या 'स्वयं', और 'अधिष्ठान' का अर्थ है 'स्थान' या 'आधार'। इस प्रकार, स्वाधिष्ठान का शाब्दिक अर्थ है 'स्वयं का निवास' या 'जीव-अधिष्ठान'। यह चक्र न केवल भौतिक शरीर में जल तत्व का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि हमारी भावनाओं, इच्छाओं और संबंधों की गहराई को भी दर्शाता है।

यह चक्र मूलाधार (root) चक्र के ठीक ऊपर, त्रिकास्थि (sacrum) के पीछे रीढ़ की हड्डी में स्थित है, जो लैंगिक ग्रंथियों के समानांतर होता है। इसे इडा (ida), पिंगला (pingala) और सुषुम्ना (sushumna) नाड़ियों का दूसरा संगम बिंदु भी माना जाता है, जहाँ प्राणिक ऊर्जाएँ एकत्रित होकर शरीर के विभिन्न हिस्सों में प्रवाहित होती हैं। इसका प्रतीक एक छह पंखुड़ियों वाला कमल है, जो अक्सर शशि प्रभम् का होता है, और इसके केंद्र में एक अर्धचंद्र होता है। यह अर्धचंद्र जल तत्व की अस्थिरता, भावनात्मक उतार-चढ़ाव और चंद्रमा के चक्रों से जुड़ा है, जो स्त्रीत्व, प्रजनन क्षमता और रचनात्मकता का प्रतीक है।


जल तत्व (water element) स्वाधिष्ठान चक्र का मूल है। यह शरीर की सभी तरल क्रियाओं को नियंत्रित करता है, जैसे रक्त परिसंचरण (blood circulation), लसीका प्रणाली (lymphatic system), मूत्र प्रणाली (urinary system), पसीना और प्रजनन तरल पदार्थ। एक संतुलित स्वाधिष्ठान चक्र स्वस्थ गुर्दे (kidneys), मूत्राशय (bladder) और प्रजनन अंगों (reproductive organs) को सुनिश्चित करता है। यह शरीर में ऊर्जा के प्रवाह को भी सुगम बनाता है, जिससे शारीरिक लचीलापन और जीवन शक्ति बनी रहती है।


स्वाधिष्ठान कमल की छह पंखुड़ियाँ छह  वृत्तियों या भावनात्मक अवस्थाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं जो असंतुलित होने पर व्यक्ति के जीवन पर हावी हो सकती हैं। ये वृत्तियाँ हमें भावनात्मक परिपक्वता और आत्म-नियंत्रण की चुनौती देती हैं:

 *अवज्ञा/अवहेलना (Belittlement of others)* : यह दूसरों के प्रति उपेक्षा या घृणा का भाव है। जब यह वृत्ति प्रबल होती है, तो व्यक्ति दूसरों की भावनाओं, विचारों या अस्तित्व को तुच्छ समझने लगता है।

 *मूर्च्छा (Psychic Stupor/ lack of common sense)* : यह बौद्धिक अक्षमता या अचेतना की अवस्था है। यह सिर्फ बेहोशी नहीं, बल्कि मन की वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति स्पष्ट रूप से सोच नहीं पाता, भ्रमित रहता है और सही निर्णय लेने में असमर्थ होता है।

 *प्रश्रय/आग्रहशीलता (Indulgence)* : इसका अर्थ है किसी चीज़ को अत्यधिक महत्व देना या उस पर पूरी तरह से निर्भर रहना। यह किसी व्यक्ति, विचार, आदत या भावना को दृढ़ता से पकड़े रहना हो सकता है, भले ही वह हानिकारक हो।

 *अविश्वास (Lack of Confidence)* : यह दूसरों और स्वयं पर विश्वास की कमी है। यह असुरक्षा की भावना को जन्म देता है और व्यक्ति को हमेशा संदेह में रखता है।

 *सर्वनाश (Thought of sure annihilation)* : यह विनाश के आसन्न भय या सब कुछ खो देने की भावना है। यह लगातार चिंता और निराशा में जीना है, जहाँ व्यक्ति को लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया है या होने वाला है।

 *क्रूरता (Cruelty)* : यह दूसरों के प्रति दया या सहानुभूति की कमी है। यह दूसरों की पीड़ा से अप्रभावित रहना या जानबूझकर उन्हें नुकसान पहुँचाना हो सकता है।


स्वाधिष्ठान चक्र की साधना व्यक्ति को इन नकारात्मक वृत्तियों पर विजय प्राप्त करने और उन्हें सकारात्मक गुणों में बदलने में मदद करती है। यह चक्र भूख और प्यास जैसी शारीरिक आवश्यकताओं पर नियंत्रण पाने की शक्ति देता है, जो योगियों (yogis) के लिए लंबी साधना के दौरान महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त, प्राचीन ग्रंथों में इसे 'जल में रहने' या जल संबंधी शक्तियों को प्राप्त करने से भी जोड़ा गया है।
विद्या साधक (Vidya sadhaks) इस चक्र को जागृत करके अपनी रचनात्मकता, कलात्मकता और भावनात्मक बुद्धिमत्ता को बढ़ाते हैं। वे अपनी भावनाओं को सकारात्मक रूप से व्यक्त करना सीखते हैं, संबंधों में गहराई लाते हैं, और जीवन के प्रवाह के साथ बहना स्वीकार करते हैं। उनकी कला, संगीत, लेखन या नृत्य में एक गहरी भावनात्मक अभिव्यक्ति होती है। इसके विपरीत, अविद्या साधक (Avidya sadhaks) इस चक्र की शक्ति का उपयोग केवल व्यक्तिगत शक्ति या भोग के लिए करते हैं, जो अंततः उन्हें पतन की ओर ले जाता है।

यह चक्र रक्ष माइक्रोविटा (raks microvita) के प्रभाव क्षेत्र में आता है, जो इस ऊर्जा केंद्र के सूक्ष्म पहलुओं को और भी अधिक गहराई प्रदान करता है। माइक्रोविटा (microvita) जीवन के सूक्ष्म कण होते हैं जो चेतना और ऊर्जा के बीच सेतु का काम करते हैं।

 *निष्कर्ष* 
एक संतुलित स्वाधिष्ठान चक्र वाला व्यक्ति भावनात्मक रूप से स्थिर, रचनात्मक, संवेदनशील और सहज होता है। वह जीवन का आनंद लेता है, स्वस्थ संबंध बनाता है और अपनी इच्छाओं को सकारात्मक रूप से प्रकट करता है। इस चक्र पर ध्यान केंद्रित करने से व्यक्ति अपनी गहरी भावनाओं को समझ सकता है, उन्हें स्वीकार कर सकता है और उन्हें एक सकारात्मक रचनात्मक शक्ति में बदल सकता है।

 

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(आत्मविश्वास और आंतरिक अग्नि का रहस्य) 
मणिपुर चक्र हमारे शरीर का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण ऊर्जा केंद्र है। नाभि के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी में स्थित यह चक्र, हमारी आंतरिक शक्ति, आत्मविश्वास और व्यक्तिगत पहचान का प्रतिनिधित्व करता है। यह इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों का तीसरा मिलन बिंदु है, जो ऊर्जा के एक शक्तिशाली त्रिकोण का निर्माण करता है। इस चक्र का सीधा संबंध अग्नि तत्व से है, जिसका प्रतिनिधित्व एक लाल त्रिकोण करता है। यह त्रिकोण 10 पंखुड़ियों वाले कमल के केंद्र में होता है और इसका रंग अरुण  होता है, जो इसकी ऊर्जा और शक्ति को दर्शाता है।

मणिपुर चक्र न केवल शारीरिक कार्यों को नियंत्रित करता है, बल्कि हमारे मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य का भी केंद्र है। यह शरीर में पाचन, चयापचय और ऊर्जा के वितरण को नियंत्रित करता है। एक संतुलित मणिपुर चक्र वाला व्यक्ति आत्मविश्वास से भरपूर, आत्म-नियंत्रित और जीवन में अपने लक्ष्यों के प्रति केंद्रित होता है। वहीं, यदि यह चक्र असंतुलित हो, तो व्यक्ति में भय, असुरक्षा, चिड़चिड़ापन और आत्म-सम्मान की कमी जैसे नकारात्मक भाव उत्पन्न हो सकते हैं।

आध्यात्मिक रूप से, इस चक्र तक की साधना को 'शक्ताचार' कहा जाता है, जिसमें साधक अपनी आंतरिक अग्नि की शक्ति को जाग्रत करता है। यह वह शक्ति है जो व्यक्ति को अपने भीतर की कमियों को दूर करने और जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रेरित करती है।

मणिपुर चक्र 10 वृत्तियों  से घिरा हुआ है, जो मानव मन की जटिलताओं और उसकी नकारात्मक भावनाओं को दर्शाती हैं। इन वृत्तियों को नियंत्रित करके ही साधक अपनी आंतरिक शक्ति को बढ़ा सकता है। इन वृत्तियों को विस्तार से समझना आवश्यक है:

 *(1) लज्जा (Shyness, Shame)* :  - लज्जा एक काल्पनिक भय है जो व्यक्ति को सामाजिक परिस्थितियों में असहज महसूस कराता है। यह भय आत्म-सम्मान की कमी से उत्पन्न होता है और व्यक्ति को अपने विचारों और भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने से रोकता है। लज्जा के कारण व्यक्ति अक्सर अपनी क्षमता का सही उपयोग नहीं कर पाता और समाज से दूरी बना लेता है।

 *(2) पिशुनता (Sadistic tendency)* : - पिशुनता का अर्थ दूसरों को पीड़ा देने या उनके दुख में खुशी महसूस करने की प्रवृत्ति है। यह एक गंभीर नकारात्मक भाव है, जो व्यक्ति को क्रूर और अहंकारी बनाता है। ऐसी प्रवृत्ति व्यक्ति के मानवीय संबंधों को नष्ट कर देती है और उसके भीतर करुणा के भाव को समाप्त कर देती है।

 *(3) ईर्ष्या (Envy)* :  - ईर्ष्या जलन और विद्वेष का भाव है, जो दूसरों की सफलता या खुशी को देखकर उत्पन्न होता है। यह एक विनाशकारी भावना है जो व्यक्ति की मानसिक शांति को भंग करती है और उसे लगातार दूसरों से खुद की तुलना करने के लिए प्रेरित करती है। ईर्ष्या व्यक्ति को अपने लक्ष्यों से भटका देती है और उसे कभी भी संतोष नहीं मिल पाता।

 *(4) सुषुप्ति (Satiety, Sleepiness)* : - सुषुप्ति न केवल शारीरिक नींद है, बल्कि मानसिक अचेतनता की स्थिति को भी दर्शाती है। यह मन की एक ऐसी अवस्था है जहाँ व्यक्ति निष्क्रिय और उदासीन हो जाता है। आध्यात्मिक प्रगति में यह एक बड़ी बाधा है, क्योंकि इसमें साधक अपने लक्ष्य के प्रति सजग नहीं रह पाता।

 *(5) विषाद (Melancholia)* : -  विषाद गहरी निराशा और उदासी का भाव है। यह मन की एक ऐसी स्थिति है जहाँ व्यक्ति अपनी ऊर्जा और जीवन के प्रति उत्साह खो देता है। विषाद से ग्रस्त व्यक्ति का जीवन नीरस हो जाता है और वह किसी भी कार्य में रुचि नहीं ले पाता।

 *(6) कषाय (Peevishness)* : - कषाय का अर्थ है चिड़चिड़ापन और छोटी-छोटी बातों पर परेशान होने की मनोदशा। यह मन की एक अस्थिर स्थिति है जो व्यक्ति को असंतोषी बनाती है। कषाय के कारण व्यक्ति हमेशा गुस्से और बेचैनी में रहता है।

 *(7) तृष्णा (Yearning for acquisition)* : - तृष्णा कुछ पाने की लालसा या किसी भौतिक वस्तु के प्रति अत्यधिक तड़प का भाव है। यह एक ऐसी लालसा है जो कभी खत्म नहीं होती और व्यक्ति को लगातार असंतुष्ट रखती है। तृष्णा के कारण व्यक्ति भौतिक सुखों के पीछे भागता रहता है और कभी शांति नहीं पाता।

 *(8) मोह (Infatuation)* : -  मोह दीवानगी और अत्यधिक आसक्ति का भाव है। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ व्यक्ति किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति इतना आसक्त हो जाता है कि वह सही और गलत का विवेक खो देता है। मोह के कारण व्यक्ति वास्तविकता से दूर हो जाता है और उसका निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित होती है।

