अणुजीवत (Microvita)

            

सामान्यतः माइक्रोवाइटा चिकित्सा शास्त्रियों एवं वैज्ञानिक गवेषणा कर्ताओं की विषय वस्तु है लेकिन इसकी समझ सबको रखने की आवश्यकता है। इसलिए हम इसकी गहराई में तो नहीं जाएंगे लेकिन माइक्रोवाइटा सिद्धांत के मूल को समझने की कोशिश करते हैं। माइक्रोवाइटा सिद्धांत श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा प्रतिपादित आधुनिक वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक सिद्धांत है। जो चेतना के उत्पन्न एवं जीव के विकास के विज्ञान को समझने में मदद करता है, साथ ही मानसाध्यात्मिक यात्रा को भी समझने के लिए कारगर है। 

अणुजीवत् की स्थूलतम श्रेणी साधारण सूक्ष्मदर्शी द्वारा दृश्य है। इन्हें सामान्यतः सूक्ष्मजीव कहते हैं। जो वैज्ञानिक शब्दावली में बैक्टीरिया, आर्किया, कवक, शैवाल, प्रोटोजोआ और वायरस इत्यादि नामों से जाने जाते हैं। इसका अध्ययन माइक्रोबायोलॉजी के अन्तर्गत किया जाता है। यह मित्र तथा शत्रु दोनों ही प्रकार के होते हैं। जिन्हें दर्शन की भाषा में सकारात्मक एवं नकारात्मक अणुजीवत् कहते हैं। अणुजीवत् की द्वितीय श्रेणी विशेष प्रकार सूक्ष्मदर्शी यंत्र की सहायता से देखा जा सकता अथवा अनुभव किया जा सकता है। यह मूलतः सूक्ष्मजीवों की विशेष श्रेणी है, जो अतिसूक्ष्म होने के कारण साधारण पकड़ के बार होते हैं, लेकिन यह जीव विज्ञान के सिद्धांत को प्रभावित करते हैं। अणुजीवत् की सबसे सूक्ष्मतम श्रेणी जीव विज्ञान के सिद्धांत से उपर होते हैं लेकिन उनका अस्तित्व होता है। मूलतः इस श्रेणी को ही अणुजीवत् कहा जाता है। यद्यपि यह जीव की भौतिक अवस्था के ही अंग है लेकिन यह पृथ्वी एवं जल तत्व विहिन होने के कारण दिव्यदृष्टि की आवश्यकता है। अत: सूक्ष्मदर्शी यंत्र की पकड़ के बार है। यद्यपि यह जैववैज्ञानिक तथ्यों को तो प्रभावित नहीं करते हैं लेकिन जैव मनोवैज्ञानिक को नियंत्रित करते हैं। अत: इन्हें जीव विज्ञान से पृथक नहीं माना जाता है। इस प्रकार के जीवों को दर्शन की भाषा में पराभौतिक जीव (Metaphysical organisms) कहते हैं। इनका शरीर अग्नि, वायु एवं आकाश नामक तीन तत्वों से मिलकर बना होता है। अतः जीव उत्पत्ति का विज्ञान यहाँ तक नहीं पहुंच पाता है। क्योंकि यह जल में सृष्टि तक पहुँच पाया है। अणुजीवत् सिद्धांत में यही चर्चा के विषय है। 

अणुजीवत् की प्रथम दो श्रेणियों के संदर्भ में बारें में जीव विज्ञान एवं चिकित्सा विज्ञान काफी कुछ जानकारी देते हैं और भी अधिक जानने के जैव मनोविज्ञान (bio psychology) भी इसके संदर्भ काफी कुछ अनुसंधान प्रस्तुत करता है। अत: इनके संदर्भ में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन पराभौतिक जीवों के संदर्भ में अधिक चर्चा की आवश्यकता है। अणुजीवत् की इस श्रेणी में भी मित्रवत तथा शत्रुवत दोनों ही श्रेणियाँ है। जिस हम समझने की सुविधा के लिए क्रमशः देव योनी एवं दैत्य योनी कह लेते हैं। देवयोनी मित्रवत अणुजीवत् है, जो मनुष्य की प्रगति एवं विकास में सहायक है। यह जीवत् आध्यात्मिक कर्म भजन, कीर्तन, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा इत्यादि से अधिक मात्रा में विकसित होने है। इसके विपरीत नकारात्मक अणुजीवत् अश्लील, कामुक, क्रोधात्मक, मोहग्रस्त, लोभ वृत्ति, अहंकार वृत्ति इसके अलावा धृणा, शंका, इत्यादि नकारात्मक वृत्तियों के कारण विकसित होते हैं। 

