चौथा विषय: तत्व धारणा में दृढ़ कैसे बनें? (Fourth Topic: How to become firm in Tattv Dharana?)
           आओ साधना करते हैं। 

तत्व धारणा साधना वह प्रक्रिया है जिसमें साधक सृष्टि के पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) को अपने मन में पूर्ण रूप से धारण करता है। यह सम्पूर्ण सृष्टि इन्हीं पंच तत्वों का सम्मिलित स्वरूप है, और मनुष्य सामान्यतः इनके प्रपंचों (विकारों और प्रभावों) में लिप्त रहता है। ये प्रपंच मनुष्य के मन पर गहरा प्रभाव डालते हैं। इस साधना का उद्देश्य इन्हीं प्रभावों से मुक्ति पाना और इन पंच महाभूतों की शुद्ध शक्ति को अपने मन में समाहित करना है।

प्राणायाम साधना पर चर्चा के बाद उन्होंने पूछा कि तत्व धारणा में दृढ़ कैसे बनें?

मैंने कहा कि पंच महाभूतों को अपने मन में धारण करके ही तत्व धारणा में दृढ़ता प्राप्त की जा सकती है। यह मन की सामर्थ्य वृद्धि और शक्ति विस्तार का मार्ग है।

तब उन्होंने कहा कि इतने विशाल पंचभूतों को मन में धारण करना कैसे संभव है? क्या यह केवल एक दार्शनिक कल्पना है?

मैंने कहा कि मन की शक्ति और सीमाएं भौतिकता से परे हैं।   मन तो इन पंच महाभूतों से भी सूक्ष्म और विशाल है। जो चेतना इन तत्वों को रचती है, वह इन्हें धारण करने में भी सक्षम है। अतः तत्व को धारण करना असंभव नहीं है, बल्कि यह केवल चेतना के विस्तार का विषय है।

उन्होंने कहा कि मुझे दर्शन (फ़िलॉसफ़ी) मत पढ़ाओ, कोई व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) और सीधी बात बताओ।

मैंने कहा कि व्यावहारिक रूप से, प्रत्येक तत्व का एक विशिष्ट आकार (Shape), एक निर्धारित स्थिति (Location/Seat), और एक विशेष रंग (Color) होता है। साधक को चाहिए कि वह एकाग्रता के साथ इन तत्वों को उनके निर्धारित स्थान, आकार और रंग सहित देखें (विज़ुअलाइज़ करें) और उन्हें अपने भीतर अनुभव करें। जब साधक इस प्रकार से गहन रूप से इन तत्वों को देखता और अनुभव करता है, तो तत्व की सम्पूर्ण शक्ति और सामर्थ्य उसके मन में स्वतः ही समाहित हो जाती है। इस अवस्था में, साधक यह गहन अनुभव करता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश उसके भीतर ही स्थित हैं, और वह इन सब तत्वों से ऊपर (परे) एक साक्षी चेतना के रूप में स्थित है। यह अनुभव ही तत्व धारणा में दृढ़ता प्रदान करता है।

उन्होंने कहा कि लेकिन हमें यह अनुभव कैसे होगा कि तत्व की धारणा वास्तव में हो गई है? इसका क्या कोई प्रमाण या लक्षण है?

मैंने कहा कि यह साधना की बहुत गहरी और आंतरिक बात है। इसको जानने की इच्छा न रखना ही एक साधक के लिए अधिक उचित है, क्योंकि यदि यह लिया तो मन बार-बार उसी प्रतिफल (रिज़ल्ट) पर ध्यान केंद्रित करेगा। साधक का अधिकार केवल कर्म (साधना) पर है, उसके प्रतिफल (फल) पर नहीं। फल की आसक्ति जानने से मन में अधीरता और तड़प अधिक पैदा हो सकती है, जो एक एकाग्र साधक के मार्ग के लिए आवश्यक नहीं है। दृढ़ता का अनुभव स्वतः ही सहज रूप से आएगा।

उन्होंने कहा कि तत्व धारणा में दृढ़ता पाने के लिए मंत्रों का क्या महत्व है? क्या वे इस प्रक्रिया में सहायक हैं?

मैंने कहा कि यह बहुत ही अच्छा और इस समय का आवश्यक प्रश्न है। हाँ, मंत्रों का अत्यंत महत्व है। प्रत्येक तत्व का एक विशिष्ट बीज मंत्र (root Mantra) होता है। जब साधक इन मंत्रों का स्मरण  करता है, और इसके साथ ही संबंधित तत्व के आकार, रंग, एवं प्रभाव को भी गहनता से स्मरण करता है, तो यह संपूर्ण साधना-यात्रा थोड़ी सरल, सुगम एवं आनंददायी बन जाती है। यह नीरस या केवल बौद्धिक यात्रा से सहस्त्र गुना अच्छा है कि साधना आनंद के रस (भाव) में डूबकर की जाए।

उन्होंने कहा कि क्या मंत्रोच्चारण (बोलकर जप) किया जा सकता है?
मैंने कहा कि स्मरण करने के लिए मन में ही उच्चारण (मानसिक) करना श्रेष्ठ है। साधना के इस चरण में ज़ोर से शाब्दिक उच्चारण (वाचिक जप) को अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि यह ध्यान को बाहरी जगत की ओर खींच सकता है।

उन्होंने कहा कि मंत्रोच्चारण एवं तत्व दर्शन में से ज्यादा महत्व किसको देना चाहिए?

मैंने कहा कि यद्यपि दोनों का महत्व साधना मार्ग में समान है, फिर भी तत्व दर्शन (गहन विज़ुअलाइज़ेशन और अनुभव) स्मरण (मंत्र जप) से अधिक प्रभावी सिद्ध होता है। अतः साधक को चाहिए कि वह निःप्रभाव (बिना किसी बाहरी प्रभाव या विकार के) और भावशून्य (शांत, समतापूर्ण भाव में) होकर, तत्व के मूल स्वरूप को देखने (साक्षात्कार करने) में अधिक गुरुत्व (महत्व) दे। इस प्रकार हम तत्व धारणा में सहजता और निश्चितता के साथ दृढ़ हो जाएँगे।

 प्रस्तुति : आनन्द किरण

Come, let's spiritual  practice (Sadhana).


Tattv Dharana Sadhana is the process in which the practitioner fully grasps the five fectors of creation (earth, water, fire, air, and space) in their mind. The entire universe is a composite of these five factors, and humans are generally entangled in their illusions (distortions and influences). These illusions have a profound impact on the human mind. The purpose of this practice is to free themselves from these influences and to incorporate the pure power of these five elements into their mind.

After discussing Pranayama Sadhana, he asked how to become firm in Elemental Dharana.

I said that firmness in Elemental Dharana can only be achieved by grasping the five elements in one's mind. This is the path to increasing the strength and expanding the power of the mind.

Then he asked, how is it possible to grasp such a vast array of five elements in the mind? Is this merely a philosophical fantasy?

I said that the power and limitations of the mind transcend physicality. The mind is even more subtle and vast than the five elements. The consciousness that creates these elements is also capable of holding them. Therefore, holding the elements is not impossible; it is merely a matter of expanding consciousness.

He said, "Don't teach me philosophy; tell me something practical and straightforward."

I said that practically, each element has a specific shape, a specific location, and a specific color. The seeker should visualize these elements with concentration, in their designated position, shape, and color, and experience them within themselves. When the seeker sees and experiences these elements deeply in this way, the full power and potential of the element is automatically absorbed into their mind. In this state, the practitioner deeply experiences that earth, water, fire, air, and space are within them, and that they exist above all these elements as a witness consciousness. This experience provides firmness in elemental perception.

He asked, "But how do we realize that elemental perception has actually occurred? Is there any proof or sign of this?"

I said that this is a very deep and intrinsic aspect of spiritual practice. It is best for a practitioner to avoid the desire to know this, because if they do, the mind will repeatedly focus on the same result. A practitioner's authority is only on the action (sadhana), not on its result. Knowing attachment to the result can create more impatience and yearning in the mind, which is not necessary for the path of a concentrated practitioner. The experience of firmness will come naturally and spontaneously.

He asked, "What is the importance of mantras in gaining firmness in elemental perception? Are they helpful in this process?"

I said that this is a very good and urgent question at this time. Yes, mantras are extremely important. Each element has a specific seed mantra (root mantra). When the practitioner remembers these mantras, and also deeply remembers the shape, color, and effect of the corresponding element, the entire spiritual journey becomes a little simpler, easier, and more enjoyable. It is a thousand times better to perform sadhana immersed in the essence of bliss (bhaav) than a dull or merely intellectual journey.

He asked, can chanting mantras (japa) be done verbally?
I said that chanting them mentally (mentally) is best for memorization. Vocal chanting is not considered good at this stage of sadhana, as it can draw attention away from the external world.

He asked, which should be given more importance: chanting mantras or philosophy?

I said that although both are equally important on the path of spiritual practice, deep visualization and experience proves more effective than remembrance (chanting mantras). Therefore, the practitioner should focus more on seeing (realizing) the essence of the essence, remaining neutral (without any external influences or distractions) and emotionless (in a calm, equanimous state). In this way, we will become firmly established in the essence of the essence with ease and certainty.

Presented by Anand Kiran


*चलो अभ्यास करां।*


तत्व धारणा यह  साधना वा प्रक्रिया है जिण मांय अभ्यास करण आळा आपरै मन मांय सृष्टि रा पांच तत्वां (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु अर अंतरिक्ष) नै पूरी तरह सूं पकड़ लेवै है। आखो ब्रह्माण्ड इण पांच तत्वां रो एक मिश्रण है अर मिनख आम तौर सूं आपरै भ्रम (विकृतियां अर प्रभाव) रै मांय उलझ जावै है। आं भ्रमां रो मिनख रै मन माथै घणो असर पड़ै। इण अभ्यास रो उद्देश्य खुद नै इण प्रभावां सूं मुक्त करणो अर इण पांच तत्वां री शुद्ध शक्ति नै आपरै मन रै मांय समाहित करणो है।

प्राणायाम साधना री चर्चा करियां पछै बां पूछ्यो कै तत्व धरण मांय दृढ़ता कियां बणी है।

म्हैं कैयो कै तत्व धरना मांय दृढ़ता तो पांच तत्वां नै मन मांय पकड़’र ई प्राप्त करी जा सकै है। मन री ताकत नै बढ़ाबा अर बांनै विस्तारित करण रो ओ ई मारग है।

फेर बो पूछ्यो, मन रै मांय पांच तत्वां री इतणी विशाल श्रृंखला नै पकड़णो कियां संभव है? कांई आ फगत दार्शनिक कल्पना है?

म्हैं कैयो कै मन री ताकत अर सीमावां भौतिकता सूं परे है। मन पांच तत्वां सूं भी ज्यादा सूक्ष्म अर विशाल है। आं तत्वां नै बणाबा आळी चेतना भी बांनै पकड़बा में सक्षम है। इण वास्तै, तत्वां नै पकड़णो असंभव कोनी है; ओ तो फगत चेतना नै विस्तारित करण रो मामला है।

बां कैयो, "म्हानै दर्शन मत सिखाओ; म्हनै कीं व्यावहारिक अर सीधो-सादो बताओ।"

म्हैं कैयो कै व्यावहारिक रूप सूं हरेक तत्व रो एक खास आकार, एक खास ठिकाणो अर एक खास रंग हुया करै है। साधक नै इण तत्वां नै एकाग्रता रै साथै, बांरी निर्धारित स्थिति, आकार अर रंग रै मांय देखणो चाइजै अर बांनै खुद रै मांय अनुभव करणो चाइजै। जद साधक इण तरीकै सूं आं तत्वां नै गहराई सूं देखै अर अनुभव करै है तो उण तत्व री पूरी ताकत अर क्षमता आपोआप बां रै मन मांय समा जावै है। इण अवस्था रै मांय, अभ्यास करण आळा नै गहराई सूं अनुभव हुवै है कै धरती, पाणी, अग्नि, वायु अर अंतरिक्ष बां रै मांय है अर वै एक साक्षी चेतना रै रूप मांय आं सगळा तत्वां रै ऊपर मौजूद है। यो अनुभव मूलभूत धारणा रै मांय दृढ़ता प्रदान करै है।

उण पूछ्यो, "पण आपां ओ कियां समझ सकां कै तत्व धारणा वास्तव में हुई है? कांई इण रो कोई सबूत या संकेत है?"