 *(9) घृणा (Hatred, Revulsion)* : - घृणा नफरत या किसी के प्रति गहरी नकारात्मक भावना है। यह नकारात्मकता व्यक्ति को दूसरों से अलग करती है और उसकी आंतरिक शांति को भंग करती है। घृणा से ग्रस्त व्यक्ति के मन में हमेशा अशांति बनी रहती है।

 *(10) भय (Fear)*:  -भय का सीधा संबंध मणिपुर चक्र से है। भययुक्त व्यक्ति अपनी आंतरिक शक्ति और आत्मविश्वास खो देता है, जिससे वह चुनौतियों का सामना करने में असमर्थ हो जाता है। भय व्यक्ति को कमजोर बनाता है और उसे आगे बढ़ने से रोकता है।


जब मणिपुर चक्र संतुलित और जाग्रत होता है, तो व्यक्ति को कई शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं : -

 *आत्मविश्वास और साहस में वृद्धि* : - जाग्रत मणिपुर चक्र व्यक्ति में असीम आत्मविश्वास और साहस भर देता है, जिससे वह किसी भी चुनौती का सामना करने में सक्षम होता है।

 *बेहतर निर्णय लेने की क्षमता* : - यह चक्र व्यक्ति को स्पष्टता और विवेक प्रदान करता है, जिससे वह सही और गलत का अंतर समझकर बेहतर निर्णय ले पाता है।

 *नियंत्रण और अनुशासन* : - व्यक्ति अपनी भावनाओं और इच्छाओं पर नियंत्रण करना सीखता है। वह आलस्य और निष्क्रियता से मुक्त होकर अपने लक्ष्यों के प्रति अनुशासित हो जाता है।

 *बेहतर पाचन और चयापचय* : - शारीरिक स्तर पर, यह चक्र पाचन तंत्र को मजबूत करता है और चयापचय को सुधारता है।

 *आंतरिक शक्ति का अनुभव* : -  व्यक्ति अपनी आंतरिक शक्ति और ऊर्जा का अनुभव करता है, जिससे वह जीवन में अधिक सकारात्मक और ऊर्जावान महसूस करता है।

यहाँ किन्नर माइक्रोवाइटम का प्रभाव होता है, जो रूप के दीवाने होते हैं। मणिपुर की शक्ति का उपयोग विद्या साधक आध्यात्मिक विकास में करते हैं, जबकि अविद्या साधक मायावी विद्या में करते हैं।

​ *विद्या साधक* : ऐसे लोग जो ज्ञान और आत्म-विकास के मार्ग पर हैं। वे मणिपुर की शक्ति का उपयोग अपने आध्यात्मिक विकास के लिए करते हैं। वे इस ऊर्जा को अपनी चेतना को जगाने, अपनी इच्छा-शक्ति को मजबूत करने और अपने जीवन को सही दिशा में ले जाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। वे इसका उपयोग अपने आंतरिक स्वरूप को बेहतर बनाने के लिए करते हैं।

​ *अविद्या साधक:* ये वे लोग हैं जो अज्ञानता या माया के मार्ग पर हैं। वे मणिपुर की शक्ति का उपयोग मायावी विद्या के लिए करते हैं। इसका मतलब है कि वे इस शक्ति का इस्तेमाल भौतिक लाभ, दूसरों को प्रभावित करने, या फिर ऐसी जादुई या मायावी शक्तियों को पाने के लिए करते हैं जो वास्तविकता से परे हैं। वे अक्सर इसका उपयोग दूसरों पर नियंत्रण करने या अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए करते हैं, जिससे वे आध्यात्मिक रूप से नीचे गिर जाते हैं। 

संक्षेप में, मणिपुर चक्र केवल एक ऊर्जा केंद्र नहीं है, बल्कि यह हमारे अस्तित्व का मूल है। इसका संतुलन हमारे जीवन में संतुलन, स्थिरता और समृद्धि लाता है। इन वृत्तियों को समझकर और उन पर काम करके, हम न केवल अपने मणिपुर चक्र को जाग्रत कर सकते हैं, बल्कि एक अधिक सार्थक और शक्तिशाली जीवन भी जी सकते हैं।

 

                          4.
(हृदय के अनंत आकाश में एक आध्यात्मिक उड़ान) 
मानव शरीर, जिसे अक्सर केवल हाड़-मांस का पुतला मान लिया जाता है, वास्तव में एक सूक्ष्म ब्रह्मांड है, जिसके भीतर ऊर्जा के कई अद्भुत केंद्र, जिन्हें चक्र कहते हैं, सक्रिय रहते हैं। इन सभी चक्रों में से, अनाहत चक्र का महत्व अद्वितीय है। यह हमारे सीने के पीछे, हृदय के ठीक पास, रीढ़ की हड्डी में स्थित है और यह सिर्फ एक ऊर्जा केंद्र नहीं, बल्कि हमारी भावनाओं, प्रेम और करुणा का मूल स्रोत है।

 'अनाहत' शब्द का संस्कृत में अर्थ है 'बिना आघात के उत्पन्न ध्वनि', जो यह दर्शाता है कि यह चक्र हमारे भीतर एक ऐसी ध्वनि को जागृत करता है जो किसी बाहरी संघर्ष से नहीं, बल्कि हमारे आंतरिक सामंजस्य से उत्पन्न होती है। यह ध्वनि उस अनंत प्रेम का प्रतीक है जो बिना किसी कारण के, बिना किसी शर्त के प्रवाहित होता है।


अनाहत चक्र को इड़ा, पिंगला, और सुषुम्ना नामक तीन प्रमुख नाड़ियों का चौथा संगम माना गया है। ये नाड़ियाँ हमारे शरीर में प्राण ऊर्जा के प्रवाह को नियंत्रित करती हैं, और इनका मिलन बिंदु अनाहत चक्र को अत्यधिक शक्ति प्रदान करता है। इस चक्र का तत्व वायु है, जो इसे गति, विस्तार और स्वतंत्रता का गुण देता है। जिस प्रकार वायु बिना किसी सीमा के बहती है, उसी प्रकार अनाहत चक्र हमें विचारों और भावनाओं की सीमाओं से परे जाकर, एक नई चेतना में उड़ने की शक्ति प्रदान करता है। इसका आकार वृत्ताकार और रंग धुएँ जैसा होता है, जो इसकी सूक्ष्म और अदृश्य प्रकृति को दर्शाता है। जब यह चक्र जागृत होता है, तो साधक को ऐसा महसूस होता है जैसे वह एक नभचर की तरह उड़ान भर रहा हो, आकाश में लंबी दूरी की यात्रा कर रहा हो, और उसके भीतर अथाह सामर्थ्य का संचार हो रहा हो।
अनाहत चक्र सीधे तौर पर प्रेम, करुणा, क्षमा, और सहानुभूति जैसे भावों से जुड़ा है। जब यह संतुलित होता है, तो व्यक्ति का हृदय दूसरों के प्रति स्वाभाविक रूप से प्रेम और करुणा से भर जाता है। इसके विपरीत, जब यह असंतुलित होता है, तो व्यक्ति को अकेलापन, भय, और भावनात्मक असुरक्षा का अनुभव हो सकता है। यह भावमय क्षेत्र होने के कारण, भक्ति परंपरा में इसे वैष्णवाचार कहा गया है, जो हमें ब्रज-भाव की गहन अनुभूति प्रदान करता है। यह वह अवस्था है जहाँ भक्त और भगवान के बीच कोई दूरी नहीं रहती, केवल प्रेम का अटूट संबंध रह जाता है।


अनाहत चक्र की 12 पंखुड़ियाँ हैं, और प्रत्येक पंखुड़ी एक विशेष मानवीय वृत्ति को दर्शाती है। इन वृत्तियों का संतुलन ही हमारी भावनात्मक स्थिरता और आध्यात्मिक उन्नति की कुंजी है।

 * (1) आशा (Hopes) : - भविष्य के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण और विश्वास।

 * (2) चिंता (Worry) : - भविष्य की घटनाओं के प्रति भय और असुरक्षा।

 * (3) चेष्टा (Effort) : - लक्ष्य प्राप्त करने के लिए किया गया प्रयास और कर्मठता।

 * (4) ममता (Mineness, Love) :-  किसी व्यक्ति या वस्तु के प्रति गहरा लगाव और प्रेम।

 * (5) दंभ (Vanity) : -  अपनी श्रेष्ठता का झूठा अभिमान।

 * (6) विवेक (Conscience, Discrimination) : - सही और गलत के बीच अंतर करने की क्षमता।

 * (7) विकलता (Mental Numbness due to fear) : - भय के कारण उत्पन्न मानसिक जड़ता।

 * (8) अहंकार (Ego) : - स्वयं को दूसरों से अलग और श्रेष्ठ समझने की भावना।

 * (9) लोलता (Avarice) : - अत्यधिक लालच और असंतोष।

 * (10) कपटता (Hypocrisy): दोहरा व्यवहार।

 * (11) वितर्क (Argumentativeness to the point of wild exaggeration): अनावश्यक बहस और अतिशयोक्तिपूर्ण तर्क।

 * (12) अनुताप (Repentance): अपनी गलतियों पर पश्चात्ताप और सुधार की भावना।

अनाहत चक्र की साधना इन 12 वृत्तियों को संतुलित करने का विज्ञान है। यह हमें नकारात्मक वृत्तियों को पहचान कर उन्हें सकारात्मक में बदलने की शक्ति देती है।


अनाहत चक्र के जागृत होने पर व्यक्ति में अद्भुत और सकारात्मक बदलाव आते हैं। व्यक्ति अत्यधिक भावनात्मक स्थिरता प्राप्त करता है और उसका हृदय गहन करुणा तथा सहानुभूति से भर जाता है। अहंकार और दंभ जैसी नकारात्मक वृत्तियाँ कमजोर पड़ जाती हैं और व्यक्ति में विनम्रता का भाव विकसित होता है। इस चक्र की साधना से साधक आंतरिक शांति और परमानंद का अनुभव करता है। वह बाहरी दुनिया की द्वेष, भय और ईर्ष्या से ऊपर उठ जाता है और दूसरों के साथ एक गहरा, भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता है, जिससे उसके संबंध मजबूत और संतोषजनक होते हैं। यह साधना हमें यह सिखाती है कि प्रेम ही जीवन का सबसे शक्तिशाली बल है और इसी के माध्यम से हम परम सत्य तक पहुँच सकते हैं। यह हमें "मैं" से "हम" की ओर ले जाती है, जहाँ हम स्वयं को इस ब्रह्मांड का एक अभिन्न अंग मानते हैं और सभी जीवों के प्रति प्रेम तथा सम्मान महसूस करते हैं।

यहाँ गंधर्व माइक्रोविटा का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जाता है। यह वह शक्ति है जो भावों को प्रकट करती है—चाहे वे विरह, प्रेम, सौंदर्य, वीर, या हास्य जैसे रस हों। एक सच्चा साधक इस शक्ति का उपयोग मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए करता है, जबकि एक अविद्या साधक इसका उपयोग परपीड़ा में करता है, जिससे वह अपने अहंकार और स्वार्थ को पुष्ट करता है।

अनाहत चक्र की साधना हमें यह सिखाती है कि सच्चा सामर्थ्य केवल बाहरी शक्तियों या भौतिक उपलब्धियों में नहीं है, बल्कि हमारे हृदय में छिपे हुए अनंत प्रेम और करुणा में है। यह हमें एक पूर्ण, संतुलित और प्रेमपूर्ण जीवन जीने का मार्ग दिखाती है। यह साधना विज्ञान की एक ऐसी धारा है जो हमें बाहरी दुनिया से परे, अपने भीतर के अनंत ब्रह्मांड से जोड़ती है।


                        5.
विशुद्ध चक्र, जिसे गले का चक्र भी कहते हैं, हमारी आध्यात्मिक यात्रा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों का पांचवां मिलन बिंदु है, जो गले के पीछे के पीछे रीढ़ की हड्डी में स्थित है। इस चक्र का संबंध संचार, अभिव्यक्ति और रचनात्मकता से है। यह न केवल हमारी वाणी को नियंत्रित करता है, बल्कि हमारे विचारों और भावनाओं को भी व्यक्त करने की क्षमता प्रदान करता है।


विशुद्ध चक्र 16 पंखुड़ियों वाले कमल के रूप में वर्णित है, जिनमें से प्रत्येक एक विशिष्ट ध्वनि या वृत्ति का प्रतिनिधित्व करती है। ये वृत्तियां हमारी चेतना और अभिव्यक्ति के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती हैं। इन्हें मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। 

*1. वैदिक वृत्तियाँ*  :- ये 7 वृत्तियां, भारतीय शास्त्रीय संगीत के सप्त स्वरों (सा, रे, गा, मा, पा, धा, नी) से जुड़ी हैं।