अणु जीवत् मानव मन, पर्यावरण एवं नेचर को प्रभावित करते है। जब सकारात्मक अणुजीवत् की प्रचुरता होती है, तब एक शुभ अथवा सु परिवेश का निर्माण होता है। इसके विपरीत नकारात्मक अणुजीवत् की प्रचुरता कु अथवा अशुभ परिवेश का निर्माण करती है। संभवतया उदासीन अणुजीवत् भी होते होंगे। जो किसी भी प्रकार से वातावरण को प्रभावित नहीं करते हैं। लेकिन इसके संदर्भ में अबतक इतनी जानकारी नहीं है। बड़ी बात यह नहीं है कि अणुजीवत् अपनी क्या भूमिका अदा करते हैं। बड़ी बात तो यह है कि अणुजीवत् की भूमिका के बीच मनुष्य को कैसे जीना है? नकारात्मक अणुजीवत् के प्रभाव को किस प्रकार निस्तेज करना है तथा सकारात्मक अणुजीवत् की शक्ति का कैसे उपयोग करना है? यह विज्ञान ही समझना अणुजीवत् अध्याय का उद्देश्य है। आओ हम इस विषय पर आगे बढ़ते हैं। 

(१) नकारात्मक अणुजीवत् को सकारात्मक ऊर्जा में बदलने में दक्ष होना : - व्यष्टिगत जीवन में नकारात्मक सोच एवं जड़त्व मुखी गति के कारण नकारात्मक अणुजीवत् ऐसे मनुष्य के मन को अपने अधीन कर लेता है। पराधीन मन इनसे लड़ने अक्षम होता है। इसलिए उसे बाह्य सहायता की आवश्यकता होती है। जब यह सहायता उचित समय तथा उचित मात्रा में मिल जाती है तब वह नकारात्मक अणुजीवत् के साम्राज्य से बाहर निकलने में समक्ष होता है, लेकिन इस लड़ाई में भी एक स्तर आने पर स्वयं को लड़ना होता है। एक नकारात्मक ऊर्जा अथवा नकारात्मक अणुजीवत् से घिरा मनुष्य अपने सामान्य सुझबुझ खो चुका है अथवा उसकी जिजीविषा लुप्त होने के कगार पर है, उस मनुष्य को पतन के इस विकराल हाथों से बचाने के लिए शुभ शक्तियों को आगे आना ही होगा। उसके आस पास के परिवेश एवं मन को सत्संग,भजन, कीर्तन, स्वाध्याय, सामूहिक साधना इत्यादि द्वारा सकारात्मक बनाने में मदद करनी ही होगी। यदि आवश्यकता पड़े तो ऐसे रोगियों के लिए विशेष चिकित्सालय की व्यवस्था करनी होगी, जहाँ नियमित धर्मचक्र कर नकारात्मक ऊर्जा में जी रहे मनुष्य को स्वस्थ करना होगा। यदि ऐसे रोगी के रोग की बढ़ी हुई अवस्था में अधिक से अधिक समय जागृति में रखा जाए अथवा तंत्र पीठ के संपर्क में रखा जाए तो अल्प ही समय में सकारात्मक परिणाम आएंगे। जब रोगी खुद से लड़ने की हालत में आ जाए तब उसे अष्टांग योग की दीक्षा देकर स्वयं को लड़ने के लिए सक्षम बनाना ही होगा। समष्टिगत जगत में नकारात्मक अणुजीवत् से मुक्ति के साधन अखंड कीर्तन, आवर्त कीर्तन, तत्वसभा, धर्मचक्र, धर्म महासम्मेलन एवं धर्म महाचक्र है। 