म्हैं कैयो कै ओ आध्यात्मिक अभ्यास रो एक घणो गहरो अर आंतरिक पहलू है। एक चिकित्सक रै वास्तै आ बात जाणबा री इच्छा सूं बचणो ही चोखो है, क्यूंकै जे वै करैला तो मन बार-बार एक ई परिणाम माथै ध्यान केन्द्रित करैला। एक चिकित्सक रो अधिकार फगत क्रिया (साधना) माथै हुवै है, उणरै परिणाम माथै नीं। परिणाम रै प्रति लगाव नै जाणणो मन रै मांय और अधीरता अर तड़प पैदा कर सकै है, जो एक एकाग्र अभ्यास करण आळा रै मारग रै वास्तै जरूरी कोनी है। दृढ़ता रो अनुभव स्वाभाविक रूप सूं अर सहज रूप सूं आवैला।

उण पूछ्यो, "तत्व री धारणा रै मांय दृढ़ता प्राप्त करण रै वास्तै मंत्रां रो कांई महत्व है? कांई वै इण प्रक्रिया मांय मददगार है?"

म्हैं कैयो कै ओ इण बगत घणो आछो अर जरूरी सवाल है। हां, मंत्र घणा जरूरी है। हरेक तत्व रो एक विशिष्ट बीज मंत्र (मूल मंत्र) होवै है। जद अभ्यास करण आळा नै आं मंत्रां नै याद रैवै है, अर साथै ई संबंधित तत्व रै आकार, रंग अर प्रभाव नै भी गहराई सूं याद राखै है, तो आखी आध्यात्मिक यात्रा थोड़ी सरल, आसान अर आनंददायक हो जावै है। नीरस या सिरफ बौद्धिक यात्रा सूं बेसी आनंद (भाव) रै सार मांय डूब्योड़ो साधना करणो हजार गुणा चोखो है।

उण पूछ्यो, कांई मंत्र (जप) रो जाप मौखिक रूप सूं कर्यो जा सकै है?
म्हैं कैयो कै बांनै मानसिक रूप सूं (मानसिक रूप सूं) जापणो रटबा रै वास्तै सबसूं आछो है। साधना रै इण पड़ाव माथै मुखर जप नै आछो नीं मानीजै, क्यूंकै इणसूं बारै री दुनिया सूं ध्यान हटायो जा सकै है।

बां पूछ्यो, किण नै ज्यादा महत्व दियो जावै: मंत्र जाप करणो कै दर्शन?

म्हैं कैयो कै भलांई आध्यात्मिक अभ्यास रै मारग माथै दोनूं ई समान रूप सूं महताऊ है, पण गहरी कल्पना अर अनुभव स्मरण (मंत्र जाप) सूं बेसी प्रभावी साबित हुवै है। इण वास्तै, अभ्यास करण आळा नै सार रै सार नै देखण (साकार करण) माथै ज्यादा ध्यान देवणो चाइजै, तटस्थ (बिना किणी बाहरी प्रभाव या व्याकुलता रै) अर भावनाहीन (शांत, समतुल्य अवस्था में) रैवणो चाइजै। इण भांत आपां सहजता अर निश्चितता रै साथै सार रै सार मांय पक्को थरप जावांला।

प्रस्तुत आनन्द किरण
तृतीय विषय - प्राणायाम साधना में प्रगाढ़ कैसे बनें?  (Third topic – How to become profound in Pranayama Sadhana?)
             आओ साधना करते हैं

​प्राण को आयाम देना ही प्राणायाम है। प्राण का आधार श्वास है, इसलिए प्राणायाम क्रिया में श्वास को जोड़ा जाता है, लेकिन प्राणायाम साधना का संबंध केवल श्वास-प्रक्रिया तक ही सीमित नहीं होता। प्राणायाम को सही आयाम देने के लिए एक आध्यात्मिक मानसिकता का होना आवश्यक है। प्राण जिस पर मनुष्य का जीवन निर्भर है, उसे आयाम प्रदान करने से मनुष्य का जीवन सफल, सुफल और फलीभूत होता है।

​चक्र-शोधन के बाद, उन्होंने प्रश्न किया कि "प्राणायाम साधना में प्रगाढ़ कैसे बनें?"

​मैंने उत्तर दिया, "प्राणायाम स्वयं प्राण को आयाम देने के लिए है। आप उसे आयाम दे दीजिए, प्राणायाम साधना में प्रगाढ़ हो जाएँगे।"

​उन्होंने पूछा, "यह कैसे?"

​मैंने कहा, "प्राण का संबंध केवल शरीर से नहीं है; यह मन और आत्मा से भी संबंधित है। अतः, वही प्राणायाम साधना कहलाती है, जिसमें मन और आत्मा का समर्थन एवं सहयोग हो।"

​उन्होंने इसे और सरल करके समझाने के लिए कहा।

​मैंने स्पष्ट किया, "प्राणायाम साधना में श्वास, मंत्र और भाव – इन तीनों का होना ही प्राणायाम को 'साधना' बनाता है। इसमें भी, भाव की प्रधानता प्राप्त करना ही प्राणायाम साधना में प्रगाढ़ होना है।"

​उन्होंने पूछा, "लेकिन यह कैसे संभव है?"

​मैंने समझाया, "प्राणायाम साधना में जब मन श्वास की ध्वनि को ग्रहण कर लेता है, तब प्राण-मंत्र (इष्ट-मंत्र) चैतन्यता प्राप्त करता है। जब मन चैतन्य मंत्र के भाव को ग्रहण कर लेता है, तब प्राण मन के नियंत्रण-क्षेत्र में आ जाता है। इस अवस्था को ही प्राणायाम साधना कहते हैं। जब प्राण मन में समा जाता है, तभी साधक प्राणायाम साधना में प्रगाढ़ हो जाता है। इसे ही मंत्र-सिद्धि कहते हैं। अर्थात्, मंत्र-सिद्धि ही प्राणायाम में प्रगाढ़ होना है।"

​उन्होंने इसका विज्ञान जानना चाहा।

​मैंने कहा, "साधना के आरंभ में साधक श्वास को अधिक महत्त्व (गुरुत्व) देता है। जैसे-जैसे वह गहराई में जाता है, वह गुरुत्व-बिंदु श्वास से हटकर इष्ट-मंत्र पर आ जाता है। तब वह अनुभव करता है कि अनंत प्राण अथवा अनंत चेतना उसके भीतर प्रवेश कर रही है और बाहर आ रही है। जैसे-जैसे उसका अभ्यास बढ़ता जाता है, उसका गुरुत्व-बिंदु भाव पर आ जाता है, और वह पाता है कि वह तथा अनंत चेतना एकाकार हो गए हैं। तब वह जन्म-मरण के चक्र से स्वयं को मुक्त पाने लगता है। यही प्राणायाम साधना का विज्ञान है।"

​उन्होंने फिर पूछा, "प्राणायाम साधना में शुद्धियाँ क्यों आवश्यक हैं?"

​इसके उत्तर में मैंने कहा, "हम हमारे आसपास जो देखते हैं, पाते हैं और जानते हैं, वही हम अपने भीतर भी पाते हैं। इसलिए, भूत-शुद्धि, आसन-शुद्धि एवं चित्त-शुद्धि आवश्यक है।"

​उन्होंने पूछा, "क्या शुद्धियों में भी कुछ विशेष है?"

​मैंने कहा, "शुद्धि तो अपने आप में विशेष ही है। उसको सदैव विशेष मानकर ही करना चाहिए।"

​उन्होंने जानना चाहा कि "जो बिना मंत्र और भाव के प्राणायाम करते हैं, उनका क्या भविष्य है?"

​मैंने कहा, "किसी का भविष्य बताना अथवा तय करना मेरा अधिकार-क्षेत्र नहीं है। यह परम ब्रह्म का कार्य है, इसलिए मैं इस पर मौन ही रहूँगा। मेरी चुप्पी को आप जैसा उचित समझें, वैसा समझ लेना।"

​तब उन्होंने एक गंभीर प्रश्न किया, "साधना में प्राणायाम क्यों किया जाता है?"

​मैंने उत्तर दिया, "साधना का लक्ष्य अनंत को साधना है। अनंत को अपने प्राण में भर देने से ही साध्य प्राप्त होता है।"


English Translation (अंग्रेजी अनुवाद)


​Giving dimension to Prana (life force) is Pranayama. Prana depends on breath, which is why breath is included in the Pranayama Kriya (action), but the practice of Pranayama Sadhana (spiritual discipline) is not limited only to the breathing process. It is essential to have a spiritual mindset to give the right dimension to Pranayama. Prana, on which human life depends, when given a dimension, makes a human life successful, fruitful, and actualized.

​After Chakra Shodhana (chakra purification), He asked, "How does one become profound in Pranayama Sadhana?"

​I replied, "Pranayama itself has come to give dimension to Prana. Give it that dimension, and you will become profound in Pranayama Sadhana."

​He asked, "How is that possible?"

​I said, "Prana's connection is not just physical; it is also related to the mind and the soul. Hence, that alone is called Pranayama Sadhana which has the support and cooperation of the mind and soul."

​He requested a simpler explanation.

​I clarified, "The presence of breath, Mantra (sacred chant), and Bhava (feeling/emotion) in Pranayama Sadhana is what makes it a 'Sadhana'. Within this, achieving the predominance of Bhava is to become profound in Pranayama Sadhana."

​He asked, "But how is this achieved?"

​I explained, "In Pranayama Sadhana, when the mind grasps the sound of the breath, then the Prana-Mantra (Ishta Mantra) achieves consciousness. When the mind grasps the Bhava of the conscious Mantra, then Prana comes under the control of the mind. This state is called Pranayama Sadhana. When Prana merges into the mind, the practitioner becomes profound in Pranayama Sadhana. This is called Mantra Siddhi (Mantra Perfection). That is, Mantra Siddhi is becoming profound in Pranayama."

​He asked about the science behind it.

​I said, "At the beginning of Sadhana, the practitioner gives more importance (gravity) to the breath. As they go deeper, that point of gravity shifts from the breath to the Ishta Mantra. Then they realize that the infinite Prana or infinite consciousness is entering and leaving them. As their practice increases, their point of gravity shifts to the Bhava, and they realize that they and the infinite consciousness have become one (Ekaakar). Then they begin to find themselves free from the cycle of birth and death. This is the science of Pranayama Sadhana."

​then he  asked, "Why are purifications (Shuddhis) necessary in Pranayama Sadhana?"

​In response, I said, "What we see, find, and know around us, we will find within ourselves. Therefore, physical purification (Bhuta-Shuddhi), posture purification (Asana-Shuddhi), and consciousness purification (Chitta-Shuddhi) are necessary."

​He asked, "Is there anything special about the purifications?"

​I replied, "Purification (Shuddhi) itself is special. It should always be performed considering it as special."

​He inquired, "What is the future of those who practice Pranayama without Mantra and Bhava?"

​I said, "It is not within my jurisdiction to tell or decide anyone's future. That is the work of the Supreme Brahman, so I will remain silent on this. You may interpret my silence as you deem fit."

​Then he posed a serious question, "Why is Pranayama performed in Sadhana?"

​I answered, "The goal of Sadhana is to realize the Infinite. The goal (Saadhya) is achieved by filling one's Prana with the Infinite."

Marwari Translation (मारवाड़ी अनुवाद)

​ तीसरो विषय - प्राणायाम साधना में गहिरो क्यूँ बणीजे?

​प्राण नै आयाम देणो ही प्राणायाम है। प्राण तो श्वास माथे ही निर्भर है, ईं खातिर प्राणायाम करण में श्वास नै जोडियो जावे है, पण प्राणायाम साधना रो संबंध खाली श्वास-क्रिया तक ही कोनी रेवे। प्राणायाम नै सही आयाम देण खातिर आध्यात्मिक सोच रो होणो जरूरी है। प्राण, जाके माथे मानखी रो जीवण टिकीयोड़ो है, अगर उणनै आयाम दियो जावे तो मानखी रो जीवण सफल, सोरो और फलदायी बणे।

​चक्र-शोधन करण पाछे, उणाँ पूछ्यो, "प्राणायाम साधना में गहिरो (प्रगाढ़) क्यूँ बणीजे?"

​मैँ जवाब दियो, "प्राणायाम तो खुद प्राण नै आयाम देण वास्ते आयो है। थे उणनै आयाम दे दो, तो प्राणायाम साधना में गहिरा बण जावोगा।"

​उणाँ पूछ्यो, "ईंको के तरीको है?"

​मैँ बोल्यो, "प्राण रो संबंध खाली सरीर स्यूँ कोनी; ईंको संबंध मन और आत्मा स्यूँ भी है। तो, वो ही प्राणायाम साधना कहलावे है, जाके में मन और आत्मा रो साथ (समर्थन) और सहयोग होवे।"

​उणाँ सरल भाषा में समझावण नै कह्यो।

​मैँ साफ बतायो, "प्राणायाम साधना में श्वास, मंत्र और भाव – ईं तीनाँ रो होणो ही प्राणायाम नै 'साधना' बणावे है। ईं में भी, भाव नै प्रधानता मिलणी ही प्राणायाम साधना में गहिरो होणो है।"

​उणाँ पूछ्यो, "पण ईंको उपाय के है?"