 * *षडज* (सा): मोर की मधुर ध्वनि।

 * *ऋषभ* (रे) : बैल की प्रबल आवाज।

 * *गांधार* (गा) : बकरे की तीव्र ध्वनि।

 * *मध्यम* (मा) : हिरण की कोमल ध्वनि।

 * *पंचम* (पा) : कोयल की सुरीली ध्वनि।

 * *धैवत* (धा)क्ष: गधे की कठोर ध्वनि।

 * *निषाद* (नी) : एक हाथी की प्रबल ध्वनि।

*2. तांत्रिक वृत्तियां*  : - ये 7 वृत्तियां, मंत्रों और आध्यात्मिक ऊर्जा से संबंधित हैं।

 * *ॐ* : सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और विनाश का प्रतिनिधित्व करने वाली आदिम ध्वनि।

 * *हुं* : कुंडलिनी शक्ति के जागरण की ध्वनि।

 * *फट* : सिद्धांतों को व्यवहार में बदलने वाली ध्वनि।

 * *वौषट्* : सांसारिक ज्ञान से परे अनुभव प्रदान करने वाली वृत्ति।

 * *वषट्* : सूक्ष्म जगत में कल्याणकारी वृत्ति।

 * *स्वाहा* : महान और निस्वार्थ कार्यों की वृत्ति।

 * *नमः* : परम सत्ता के प्रति समर्पण की भावना।

 *3.  परा-आध्यात्मिक वृत्तियां*  :  - ये 2 वृत्तियां, जीवन के द्वैत (duality) को दर्शाती हैं।

 * *विष* : नकारात्मकता और अज्ञानता का प्रतीक।

 * *अमृत* : दिव्यता और अमरता का प्रतीक।


 विशुद्ध चक्र पर विद्याधर और विदेहीलीन माइक्रोविटा का प्रभाव होता है। ये दोनों क्रमशः अलग-अलग विद्या और देह धारण करते हैं, जिससे साधकों के मार्ग और परिणामों में भिन्नता आती है।

 *1.  विद्या साधक (आध्यात्मिक मार्ग)* :
विद्या साधक वह व्यक्ति है जो अपने आध्यात्मिक विकास के लिए विशुद्ध चक्र की ऊर्जा का उपयोग करता है। इनके लिए, यह चक्र सिर्फ़ वाणी की अभिव्यक्ति का साधन नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक द्वार है। जब विशुद्ध चक्र संतुलित और जागृत होता है, तो विद्या साधक निम्नलिखित प्रभावों का अनुभव करता है :

 * *आत्मिक आनंद (रसास्वादन)* : साधक को आध्यात्मिक आनंद की एक ऐसी धारा का अनुभव होता है, जो सांसारिक सुखों से परे है। यह एक आंतरिक शांति और परमानंद की स्थिति है।

 * *आध्यात्मिक ज्ञान और अंतर्दृष्टि* : उनकी वाणी में एक विशेष शक्ति आ जाती है, जिससे वे गूढ़ आध्यात्मिक सत्यों को आसानी से व्यक्त कर पाते हैं। वे सिर्फ़ बोलते नहीं, बल्कि उनके शब्द ऊर्जा और चेतना से भरे होते हैं।

 * *उच्च चेतना से जुड़ना* : विशुद्ध चक्र के माध्यम से वे अपनी चेतना को उच्चतर आयामों से जोड़ पाते हैं। यह उन्हें ब्रह्मांडीय ध्वनियों और ऊर्जाओं को सुनने और समझने में मदद करता है।

 * *सत्य की अभिव्यक्ति* : विद्या साधक सत्य को बिना किसी भय या हिचकिचाहट के व्यक्त करते हैं। उनकी अभिव्यक्ति में कोई कृत्रिमता नहीं होती।

 *2.  अविद्या साधक (सांसारिक मार्ग):* 
अविद्या साधक वह व्यक्ति है जो विशुद्ध चक्र की ऊर्जा का उपयोग भौतिक और सांसारिक लक्ष्यों के लिए करता है। ये साधक आध्यात्मिक उन्नति की बजाय अपनी कलाओं और कौशल को निखारने पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इस मार्ग पर विशुद्ध चक्र के प्रभावों को इस प्रकार समझा जा सकता है :

 * *जागतिक कलाओं में उत्कृष्टता* : इस चक्र की ऊर्जा का उपयोग करके अविद्या साधक गायन, लेखन, कविता, वक्तृत्व कला (भाषण), और अन्य रचनात्मक क्षेत्रों में अद्भुत निपुणता प्राप्त करते हैं। उनकी आवाज़ में जादू होता है, उनके शब्दों में आकर्षण होता है।

 * *सामाजिक प्रभाव* : वे अपनी वाणी और अभिव्यक्ति के माध्यम से लोगों को प्रभावित कर पाते हैं। राजनेता, कलाकार, लेखक और शिक्षक जैसे लोग इस शक्ति का उपयोग अपने कार्यक्षेत्र में करते हैं।

 * *रचनात्मक शक्ति* : उनकी रचनात्मकता असीम होती है। वे नए विचार, कहानियाँ और कलाकृतियाँ रच पाते हैं जो समाज को प्रभावित करती हैं।

 * *भौतिक सफलता*  : हालांकि यह मार्ग आध्यात्मिक नहीं है, लेकिन इसके द्वारा व्यक्ति भौतिक सुख, प्रसिद्धि और सम्मान प्राप्त कर सकता है।

संक्षेप में, विशुद्ध चक्र एक शक्तिशाली केंद्र है। इसका उपयोग किस दिशा में किया जाता है, यह साधक की इच्छा और चेतना पर निर्भर करता है। एक ही ऊर्जा दो अलग-अलग रास्तों पर ले जा सकती है - एक जो आंतरिक मुक्ति की ओर जाती है, और दूसरा जो बाहरी सफलता और अभिव्यक्ति की ओर। दोनों ही मार्ग विशुद्ध चक्र की शक्ति का उपयोग करते हैं, लेकिन उनके अंतिम लक्ष्य और परिणाम भिन्न हो जाते हैं। यहाँ तक ब्रज भाव तथा वैष्णवाचार रहता है। यह जागतिक दुनिया एवं आध्यात्मिक दुनिया का संगम बिन्दु है। 



​ललना चक्र, यह नासिका के उग्र भाग में, दोनों भौंहों के मध्य (भ्रू-मध्य) से थोड़ा नीचे, लेकिन आज्ञा चक्र से नीचे और विशुद्ध चक्र से ऊपर स्थित है। यह एक अत्यंत संवेदनशील और महत्वपूर्ण ऊर्जा केंद्र है जो साधक को गहन साधना के अनुभवों से जोड़ता है। यह कोई निश्चित आकार या रंग नहीं रखता; बल्कि यह साधक की ऊर्जा, सामर्थ्य और स्पंदन के अनुसार परिवर्तित होता है।


​ आध्यात्मिक परंपरा में, पंच तत्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश - सृष्टि के मूल आधार माने जाते हैं। जब साधक इन तत्वों की साधना करता है, तो वह अपनी दृष्टि को ललना चक्र पर केंद्रित करता है। इस प्रक्रिया में, साधक अपने शरीर के भीतर पंच तत्वों की क्रियाओं को अनुभव करता है। यह एक आंतरिक यात्रा है, जहाँ साधक भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्तर पर होने वाले सभी परिवर्तनों का साक्षी बनता है। जब साधक इन तत्वों पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है, तो वह अपनी आंतरिक शक्तियों को जागृत करने के लिए तैयार हो जाता है।


​ललना चक्र को कुंडलिनी शक्ति के जागरण का साक्षी माना जाता है। कुंडलिनी शक्ति, जो रीढ़ के आधार में सुप्त अवस्था में रहती है, जब जागृत होती है, तो यह इडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों से होते हुए ऊपर की ओर उठती है। ललना चक्र इस ऊर्जा के प्रवाह को नियंत्रित और निर्देशित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह साधक को कुंडलिनी के आरोहण के दौरान होने वाले गहन अनुभवों और परिवर्तनों को समझने और स्वीकार करने में मदद करता है। यह एक द्वार की तरह कार्य करता है, जो साधक को आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।


​ललना चक्र की शक्ति का उपयोग साधक के इरादे पर निर्भर करता है। एक विद्या साधक  इस शक्ति का उपयोग अपने आध्यात्मिक विकास और आत्मिक कल्याण के लिए करता है। वह इस शक्ति का सही दिशा में उपयोग कर अज्ञानता के बंधन तोड़ता है और मोक्ष के पथ पर आगे बढ़ता है। इसके विपरीत, एक अविद्या साधक  इस शक्ति का दुरुपयोग भौतिक लाभ, अहंकार या दूसरों पर नियंत्रण के लिए कर सकता है। ऐसा करने से वह अपने आध्यात्मिक पथ से भटक जाता है और स्वयं को पतन के गर्त में धकेल देता है।

​यह चक्र साधक को अपनी आंतरिक चेतना से जोड़ता है और उसे अपने वास्तविक स्वरूप को समझने में मदद करता है।



​मानव शरीर एक रहस्यमय ब्रह्मांड है, जिसमें अनेक ऊर्जा केंद्र, या चक्र, छिपे हुए हैं। इन चक्रों में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण है 'आज्ञा चक्र', जिसे 'तीसरा नेत्र' भी कहा जाता है। यह भृकुटि (भौंहों के मध्य) में स्थित दो पंखुड़ियों वाले श्वेत कमल के रूप में वर्णित है, जिसके केंद्र में एक प्रकाश बिम्ब है। आज्ञा चक्र मन की अधिष्ठात्री भूमि है, जो हमारी चेतना को गहन आध्यात्मिक अनुभवों और आंतरिक ज्ञान की ओर ले जाने की क्षमता रखता है। यह न केवल शरीर का 'चंद्र मंडल' कहलाता है, बल्कि यह लौकिक और आध्यात्मिक ज्ञान के संगम का प्रतीक भी है।


​संस्कृत में 'आज्ञा' का अर्थ है 'आदेश' या 'नियंत्रण'। यह चक्र हमारे विचारों, भावनाओं, कल्पनाओं और अंतर्ज्ञान को नियंत्रित करता है। इसे 'तीसरा नेत्र' इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह हमें सामान्य भौतिक दृष्टि से परे देखने की क्षमता प्रदान करता है। आज्ञा चक्र का रंग  गहरा स्वेत बताया जाता है, जो ज्ञान, अंतर्ज्ञान और विवेक का प्रतीक है। इसकी दो पंखुड़ियाँ इडा और पिंगला नाड़ियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो हमारे शरीर की मुख्य ऊर्जा धाराएँ हैं। इन नाड़ियों का संगम आज्ञा चक्र पर होता है, जिससे कुंडलिनी शक्ति के जागरण में मदद मिलती है।
​ यह हमारी नींद-जागने के चक्र को नियंत्रित करती है। कुछ आध्यात्मिक परंपराओं में,  आध्यात्मिक अनुभवों से जोड़ा जाता है। जब आज्ञा चक्र सक्रिय होता है, तो व्यक्ति में स्पष्टता, अंतर्ज्ञान, दूरदृष्टि और मानसिक शांति का अनुभव होता है। यहाँ 'सिद्ध' माइक्रोविटा के प्रभाव दिखता है, जो विद्या साधक की मदद करते हैं तथा अविद्या साधक को सत्पथ लाने की कोशिश करते हैं। 


​ आज्ञा चक्र में दो मुख्य वृत्तियाँ हैं:

अपरा (लौकिक ज्ञान की वृत्ति)  : - यह वृत्ति भौतिक संसार से संबंधित ज्ञान और अनुभवों को संदर्भित करती है। इसमें हमारी बुद्धि, तर्कशक्ति, स्मृति, विश्लेषण क्षमता और सांसारिक विषयों की समझ शामिल है। जब आज्ञा चक्र अपरा वृत्ति पर केंद्रित होता है, तो व्यक्ति को दुनियावी मामलों में सफलता, शैक्षणिक उत्कृष्टता और व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त होता है। यह हमें दैनिक जीवन की चुनौतियों का सामना करने और समाधान खोजने में मदद करता है। एक संतुलित अपरा वृत्ति व्यक्ति को निर्णय लेने में सक्षम बनाती है और उसे अपने आसपास के वातावरण को समझने में सहायता करती है।

परा (आध्यात्मिक ज्ञान की वृत्ति) : - यह वृत्ति आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि, आत्मज्ञान और ब्रह्मांडीय चेतना से संबंधित है। यह हमें सूक्ष्म लोकों, परमात्मा और हमारे वास्तविक स्वरूप को समझने में मदद करती है। परा वृत्ति के सक्रिय होने पर व्यक्ति को अंतर्ज्ञान, दूरदृष्टि, दिव्य दर्शन और गहन ध्यान का अनुभव होता है। यह हमें जीवन के गहरे अर्थ और उद्देश्य को समझने की ओर अग्रसर करती है। साधक जब परा वृत्ति पर ध्यान केंद्रित करता है, तो उसे लौकिक बंधनों से मुक्ति और आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति होती है। यह वृत्ति हमें अपनी आत्मा से जुड़ने और अपनी असीमित क्षमताओं को पहचानने में सहायता करती है।


​जब आज्ञा चक्र संतुलित और जागृत होता है, तो व्यक्ति अनेक लाभों का अनुभव करता है:
​बढ़ा हुआ अंतर्ज्ञान: व्यक्ति को आंतरिक ज्ञान और अंतर्दृष्टि प्राप्त होती है, जिससे वह सही निर्णय ले पाता है।

​ *मानसिक स्पष्टता* : विचारों में स्पष्टता आती है, भ्रम दूर होता है और ध्यान केंद्रित करने की क्षमता बढ़ती है।

​ *सृजनात्मकता* : सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता का विकास होता है, जिससे नए विचार और समाधान प्राप्त होते हैं।
​आत्म-जागरूकता: व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप और जीवन के उद्देश्य को समझने लगता है।

​ *भावनात्मक संतुलन* : भावनाओं पर नियंत्रण प्राप्त होता है, जिससे चिंता, तनाव और भय कम होते हैं।

​ *दूरदृष्टि*  : भविष्य की घटनाओं का पूर्वानुमान लगाने या गहन आध्यात्मिक अनुभव प्राप्त करने की क्षमता विकसित हो सकती है।

​ *तीव्र स्मृति*  : स्मरण शक्ति और एकाग्रता में सुधार होता है।

​ *आध्यात्मिक विकास*  : कुंडलिनी शक्ति के जागरण और उच्च चेतना के अनुभवों के लिए मार्ग प्रशस्त होता है।

​निष्कर्ष
​आज्ञा चक्र केवल एक ऊर्जा केंद्र नहीं, बल्कि आंतरिक ज्ञान, अंतर्ज्ञान और आध्यात्मिक जागृति का प्रवेश द्वार है। यह हमें लौकिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर समझने और विकसित होने की क्षमता प्रदान करता है। साधना विज्ञान के माध्यम से, जैसे कि ध्यान, मंत्र जप, प्राणायाम और आसन, हम इस शक्तिशाली चक्र को जागृत कर सकते हैं। जब आज्ञा चक्र संतुलित होता है, तो हम अपने जीवन में स्पष्टता, शांति और गहरे अर्थ का अनुभव करते हैं। यह हमें अपने भीतर के ब्रह्मांड से जुड़ने और अपनी असीमित क्षमताओं को पहचानने में सक्षम बनाता है, जिससे हम एक अधिक समृद्ध और उद्देश्यपूर्ण जीवन जी पाते हैं।



 योग और तंत्र की परंपराओं में चक्रों की अवधारणा मानव शरीर और चेतना के बीच के जटिल संबंध को दर्शाती है। इन चक्रों को ऊर्जा के केंद्र माना जाता है, जो शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नव प्रमुख चक्रों में सबसे शीर्ष पर सहस्त्राचक्र स्थित है, जिसे 'हजार पंखुड़ियों वाला कमल' भी कहते हैं। इस विशाल कमल के भीतर एक और सूक्ष्म और अत्यंत महत्वपूर्ण चक्र छिपा है, जिसे गुरुचक्र कहते हैं। गुरुचक्र सहस्त्राचक्र का ही एक अभिन्न और गहरा हिस्सा है, जो आध्यात्मिक यात्रा के शिखर पर शिष्य को गुरु तत्व से जोड़ता है। यह चक्र केवल एक ऊर्जा केंद्र नहीं, बल्कि वह परम स्थान है जहाँ साधक अपने अहंकार को विसर्जित कर, सार्वभौमिक चेतना के साथ एकाकार हो जाता है।


गुरुचक्र को अक्सर सहस्त्राचक्र के भीतर एक और हजार पंखुड़ियों वाले श्वेत कमल के रूप में वर्णित किया गया है। यह कमल श्वेत रंग का है, जो शुद्धता, ज्ञान और शांति का प्रतीक है। जबकि सहस्त्राचक्र समस्त ब्रह्मांडीय चेतना का प्रतिनिधित्व करता है, गुरुचक्र विशेष रूप से तारकब्रह्म के गुरु रूप के साथ साधक के संबंध को स्थापित करता है। "तारकब्रह्म" का अर्थ है वह ब्रह्म जो संसार सागर से पार उतारता है। यह गुरु रूप किसी व्यक्तिगत शिक्षक से परे, परम ज्ञान और सत्य का प्रतीक है, जो सभी ज्ञान का स्रोत है।

यह चक्र मस्तिष्क के मध्य, सहस्त्राचक्र के ठीक नीचे और आज्ञाचक्र (भ्रूमध्य) के ऊपर स्थित है। इसे आध्यात्मिक मस्तिष्क का हृदय कहा जा सकता है, जहाँ ज्ञान और भक्ति का मिलन होता है। गुरुचक्र को सक्रिय करने का उद्देश्य केवल ऊर्जा को बढ़ाना नहीं, बल्कि परम ज्ञान को प्राप्त करना है, जो अहंकार के बंधनों से मुक्ति दिलाता है।


ध्यान की प्रक्रिया में गुरुचक्र का महत्व अद्वितीय है। यह वह अंतिम चरण है जहाँ साधक अपने मन और बुद्धि को पूर्ण रूप से समर्पित करता है। सामान्य ध्यान में हम श्वास, मंत्र या किसी रूप पर ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन गुरुचक्र ध्यान में साधक अपने भीतर स्थित गुरु तत्व पर ध्यान केंद्रित करता है। इस प्रक्रिया में, साधक को यह अनुभव होता है कि गुरु कोई बाहरी व्यक्ति नहीं, बल्कि उसकी अपनी ही चेतना का सबसे विशुद्ध और अनन्त स्वरूप है।


 साधक को अपनी पहचान, अपनी इच्छाओं और अपने अहंकार को इस गुरु रूप के चरणों में समर्पित करता है।  साधक 'मैं' की भावना को छोड़कर 'वह' (गुरु) की भावना में विलीन हो जाता है। यह विलय का अनुभव है, जहाँ द्वैत समाप्त हो जाता है और केवल एकत्व का अनुभव रह जाता है। जब यह समर्पण पूर्ण होता है, तो साधक तारकब्रह्म की उपस्थिति का अनुभव करता है। यह एक ऐसी चेतना है जो सभी सीमाओं से परे है। यह अनुभव न केवल मानसिक शांति लाता है, बल्कि आध्यात्मिक मुक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करता है।


गुरुचक्र को आध्यात्मिक यात्रा का अंतिम द्वार माना जाता है क्योंकि यह वह बिंदु है जहाँ व्यक्तिगत चेतना सार्वभौमिक चेतना के साथ मिल जाती है। यहाँ 'गुरु' का अर्थ केवल एक व्यक्ति नहीं है, बल्कि वह परम चैतन्य ऊर्जा है जो हमें अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाती है। गुरुचक्र को सक्रिय करने के बाद, साधक को केवल ज्ञान ही नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार भी प्राप्त होता है।


गुरुचक्र के जागरण से अनेक लाभ होते हैं, जो केवल आध्यात्मिक ही नहीं, बल्कि मानसिक और शारीरिक भी हैं:

 * गहन आध्यात्मिक शांति  : मन की चंचलता समाप्त हो जाती है और एक गहरी, स्थायी शांति का अनुभव होता है।

 * अहंकार का नाश  : व्यक्ति अपने अहंकार और स्वयं की पहचान को छोड़ देता है, जिससे उसे अधिक विनम्रता और करुणा प्राप्त होती है। 

 * आत्म-ज्ञान और बोध : व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानता है, जिससे जीवन के उद्देश्य और अर्थ की स्पष्टता मिलती है।

 * दिव्य प्रेरणा और मार्गदर्शन : ऐसा माना जाता है कि गुरुचक्र के माध्यम से व्यक्ति को ब्रह्मांडीय चेतना से सीधा मार्गदर्शन और प्रेरणा मिलती है।

गुरुचक्र का प्रतीकीकरण बहुत गहरा है। हजार पंखुड़ियों वाला श्वेत कमल केवल एक फूल नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि एक साधक के भीतर अनंत संभावनाएँ मौजूद हैं। कमल की पंखुड़ियाँ ध्यान और ज्ञान के अनगिनत मार्गों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो अंततः एक ही केंद्र (गुरु) की ओर ले जाती हैं। श्वेत रंग शुद्धता और निरपेक्षता का प्रतीक है, जो सभी रंगों और विचारों से परे है।

निष्कर्ष रूप में, गुरुचक्र केवल एक काल्पनिक ऊर्जा केंद्र नहीं है, बल्कि वह वास्तविकता है जो साधक को उसके परम लक्ष्य तक पहुँचाती है। यह सहस्त्राचक्र का हृदय है, जहाँ ज्ञान, भक्ति और समर्पण का त्रिवेणी संगम होता है। इस चक्र पर ध्यान करने का अर्थ है अपने भीतर के परम गुरु को जगाना और उसके प्रकाश में अपने जीवन को प्रकाशित करना। यह यात्रा व्यक्तिगत 'मैं' से समष्टि 'मैं' की ओर, और अंततः शून्य में विलीन होने की यात्रा है, जहाँ केवल परम सत्य ही शेष रहता है। यह वह परम अनुभव है, जहाँ शिष्य अपने गुरु के साथ एकाकार हो जाता है और स्वयं ही गुरु तत्व में विलीन हो जाता है।


​सहस्रार चक्र, जिसे "हजार पंखुड़ियों वाला कमल" भी कहा जाता है, हमारी आध्यात्मिक यात्रा का शिखर है। यह मानव खोपड़ी के शीर्ष पर स्थित एक ऊर्जा केंद्र है, जो चेतना और दिव्य प्रकाश का प्रतीक है। यह सिर्फ एक शारीरिक स्थान नहीं, बल्कि अस्तित्व की सर्वोच्च अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है – जहाँ सभी द्वंद्व समाप्त होते हैं, और व्यक्ति अपनी परम चेतना के साथ एक हो जाता है। यह वह बिंदु है जहाँ व्यक्तिगत आत्मा भूमा आत्मा से मिलती है, जहाँ 'मैं' 'हम' में विलीन हो जाता है, और जहाँ जीवन का अंतिम लक्ष्य प्राप्त होता है।


​सहस्रार को अक्सर एक हजार श्वेत पंखुड़ियों वाले चमकदार कमल के रूप में चित्रित किया जाता है, जो असीमित ज्ञान, शुद्धता और दिव्य चेतना का प्रतीक है। यह कोई रंग या तत्व से जुड़ा नहीं है, जैसा कि निचले चक्रों के साथ होता है, क्योंकि यह सभी तत्वों और रंगों से परे है। यह शुद्ध प्रकाश, असीम स्थान और सर्वोच्च जागरूकता का क्षेत्र है। जब यह चक्र सक्रिय होता है, तो व्यक्ति को ब्रह्म के साथ गहन संबंध, गहरी शांति और असीम आनंद का अनुभव होता है।

​इस चक्र को 'शीर्ष चक्र' भी कहा जाता है क्योंकि यह हमारे सिर के मुकुट पर स्थित है, जो हमारी पहचान, हमारे 'अहं' का केंद्र भी है। हालाँकि, सहस्रार का जागरण इस अहंकार से परे जाने और एक उच्च, अधिक समावेशी पहचान को अपनाने का प्रतीक है। यह वह स्थान है जहाँ सभी निचले चक्रों की ऊर्जाएँ एकत्रित होती हैं और एकीकृत होती हैं, जिससे एक पूर्ण और समग्र आत्म का उदय होता है।


​सहस्रार चक्र का जागरण एक 'महामिलन' का प्रतीक है – शिव और शक्ति का मिलन, पुरुष और प्रकृति का मिलन, अणु चैतन्य और भूमा चैतन्य का मिलन। कुंडलिनी शक्ति, जो मूलाधार चक्र में सुप्त अवस्था में रहती है, जब सभी निचले चक्रों से होकर सहस्रार तक पहुँचती है, तो यह परमात्मा के साथ एकाकार हो जाती है। यह द्वैत से अद्वैत की यात्रा है, जहाँ साधक यह अनुभव करता है कि वह ब्रह्मांड से अलग नहीं, बल्कि स्वयं ब्रह्मांड का एक अभिन्न अंग है।