​मैँ समझायो, "प्राणायाम साधना में जद मन श्वास की आवाज नै पकड़ी लेवे है, तो प्राण-मंत्र (इष्ट-मंत्र) में चेतना आ जावे है। जद मन चेतन मंत्र रे भाव नै पकड़ी लेवे है, तो प्राण मन रे काबू (नियंत्रण) में आ जावे है। ईं हालत नै ही प्राणायाम साधना कहे है। जद प्राण मन में मिल जावे है, तद ही साधक प्राणायाम साधना में गहिरो बणे है। ईंनै ही मंत्र-सिद्धि कहे है। मतलब, मंत्र-सिद्धि ही प्राणायाम में गहिरो होणो है।"

​उणाँ ईंरो विज्ञान (साइंस) पूछ्यो।

​मैँ कह्यो, "साधना की शुरुआत में साधक श्वास नै ज्यादा महत्त्व (गुरुत्व) देवे है। ज्यूँ-ज्यूँ वो ऊँडो जावे है, वो गुरुत्व-बिंदु श्वास स्यूँ हट'र इष्ट-मंत्र माथे आ जावे है। तद वो महसूस करे है के अनंत प्राण या अनंत चेतना उणरे माँयने आई-जाई कर री है। ज्यूँ-ज्यूँ उणरो अभ्यास बधे है, उणरो गुरुत्व-बिंदु भाव माथे आ जावे है, और वो पावे है के वो और अनंत चेतना एक बणगा (एकाकार होग्या) है। तद वो आपनै जनम-मरण रे फेरा स्यूँ छूटतो महसूस करण लाग जावे है। यो ही प्राणायाम साधना रो विज्ञान है।"

​फेर उणाँ पूछ्यो, "प्राणायाम साधना में शुद्धियाँ (सफाई) क्यूँ जरूरी है?"

​ईं रे जवाब में मैँ कह्यो, "आपाँ आपरे आड़ो-पाड़ो जकी चीजाँ देखाँ, पावाँ और जाणाँगा, वो ही आपाँ आपरे भीतरे भी पावाँगा। ईं खातिर भूत-शुद्धि, आसन-शुद्धि और चित्त-शुद्धि जरूरी है।"

​उणाँ पूछ्यो, "के शुद्धियाँ में भी कोई खास बात है?"

​मैँ जवाब दियो, "शुद्धि तो आपरे आप में खास ही है। उणनै हमेसा खास मान'र ही करणी चाइजे।"

​उणाँ जाणणो चाह्यो के "जो बिना मंत्र और भाव रे प्राणायाम करे है, उणाँ रो के भावी (भविष्य) है?"

​मैँ कह्यो, "कोई रो भावी बताणो या तय करणो म्हारो काम कोनी है। यो तो परम ब्रह्म रो काम है, ईं खातिर मैँ ईं माथे चूप ही रेहूँगा। म्हारी चुप्पी नै थे जिको सही समझो, वो समझ लेजो।"

​तद उणाँ एक गंभीर सवाल कर दियो, "साधना में प्राणायाम क्यूँ करियो जावे है?"

​मैँ जवाब दियो, "साधना रो लक्ष्य अनंत नै पावणो है। अनंत नै आपरे प्राण में भर देण स्यूँ ही लक्ष्य मिल जावे है।"

द्वितीय विषय - चक्र शोधन में कुशलता कैसे हासिल करें? [Second Topic - How to Achieve Proficiency in Chakra Shodhana (Chakra Purification)?]
          आओ साधना करते हैं। 

ध्यान की गहराई में जाने के विषय के बाद उनका प्रश्न चक्र शोधन पर आ गया। वह कहने लगे कि, "चक्र शोधन में कुशलता कैसे हासिल करें?"

चक्र शोधन साधना का अर्थ है चक्र को उसके मूल स्वरूप में देखना, जानना एवं पहचानना। अक्सर हमने सुना, पढ़ा अथवा हमें बताया जाता है कि चक्र 'ऐसा', 'यहाँ' तथा 'शक्ति केंद्र' होता है। लेकिन हम उसकी पहचान तभी कर पाते हैं, जब हम उसे जान लेते हैं। अतः चक्र शोधन में कुशलता प्राप्त करने के लिए आचार्य द्वारा बताई गई चक्र शोधन प्रणाली का अमल करते हुए निरंतर अभ्यास के माध्यम से यह उपलब्धि प्राप्त होती है।

मैंने कहा कि आप चक्र शोधन क्यों करना चाहते हैं? उन्होंने कहा कि पता नहीं, लेकिन मुझे यह करना है। मैंने कहा, "जब हम यह नहीं जानते कि चक्र शोधन साधना क्यों, तब तक चक्र शोधन साधना को कैसे जान पाते हैं।" उन्होंने कहा कि आप ही बता दो। मैंने कहा कि हमारी रुहानी यात्रा का पथ यही है, इसलिए चक्र शोधन आवश्यक है। उन्होंने पूछा, "हमारी यात्रा का पथ?" मैंने कहा, "हाँ, मूलाधार से सहस्रार तक गमन करना साधक का पथ है। इस पथ को बुहारना ही चक्र शोधन है।" उन्होंने कहा कि यह कैसे होता है, अर्थात् बुहारा कैसे जाता है? मैंने कहा कि बुहारने की दो गति होती है— प्रथम नीचे से ऊपर तथा द्वितीय ऊपर से नीचे। उन्होंने कहा कि ऐसा क्यों? मैंने कहा, "इसलिए कि चक्र संपूर्ण रूप से मार्जित (शुद्ध) हो जाता है।" 

उन्होंने पूछा, "कैसे?" मैंने कहा कि :

• प्रथम स्थिति में चक्रों को चिन्हित करते हुए, उन्हें अपने होने का बोध कराया जाता है, जिससे चक्रों में सजीवता आती है तथा उन्हें फलने-फूलने व विकसित होने का पूर्ण अवसर मिलता है।

•• द्वितीय स्थिति में चक्र की शक्ति एवं सामर्थ्य प्रकट होता है, जिसे अपने में आत्मसात करना होता है, जिससे चक्र पूर्णतया शोधित होता है।

••• उन्होंने कहा कि यह सब कैसे होता है? मैंने कहा कि इसके लिए ईष्ट मंत्र की संगीतमय अभिव्यक्ति की आवश्यकता होती है, जिसके द्वारा प्रथम स्थिति में चक्र जागृत होते हैं तथा दूसरी स्थिति में नियंत्रित होते हैं, अर्थात् साधक के नियंत्रण में आते हैं। उन्होंने कहा कि ऐसा क्यों करना होता है? मैंने कहा, "अजागृत चक्र जीव-भाव को मुक्त होने नहीं देता है तथा अनियंत्रित चक्र शक्ति जीव-भाव को पथभ्रमित कर देती है।"

जागरण एवं नियंत्रण ही चक्र शोधन साधना का मूल है। इससे चक्र अपने मूल स्वरूप आनन्दधात्री शक्तिपीठ में आता है। अतः चक्र शोधन के साधक को आनन्द मार्गी होना आवश्यक है। बिना आनन्द मार्गी हुए चक्रों को मूल स्वरूप में प्रकट नहीं किया जा सकता।
चक्रों का मूल स्वरूप—आनन्ददायिनी अवस्था—साधक के समग्र विकास एवं कल्याण को कर पाती है। अतः सभी को आचार्य द्वारा बताई गई पद्धति से चक्र शोधन करना चाहिए।


English Translation



    Come, let's practice Sadhana                     (Spiritual Discipline


After the topic of how to delve into the depths of  dhayan, their question shifted to Chakra Shodhana. They asked, "How to achieve proficiency in Chakra Shodhana?"

The practice of Chakra Shodhana means seeing, knowing, and recognizing the Chakra in its original form. We often hear, read, or are told that a Chakra is 'such', 'here', and a 'center of power'. But we can only truly identify it when we know it. Therefore, to achieve proficiency in Chakra Shodhana, this attainment is received through continuous practice while implementing the Chakra Shodhana system prescribed by the Acharya (Master).

I asked why they wanted to do Chakra Shodhana. They said they didn't know, but they felt they had to do it. I said, "If we don't know why we practice Chakra Shodhana, how can we truly know the practice?" They asked me to explain. I said that this is the path of our spiritual journey, and therefore, Chakra Shodhana is essential. They asked, "Our journey's path?" I said, "Yes, moving from Muladhara to Sahasrara is the path of the practitioner (Sadhaka). Clearing this path is what Chakra Shodhana is." They asked how this is done, that is, how is it cleared? I said that there are two movements for clearing—first from bottom to top and second from top to bottom. They asked why. I said, "Because the Chakra becomes completely cleansed (purified)." 

They asked, "How?" I explained :

* In the first stage, by identifying the Chakras, they are made aware of their existence, which brings vitality to the Chakras and gives them a complete opportunity to flourish, bloom, and develop.

* In the second stage, the power and potential of the Chakra are revealed, which must be assimilated within oneself, thereby purifying the Chakra completely.

They asked how all this happens. I said that this requires the musical expression of the Ishta Mantra (personal deity mantra), by which the Chakras are awakened in the first stage and controlled in the second stage, meaning they come under the practitioner's control. They asked why this needs to be done. I replied, "Unawakened Chakras do not allow the Jiva Bhava (individual consciousness) to be liberated, and uncontrolled Chakra power misguides the Jiva Bhava."
Awakening and Control are the essence of Chakra Shodhana practice. Through this, the Chakra reaches its original form, the Anandadhatri Shaktipeeth (The Seat of Power that Nurtures Bliss). Therefore, a practitioner of Chakra Shodhana must be an Ananda Margi (one on the path of Bliss). Without being an Ananda Margi, the Chakras cannot be manifested in their original form.

The original form of the Chakras—the Bliss-Bestowing State—is capable of bringing about the overall development and welfare of the practitioner. Therefore, everyone should perform Chakra Shodhana using the method prescribed by the Acharya.



मारवाड़ी अनुवाद


            आओ साधना करां


ध्यान री गहराई में जावण रा विषय पछे उणां रो सवाल चक्र शोधन माथे आयो। वे कहण लाग्या कि, "चक्र शोधन में कुशलता किण भांत हासिल करां?"

चक्र शोधन साधना रो मतलब है चक्र ने उणरै मूल रूप में देखणो, जाणणो अर ओळखणो। घणी वखत आपणै सुण्यो, पढ़्यो या बतायो जावै कि चक्र 'इयां', 'अठै' अर 'शक्ति रो केंद्र' होवै। पण आपां उणरी ओळख जद ई कर पावां, जद आपां उणने जाण लेवां। सो, चक्र शोधन में कुशलता पावण सारू आचार्य जी बताईड़ी चक्र शोधन री प्रणाली ने काम में लेवता थका लगातार अभ्यास रै जरिए ई आ उपलब्धि मिलै।

मैं कर्यो कि थे चक्र शोधन क्यूं करणो चाहो हो? उणां कर्यो कि ठा कोनी, पण म्हाने यो करणो है। मैं कर्यो, "जद आपां यो ई कोनी जाणां कि चक्र शोधन साधना क्यूं, तद तांई चक्र शोधन साधना ने किण भांत जाण पावां।" उणां कर्यो कि थे ई बता दो। मैं कर्यो कि म्हारी रुहानी यात्रा रो मारग यो ई है, इण सारू चक्र शोधन जरूरी है। उणां पूछ्यो, "म्हारी यात्रा रो मारग?" मैं कर्यो, "हाँ, मूलाधार सूं सहस्रार तांई जावणो साधक रो मारग है। इण मारग ने बुहारणो ई चक्र शोधन है।" उणां कर्यो कि यो किण भांत, मतलब बुहार्यो किण भांत जावै? मैं कर्यो कि बुहारण री दो चाल होवै—पैली नीचै सूं ऊपर अर दूजी ऊपर सूं नीचै। उणां कर्यो कि इयां क्यूं? मैं कर्यो, "इण सारू कि चक्र पूरी भांत सूं मार्जित (साफ) हो जावै।" 

उणां पूछ्यो, "किण भांत?" मैं कर्यो कि :

* पैली स्थिति में चक्रां ने चिन्हित करता थका, उणां ने आपरै होवण रो बोध करावणो, जिण सूं चक्रां में जान आवै अर उणां ने फलणो-फूलणो अर विकसित होवण रो पूरो मौका मिलै।

* दूजी स्थिति में चक्र री शक्ति अर ताक़त परगट होवै, जिणने आपरै में आत्मसात करणो पड़ै, जिण सूं चक्र पूरो-पूरी शोधित हो जावै।

उणां कर्यो कि यो सगळो किण भांत होवै? मैं कर्यो कि इण सारू ईष्ट मंत्र री संगीत भरी अभिव्यक्ति री जरूरत होवै, जिण रै जरिए पैली स्थिति में चक्र जागृत होवै अर दूजी स्थिति में नियंत्रित होवै, मतलब साधक रै नियंत्रण में आवै। उणां कर्यो कि इयां क्यूं करणो पड़ै? मैं कर्यो, "अजागृत चक्र जीव-भाव ने मुक्त कोनी होवण देवै अर अनियंत्रित चक्र शक्ति जीव-भाव ने भटकता कर देवै है।"

जागरण अर नियंत्रण ई चक्र शोधन साधना रो मूळ है। इण सूं चक्र आपरै मूळ रूप आनन्दधात्री शक्तिपीठ में आवै। सो, चक्र शोधन रै साधक ने आनन्द मार्गी होवणो जरूरी है। बिना आनन्द मार्गी हुया चक्रां ने मूळ रूप में परगट कोनी कर्यो जा सकै।

चक्रां रो मूळ रूप—आनन्द देवण आळी अवस्था—साधक रै पूरै विकास अर कल्याण ने कर पावै है। सो, सगळां ने आचार्य जी बताईड़ी विधि सूं चक्र शोधन करणो चाहीजै।

प्रथम विषय - ध्यान की गहराई में कैसे जाएँ? (Primary Topic - How to enter the depth of DHYAN?)