​यह 'पूर्णत्व की अवस्था' है। जीवन के सभी उद्देश्य, सभी प्रश्न, सभी इच्छाएँ इस बिंदु पर आकर शांत हो जाती हैं। अब कुछ भी प्राप्त करने के लिए शेष नहीं रहता, क्योंकि साधक ने स्वयं ही परम को प्राप्त कर लिया है। यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति अपनी वास्तविक प्रकृति को पहचानता है – शुद्ध, असीम, और आनंदमय। यह मुक्ति, निर्वाण या मोक्ष की अवस्था है, जहाँ जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है और व्यक्ति शाश्वत शांति में स्थित हो जाता है।


​मनुष्य का जीवन लक्ष्य केवल भौतिक सुख-सुविधाएँ प्राप्त करना नहीं, बल्कि स्वयं को जानना और अपनी परम क्षमता को साकार करना है। सहस्रार चक्र का जागरण इसी 'जीवन लक्ष्य की प्राप्ति' का मार्ग प्रशस्त करता है। जब यह चक्र सक्रिय होता है, तो व्यक्ति को गहरी अंतर्दृष्टि, सहज ज्ञान और सार्वभौमिक ज्ञान का अनुभव होता है। वह जीवन के गहरे अर्थ को समझता है, और उसका अस्तित्व अधिक उद्देश्यपूर्ण और सार्थक हो जाता है।

​सहस्रार की साधना सभी आध्यात्मिक साधनाओं का अंतिम उद्देश्य है। यह 'साधना की सिद्धि' है।  जो मन को शांत करने, शरीर को शुद्ध करने और ऊर्जा को ऊपर उठाने में मदद करती हैं। यह एक लंबी और धैर्यपूर्ण यात्रा है, जिसके लिए समर्पण, अनुशासन और गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।


​सहस्रार चक्र को जागृत करने के लिए सीधे इस पर ध्यान केंद्रित करना अक्सर प्रभावी नहीं होता, क्योंकि यह निचले चक्रों की शुद्धता और संतुलन पर निर्भर करता है। साधना का मार्ग नीचे से ऊपर की ओर बढ़ता है:

​मूलाधार चक्र (भूमंडल): सुरक्षा, स्थिरता और मूल आवश्यकताओं को पूरा करना।

​स्वाधिष्ठान चक्र (जलमंडल): भावनाएँ, रचनात्मकता और आनंद।

​मणिपुर चक्र (अग्नि मंडल): इच्छाशक्ति, आत्मविश्वास और व्यक्तिगत शक्ति।

​अनाहत चक्र (सौरमंडल): प्रेम, करुणा और क्षमा।

​विशुद्ध चक्र (नक्षत्र मंडल): संचार, सत्य और आत्म-अभिव्यक्ति।

​जब ये सभी चक्र संतुलित और सक्रिय हो जाते हैं, तब कुंडलिनी ऊर्जा आज्ञा चक्र से होकर सहस्रार चक्र में प्रवेश करती है।

​जब सहस्रार चक्र जागृत होता है, तो व्यक्ति को कई असाधारण अनुभव हो सकते हैं:

​ * असीम शांति और आनंद  : एक गहरी, अविचल शांति और परमानंद की भावना जो किसी बाहरी कारण पर निर्भर नहीं करती।

​ * भूमा चेतना  : यह अनुभव कि व्यक्ति भूमा से अलग नहीं, बल्कि उसका एक अभिन्न अंग है।

​ * सर्वज्ञता : सहज ज्ञान और गहरी अंतर्दृष्टि जो जीवन के रहस्यों को उजागर करती है।

​ * दिव्य प्रकाश का अनुभव  : सिर के ऊपर या अंदर एक चमकदार, सफेद प्रकाश का अनुभव।

​ * अहंभाव का विगलन* : व्यक्तिगत पहचान की भावना का विलय, और एक अधिक विशाल, समावेशी चेतना का अनुभव।

​ *मोक्ष की अनुभूति  : जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति और शाश्वत अस्तित्व की पहचान।

​सहस्रार चक्र का जागरण कोई अंत नहीं, बल्कि एक नए अस्तित्व की शुरुआत है – एक ऐसा अस्तित्व जो दिव्य चेतना से ओत-प्रोत है। यह हमें यह सिखाता है कि हम केवल शारीरिक प्राणी नहीं, बल्कि असीम संभावनाओं वाले आध्यात्मिक प्राणी हैं, जो अपनी परम प्रकृति को जानने और अनुभव करने के लिए यहाँ आए हैं। यह पूर्णता की यात्रा है, जहाँ आत्मा अपने स्रोत में विलीन हो जाती है, और जहाँ मानव जीवन अपने सर्वोच्च अर्थ को प्राप्त करता है।


(Supreme Position: The Science of the Ultimate End of Existence) 
मनुष्य का जीवन केवल शरीर और सांसों का खेल नहीं है, बल्कि एक गहन आध्यात्मिक यात्रा है। इस यात्रा का अंतिम लक्ष्य है परमपद, वह सर्वोच्च अवस्था जहाँ अस्तित्व अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। यह पद किसी भौतिक उपलब्धि का नाम नहीं, बल्कि चेतना की वह अंतिम स्थिति है जहाँ ज्ञान, शांति  और आनंद  का सागर उफनता है। चक्रों के ज्ञान के बाद, यह परमपद की ओर हमारी अगली छलांग है, जहाँ हम अध्यात्म के सबसे गूढ़ रहस्यों को सुलझाएंगे। इस यात्रा में हम केवल शब्दों का सहारा नहीं लेंगे, बल्कि दर्शन, विज्ञान और अध्यात्म के त्रिवेणी संगम से इस परम सत्य को समझने का प्रयास करेंगे।

(Nirvana: The extinguishing of the flame of existence) 

निर्वाण शब्द का सीधा अर्थ है 'बुझ जाना' या 'शांत हो जाना'। यह शब्द मुख्य रूप से बौद्ध धर्म से जुड़ा है, जहाँ इसे दुःख की समाप्ति और तृष्णा के शमन की अवस्था माना जाता है। यह कोई शून्य या अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि अस्तित्व की उस लौ का बुझना है जो अहंकार, इच्छाओं और सांसारिक बंधनों से जल रही थी।

दार्शनिक रूप से, निर्वाण उस अवस्था को दर्शाता है जहाँ व्यक्ति का 'मैं' (अहंकार) पूरी तरह से विलीन हो जाता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार, दुःख का मूल कारण तृष्णा (craving) है, जो जन्म-मरण के चक्र (संस्कार) को चलाती है। जब यह तृष्णा पूरी तरह समाप्त हो जाती है, तो पुनर्जन्म का चक्र रुक जाता है और व्यक्ति निर्वाण को प्राप्त करता है। यह अवस्था न तो जन्म है, न मृत्यु, न ही कोई अस्तित्व। यह उस पार की स्थिति है जहाँ द्वैत (duality) का अंत होता है।


आधुनिक विज्ञान इसे न्यूरोलॉजिकल और साइकोलॉजिकल अवस्था के रूप में देख सकता है। ध्यान और साधना के गहरे अभ्यास से मस्तिष्क की तरंगों (brain waves) में परिवर्तन होता है। न्यूरोसाइंस के अनुसार, जब व्यक्ति अहंकार को त्यागता है, तो मस्तिष्क के उन हिस्सों की गतिविधि कम हो जाती है जो आत्म-पहचान (self-identity) और निर्णय लेने से जुड़े हैं। यह अवस्था मन को शांत करती है, तनाव को कम करती है, और व्यक्ति को एक गहन शांति का अनुभव कराती है। इसे एक ऐसी अवस्था के रूप में देखा जा सकता है जहाँ मन की चंचल प्रकृति शांत हो जाती है, और चेतना अपने मूल स्वरूप में लौट आती है।


आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, निर्वाण अनित्य (impermanent) से मुक्ति है। यह संसार की असारता (worthlessness) को जानकर, उससे वैराग्य धारण करने की प्रक्रिया है। यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति अपनी आत्मा को परमात्मा से अलग नहीं मानता, बल्कि दोनों के बीच के भेद को समाप्त कर देता है। यह मुक्ति की पहली सीढ़ी है, जहाँ व्यक्ति माया के भ्रम से मुक्त होकर आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ता है।

(Kaivalya Jnana: The Aloneness of Perfection) 

कैवल्य ज्ञान शब्द जैन दर्शन से लिया गया है। 'केवल' का अर्थ है 'अकेला' या 'विशुद्ध'। कैवल्य ज्ञान वह ज्ञान है जो आत्मा को उसके शुद्ध, पूर्ण और अकेले स्वरूप का अनुभव कराता है। यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा कर्मों के सभी बंधनों से मुक्त होकर अपनी अनंत ऊर्जा, अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन और अनंत आनंद को प्राप्त करती है।


जैन दर्शन के अनुसार, हमारी आत्मा जन्मों-जन्मों से कर्मों के सूक्ष्म कणों (कार्मिक रज) से ढकी हुई है। यह आवरण आत्मा के वास्तविक स्वरूप को छुपाता है। कैवल्य ज्ञान वह अवस्था है जहाँ यह आवरण पूरी तरह हट जाता है, और आत्मा अपनी पूर्णता में प्रकट होती है। यह अवस्था व्यक्ति को सर्वज्ञ (omniscient) बना देती है, जहाँ उसे भूत, भविष्य और वर्तमान का ज्ञान हो जाता है। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ आत्मा पूरी तरह से स्वतंत्र होकर अकेले ही आनंदित होती है।


वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, कैवल्य ज्ञान को ज्ञान और चेतना के उच्चतम स्तर के रूप में देखा जा सकता है। यह मस्तिष्क की उस क्षमता को दर्शाता है जहाँ वह धारणाओं (perceptions) और पूर्वाग्रहों (biases) से मुक्त होकर वास्तविकता को उसके शुद्धतम रूप में समझता है। यह एक ऐसी मानसिक स्थिति है जहाँ व्यक्ति की चेतना सभी सीमाओं से परे चली जाती है, और वह ब्रह्मांड के साथ एकरूपता का अनुभव करता है। यह मस्तिष्क के प्री-फ्रंटल कॉर्टेक्स (pre-frontal cortex) और लिंबिक सिस्टम (limbic system) के बीच के संतुलन को दर्शाता है, जहाँ तर्क और भावनाएं एक साथ काम करती हैं।


आध्यात्मिक रूप से, कैवल्य ज्ञान आत्म-साक्षात्कार की पराकाष्ठा है। यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति अपनी आत्मा को परमात्मा से अभिन्न जानता है। यह एक ऐसा ज्ञान है जो न केवल बुद्धि से प्राप्त होता है, बल्कि आत्मा के अनुभव से भी। यह ज्ञान व्यक्ति को सांसारिक सुख-दुःख से परे ले जाता है और उसे एक पूर्ण और शाश्वत आनंद का अनुभव कराता है। यह वह अंतिम लक्ष्य है जहाँ आत्मा अपनी स्वतंत्र सत्ता को स्थापित करती है।

(Purnatva: state of completeness) 

पूर्णत्व का अर्थ है संपूर्णता या पूर्णता की अवस्था। यह एक ऐसी स्थिति है जहाँ व्यक्ति न केवल आंतरिक रूप से, बल्कि बाहरी रूप से भी पूर्ण हो जाता है। यह केवल आध्यात्मिक मुक्ति नहीं है, बल्कि जीवन के हर आयाम में संतुलन और पूर्णता का अनुभव है।

पूर्णत्व की अवधारणा भारतीय दर्शन में व्यापक रूप से प्रचलित है। यह बताता है कि जीवन का उद्देश्य केवल मुक्ति पाना नहीं, बल्कि जीवन को उसकी पूर्णता में जीना है। यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ व्यक्ति अपनी सभी जिम्मेदारियों को निभाता है, अपने कर्मों को समर्पण भाव से करता है, और फिर भी उनसे बंधता नहीं है। यह भोग और त्याग के बीच का संतुलन है, जहाँ व्यक्ति संसार में रहते हुए भी उससे अलिप्त रहता है।