         आओ साधना करते हैं
प्रथम विषय - ध्यान की गहराई में कैसे जाएँ?


       ध्यान शब्द का मूल अर्थ ध्येय के साथ एकीकार होना है। ध्यान के अर्थ को सार्थक करना ही ध्यान की गहराई है अथवा यही गहराई तक ले जाता है। इसलिए प्रश्न है कि ध्यान गहराई में कैसे जाए?


यह प्रश्न आज मुझे एक पुराने साधक ने किया।तो मैंने बताया कि ध्येय के प्रति समर्पण से ही ध्यान की गहराई की ओर चलते हैं। तो उन्होंने कहा कि मैं कितना समर्पण करूँ? जितना मेरा सामर्थ्य था, उतना तो समर्पण कर चुका हूँ, फिर भी अब तक मेरे चित्त के चिंतन से निर्मित ध्येय ही मेरे समक्ष बैठे हैं। मैंने कहा कि चिंतन की गति को रोक दीजिये तथा भक्ति में उतर जाइए। तब उन्होंने कहा कि यही तो मुझे नहीं आता है। मैं भक्ति में कैसे उतरूँ? तो मैंने कहा कि परमपुरुष से एकांतिक प्रेम करने से ही भक्ति का जागरण होता है।

तब उन्होंने कहा कि मैं ध्येय से खूब प्रेम करता हूँ, उसके अतिरिक्त मेरे लिए कुछ कार्य नहीं है। उनके फोटो को नित्य सजाता हूँ, माल्यार्पण करता हूँ, उनके अवदानों को स्मरण करता हूँ, उनके भौतिक जीवन से संबंधित प्रत्येक स्थान की यात्रा करता हूँ तथा उनसे प्रेम करता हूँ। और बताएँ, कैसे प्रेम करूँ? मैने कहा, यही तो गड़बड़ी है। उनसे प्रेम करने का अर्थ हर सांसारिक एवं परमार्थी कार्यों में उन्हें देखना, एक पल भी यदि उन्हें भूल गए तो प्रेम शब्द में नागा (चूक) हो जाता है। वे फोटो, तीर्थ एवं उनके अवदानों में जितने हैं, उतने सब में हैं। अतः भूलकर भी मात्र फोटो, स्थान और अवदान में उन्हें समझने की भूल मत करना, यह भूल ही हमारे प्रेम में छेद कर देती है तथा हम उससे भटक कर धर्म के स्थान पर मजहब की राह पकड़ लेते हैं। सब कुछ तो उन्हीं का है, किस एक को उन्हें समझकर रखोगे तथा किसको उन्हें नहीं समझने की भूल करोगे?

तब उन्होंने तपाक से कहा, "तब उनका ध्यान कैसे होगा?"  मैंने कहा कि प्रेम का अर्थ अपने प्रियतम को आनन्दमूर्ति समझना एवं जानना होता है। तो उन्होंने कहा कि वे आनन्दमूर्ति कैसे हैं?मैंने कहा, आनन्दमूर्ति समग्र में है, अतः समग्र में उनको देखना है।


तब उन्होंने कहा कि यह कैसे संभव है? मैंने कहा कि उसने अपने को समग्र में रखा, उसने जो कुछ बनाया वह समग्र में बनाया है, तब समग्र में देखना असंभव कभी नहीं हो सकता है।


उन्होंने कहा कि मुझे दार्शनिक जाल में मत ले जाओ, सीधे-सीधे मूल विषय पर ही ले चलो!
मैंने कहा कि समग्र को देखने की क्षमता हमारी समग्रता में निहित है।


हम समग्रता को सूक्ष्मता में बिंदु के रूप तथा विराटता में प्रकाश के रूप में देख सकते हैं। अतः साधक बिंदु से लेकर प्रकाश तक अपनी क्षमता को फैलाने के क्रम में ध्यान विभिन्न प्रकार से केंद्रित करता है।


इसी क्रम में ध्यान का सर्वश्रेष्ठ तरीका गुरु ध्यान में है। गुरु ध्यान ही समग्रता का ध्यान है। अतः गुरु को कभी भी व्यक्ति अथवा व्यक्तित्व समझने की भूल मत करना। गुरु ब्रह्म है। उनके अतिरिक्त मनुष्य का कोई गुरु हो ही नहीं सकता है।


उन्होंने कहा कि इसको थोड़ा अच्छे से समझाओ। मैंने कहा कि मैं कोई समझाने वाला नहीं हूँ। मैं तो मेरी बात रखता हूँ, आप उसको कैसे समझो अथवा नहीं समझो, यह आपका विषय है।


आचार्य द्वारा बताई गई ध्यान पद्धति के अनुसार ध्यान मुद्रा में बैठकर, उनकी समग्रता को निहारते रहें तथा अपनी समग्र क्षमता को उसमें छोड़ते जाएँ। तब तक ऐसा करते जाएँ, जब तक एक अभाव की स्थिति का बोध नहीं हो। जब अभाव की स्थिति का बोध होने लगेगा, तब गुरु में खो जाइए। वहाँ जो कुछ भी मिलेगा, वह हमें ध्यान की गहराई में ले जाएगा। उसके आगे राही स्वयं ही जानता है कि उसने पूर्णत्व को कितना अंगीकार किया है।


सरल शब्दों में कहा जाए तो अपने 'मैंपन' को छोड़ते जाओ, जिससे ब्रह्म का 'मैंपन' हमें मिलता रहेगा।


प्रस्तुति: आनन्द किरण


English Translation (अंग्रेजी अनुवाद)


🧘 Let's Practice Sadhana (Spiritual Discipline)


Primary Topic - How to enter the depth of DHYAN?
The original meaning of the word 'Dhyana'  is to become one with the object of contemplation (Dhyeia). To realize the meaning of meditation is the depth of meditation, or this is what leads to that depth. Therefore, the question is: How does meditation enter the depth?
An old seeker asked me this question today.
So, I told him that it is only through surrender to the object of contemplation that we move towards the depth of meditation.
He then asked how much he should surrender. He said, "I have already surrendered as much as I was capable of, yet the object of contemplation, which is merely a creation of my mind's thoughts, still sits before me."
I said, "Stop the momentum of thought, and descend into devotion (Bhakti)."
He then said that this is exactly what he does not know how to do. "How do I descend into devotion?"
I replied that devotion awakens only through exclusive love for the Supreme Being (Parampurush).
He then said that he loves the object of contemplation very much; he has no other work besides that. He adorns their photo daily, offers garlands, remembers their contributions, travels to every place associated with their physical life, and loves them. He asked, "Tell me, how else should I love?"
I said, "This is the mistake. Loving them means seeing them in every worldly and spiritual action; if you forget them even for a moment, the word 'love' becomes incomplete (or breaks). They are present in the photos, pilgrimages, and their contributions only as much as they are in everything (the totality). Therefore, do not make the mistake of assuming they are only in the photo, the place, or the contributions; this mistake creates a breach in our love, and we stray from the path of 'Dharma' (righteousness) and end up on the path of 'Mazhab' (sectarian religion). Everything belongs to them. Which single thing will you hold onto as them, and which thing will you mistakenly assume is not them?"
He quickly retorted, "Then how will I meditate on them?"
I said that love means understanding and knowing your beloved as the embodiment of bliss (Anandmurti).
He asked, "How are they the embodiment of bliss?"
I replied, "The embodiment of bliss is in the totality; therefore, you must see them in the totality."
He then asked, "How is this possible?"
I said that He placed Himself in the totality, whatever He created, He created in the totality; therefore, it can never be impossible to see Him in the totality.
He said, "Do not trap me in philosophical complexities; take me directly to the core subject!"
I said that our ability to see the totality is inherent in our own wholeness (Samagrata).
We can see the totality in its subtlety as a point and in its vastness as light. Therefore, a seeker focuses their meditation in various ways while expanding their capacity from a point to light.
In this sequence, the best method of meditation is Guru Dhyana (Meditation on the Guru). Guru Dhyana is the meditation on the totality. Therefore, never make the mistake of understanding the Guru as merely a person or a personality. The Guru is Brahman (the Absolute Reality). Man can have no other Guru besides Him.
He asked me to explain this a little better.
I said that I am not one to explain. I merely present my viewpoint; how you understand it or not is your concern.
According to the meditation method taught by the Acharya: Sit in a meditation posture, keep gazing at His totality, and keep dissolving your entire capacity into it. Continue doing this until you perceive a state of absence (A-bhaav). When the state of absence begins to be perceived, then lose yourself in the Guru. Whatever is found there will take us into the depth of meditation. Beyond that, the traveler himself knows how much he has embraced perfection.
In simple words, keep letting go of your 'I-ness' (sense of separate self), and you will continue to receive the 'I-ness' of Brahman.


Presented by: Anand Kiran



Marwari Translation (मारवाड़ी अनुवाद)


            आवो साधना करां
पे’लो विषय - ध्यान री गैराई में क्यूँकर जावां?


ध्यान सबद रो मूळ अरथ है ध्येय रै सागै एक होवणो। ध्यान रै अरथ ने साँचो करणो ही ध्यान री गैराई है, या ई गैराई तांई ले जावै है। अतरांसू सवाल है के ध्यान गैराई में क्यूँकर जावै?


आ सवाल आज म्हारै सूं एक पूरणो साधक पूछ्यो। तो मैं बतायो के ध्येय रै प्रति समर्पण सूं ही ध्यान री गैराई कांनी चाल्यां जावां।
तो उणां पूछ्यो के मैं कतरों समर्पण करूँ? जतरो म्हारै में सामरथ हो, उतरो तो कर चुक्यो हूँ, फेर भी अबार तांई म्हारै चित्त रै चिन्तन सूं बण्योड़ो ध्येय ही म्हारै सामनै बैठ्यो है। मैं कयो के चिन्तन री चाल ने रोक दीज्यो अर भक्ति में उतर जावो।


तब उणां कयो के आ ई बात तो म्हाने कोनी आवै है। मैं भक्ति में क्यूँकर उतराँ?
तो मैं कयो के परमपुरुष सूं एकांत प्रेम करणै सूं ही भक्ति जागै है। तब उणां कयो के मैं ध्येय सूं घणो प्रेम कराँ हूँ, उणसूं सिवाय म्हारै सारू कोई काम कोनी है। उणां री फोटू ने नित सजाऊँ, माला पेराऊँ, उणां रा अवदान याद कराँ, उणां रै भौतिक जीवन सूं जुड़्योड़ी हर ठौड़ री जातरा कराँ अर उणां सूं प्रेम कराँ। अर बतावो, क्यूँकर प्रेम कराँ?