वैज्ञानिक रूप से, पूर्णत्व को समग्र कल्याण (holistic well-being) के रूप में समझा जा सकता है। यह एक ऐसी मानसिक और शारीरिक स्थिति है जहाँ व्यक्ति का मन, शरीर और चेतना एक साथ काम करते हैं। जब हम भावनात्मक, मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक रूप से संतुलित होते हैं, तो हम पूर्णता का अनुभव करते हैं। यह न्यूरोलॉजिकल और हार्मोनल संतुलन को भी दर्शाता है, जहाँ मस्तिष्क में डोपामाइन (dopamine), सेरोटोनिन (serotonin) और ऑक्सीटोसिन (oxytocin) जैसे सुखद रसायन संतुलित मात्रा में स्रावित होते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, पूर्णत्व परमात्मा के साथ एकरूपता का अनुभव है। यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति महसूस करता है कि वह ब्रह्मांड का एक अभिन्न अंग है। यह ज्ञान, कर्म और भक्ति का एक साथ मिलन है। एक पूर्ण व्यक्ति वह है जो जानता है कि उसका अस्तित्व केवल खुद तक सीमित नहीं, बल्कि पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त है। यह अवस्था व्यक्ति को प्रेम, करुणा और सेवा के भाव से भर देती है।

(Mukti and Moksha: Freedom from Bondage) 

मुक्ति और मोक्ष शब्द अक्सर पर्यायवाची के रूप में उपयोग किए जाते हैं, लेकिन इनके बीच सूक्ष्म अंतर है। मुक्ति (Liberation) का अर्थ है 'छुटकारा पाना', जबकि मोक्ष (Salvation) का अर्थ है 'परम स्थिति को प्राप्त करना'। मुक्ति भौतिकता से स्वतंत्रता है, जबकि मोक्ष आत्मिकता की ओर एक कदम है।

मुक्ति वह अवस्था है जहाँ आत्मा सांसारिक बंधनों (काम, क्रोध, लोभ, मोह) से मुक्त हो जाती है। यह जीवनकाल में भी प्राप्त की जा सकती है, जिसे जीवनमुक्ति कहते हैं, अर्थात सुगणत्व की प्राप्ति। मोक्ष वह अंतिम अवस्था है जहाँ आत्मा जन्म-मरण के चक्र से पूरी तरह से मुक्त हो जाती है और अपने मूल स्वरूप में लीन हो जाती है। अर्थात निर्गुणत्व की प्राप्ति। मोक्ष केवल व्यक्ति के लिए नहीं, बल्कि पूरी सृष्टि के लिए एक अंतिम लक्ष्य है। यह वह अवस्था है जहाँ आत्मा अज्ञान, दुःख और कर्म के बंधनों से पूरी तरह से मुक्त हो जाती है।

वैज्ञानिक रूप से, मुक्ति और मोक्ष को चेतना की स्थिति के रूप में देखा जा सकता है। मुक्ति मानसिक बंधनों से स्वतंत्रता है। जब हमारा मन अतीत की यादों और भविष्य की चिंताओं से मुक्त होता है, तो हम मानसिक मुक्ति का अनुभव करते हैं। यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ मन की अनावश्यक ऊर्जा समाप्त हो जाती है। मोक्ष को क्वांटम चेतना (quantum consciousness) के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ चेतना व्यक्ति के शरीर तक सीमित नहीं रहती, बल्कि ब्रह्मांडीय चेतना के साथ जुड़ जाती है। यह एक ऐसी अवस्था है जहाँ पर्सन, टाइम और स्पेस की अवधारणाएं महत्वहीन हो जाती हैं।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, मुक्ति माया के भ्रम से स्वतंत्रता है। यह संसार की वास्तविकता को समझकर उससे ऊपर उठने की प्रक्रिया है। जिसको सरल अर्थ में सगुण ब्रहम में मिलना कहते हैं। मोक्ष परमात्मा में विलीन होने की अवस्था है। यह आत्मा का परमात्मा के साथ मिलन है। जिस प्रकार एक बूंद सागर में मिलकर सागर बन जाती है, उसी प्रकार आत्मा मोक्ष प्राप्त कर परमात्मा में विलीन हो जाती है। सरल अर्थ में निर्गुण ब्रह्म मिलना है। यह वह अंतिम लक्ष्य है जहाँ द्वैत (duality) का अंत होता है और केवल अद्वैत (non-duality) ही शेष रहता है।

(Concept of Saguna, Nirguna and Tarak Brahma) 

परमपद को समझने के लिए, हमें ब्रह्म के विभिन्न स्वरूपों को समझना होगा। ब्रह्म, परम सत्ता है, जो इस सृष्टि का मूल है। इसे मुख्य रूप से तीन रूपों में देखा जाता है।


'सगुण' का अर्थ है 'गुणों सहित' अथवा गुणाधिन। सगुण ब्रह्म वह परम सत्ता है जिसे गुणों, रूपों और विशेषताओं के साथ जाना जाता है। 

  सगुण ब्रह्म की अवधारणा कर्मियों के लिए है। यह कर्म मार्ग का आधार है, जहाँ कर्मी ईश्वर की व्यवस्था, सिद्धांत एवं नियम स्वरूप से जुड़कर कर्तव्य, कर्म और समर्पण का अनुभव करता है।

  मनोवैज्ञानिक रूप से, सगुण ब्रह्म की अवधारणा मन को एकाग्र करने में मदद करती है। किसी अवधारणा या विचारधारा पर ध्यान केंद्रित करने से मन शांत होता है और भावनात्मक जुड़ाव बढ़ता है।

 * यह शुरुआती साधकों के लिए एक सीढ़ी है, जहाँ वे अमूर्त (abstract) को समझने से पहले मूर्त (concrete) का सहारा लेते हैं।


'निर्गुण' का शाब्दिक अर्थ है 'गुणों से रहित' जबकि गुढ़ार्थ गुणाधीश होता है। जहाँ गुण होते है लेकिन उसका कोई प्रकाश नहीं होता है। इसलिए निर्गुण ब्रह्म वह परम सत्ता है जिसका न कोई रूप है, न कोई गुण, न कोई आकार कहा जाता है। यह अव्यक्त, निराकार और अनंत है। यह ज्ञान मार्ग है, जहाँ व्यक्ति परमब्रह्म के ज्ञेय व ध्येय के रुप में पाता है। 

 यह ज्ञान मार्ग का आधार है। ज्ञानी साधक इसे केवल एक अमूर्त ऊर्जा, चेतना या अस्तित्व के रूप में मानते हैं। यह वह अंतिम सत्य है जो सभी नामों और रूपों से परे है।

 भौतिकी में, इसे शुद्ध ऊर्जा या क्वांटम क्षेत्र के रूप में देखा जा सकता है जो इस ब्रह्मांड का मूल है। यह वह अवस्था है जहाँ सभी कण और तरंगें एक साथ मौजूद हैं, लेकिन उनका कोई निश्चित रूप नहीं है।

 यह वह परम सत्य है जिसे केवल गहरे ध्यान और आत्म-अनुभव से ही समझा जा सकता है। यह अद्वैत वेदांत का मूल है, जहाँ आत्मा और परमात्मा के बीच कोई भेद नहीं है।

 
'तारक' का अर्थ है 'तारने वाला' या 'पार कराने वाला'। तारक ब्रह्म वह शक्ति है जो साधक को इस संसार के सागर से पार कराती है। इसे गुरु या सद्गुरु के रूप में देखा जाता है जो व्यक्ति को ज्ञान का प्रकाश देता है। यह भक्ति मार्ग का आधार है, जहाँ भक्त परमपुरुष के व्यक्तिगत स्वरूप से जुड़कर प्रेम, भक्ति और समर्पण का अनुभव करता है।

यह वह सेतु है जो सगुण और निर्गुण के बीच का अंतर कम करता है। यह वह गुरु है जो साधक को सही मार्ग दिखाता है, और उसे अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाता है। 

इसे एक ऊर्जा के हस्तांतरण के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ गुरु की उच्च चेतना शिष्य की चेतना को प्रभावित करती है। यह मस्तिष्क की न्यूरोप्लास्टिसिटी (neuroplasticity) को प्रभावित करता है, जिससे नई विचार प्रक्रियाएं बनती हैं।

 यह वह आध्यात्मिक शक्ति है जो किसी भी रूप में प्रकट हो सकती है और व्यक्ति को उसके लक्ष्य तक पहुंचाती है। यह वह आंतरिक प्रेरणा है जो व्यक्ति को साधना के लिए प्रेरित करती है।

(Paramapada: The ultimate expression of existence) 

अंत में, हम परमपद की अवधारणा पर लौटते हैं। परमपद वह अंतिम अवस्था है जहाँ निर्वाण, कैवल्य ज्ञान, पूर्णत्व, मुक्ति और मोक्ष सभी एक साथ मिल जाते हैं। यह कोई एक बिंदु नहीं, बल्कि एक अवस्था है जो सभी अवस्थाओं से परे है।

परमपद वह स्थिति है जहाँ व्यक्ति सगुण, निर्गुण और तारक ब्रह्म को एक ही सत्य के विभिन्न पहलू के रूप में देखता है। यह वह अवस्था है जहाँ कर्म, ज्ञान और भक्ति एक हो जाते हैं। एक परमपद प्राप्त व्यक्ति न तो संसार से भागता है, न ही उसमें लिप्त होता है। वह संसार में रहते हुए भी उससे ऊपर उठ जाता है। वह हर क्षण में जीवनमुक्ति का अनुभव करता है।

यह वह अवस्था है जहाँ अहंकार पूरी तरह से समाप्त हो जाता है, और व्यक्ति केवल एक चेतना के वाहक के रूप में रहता है। वह न केवल अपने लिए, बल्कि पूरी सृष्टि के लिए जीता है। उसका जीवन प्रेम, करुणा और सेवा से ओतप्रोत होता है।

परमपद कोई उपलब्धि नहीं है, बल्कि अस्तित्व का स्वाभाविक स्वरूप है। हम सभी परमपद की ओर बढ़ रहे हैं, भले ही हम इसे जानें या न जानें। यह हमारी आत्मा का घर है, जहाँ हम अपने मूल स्वरूप में लौटते हैं।
इस यात्रा में, हम निर्वाण को दुःख से मुक्ति के रूप में देखते हैं, कैवल्य ज्ञान को ज्ञान की पराकाष्ठा के रूप में, पूर्णत्व को जीवन के संतुलन के रूप में, मुक्ति को बंधनों से स्वतंत्रता के रूप में, और मोक्ष को परम विलय के रूप में। ये सभी मिलकर परमपद का निर्माण करते हैं, वह सर्वोच्च अवस्था जहाँ हम अपनी चेतना की अंतिम अभिव्यक्ति को प्राप्त करते हैं।

आइए, इस ज्ञान को केवल शब्दों तक सीमित न रखें, बल्कि इसे अपने जीवन में उतारें। क्योंकि परमपद की यात्रा केवल पढ़ने से नहीं, बल्कि जीने से पूरी होती है।

 
बाबा का मिशन और संगठन : एक गहन विश्लेषण                                           (Baba's Mission and Organization : An In-depth Analysis)


जीवन और दर्शन के हर मोड़ पर हमें यह समझने की आवश्यकता होती है कि हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं और हमारा अंतिम लक्ष्य क्या है। यह प्रश्न व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक और आध्यात्मिक आंदोलनों तक हर जगह महत्वपूर्ण है। जब हम परम पूज्य गुरुदेव श्री श्री आनंदमूर्ति जी, जिन्हें हम प्रेम से बाबा कहते हैं, के मिशन की बात करते हैं, तो यह प्रश्न और भी गहन हो जाता है। उनके द्वारा स्थापित 'आनंद मार्ग' केवल एक संगठन नहीं, बल्कि एक व्यापक और चिरस्थायी मिशन है। यह लेख इसी सूक्ष्म अंतर को स्पष्ट करने का प्रयास करेगा कि बाबा का मिशन क्या है और उनके द्वारा निर्मित संगठन या संस्थाएँ किस तरह से उस मिशन का एक हिस्सा मात्र हैं।


बाबा का मिशन एक अमूर्त अवधारणा है, जो समय और स्थान की सीमाओं से परे है। जैसा कि कहा गया है, "बाबा का मिशन - अमूर्त है, मूर्त तो युग की धारा का परिणाम है।" यह समझना अत्यंत आवश्यक है। मूर्त वस्तुएँ, जैसे कि संगठन, संस्थाएँ, या कोई विशेष कार्यप्रणाली, समय के साथ बदलती रहती हैं। वे युग की ज़रूरतों के अनुसार नया रूप लेती हैं, परिपक्व होती हैं, और कभी-कभी समाप्त भी हो जाती हैं। लेकिन मिशन, जो एक विचार, एक उद्देश्य, एक आदर्श है, वह अविनाशी होता है।

बाबा का मिशन नव्य मानवतावाद की स्थापना है, जिसमें मानवता के साथ-साथ इस ब्रह्मांड के हर जीव के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना समाहित है। यह एक ऐसा समाज बनाने का लक्ष्य है जहाँ कोई भी प्राणी दुखी न हो और सब सुखी हों। इसके साथ ही, उनका मिशन प्रउत (Progressive Utilization Theory) की स्थापना करना है। यह सिर्फ एक आर्थिक या सामाजिक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक समग्र जीवन-दर्शन है। यह मानता है कि इस संसार के सभी संसाधन सबके लिए हैं, और उनका उपयोग इस तरह से होना चाहिए कि किसी का शोषण न हो और सभी का विकास हो सके। ये दोनों ही मिशन मूर्त नहीं हैं; ये विचार और आदर्श हैं, जिन्हें हम अपने जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं।


संगठन, चाहे वह आनंद मार्ग प्रचारक संघ हो, अन्य संबंधित संस्थान हों, या प्रउत, सेवा, धर्म, सुरक्षा के लिए बने संस्थान हों, वे सभी बाबा के मिशन को साकार करने के लिए बनाए गए साधन मात्र हैं। वे एक माध्यम हैं जिसके ज़रिए बाबा का विचार लोगों तक पहुँचाया जाता है, और उनके आदर्शों को व्यवहार में लाया जाता है। जैसा कि कहा गया है, "प्रचारक संघ तो उसके लिए एक निमित्त है," "संगठन तो उसका एक निमित्त है," और "संस्थान तो उसके निमित्त है।"

यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि ये संगठन लचीले होते हैं। वे युग की ज़रूरतों के अनुसार बदल सकते हैं। यदि कोई संगठन अपने मूल उद्देश्य से भटक जाए, तो वह अपनी प्रासंगिकता खो देता है। संगठन को अपने मूल मिशन के प्रति हमेशा समर्पित रहना चाहिए। यदि वह स्वयं को मिशन से बड़ा समझने लगे, तो यह एक बड़ी भूल होगी।

बाबा ने स्वयं कहा था, "मैंने अपने आप को अपने मिशन में मिला दिया है, संगठन में मिलाने की बात नहीं कही थी।" यह कथन इस बात को स्पष्ट करता है कि बाबा के लिए संगठन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण उनका मिशन था। उन्होंने अपने जीवन को उस अमूर्त आदर्श को समर्पित किया, न कि किसी मूर्त संस्था को।


यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई है कि कई बार लोग संगठन को ही मिशन मान बैठते हैं। जब ऐसा होता है, तो संघर्ष शुरू हो जाता है। व्यक्ति संगठन की सीमाओं में सिमटकर रह जाता है और बाबा के व्यापक दर्शन को भूल जाता है। जो लोग संगठन के नियमों और रीति-रिवाजों को बाबा के मिशन से बड़ा मानने लगते हैं, वे अपनी सोच को संकुचित कर लेते हैं। यह बहुत स्पष्ट रूप से कहा गया है, "जो बाबा के मिशन को अपनी अल्प सोच में नोचने लगे हुए हैं, वह नाली के कीड़े बनने की यात्रा पर हैं।" यह एक कठोर सत्य है। यदि हम बाबा के मिशन को अपनी छोटी-छोटी स्वार्थों या संगठनात्मक सीमाओं में कैद करने का प्रयास करते हैं, तो हम उस महान उद्देश्य से भटक जाते हैं। यह केवल आध्यात्मिक पतन की ओर ले जाता है।
एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि "जिनको लगता है कि बाबा के मिशन से संगठन बड़ा है, वह नादान है।" यह बात सिर्फ आनंद मार्ग के संदर्भ में ही नहीं, बल्कि हर बड़े आंदोलन के संदर्भ में सच है। संगठन साधन है, साध्य नहीं। यदि साधन को ही साध्य मान लिया जाए, तो पूरी यात्रा निरर्थक हो जाती है।


बाबा का मिशन सिर्फ सामाजिक या आर्थिक बदलाव तक ही सीमित नहीं, बल्कि यह एक गहरी आध्यात्मिक क्रांति भी है। "बाबा का मिशन - भक्ति की धारा बहाना है, गोष्ठी उसके निमित्त है।" यह भक्ति की धारा हर व्यक्ति के भीतर बहती है। इसका संबंध किसी बाहरी दिखावे या नियम से नहीं, बल्कि यह व्यक्ति के हृदय की गहराई से जुड़ा है। गोष्ठियाँ और अन्य आध्यात्मिक सभाएँ सिर्फ इस भक्ति को पोषण देने का माध्यम हैं।

इसलिए, जो लोग बाबा के चिंतन को व्यक्तिगत साधना के रूप में अपनाते हैं और अपने जीवन में इसे प्रतिफलित करते हैं, वे भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि संगठनात्मक कार्यों में लगे लोग। कहा गया है, "अतः जो संस्था के किसी भी स्वरूप के साथ बाबा के चिंतन को प्रतिफलित करने लगे हैं अथवा व्यक्तिगत बाबा के लिए काम कर रहे हैं, समान आदरणीय हैं।" यह समानता का सिद्धांत बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह हमें यह सिखाता है कि हम किसी भी रूप में बाबा के मिशन से जुड़ सकते हैं, और हमारा योगदान उतना ही मूल्यवान है।


जीवन में कभी-कभी ऐसी परिस्थितियाँ आ सकती हैं जब हमें मिशन और संगठन के बीच में से एक को चुनना पड़े। यह एक कठिन परीक्षा हो सकती है। लेकिन बाबा के दर्शन के अनुसार, "संगठन एवं मिशन में से एक चुनने की बारी आए तो हर बार मिशन को चुनना ही धर्म है।" यह धर्म सिर्फ एक कर्तव्य नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक समझ है। जब हम मिशन को चुनते हैं, तो हम बाबा के व्यापक, अमूर्त और शाश्वत आदर्शों को चुनते हैं। हम एक ऐसी यात्रा को चुनते हैं जो हमें व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों स्तरों पर मुक्ति और विकास की ओर ले जाती है।

इस प्रकार, हमें हमेशा इस बात को याद रखना चाहिए कि संगठन एक साधन है, और मिशन हमारा अंतिम लक्ष्य। हमें संगठन के नियमों का पालन करना चाहिए, लेकिन सिर्फ इसलिए क्योंकि वे मिशन को आगे बढ़ाते हैं। हमें संगठन से प्रेम करना चाहिए, लेकिन मिशन को कभी नहीं भूलना चाहिए। बाबा का मिशन एक ऐसी प्रकाश की किरण है, जो हमें अंधकार से मुक्ति की ओर ले जाती है, और हमें उस अमूर्त सत्य से जोड़ती है जो चिरस्थायी है। हमारा कर्तव्य है कि हम इस प्रकाश को अपने जीवन में जलाएँ और इसे दूसरों तक फैलाएँ, बिना किसी संकुचित विचार या संगठनात्मक सीमाओं में उलझे। यही बाबा के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी और यही हमारे अस्तित्व का परम लक्ष्य है।


योग्य व्यक्ति की विवशता: एक संकट का संकेत (The helplessness of a capable person: A sign of crisis)
"योग्य एवं प्रतिष्ठित व्यक्ति जब विवश हो जाए, तो समझना चाहिए कि संकट उस देश, समाज अथवा संस्था के आसपास ही मंडरा रहा है।" यह कथन अपने आप में एक गहन सत्य को समेटे हुए है। किसी भी राष्ट्र, समाज या संस्था की उन्नति और स्थिरता उसके गुणवान, चरित्रवान और योग्य व्यक्तियों पर निर्भर करती है। जब ऐसे लोग अपनी योग्यता और क्षमता का सही उपयोग नहीं कर पाते, जब उनके विचारों और योगदान को महत्व नहीं दिया जाता, और जब उन्हें परिस्थितिजन्य दबावों के कारण अपनी राह बदलनी पड़ती है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उस व्यवस्था की नींव हिल रही है। यह स्थिति न केवल व्यक्ति के लिए निराशाजनक होती है, बल्कि यह पूरे तंत्र के लिए घातक सिद्ध होती है।
प्राचीन भारतीय दर्शन में इस बात को बड़े विस्तार से समझाया गया है। चाणक्य ने अपने नीतिशास्त्र में कहा है कि किसी भी राज्य की समृद्धि उसके सुयोग्य मंत्रियों और बुद्धिमान नागरिकों पर निर्भर करती है। यदि राजा अयोग्य है या योग्य लोगों की उपेक्षा करता है, तो राज्य का पतन निश्चित है। इसी तरह, महाभारत में भीष्म पितामह ने धर्म और न्याय के ह्रास को राज्य के पतन का कारण बताया है। योग्य व्यक्तियों का सम्मान और उनकी भागीदारी एक स्वस्थ समाज का लक्षण है।

> यत्र विद्वज्जनो यत्नाद् गुणवांसम् न शोभते।
> तत्र दोषो महान् भवति, न तस्य स्थानं शोभते।

अर्थात्, जहाँ विद्वान् और गुणवान व्यक्ति को यत्न करने पर भी सम्मान नहीं मिलता, वहाँ यह एक महान दोष होता है और वह स्थान शोभा नहीं देता। यह श्लोक सीधे तौर पर योग्य व्यक्ति की उपेक्षा के परिणामों को दर्शाता है। 

इसी प्रकार, यह भी कहा गया है:

> न स सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः, वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
> नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति, न तत्सत्यं यच्छलेनाभ्युपेतम्।।

इसका तात्पर्य है कि वह सभा, सभा नहीं है जहाँ वृद्ध (अनुभवी) नहीं हैं; वे वृद्ध नहीं हैं जो धर्म की बात नहीं करते; वह धर्म नहीं है जिसमें सत्य नहीं है; और वह सत्य नहीं है जो छल से मिला हो। योग्य व्यक्तियों की विवशता का सीधा संबंध इस सत्य से है कि जब उन्हें अपनी बात कहने और धर्म (कर्तव्य) का पालन करने से रोका जाता है, तो उस समाज का नैतिक पतन शुरू हो जाता है।


जब हम आधुनिक संदर्भ में इस विषय पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। एक कंपनी में, जब एक प्रतिभाशाली इंजीनियर को उसकी विशेषज्ञता के बजाय चाटुकारिता के कारण आगे बढ़ने दिया जाता, तो वह अपनी क्षमताओं को पूर्ण रूप से उपयोग नहीं कर पाता। इससे वह निराश होकर या तो कंपनी छोड़ देता है या उसकी उत्पादकता घट जाती है। इसका परिणाम कंपनी के लिए नुकसान होता है। इसी तरह, राजनीति में जब ईमानदार और योग्य नेताओं को गुंडागर्दी और भ्रष्टाचार के कारण पीछे हटना पड़ता है, तो लोकतंत्र कमजोर होता है। यह एक ऐसा दुष्चक्र है, जहाँ अयोग्य लोग सत्ता में आ जाते हैं और योग्य लोगों के लिए कोई स्थान नहीं बचता।

> योग्य पुरुष का मान जहाँ, घटत रहे दिन-रात।
> समझो उस समाज का, होने वाला घात।।

यह दोहा सीधे-सीधे चेतावनी देता है कि योग्य व्यक्तियों के सम्मान में कमी समाज के पतन का कारण बनती है। 

एक और दोहा इस पर प्रकाश डालता है:

> गुनियन को गुन देख के, अज्ञानी गर हँसे।
> पतन उसका निश्चित है, काल शीघ्र ही कसे।।

अर्थात्, जब अज्ञानी लोग गुणवान व्यक्तियों का उपहास करते हैं, तो उनका पतन निश्चित है। यह एक प्राकृतिक नियम है।
योग्य व्यक्तियों की विवशता के कई कारण हो सकते हैं। इनमें पक्षपात, भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार, और योग्यता के बजाय चाटुकारिता को महत्व देना प्रमुख हैं। जब किसी संस्था में काम के बजाय चाटू लोगों की जय-जयकार होती है, तो यह योग्य लोगों के मन में कुंठा पैदा करती है। वे देखते हैं कि उनकी मेहनत और ईमानदारी का कोई मूल्य नहीं है, जबकि अयोग्य व्यक्ति केवल संबंधों के बल पर आगे बढ़ रहा है। इस स्थिति को देखकर उनका मनोबल टूट जाता है और वे या तो मुखौटा पहनकर रहना सीख लेते हैं या अपनी योग्यता को दबाकर बैठ जाते हैं।

 जब एक योग्य व्यक्ति को लगता है कि उसकी दाल नहीं गल रही, तो वह हाथ-पाँव छोड़ देता है। यह स्थिति उस समय आती है जब उसकी सारी मेहनत पानी में चली जाती है। एक कहावत है, "कोयला होए न उजला, सौ मन साबुन धोए", जिसका अर्थ है कि अयोग्य व्यक्ति को चाहे कितना भी मौका दिया जाए, वह अपनी प्रकृति नहीं बदलता, जबकि योग्य व्यक्ति की अनदेखी समाज के लिए घातक होती है।

प्रसिद्ध ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था:

> "The nation that forgets its defenders will itself be forgotten."