मैं कयो, आ ई तो गड़बड़ी है। उणां सूं प्रेम करणो को अरथ हर सांसारिक अर परमार्थी कामां में उणां ने देखणो, एक पल भी जद उणां ने भूलग्या तो प्रेम सबद में चूक (नागो) हो जावै है। वे फोटू, तीरथ अर उणां रै अवदानां में जतरा है, ऊतरा सगळां में है। इण खातर भूलर भी मातर फोटू, ठौड़ अर अवदान में उणां ने समझण री भूल मत करज्यो, आ भूल ही आपणै प्रेम में छेद कर दै है अर आपां उणसूं भटक'र धरम रै ठौड़ मजहब रो मारग पकड़ लेवाँ हां। सगळो तो उणां रो ही है, किस एक ने उणां समझ'र राखोगा अर किस ने उणां कोनी समझण री भूल करोगा?
तब उणां तपाक सूं कयो, "तो उणां रो ध्यान क्यूँकर होसी?"
मैं कयो के प्रेम रो अरथ आपणा प्रियतम ने आनन्दमूर्ति समझणो अर जाणणो होवै है।
तो उणां कयो के वे आनन्दमूर्ति क्यूँकर है?
मैं कयो, आनन्दमूर्ति समग्र में है, अत: समग्र में उणां ने देखणो है।
तब उणां कयो के आ क्यूँकर संभव है?
मैं कयो के उण आप'नै समग्र में राख्यो, उण जो कुछ बणायो वो समग्र में बणायो है, तब समग्र में देखणो असंभव कदैई कोनी हो सकै है।
उणां कयो के म्हाने दार्सनिक जाळ में मत ले जावो, सीधो-सीधो मूळ बात पर ही ले चालो!
मैं कयो के समग्र ने देखण री ताक़त आपणी समग्रता में ही है।
आपॉं समग्रता ने सूक्षम रूप में बिन्दु रै रूप में अर विराट रूप में परकास रै रूप में देख सकां हाँ। अत: साधक बिन्दु सूं लेर परकास तांई आपणी ताक़त ने फैलावण रै क्रम में ध्यान न्यारा-न्यारा तरीकां सूं केंद्रित करै है।
ईस क्रम में ध्यान रो सबसूं बड़ो तरीको गुरु ध्यान में है। गुरु ध्यान ही समग्रता रो ध्यान है है। अत: गुरु ने कदैई भी ब्यक्ति या ब्यक्तित्व समझण री भूल मत करज्यो। गुरु ब्ह्म है। उणां सूं सिवाय मानख रो कोई गुरु हो ही कोनी सकै है।
उणां कयो के इन थोड़ो चोखो समझावो।
मैं कयो के मैं कोई समझावणियो कोनी हूँ। मैं तो म्हारी बात राखूँ, थे उणने क्यूँकर समझो या कोनी समझो, यो थारो काम है।
आचार्य द्वारा बताई जावै ध्यान री विधी रै मूजब ध्यान मुद्रा में बैठ'र, उणां री समग्रता ने निहारता रैवो अर आपणी समग्र ताक़त ने उणमें छोड़ता जावो। जब तांई यूँ करता जावो, जब तांई एक अभाव री स्थिती रो बोध कोनी हो जावै। जद अभाव री स्थिती रो बोध होवण लागसी, तब गुरु में खो जावो। बठै जो कुछ भी मिळसी, वो आपांने ध्यान री गैराई में ले जासी। उणसूं आगै राही आप ही जाणै है के उण पूर्णत्व ने कतरों अंगीकार करयो है।
सीधा सबदां में कयो जावै तो आपणै 'मैंपण' ने छोड़ता जावो, जिके सूं ब्ह्म रो 'मैंपण' आपांने मिळतो रैसी।

देणवाळो: आनन्द किरण

पूंजीवाद के गढ़ में 'जन सामान्य' की आवाज़ : जोहरान ममदानी की जीत                       (The Voice of the Common Man in the Stronghold of Capitalism: Zohran Mamdani's Victory)
पूंजीवाद के गढ़ में 'जन सामान्य' की आवाज़ : जोहरान ममदानी की जीत

लेखक :- करण सिंह शिवतलाव

"जहाँ ट्रंप का उदंड है, उस पूंजी के अहंकार पर,
 एक नया बीज उगा, उम्मीदों की फसल का।"

जोहरान ममदानी का न्यूयॉर्क शहर का मेयर बनना महज़ एक राजनीतिक घटना नहीं, बल्कि एक युग-परिवर्तनकारी चिंतन का प्रादुर्भाव है। यह जीत उस विश्व-व्यवस्था पर एक सीधा वैचारिक प्रहार है, जहाँ अमेरिका और अधिकांश पूंजीवादी राष्ट्र यह शिक्षा देते रहे हैं कि सत्ता और सिंहासन केवल पूंजीपतियों की आस पर ही जीवित रह सकते हैं। ममदानी ने इस स्थापित नियम को चुनौती दी है, पूंजीवाद के गर्भ में आम आदमी की सोच को सत्ता एवं सिंहासन में प्रतिष्ठित कर दिया है। यह केवल एक राजनैतिक जीत नहीं, बल्कि प्रथम विश्व की दुनिया को दिया गया एक नया, प्रगतिशील चिंतन है।


भारतीय मूल के, अफ्रीका में जन्मे एक मुस्लिम परिवार के लड़के का न्यूयॉर्क जैसे वैश्विक वित्तीय केंद्र का नेतृत्व करना, निस्संदेह वैश्विक चिन्तन का विषय तो है ही। न्यूयॉर्क, जिसकी पहचान अकूत धन, कॉरपोरेट शक्ति और तीव्र आर्थिक असमानता से जुड़ी है, वहाँ एक डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट नेता का चुना जाना साबित करता है कि "इट्स हैपन्ड़ ऑन इन फर्स्ट वर्ड कंट्री"। यह घटना यह दर्शाती है कि विकसित देशों का नागरिक भी अब केवल लाभ-केंद्रित राजनीति से ऊब चुका है और उसे सामाजिक-आर्थिक न्याय पर आधारित वैकल्पिक व्यवस्था की तलाश है।

ममदानी की चुनावी सफलता, जो किराया-स्थिरता (Rent Stabilization), मुफ्त बस सेवा और मुफ्त सार्वजनिक शिशु देखभाल जैसे जन-कल्याणकारी वादों पर आधारित थी, इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि आम नागरिक अब अपने 'सिंहासन' पर 'पूंजी' नहीं, बल्कि 'मानवीय आवश्यकता' को देखना चाहता है। उन्होंने यह दिखा दिया कि पूंजीवादी समाज के अंदर भी बड़े पैमाने पर लोग ऐसे मॉडल की तलाश में हैं जो आर्थिक असमानता को खत्म कर सके और सरकार का फोकस मुनाफाखोरी की जगह जन-कल्याण पर हो।


ममदानी ने अपनी जीत के जश्न में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के 'ट्रिस्ट विद डेस्टिनी' भाषण के शब्दों को उद्धृत करके एक गहरा संदेश दिया है। नेहरू का यह आह्वान कि,
"हम पुराने से नए की ओर कदम बढ़ा रहे हैं, जब एक युग का अंत होता है और एक राष्ट्र की आत्मा को अभिव्यक्ति मिलती है,"

ममदानी की जीत को केवल स्थानीय नहीं, बल्कि वैश्विक विचारधारात्मक बदलाव के संदर्भ में स्थापित करता है।
भारत के लिए यह एक महत्वपूर्ण सोच है। भारत में इस 'आम आदमी की सोच' की सफलता का एक प्रयोग हम अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में देख सकते हैं। केजरीवाल की राजनीति ने यह दिखाया है कि सत्ता के सिंहासन पर धार्मिक/जातीय पहचान के बजाय बुनियादी नागरिक आवश्यकताओं (शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी) को केंद्र में रखकर भी निर्णायक जीत हासिल की जा सकती है। यह भारत में 'आम आदमी की सोच' के राजनीतिक विकल्प बनने का एक सफल प्रयोग है।


 "भारतवर्ष सत्ता के सिंहासन पर मजहब को लेकर चलता है", भारतीय राजनीति की एक कठोर और निराशाजनक वास्तविकता को दर्शाती है। यद्यपि संस्कृति एवं सभ्यता अवश्य ही व्यक्ति के सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सहायक होते हैं, तथापि उसको मजहबीय सोच के साथ परोसना निस्संदेह अधर्म है। राजनीति का मूल आधार मजहब नहीं, बल्कि सार्वभौमिक मानवता और आर्थिक न्याय होना चाहिए।
 "पहचान की जंजीरें टूटें, विचार की मशाल जले,
 सत्ता का शिखर छूने को, आम आदमी भी चले।"

जोहरान ममदानी की सफलता, जहाँ उन्होंने अपनी मुस्लिम पहचान को अपने प्रगतिशील सोशलिस्ट एजेंडे से पीछे रखा, इस बात का प्रमाण है कि विचारधारा की राजनीति पहचान की राजनीति पर भारी पड़ सकती है। यह भारतीय राजनीतिक चिंतन के लिए एक महत्वपूर्ण सबक है।

अतः, प्राउटिस्टों (Progressive Utilization Theorists) को अपने सामाजिक आर्थिक आंदोलन तथा राजनैतिक विकल्प के लिए एक नया सूत्र देना होगा। यह सूत्र, जो ममदानी और केजरीवाल के अनुभवों से प्रेरणा ले सकता है, निम्नलिखित बिन्दुओं पर आधारित होना चाहिए। 


* प्राउटिस्टों को ममदानी की तरह, जन-कल्याणकारी नीतियों का एक आकर्षक और व्यवहार्य खाका जनता के सामने प्रस्तुत करना होगा।

* इसमें न्यूनतम आवश्यकता की गारंटी (Minimum Necessities Guarantee) और धन तथा संपत्ति के विकेंद्रीकरण की स्पष्ट योजनाएं शामिल होनी चाहिए, ताकि यह संदेश दिया जा सके कि उनकी राजनीति का मूल लक्ष्य केवल मुनाफा नहीं, बल्कि हर नागरिक का कल्याण है।
* स्थानीय रोजगार सृजन और सहकारी आर्थिक मॉडल को प्राथमिकता देनी होगी।


* प्राउट (PROUT) की विचारधारा सांस्कृतिक उत्थान को महत्व देती है, लेकिन सत्ता की राजनीति को मजहबीय पहचान या मजहबी सोच से पूरी तरह मुक्त रखना आवश्यक है।

* सत्ता का सिंहासन केवल मानवीय मूल्यों और सार्वभौमिक सामाजिक आर्थिक हितों के आधार पर स्थापित किया जाना चाहिए।

* सांस्कृतिक मूल्यों को सामाजिक चेतना बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करना, लेकिन उन्हें राजनीतिक हथियार नहीं बनने देना।

 3. युवा और वैचारिक नेतृत्व (Youth and Ideological Leadership) : -

* ममदानी की जीत में युवा और प्रगतिशील मतदाताओं की बड़ी भूमिका थी। प्राउटिस्टों को भी युवा नेतृत्व को आगे लाना होगा जो परिवर्तन की ऊर्जा से भरा हो।

* सोशल मीडिया और आधुनिक संचार तकनीक का उपयोग करके अपनी "जनसामान्य की सोच" को प्रभावी ढंग से, सरल भाषा में जनता तक पहुंचाना होगा।

* विचारधारा को व्यक्तिगत या स्थानीय पहचान से ऊपर रखना।

 4. जन-समस्याओं पर सीधा ध्यान (Direct Focus on People's Issues) : - 
* केजरीवाल मॉडल की तरह, राजनीति को धर्म और जाति से हटाकर सीधे नागरिक समस्याओं (बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन) पर केंद्रित करना।

* शासन को पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त बनाने पर ज़ोर देना, जो आम आदमी के विश्वास को जीतने के लिए अपरिहार्य है।


 "रणभेरी बज चुकी है, अब नए युग का आगाज है,
 सपनों को यथार्थ करने का, अब नया मिजाज है।"

जोहरान ममदानी की विजय, एक ऐसे दौर में जब वैश्विक पूंजीवाद की विषमताओं ने अमीर और गरीब के बीच की खाई को और चौड़ा कर दिया है, एक उम्मीद की किरण है। यह वैश्विक पटल पर उस नई राजनीतिक चेतना का उदय है जो कहती है कि सर्वजन हित व सर्वजन सुख ही अंतिम सत्ता है। यह एक स्पष्ट संकेत है कि पूंजीवादी गढ़ भी अब सर्वजन हित व सुख की सोच के आगे झुकने को तैयार है।

ममदानी सोच कितनी सफल होगी, यह ममदानी के मेयर के रूप में उठाए गए कदमों और उनके परिणामों पर निर्भर करेगा— यह तो युग ही बताएगा। लेकिन इसने एक नया चिंतन आरंभ कर दिया है, एक ऐसा चिंतन जो भारत जैसे विश्व के सभी लोकतांत्रिक देश के लिए भी मजहबी राजनीति से ऊपर उठकर सर्वजन हित, सर्वजन सुख के शासन की दिशा में एक स्पष्ट मार्ग प्रशस्त करता है।

आओ प्राउटिस्टों एक संकल्प लें एक नये युग का निर्माण करें, जहाँ प्रगतिशील उपयोग तत्व सर्वजन हित एवं सर्वजन सुख के प्रचारित उद्देश्य को सफल बने।



Author: Karan Singh Shivtalav

"Where Trump's arrogance reigns, on the arrogance of capital,
a new seed has sprouted, a harvest of hope."

Zohran Mamdani's election as Mayor of New York City is not merely a political event, but the emergence of an epoch-making thought. This victory is a direct ideological attack on the world order, where America and most capitalist nations have been teaching that power and thrones can only survive on the hopes of capitalists. Mamdani has challenged this established rule, establishing the common man's thinking within the very heart of capitalism. This is not merely a political victory, but a new, progressive thought presented to the First World.

The Acceptance of Socialist Thought in the First World: Evidence of a Reality

The leadership of a Muslim family of Indian origin, born in Africa, in a global financial center like New York is undoubtedly a subject of global concern. The election of a Democratic Socialist leader in New York, a country known for immense wealth, corporate power, and extreme economic inequality, proves that "It Happened on in First World Country." This event demonstrates that even citizens in developed countries are fed up with profit-driven politics and are seeking an alternative system based on socio-economic justice.

Mamdani's electoral success, based on public welfare promises such as rent stabilization, free bus service, and free public childcare, is clear evidence that ordinary citizens now want to see "human needs," not "capital," on their "throne." He demonstrated that even within a capitalist society, the masses are seeking a model that eliminates economic inequality and shifts government's focus from profiteering to public welfare.

Nehru's Quote and the Indian Context: "When an Era Ends..."

In celebrating his victory, Mamdani conveyed a profound message by quoting the words of India's first Prime Minister, Jawaharlal Nehru, from his "Tryst with Destiny" speech. Nehru's call, "We are moving from the old to the new, when an era ends and the soul of a nation finds expression,"

places Mamdani's victory in the context of not just a local but a global ideological shift.

This is an important thought for India. We can see an example of the success of this "common man's thinking" in India under the leadership of Arvind Kejriwal. Kejriwal's politics has shown that decisive victory can be achieved by placing basic civic needs (education, health, electricity, water) at the center of power, rather than religious/caste identity. This is a successful experiment in India's emergence of the "common man's thinking" as a political alternative.

Religion, Politics, and a New Formula for Proutists

"India rides on the throne of power with religion" reflects a harsh and depressing reality of Indian politics. While culture and civilization certainly contribute to a person's socio-economic advancement, serving them with religious thinking is undoubtedly unrighteous. The foundation of politics should not be religion, but universal humanity and economic justice.
"Let the chains of identity be broken, let the torch of thought be lit,
Let even the common man strive to reach the pinnacle of power."

Zohran Mamdani's success, where he placed his Muslim identity behind his progressive socialist agenda, is proof that the politics of ideology can prevail over the politics of identity. This is an important lesson for Indian political thought.

Therefore, Proutists (Progressive Utilization Theorists) must develop a new formula for their socio-economic movement and political alternative. This formula, which can draw inspiration from the experiences of Mamdani and Kejriwal, should be based on the following points.

1. Clear Economic Justice Blueprint:

* Proutists, like Mamdani, must present an attractive and viable blueprint of public welfare policies to the public.

* This should include a Minimum Necessities Guarantee and clear plans for the decentralization of wealth and property, to convey the message that the primary goal of their politics is not mere profit, but the welfare of every citizen.

* Local employment generation and cooperative economic models must be prioritized.

2. Cultural but Religious Neutrality:

* Prout ideology emphasizes cultural upliftment, but it is essential to keep power politics completely free from religious identity or religious thinking.

* Power should be established solely on the basis of human values ​​and universal socio-economic interests.

* Cultural values ​​should be used to raise social consciousness, but not to allow them to become political weapons.

3. Youth and Ideological Leadership:

* Young and progressive voters played a major role in Mamdani's victory. Proutists must also bring forward young leadership that is full of the energy for change.

* Using social media and modern communication technologies, they must effectively communicate their "common people's thinking" to the public in simple language.

* Putting ideology above personal or local identity.

4. Direct Focus on People 's Issues): -
* Like the Kejriwal model, delinking politics from religion and caste and focusing directly on civic issues (electricity, water, education, health, and transportation).

* Emphasize transparency and corruption-free governance, which is essential to winning the trust of the common man.

Conclusion: The Test of the Era

"The war cry has been sounded; a new era has begun.

There is a new mood now to make dreams come true."

Zohran Mamdani's victory, at a time when the inequalities of global capitalism have widened the gap between rich and poor, is a ray of hope. It marks the emergence of a new political consciousness on the global stage that asserts that the welfare and happiness of all are the ultimate authority. This is a clear indication that even the capitalist bastion is now ready to bow to the vision of the welfare and happiness of all.

How successful the Mamdani vision will be will depend on the steps Mamdani takes as mayor and their results—only time will tell. But it has initiated a new thinking, one that transcends religious politics and paves a clear path towards governance for the welfare of all, for the happiness of all, even for democratic countries like India.

Come, Proutists, let us pledge to create a new era where progressive utilitarian elements fulfill the proclaimed objective of the welfare of all, for the happiness of all.
परम सत्य , परम आनन्द एवं परम पद (Ultimate Truth, Ultimate Bliss and Ultimate State/Goal)
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 ✍️       आनन्द किरण
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(विभिन्न मतों का तुलनात्मक-विश्लेषणात्मक अध्ययन) 

परम सत्य (Ultimate Truth), परम आनन्द (Ultimate Bliss) एवं परम पद (Ultimate State/Goal) की संकल्पनाएँ मानव चिंतन और दार्शनिक खोज का केंद्रीय आधार रही हैं। प्रत्येक मत या दर्शन ने इन त्रयी अवधारणाओं को अपने सिद्धांतों के आलोक में परिभाषित किया है। 


भारतीय दार्शनिक प्रणालियाँ (आस्तिक और नास्तिक दोनों) आत्मा और पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति पर ध्यान केंद्रित करती हैं।


(१) परम सत्य : - हिन्दू दर्शन में परम सत्य ब्रह्म है—वह एकमात्र अंतिम वास्तविकता जो शाश्वत, निराकार और सर्वव्यापी है।

(२) परम आनन्द :- परम आनन्द को सच्चिदानन्द (सत-चित-आनंद) कहा जाता है, जो ब्रह्म का मौलिक स्वरूप है। यह आनन्द आत्मा के ब्रह्म में लीन होने की अवस्था में प्राप्त होता है। 

(३) परम पद : - परम पद मोक्ष (मुक्ति) है, जहाँ आत्मा अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाती है।

                    जैन मत

(१) परम सत्य :-  जैन दर्शन में परम सत्य को अनेकान्तवाद (सत्य के अनेक पहलू) के सिद्धांत से जाना जाता है। सत्य छह शाश्वत द्रव्यों में निहित है।

(२) परम आनन्द :- परम आनन्द केवल ज्ञान की प्राप्ति से उत्पन्न अनंत सुख है, जो कर्मों के बंधन से आत्मा के पूर्ण मुक्त होने पर प्राप्त होता है। 

(३)परम पद :- परम पद सिद्धशिला है, जो संसार के शीर्ष पर स्थित वह क्षेत्र है जहाँ मुक्त आत्माएँ (सिद्ध) अनंत काल तक वास करती हैं।

                    बौद्ध मत 

(१) परम सत्य :- बौद्ध मत में परम सत्य चार आर्य सत्यों और प्रतीत्यसमुत्पाद (सापेक्षता का नियम) में निहित है। सत्य यह है कि सब कुछ अनित्य है और दुःख का मूल तृष्णा है। 

(२) परम आनन्द : - परम आनन्द को निर्वाण कहा जाता है, जो तृष्णा का पूर्ण निरोध होने से प्राप्त अद्वितीय शान्ति और सुख है। यह दुःख का पूर्ण अभाव है।

(३) परम पद : - परम पद भी निर्वाण ही है, जो पुनर्जन्म के चक्र (संसार) से पूर्ण मुक्ति है।

 
(१) परम सत्य :- चार्वाक भौतिकवादी दर्शन में परम सत्य केवल प्रत्यक्ष (जो इंद्रियों से अनुभव हो) है; यह संसार ही एकमात्र वास्तविकता है। वे किसी भी आध्यात्मिक या पारलौकिक सत्य को अस्वीकार करते हैं।

(२) परम आनन्द :- परम आनन्द इंद्रिय सुख (अधिकतम लौकिक भोग) है। 

(३) परम पद :- उनके लिए परम पद जैसी कोई संकल्पना नहीं है, क्योंकि वे मानते हैं कि मृत्यु के बाद चेतना और देह दोनों का पूर्णतः अंत हो जाता है।

                 सिख मत

(१) परम सत्य :- सिख मत का परम सत्य इक ओंकार है—एक ही निराकार, सर्वव्यापी ईश्वर। यह सत्य गुरु और नाम (ईश्वरीय नाम) के माध्यम से जाना जाता है। 

(२) परम आनन्द :- परम आनन्द को सहज अवस्था या अखण्ड आनंद कहा जाता है, जो गुरु की कृपा और नाम सिमरन से प्राप्त संतुलित मानसिक स्थिति है। 

(३) परम पद :- परम पद सचखण्ड (सत्य का क्षेत्र) या मुक्ति है, जहाँ आत्मा ईश्वर के जोत (प्रकाश) में विलीन हो जाती है।


इन मतों का केंद्र बिंदु एक सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता ईश्वर, उसके आदेशों का पालन और परलोक में उसके साथ शाश्वत मिलन है।

                  ईसाई मत 

(१) परम सत्य :- ईसाई मत में परम सत्य परमेश्वर की त्रयता (पिता, पुत्र, पवित्र आत्मा) में है। यीशु मसीह में ईश्वर का अवतार सत्य है, जो बाइबिल के वचन में प्रकट होता है।

(२) परम आनन्द :- परम आनन्द स्वर्ग में प्राप्त शाश्वत जीवन है, जहाँ आत्मा ईश्वर के प्रेम और उसकी उपस्थिति में निवास करती है।

(३) परम पद :- परम पद स्वर्ग और ईश्वर का राज्य है, जहाँ विश्वासी पुनरुत्थान के बाद अनन्तकाल तक ईश्वर के साथ संगति करेंगे।

                 इस्लाम मत 

(१) परम सत्य :- इस्लाम का परम सत्य अल्लाह की तौहीद (पूर्ण एकेश्वरवाद) है। अल्लाह एकमात्र ईश्वर है, और कुरान में उसका इरादा (विल) प्रकट होता है। 

(२) परम आनन्द :- परम आनन्द जन्नत (स्वर्ग) में प्राप्त होता है। जन्नत का सर्वोच्च सुख भौतिक नहीं, बल्कि स्वयं अल्लाह का दीदार (ईश्वर के मुख का दर्शन) है।

(३) परम पद :- परम पद जन्नत है, जहाँ विश्वासी पूर्ण और शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं।

                   यहूदी मत

(१) परम सत्य : - यहुदी मत में परम सत्य याह्वेह (ईश्वर) की एकता और तौराह (ईश्वरीय नियम) में है, जिसका पालन करना मानव का कर्तव्य है।

(२) परम आनन्द :- परम आनन्द इस जीवन में मिज़्वा (नियमों) का पालन करने से प्राप्त होता है, जो भविष्य में ओलम हा-बा (आने वाली दुनिया) में ईश्वर की उपस्थिति में शाश्वत सुख में बदल जाता है।

(३) परम पद :- परम पद ओलम हा-बा या मसीहाई युग है, जहाँ संपूर्ण विश्व ईश्वर के नियम के अधीन होगा।

                  पारसी मत

(१) परम सत्य :- पारसी मत में परम सत्य अहुरा मज़्दा (सर्वज्ञ ईश्वर) है, जो आषा (नैतिक व्यवस्था या धार्मिकता) के नियम का सृजनकर्ता है। 

(२) परम आनन्द :- परम आनन्द अच्छे विचारों, शब्दों और कर्मों के माध्यम से प्राप्त ईश्वरीय सान्निध्य है, जो मृत्यु के बाद बेहेश्त (स्वर्ग) में शाश्वत आनंद के रूप में फलित होता है। 

(३) परम पद :- परम पद बेहेश्त है, जहाँ आत्मा अच्छे कर्मों के कारण अहुरा मज़्दा के निकट निवास करती है।