यद्यपि यह कथन सैनिकों के संदर्भ में कहा गया था, इसका व्यापक अर्थ यह है कि जो समाज अपने योग्य और समर्पित लोगों की अनदेखी करता है, वह खुद इतिहास के पन्नों से मिट जाता है। 

एक और उद्धरण है:

> "A society that does not respect its wise men, is a society that has no wisdom."

यह कथन स्पष्ट रूप से बताता है कि जिस समाज में बुद्धिमान व्यक्तियों का सम्मान नहीं होता, वह समाज स्वयं बुद्धिहीन हो जाता है। जब योग्य व्यक्ति मजबूर होते हैं, तो वे अपनी प्रतिभा को या तो छिपाने के लिए मजबूर होते हैं या ऐसी जगह चले जाते हैं जहाँ उनकी कद्र हो। इसे "ब्रेन ड्रेन" (brain drain) भी कहा जाता है, जहाँ योग्य लोग अपने देश, समाज या संस्था को छोड़कर चले जाते हैं। यह स्थिति उस देश के लिए अत्यधिक हानिकारक होती है।

निष्कर्ष में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी भी समाज, देश या संस्था की सच्ची प्रगति तब तक नहीं हो सकती जब तक वह अपने योग्य और प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सम्मान नहीं करती और उन्हें उनकी क्षमताओं के अनुसार कार्य करने का अवसर नहीं देती। जब ऐसे लोग विवशता की बेड़ियों में जकड़ जाते हैं, तो यह अंधेरे की आहट होती है। यह एक अलार्म की तरह है जो हमें यह बताता है कि यदि हमने समय रहते इन कारणों को दूर नहीं किया, तो पतन निश्चित है। इसलिए, यह हमारा सामूहिक कर्तव्य है कि हम ऐसी व्यवस्था का निर्माण करें जहाँ योग्यता की कद्र हो, जहाँ सम्मान कार्य से मिले न कि चाटुकारिता से, और जहाँ हर योग्य व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के आगे बढ़ने का मौका मिले। तभी हम एक स्वस्थ, समृद्ध और प्रगतिशील समाज का निर्माण कर सकते हैं।

यह आवश्यक है कि हम इस बात को समझें कि योग्य व्यक्ति की विवशता मात्र उसकी व्यक्तिगत समस्या नहीं, बल्कि यह पूरे समाज की नाकामी है। यह एक ऐसी बीमारी है जिसका यदि समय पर इलाज न किया जाए तो यह पूरे शरीर को खोखला कर देती है। हमें अपनी संस्थाओं और समाज में ऐसी संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए जहाँ गुणों की पूजा हो, न कि पदों की।

 प्रस्तुति : आनन्द किरण
प्रउत की दृष्टि में जनसंख्या समस्या के  चार समाधान (Prout's View: Four Solutions to the Population Problem.)

आज के समय में जनसंख्या वृद्धि को अक्सर एक गंभीर समस्या के रूप में देखा जाता है, जो गरीबी, बेरोजगारी और संसाधनों की कमी का मूल कारण मानी जाती है। पारंपरिक अर्थशास्त्र और सामाजिक सिद्धांतों ने इसे एक बोझ के रूप में चित्रित किया है, जिसके परिणामस्वरूप कई राष्ट्रों ने जनसंख्या नियंत्रण के कठोर उपाय अपनाए हैं। हालाँकि, प्रउत (प्रगतिशील उपयोगिता सिद्धांत) एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। प्रउत का मानना है कि मानव शक्ति, अगर सही ढंग से उपयोग की जाए, तो वह बोझ नहीं, बल्कि एक मूल्यवान संसाधन है। असली समस्या जनसंख्या की मात्रा में नहीं, बल्कि उचित आर्थिक, जैविक, मनोवैज्ञानिक और बौद्धिक समाधानों की अनुपस्थिति में है। यह आलेख इसी दृष्टिकोण को विस्तार से समझाता है, यह दर्शाता है कि कैसे जनसंख्या को एक समस्या के बजाय एक अवसर में बदला जा सकता है।


जब जनसंख्या बढ़ती है, तो सबसे बड़ी चिंता भोजन और पोषण की होती है। प्रउत के अनुसार, यह चिंता तभी उत्पन्न होती है जब आर्थिक व्यवस्था शोषण पर आधारित होती है। प्रउत अर्थव्यवस्था का उद्देश्य सभी के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की गारंटी देना है, जिसमें पौष्टिक भोजन भी शामिल है। यह केवल पर्याप्त कैलोरी की उपलब्धता के बारे में नहीं है, बल्कि गुणवत्तापूर्ण और संतुलित आहार की उपलब्धता के बारे में है।

आर्थिक सम्पन्नता का अर्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की क्रय शक्ति इतनी हो कि वह अपने और अपने परिवार के लिए पौष्टिक भोजन खरीद सके। यह स्थानीय उत्पादन को बढ़ावा देकर, सहकारिता को मजबूत करके और शोषण-मुक्त वितरण प्रणाली स्थापित करके संभव है। जब लोगों के पास पर्याप्त आय होती है, तो वे केवल जीवित रहने के लिए संघर्ष नहीं करते, बल्कि अपने स्वास्थ्य और विकास पर ध्यान केंद्रित कर पाते हैं।


जनसंख्या का अच्छा स्वास्थ्य न केवल व्यक्तिगत कल्याण के लिए, बल्कि राष्ट्र के समग्र विकास के लिए भी महत्वपूर्ण है। एक अस्वस्थ समाज अपनी पूरी क्षमता का उपयोग नहीं कर सकता। जनसंख्या को एक समस्या के रूप में देखने के बजाय, हमें प्रत्येक व्यक्ति को स्वस्थ और मजबूत बनाने पर ध्यान देना चाहिए।
प्रउत के अनुसार, स्वास्थ्य केवल बीमारी की अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि एक समग्र अवस्था है जिसमें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य शामिल है। इसके लिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुलभ और किफायती बनाना आवश्यक है। स्वच्छ पानी, स्वच्छता, पौष्टिक भोजन और तनाव-मुक्त वातावरण प्रदान करके हम प्रत्येक व्यक्ति को सशक्त कर सकते हैं। जब लोग स्वस्थ होते हैं, तो वे समाज के उत्पादक सदस्य बन सकते हैं और आर्थिक विकास में योगदान दे सकते हैं।


जनसंख्या वृद्धि अक्सर तनाव, चिंता और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनती है। बेरोजगारी, गरीबी और असुरक्षा की भावना लोगों को मानसिक रूप से कमजोर कर देती है। प्रउत का मानना है कि जब व्यक्ति अनावश्यक तनाव और उद्वेग से मुक्त होते हैं, तो वे अपनी रचनात्मक और उत्पादक क्षमताओं का बेहतर उपयोग कर पाते हैं।

जनसंख्या को एक बोझ के रूप में देखने से लोगों में हीन भावना पैदा हो सकती है। इसके विपरीत, उन्हें उचित सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार के अवसर, सम्मानजनक जीवन और भविष्य की सुरक्षा का आश्वासन मिलना चाहिए। जब व्यक्ति सुरक्षित महसूस करते हैं, तो वे समाज और अपने परिवार के कल्याण के लिए अधिक योगदान देने को प्रेरित होते हैं।


जनसंख्या को एक बड़ी समस्या के रूप में देखने का एक और कारण यह है कि हम अक्सर शिक्षा के महत्व को नजरअंदाज कर देते हैं। एक शिक्षित और जागरूक आबादी अपने जीवन और समाज के लिए बेहतर निर्णय ले सकती है। जनसंख्या वृद्धि को एक अवसर के रूप में बदलने के लिए, हमें लोगों के बौद्धिक स्तर को बढ़ाना होगा।
प्रउत के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी देना नहीं, बल्कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। इसमें नैतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक मूल्यों को शामिल किया जाना चाहिए। जब लोग शिक्षित और बौद्धिक रूप से उन्नत होते हैं, तो वे न केवल अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान कर सकते हैं, बल्कि नवाचार, रचनात्मकता और सामाजिक प्रगति में भी योगदान दे सकते हैं। 


जनसंख्या वृद्धि स्वयं में कोई समस्या नहीं है। असली समस्या हमारे सामाजिक और आर्थिक ढांचे की कमियों में निहित है। जनसंख्या को एक बोझ मानने के बजाय, हमें प्रत्येक व्यक्ति को एक मूल्यवान संसाधन के रूप में देखना चाहिए।

प्रउत का दृष्टिकोण एक मौलिक बदलाव की मांग करता है: हमें जनसंख्या नियंत्रण के बजाय मानव शक्ति के सही उपयोग पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जब हम आर्थिक सम्पन्नता, बेहतर स्वास्थ्य, मानसिक सुरक्षा और उन्नत बौद्धिक स्तर पर ध्यान देंगे, तो जनसंख्या एक समस्या के बजाय एक शक्तिशाली शक्ति बन जाएगी जो मानव समाज को नई ऊंचाइयों पर ले जाएगी। अतः, हमें इस सोच से बाहर निकलना होगा कि जनसंख्या समस्या है, और इसके बजाय उन समाधानों पर ध्यान देना होगा जो प्रत्येक व्यक्ति को एक सुखी, स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने में सक्षम बना सकें।





Today, population growth is often seen as a serious problem, considered to be the root cause of poverty, unemployment and lack of resources. Traditional economics and social theories have portrayed it as a burden, resulting in many nations adopting drastic measures of population control. However, Prout (Progressive Utility Theory) presents a revolutionary view. Praut believes that human power, if used correctly, is not a burden, but a valuable resource. The real problem lies not in the quantity of population, but in the absence of proper economic, biological, psychological and intellectual solutions. This article explains this view in detail, showing how population can be turned into an opportunity rather than a problem.

*1. There should be economic prosperity in the society, so that people can have access to nutritious food*

When the population grows, the biggest concern is food and nutrition. According to Prout, this concern arises only when the economic system is based on exploitation. The aim of the Prout economy is to guarantee basic needs for everyone, including nutritious food. It is not just about the availability of sufficient calories, but about the availability of a quality and balanced diet.

Economic prosperity means that every person has enough purchasing power to buy nutritious food for himself and his family. This is possible by promoting local production, strengthening cooperatives and establishing an exploitation-free distribution system. When people have adequate income, they do not struggle only to survive, but are able to focus on their health and development.

*2. Every individual should have good health*

The good health of the population is important not only for individual well-being, but also for the overall development of the nation. An unhealthy society cannot utilise its full potential. Instead of looking at population as a problem, we should focus on making each individual healthy and strong.

According to Prout, health is not just the absence of disease, but a holistic state that includes physical, mental and spiritual health. For this, it is necessary to make public health services accessible and affordable. By providing clean water, sanitation, nutritious food and a stress-free environment, we can empower each individual. When people are healthy, they can become productive members of society and contribute to economic development.

*3. Keeping the general public free from unnecessary worry and anxiety*

Population growth often causes stress, anxiety and mental health problems. Unemployment, poverty and a feeling of insecurity make people mentally weak. Praut believes that when individuals are free from unnecessary stress and anxiety, they are able to better use their creative and productive abilities.

Looking at population as a burden can create a feeling of inferiority in people. On the contrary, it is necessary to provide them with proper social and economic security. Every individual should get the assurance of employment opportunities, dignified life and future security. When individuals feel secure, they are motivated to contribute more towards the welfare of society and their families.

*4. Intellectual level of people has to be improved*

Another reason for seeing population as a big problem is that we often ignore the importance of education. An educated and aware population can make better decisions for their lives and society. To turn population growth into an opportunity, we have to increase the intellectual level of people.

According to Prout, the purpose of education is not just to provide jobs but to develop the individual all round. It should include moral, spiritual and social values. When people are educated and intellectually advanced, they can not only solve their personal problems but also contribute to innovation, creativity and social progress.

Population growth is not a problem in itself. The real problem lies in the shortcomings of our social and economic structure. Instead of considering population a burden, we should see each individual as a valuable resource.

Prout's approach calls for a fundamental shift: we should focus on the right use of human power instead of population control. When we focus on economic prosperity, better health, mental security and improved intellectual level, population will become a powerful force rather than a problem that will take human society to new heights. So, we have to get out of the mindset that population is a problem, and instead focus on solutions that can enable each individual to live a happy, healthy and productive life.