आनन्द मार्ग दर्शन, परम सत्य, परम आनन्द एवं परम पद की अवधारणाओं को एक अद्वितीय दार्शनिक संश्लेषण में प्रस्तुत करता है।

(१) परम सत्य :- आनन्द मार्ग के लिए, परम सत्य ब्रह्म ही है, यह शिव (चैतन्य) और शक्ति (सृजनशील क्रिया) का एक गतिशील मिश्रण है। यह सिद्धांत निराकार और साकार ईश्वर के बीच की खाई को पाटता है।

(२) परम आनन्द :- परम आनन्द स्वयं आनन्द है।  आनन्द व ब्रह्म एक ही है, जो हर जीव के भीतर अंतर्निहित है। यह कोई बाहरी उपलब्धि नहीं, बल्कि आत्मानुभूति है। आनन्द मार्ग इसे प्राप्त करने के लिए राजाधिराज योग और साधना  को एक वैज्ञानिक, व्यावहारिक मार्ग के रूप में प्रस्तुत करता है, जिससे इस आनन्द की प्राप्ति वर्तमान जीवन में ही संभव हो सके।

(३) परम पद :- परम पद अपवर्ग (मोक्ष) है—आत्मा का उस अनंत और शाश्वत ब्रह्म में विलीन हो जाना। यह सभी द्वैत (Duality) से परे की स्थिति है।


मैने आनन्द मार्ग का दर्शन अन्य मतों की तुलना में सबसे उचित इसलिए है। 

 (१) पूर्ण संश्लेषण : - यह सभी मतों की परम सत्य की अवधारणाओं (निराकार चैतन्य और सगुण ईश्वर) को शिव और शक्ति के माध्यम से एकीकृत करता है।

 (२) व्यावहारिक मार्ग : -  यह परम आनन्द को केवल आस्था का विषय न मानकर, साधना के माध्यम से वर्तमान जीवन में ही अनुभव करने का एक वैज्ञानिक, सुव्यवस्थित मार्ग प्रदान करता है।

(३) सार्वभौमिकता और सेवा : -  यह केवल व्यक्तिगत मुक्ति व मोक्ष तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक सेवा (सेवा धर्म) को आध्यात्मिक जीवन का अनिवार्य हिस्सा मानता है, ताकि संपूर्ण जगत (सर्वमुक्ति) परम आनन्द को प्राप्त कर सके।

(४) यह समग्र दृष्टिकोण —जो ज्ञान, भक्ति और कर्म के मार्ग को समाहित करता है—आनन्द मार्ग को परम सत्य, परम आनन्द एवं परम पद की प्राप्ति का सबसे उन्नत और व्यावहारिक दर्शन सिद्ध करता है।





Ultimate Truth, Ultimate Bliss, and the Ultimate State
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✍️ Anand Kiran
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(A comparative-analytical study of various schools of thought)

The concepts of Ultimate Truth, Ultimate Bliss, and the Ultimate State/Goal have been central to human thought and philosophical inquiry. Each school of thought or philosophy has defined these three concepts in light of its own principles.

1. Indian Philosophy

Indian philosophical systems (both theistic and atheistic) focus on the soul and liberation from the cycle of rebirth.

Hinduism (Vedanta)

(1) Ultimate Truth: - In Hindu philosophy, the ultimate truth is Brahman—the one ultimate reality that is eternal, formless, and omnipresent.

(2) Ultimate Bliss: - Ultimate bliss is called Sachchidananda (Sat-Chit-Ananda), which is the fundamental nature of Brahman. This bliss is attained when the soul merges with Brahman.

(3) Ultimate State: The ultimate state is liberation (moksha), where the soul attains its original state and is freed from the cycle of birth and death.

Jainism

(1) Ultimate Truth: In Jain philosophy, the ultimate truth is known through the principle of Anekantavada (many aspects of truth). Truth is contained in six eternal elements.

(2) Ultimate Bliss: The ultimate bliss is the infinite happiness resulting from the attainment of knowledge, attained only when the soul is completely free from the bondage of karma.

(3) Ultimate State: The ultimate state is Siddhashila, the realm at the top of the world where liberated souls (siddhas) reside for eternity.

Buddhism

(1) Ultimate Truth: In Buddhism, the ultimate truth lies in the Four Noble Truths and Pratityasamutpada (the law of relativity). The truth is that everything is impermanent, and the root of suffering is craving.

(2) Ultimate Bliss: Ultimate bliss is called nirvana, which is the unparalleled peace and happiness achieved through the complete cessation of craving. It is the complete absence of suffering.

(3) Ultimate State: Ultimate state is also nirvana, which is complete liberation from the cycle of rebirth (saṃsāra).

Charvaka (Lokayata) School

(1) Ultimate Truth: In the Charvaka materialistic philosophy, ultimate truth is only perceptible (that which is experienced through the senses); this world is the only reality. They reject any spiritual or transcendental truth.

(2) Ultimate Bliss: Ultimate bliss is sensual pleasure (maximum worldly enjoyment).

(3) Ultimate State: For them, there is no concept of ultimate state, as they believe that after death, both consciousness and body completely end.

Sikhism

(1) Ultimate Truth: The ultimate truth of Sikhism is Ek Omkar—the one formless, omnipresent God. This truth is known through the Guru and the Naam (Divine Name).

(2) Ultimate Bliss: Ultimate Bliss is called Sahaja Vaastha or Akhand Anand, a balanced mental state attained through the Guru's grace and Naam Simran.

(3) Ultimate Bliss: Ultimate Bliss is Sachkhand (Realm of Truth) or liberation, where the soul merges into the light of God.

2. Abrahamic and Other Religions

The focus of these religions is an omnipotent Creator God, obedience to His commandments, and eternal union with Him in the afterlife.

Christianity

(1) Ultimate Truth: In Christianity, the ultimate truth resides in the Trinity of God (Father, Son, and Holy Spirit). The incarnation of God in Jesus Christ is the truth, revealed in the Bible.

(2) Ultimate Bliss: Ultimate Bliss is eternal life in heaven, where the soul dwells in God's love and presence.

(3) The Ultimate Reality: The ultimate reality is heaven and the kingdom of God, where believers will be in communion with God for eternity after the resurrection.

Islamic Faith

(1) The Ultimate Reality: The ultimate truth of Islam is the tawhid (absolute monotheism) of Allah. Allah is the only God, and His will is revealed in the Quran.

(2) The Ultimate Reality: The ultimate reality is attained in Paradise (heaven). The highest happiness in Paradise is not physical, but the vision of Allah Himself (the face of God).

(3) The Ultimate Reality: Paradise is where believers experience complete and eternal happiness.

Judaism

(1) The Ultimate Reality: In Judaism, the ultimate truth lies in the oneness of Yahweh (God) and the Torah (Divine Law), which it is the duty of humanity to follow.

(2) Ultimate Bliss: Ultimate bliss is achieved by following the mizva (laws) in this life, which translates into eternal bliss in the presence of God in the future, Olam Ha-Ba (the world to come).

(3) Ultimate Bliss: Ultimate Bliss is Olam Ha-Ba, or the Messianic Age, where the entire world will be subject to God's law.

Zoroastrianism

(1) Ultimate Truth: In Zoroastrianism, the ultimate truth is Ahura Mazda (the omniscient God), the creator of the law of asha (moral order or righteousness).

(2) Ultimate Bliss: Ultimate Bliss is divine proximity achieved through good thoughts, words, and deeds, which results in eternal bliss in Behesht (heaven) after death.

(3) Ultimate Bliss: Ultimate Bliss is Behesht, where the soul resides near Ahura Mazda due to good deeds.

3. Ananda Marga's Viewpoint

Ananda Marga philosophy presents the concepts of Absolute Truth, Absolute Bliss, and the Supreme State in a unique philosophical synthesis.

(1) Absolute Truth: For Ananda Marga, the Absolute Truth is Brahman, a dynamic blend of Shiva (consciousness) and Shakti (creative action). This principle bridges the gap between the formless and the embodied God.

(2) Ultimate Bliss: Ultimate Bliss is bliss itself. Bliss and Brahman are one and the same, inherent within every living being. It is not an external achievement, but a self-realization. Ananda Marg presents Rajadhiraj Yoga and Sadhana as a scientific, practical path to attain it, making it possible to attain this bliss in the present life itself.

(3) Ultimate State: Ultimate State is liberation (Moksha)—the merging of the soul with the infinite and eternal Brahman. This is a state beyond all duality.

Conclusion: The Supreme View of Ananda Marg

I find Ananda Marg's philosophy the most appropriate compared to other schools of thought because:

(1) Complete Synthesis: It integrates all schools of thought's concepts of ultimate truth (formless consciousness and personal God) through Shiva and Shakti.

(2) Practical Path: - It does not consider ultimate bliss merely a matter of faith, but provides a scientific, systematic way to experience it in the present life through spiritual practice.

(3) Universality and Service: - It is not limited to personal liberation and moksha, but considers social service (seva dharma) as an essential part of spiritual life so that the entire world (sarvamukti) can attain ultimate bliss.

(4) This holistic approach—which encompasses the paths of knowledge, devotion, and action—proves Anand Marg to be the most advanced and practical philosophy for attaining ultimate truth, ultimate bliss, and ultimate state.

चैतन्य के विभिन्न स्तर : एक आध्यात्मिक शोध ( Different Levels of Consciousness: A Spiritual Research)

चैतन्य के सम्पूर्ण विस्तार को समझने का यह प्रयास आनन्द मार्ग के अध्यात्म दर्शन पर आधारित है, जो अस्तित्व के समस्त आयामों को ऊर्ध्व एवं निम्न लोकों के माध्यम से प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त करता है।



यह चैतन्य का सर्वोच्च एवं चरम स्तर है, जो मानस सीमा (मन) से पूर्णतः परे है। यह परम सत्य की अवस्था है और निर्गुण ब्रह्म (निराकार, निर्विशेष ब्रह्म) का शाश्वत निवास स्थल है। इस लोक को परम तारकब्रह्म का धाम भी माना जाता है।  जो सगुण स्पर्श किये हुए हैं।यहाँ अणु चैतन्य  और भूमा चैतन्य का अभिसरण होता है, जो अस्तित्व की मूलभूत प्रकृति सत्-चित्-आनन्द (सच्चिदानंद) के रूप में प्रकट होती है। यह विशुद्ध, अप्रतिबंधित परम आनन्द की अवस्था है। मोक्ष की अवस्था। 


ये सात लोक मन के क्रमिक ऊर्ध्वमुखी विकास और मन की विभिन्न अवस्थाओं को दर्शाते हैं। 


यह परमपुरुष का स्थल तथा सगुण ब्रह्म का निवास है। यह महत्त तत्व  और अहं तत्व  की उच्चतम भूमि है। यह मुक्ति की वह अवस्था है जहाँ जीवात्मा अपने शुद्ध आध्यात्मिक स्वरूप में स्थित होती है।


यह सिद्ध पुरुष एवं तपस्वी जीवों का निवास स्थान है। यह ईश्वर कोटि की चेतना है, जहाँ शुद्ध, केंद्रित आध्यात्मिक ऊर्जा व्याप्त रहती है। इसे हिरण्यमय लोक  भी कहा जाता है, जो कठोर तपस्या से प्राप्त होता है। बोधि की स्थिति है। 


यह विशेष जन जैसे ऋषि, मुनि, वैज्ञानिक एवं दार्शनिक (जिन्हें उच्च ज्ञान प्राप्त है) का स्तर है। यह लोक विज्ञानमय कोष  से संबंधित है, जो विशेष बुद्धि, विवेक और उच्च अंतर्ज्ञान को संचालित करता है।


यह महान स्थल या विराट चेतना का लोक है। यह महापुरुषों के जीने का स्तर है, जिसे अक्सर अतिमानस लोक के रूप में भी समझा जाता है, जहाँ से वैश्विक सत्य और सार्वभौमिक चेतना का ज्ञान प्राप्त होता है।


यह मनुष्य से उन्नत जीव (देवयोनी) का निवास है। यह देवगुण (सत्त्व प्रवृत्ति) वाले लोगों का स्तर है। यह लोक मनोमय कोष  से जुड़ा है, जो विचारों, इच्छाओं और भावनाओं के सूक्ष्म रूप का प्रबंधन करता है।


यह उन्नत मनुष्य का स्तर है, जो पंचभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से बने स्थूल शरीर में होते हुए भी उच्च समझ रखते हैं। यह स्थूल मन की ही सूक्ष्म अवस्था को दर्शाता है, जहाँ मानसिक एवं भावनात्मक गतिविधियाँ अपेक्षाकृत परिष्कृत होती हैं। यद्यपि स्थूल लोक फिर चेतना का विकास है। 


यह साधारण मनुष्य श्रेणी के जीवों का लोक है। यह स्थूल मन की जड़ अवस्था है, जहाँ चेतना भौतिक शरीर और संसार से अत्यधिक जुड़ी रहती है। यह काम मय कोष है।‌ 

इसे लोक से नीचे के स्तरों को मनुष्य योनि से निम्न जीवन माना जाता है।


सप्त-पाताल निम्न चेतना के सात स्तरों का प्रतीकात्मक चित्रण करते हैं, जो मन के भौतिक बंधन की तीव्रता को दर्शाते हैं। 


'तल' भूलोक की सतह के समीप का स्तर है। इसका शाब्दिक अर्थ तल पर होता है। यह प्रतीकात्मक रूप से पशु योनि (जरायुज/स्तनधारी) को दर्शाता है। इस स्तर की चेतना मुख्यतः सहज प्रवृत्ति (Instinct) और बुनियादी आवश्यकताओं पर केंद्रित होती है।


'अतल' तल के नीचे का स्तर है, जो पक्षी योनि (अंडज) का प्रतिनिधित्व करता है। अतल का शाब्दिक अर्थ तल रहित है।यह गतिशीलता और सीमित स्वतंत्रता का प्रतीक है। अंडज जीव, भौतिक तल और आध्यात्मिक आकाश के मध्य सेतु का कार्य करते हैं।


'वितल' अतल से नीचे का स्तर है, जिसका शाब्दिक अर्थ तल सहित है। जिसे कृमि अथवा सरीसृप योनि से जोड़ा गया है। यह चेतना के उस निम्नतम स्तर को दर्शाता है जो सीमित गतिशीलता के साथ मंद गति से प्रगति करता है।


'तलातल' वितल के नीचे का स्तर है। इसका शाब्दिक तल एवं ऊपर नीचे। इसको प्रतीकात्मक रूप से स्थावर योनि (पेड़-पौधे) को दर्शाता है। यह पूर्ण जड़ता (Inertia) और स्थिरता का द्योतक है, जहाँ सक्रिय गतिशीलता का पूर्ण अभाव होता है।


'पाताल' तलातल के नीचे का स्तर है, जिसे जलचर जीवों की श्रेणी में लिया गया है। पाताल का शब्द तल के नीचे।  जलचर योनि जीवन के उद्गम (Origin) को इंगित करती है, जहाँ चेतना तरल एवं गहन जलमय वातावरण में अपने आरंभिक रूपों में सक्रिय होती है।


'अतिपाताल' पाताल से भी नीचे का स्तर है, जो जीवन के सूक्ष्म या आरंभिक प्रयास (एककोशिकीय जीव) की श्रेणी को दर्शाता है। इस स्तर पर, मन भौतिक रूप में अपनी इकाई को विकसित करने का बुनियादी, मूलभूत प्रयास कर रही होती है। अति पाताल का शाब्दिक अर्थ  तल से इतना नीचे अर्थात सूक्ष्म की सामान्यतः अदृश्य हो। 


'रसातल' सबसे निम्नतम स्तर है, जिसे जड़ वस्तु बनने या पूर्ण अचेतनता (Absolute Inertia) से जोड़ा गया है। यह वह चरम निम्नतम बिंदु है जहाँ जीवात्मा भौतिक बंधन में पूरी तरह से निष्क्रिय (dormant) और निर्जीव हो जाती है (जैसे: पत्थर, खनिज)। रसातल का शाब्दिक अर्थ तल में रसापसा अर्थात तल तुल्य, भौतिक स्थिति, जैविक स्थिति रहित। 

सारांश : -  चैतन्य की विशुद्ध अवस्था से लेकर चरम जड़त्तम अवस्था का एक विज्ञान है। जो एक साधक के लिए जानना नितांत जरुरी है। 
प्रउत  : एक सरकार अथवा समाज (PROUT : GOVERNMENT AND SAMAJ)

 प्रउत को प्रगतिशील उपयोग तत्व (Progressive Utilization Theory) कहा जाता है। यह एक ऐसा दर्शन है जो श्री पी.आर. सरकार (प्रभात रंजन सरकार) द्वारा प्रतिपादित किया गया है। आज हम उसके समाज आंदोलन एवं एक आदर्श राजनैतिक दल के स्वरूप के संदर्भ में समझेंगे। 


आज की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में, जब प्रचलित प्रणालियाँ अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही हैं, एक मौलिक प्रश्न उभर कर सामने आता है: प्रउत (PROUT) – एक सरकार अथवा समाज? यह प्रश्न मात्र शब्दाडंबर का नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के भविष्य की दिशा तय करने वाला है। इसलिए, हमें अन्य सभी विषयों को रोककर, इस प्रगतिशील दर्शन की प्रकृति और विस्तार को गहराई से समझना होगा।

प्रउत का पूरा नाम प्रगतिशील उपयोग तत्व (Progressive Utilization Theory) है। प्रथम दृष्टया, 'उपयोग तत्व' शब्द का संबंध अर्थव्यवस्था से होने के कारण यह एक अर्थव्यवस्था के रूप में नजर आता है। इसका मुख्य उद्देश्य संसाधनों का अधिकतम उपयोग और तर्कसंगत वितरण सुनिश्चित करना है। लेकिन, प्रउत को केवल एक आर्थिक मॉडल मान लेना उसके साथ न्याय नहीं होगा। यह एक बहुआयामी दर्शन है जो आध्यात्मिक नैतिकता, सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक उत्थान और पर्यावरण संरक्षण को अपनी बुनियाद बनाता है। इसलिए, प्रउत को मात्र एक अर्थव्यवस्था या एक राजनीतिक व्यवस्था कहना अपूर्ण है; यह वास्तव में एक सम्पूर्ण व्यवस्था है।


प्रउत दर्शन पाँच मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है, जो इसकी व्यापकता को दर्शाते हैं:

 उपयोग का सिद्धांत : संसार की सभी वस्तुओं (भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक) का उपयोग विवेकपूर्ण एवं अधिकतम होना चाहिए।

 वितरण का सिद्धांत : संसार के संसाधनों का वितरण सभी मनुष्यों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के आधार पर होना चाहिए।

 प्रगति का सिद्धांत : व्यक्ति और समाज की प्रगति एक साथ और समन्वित रूप से होनी चाहिए।

 मनुष्य का आध्यात्मिक विकास : मनुष्य को अपने आंतरिक और आध्यात्मिक विकास के लिए पूर्ण अवसर मिलना चाहिए।

 सामूहिक विकास : व्यक्ति और समाज की उन्नति के साथ-साथ सभी जीव-जंतुओं और प्रकृति का भी संरक्षण एवं विकास सुनिश्चित होना चाहिए।

ये सिद्धांत स्पष्ट करते हैं कि प्रउत केवल उत्पादन और वितरण की बात नहीं करता, बल्कि यह मनुष्य के अध्यात्मिक विकास और सर्वोच्च नैतिकता पर भी जोर देता है। नैतिकता के बिना अर्थशास्त्र एक शोषणकारी यंत्र बन सकता है, और केवल अर्थशास्त्र के बिना आध्यात्मिकता एकाकी हो सकती है। प्रउत इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह दर्शन इस बात पर बल देता है कि समाज और सरकार दोनों ही आध्यात्मिक मूल्यों से निर्देशित हों।


यह समझने के लिए कि प्रउत समाज और सरकार दोनों क्यों है, हमें इन दोनों संस्थाओं के मध्य के मौलिक संबंध को समझना होगा। सरकार शब्द का अर्थ है 'समाज को चलाने की एक सुव्यवस्था' (Good System of Governance)। वहीं, समाज का एक महत्वपूर्ण कार्य है कि वह सरकार को सुव्यवस्थित रखने का सशक्त साधन बने। यह संबंध एक द्विपक्षीय क्रिया है, जिसे एक प्रसिद्ध उक्ति में पिरोया जा सकता है: "जैसा समाज, वैसी सरकार; जैसी सरकार, वैसा समाज।"

यह उक्ति गहन सत्य को दर्शाती है। यदि समाज नैतिक, शिक्षित और जागरूक है, तो वह ऐसी सरकार का निर्माण करेगा जो जनहितैषी हो और कानून का पालन करे। इसके विपरीत, यदि समाज स्वार्थ, भ्रष्टाचार और अज्ञानता से ग्रस्त है, तो सरकार भी उसी चरित्र को प्रतिबिंबित करेगी, चाहे वह कितनी भी अच्छी नीयत से क्यों न चुनी गई हो।

प्राचीन भारत का उदाहरण इस सत्य की पुष्टि करता है। जब भारतीय समाज नैतिक और धार्मिक मूल्यों पर आधारित था, तब वहाँ की राजव्यवस्था, जिसे 'रामराज्य' कहा जाता था, भी उत्कृष्ट थी। इसका अर्थ यह हुआ कि समाज और शासक वर्ग दोनों ही एक-दूसरे के पूरक थे।

अतः, जो लोग यह सोचते हैं कि केवल सरकार को ठीक कर देने से समाज स्वयं ही ठीक हो जाएगा (जैसे, केवल कानून बदलने से), वे अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाते। इसी प्रकार, जो केवल समाज को अच्छा बनाने की बात करते हैं और सरकार की संरचना एवं शक्ति पर ध्यान नहीं देते (जैसे, केवल आध्यात्मिक उपदेशों से क्रांति लाना चाहते हैं), वे भी सफल नहीं होते।

प्रउत इन दोनों एकांगी दृष्टिकोणों को नकारता है और एक एकीकृत दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।


प्रउत के दर्शन में सद्विप्र (Sadvipra) की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। 'सद्विप्र' वह व्यक्ति है जो:
 * आध्यात्मिक विकास के पथ पर अग्रसर हो।
 * नैतिक आचरण से युक्त हो।
 * सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत हो।
 * शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक बल से संपन्न हो।

प्रउत का लक्ष्य है ऐसे सद्विप्रों का एक समाज तैयार करना। यह समाज केवल निष्क्रिय आध्यात्मिकों का समूह नहीं, बल्कि एक गतिशील, न्यायप्रिय और संघर्षशील समूह होगा जो सामाजिक और आर्थिक शोषण का विरोध करेगा। यह सद्विप्र समाज ही प्रउत की आत्मा है।‌ साथ ही, प्रउत यह भी मानता है कि सत्ता की बागडोर भी इन्हीं सद्विप्रों के हाथों में होनी चाहिए। इसलिए, प्रउत एक ऐसी सरकार की परिकल्पना करता है जो सद्विप्रों द्वारा चलाई जाए। यह सरकार जनता के हितों की संरक्षक होगी और धन-शक्ति या बाहुबल के बजाय नैतिक-शक्ति के आधार पर शासन करेगी।

इस प्रकार, प्रउत एक सद्विप्र समाज भी है, जो प्रगतिशील विचारों की नींव रखता है, और प्रउत सद्विप्रों की सरकार भी है, जो उन विचारों को क्रियान्वित करती है। यह समाज और सरकार का एक आदर्श संतुलन है।


यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रउत को केवल एक फ्रेम में कैद करना संभव नहीं है। यह एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है जहाँ आंतरिक शुद्धि (समाज) और बाहरी व्यवस्थापन (सरकार) दोनों साथ-साथ चलते हैं।

प्रउत की स्थापना के लिए दोहरे प्रयास आवश्यक हैं:

 समाज आंदोलन (Social Movement) : सद्विप्रों को संगठित करना, लोगों में नैतिक-आध्यात्मिक चेतना जगाना, उन्हें शोषण के विरुद्ध शिक्षित करना और आर्थिक न्याय के लिए स्थानीय स्तर पर प्रयास करना। यह समाज की नींव को मजबूत करने का कार्य है।

 राजनैतिक प्रयास (Political Effort) : सद्विप्रों को सत्ता के केंद्र में लाना, ताकि वे प्रउत के सिद्धांतों को कानून, नीतियों और प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से लागू कर सकें। यह सरकार की संरचना को बदलने का कार्य है।

जब ये दोनों प्रयास — जनचेतना और सत्ता नियंत्रण — समन्वित रूप से आगे बढ़ेंगे, तभी प्रउत का दर्शन अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सकेगा। प्रउत एक आशा का प्रतीक है, जो हमें यह विश्वास दिलाता है कि मनुष्य केवल भौतिक सुखों के लिए नहीं बना है, बल्कि वह एक न्यायपूर्ण, शोषण-मुक्त और आध्यात्मिक रूप से उन्नत समाज की स्थापना कर सकता है। प्रउत एक सम्पूर्ण क्रान्ति है जो समाज और सरकार दोनों के मूल चरित्र को बदलने का आह्वान करती है।

 प्रस्तुति : आनन्द किरण