(2) सकारात्मक अणुजीवत् का सदुपयोग करना :- सकारात्मक सोच, शुभकर्म, मानसाध्यात्मिक प्रयास एवं आध्यात्मिक अनुशीलन द्वारा व्यष्टिगत जीवन मित्र में अणुजीवत् की अधिक से अधिक सर्जन कर अपने शक्ति का सदुपयोग किया जा सकता है। इस उपयोग विश्व प्रेम, आध्यात्मिक विकास एवं आनन्दमय जीवन जीने में करना चाहिए। 

अणुजीवत् पर चर्चा कर रहे हैं तो पराभौतिक जीवों के विज्ञान को समझना आवश्यक है। पराभौतिक जीवों को सजीव अथवा निर्जीव किस श्रेणी में रखा जाए, यह स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। उनके शरीर में पृथ्वी एवं जल तत्व का अभाव होने के कारण उन्हें सामान्य जैविक क्रिया करने की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन इनमें चेतना मनुष्य की तुलना में अधिक विकसित होती है। इसलिए इन पराभौतिक जीवों का अध्ययन आवश्यक होता है। यह पराभौतिक जीव भी सकारात्मक एवं नकारात्मक अणुजीवत् होते हैं। विद्या साधक जागतिक इच्छा के अधिशेष रहने पर देह का त्याग कर देता है अथवा मृत्यु हो जाती है, तो वे धनात्मक अणुजीवत् अथवा देवयोनी वाले प्राणी कहलाते हैं। चूंकि धनात्मक अणुजीवत् होने के कारण यह मनुष्य के भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कल्याण में सहायक होते हैं। इसके विपरीत अविद्या साधक की विनाशकारी एवं अवांछित इच्छाएँ उन्हें नकारात्मक अणुजीवत् अथवा दैत्य योनी अथवा पिशाच योनी अथवा प्रेत योनी कहा जाता है। देवयोनी एवं दैत्य/पिशाच/प्रेत योनी के संदर्भ में प्राचीन साहित्य कुछ कथा कहानियाँ मिलती है। वस्तुतः यह एक प्रकार के अणुजीवत् है, जो मनुष्य से कभी भी सक्षम नहीं है। लेकिन मनुष्य यदि मानसिक दृष्टि मजबूत नहीं है, तो यह अणुजीवत् उनके मन के उपर अपना प्रभाव स्थापित कर सकते हैं‌। इसलिए कहा जाता है कि कमजोर मानसिक बीमारी आधि से पीड़ित होता है। मानसाध्यात्मिक प्रगाढ़ मनुष्य इनके साथ हँसी ठिठोली का खेल खेलने में सक्षम हो सकता है। यहाँ एक बात स्पष्ट करना आवश्यक है कि धनात्मक अणुजीवत् अर्थात देवयोनी तथा ऋणात्मक अणुजीवत् अर्थात दैत्य योनी दोनों ही मनुष्य का लक्ष्य नहीं है। मनुष्य का लक्ष्य परमब्रह्म है। जो इन पराभौतिक जीवों की सीमाओ से काफी है, जहाँ तक इन पहूंच कदापि नहीं होती है। अतः यह केवल ज्ञान विज्ञान एवं जानकारी के लिए है। आध्यात्मिक यात्रा में इसमें खोने की आवश्यकता नहीं है। चलो इन अणुजीवत् के बारे विस्तार से समझते हैं। 

(A) धनात्मक अणुजीवत् अर्थात देवयोनी :- इस वर्ग के पराभौतिक प्राणियों को मोटे रुप से सात अथवा आठ श्रेणियों में बांटा जा सकता है। 

(१) यक्ष :- यह धन, धान्य एवं भौतिक वस्तुओं की अधिशेष इच्छा का परिणाम वाले अणुजीवत् है। यह धन, धान्य एवं भौतिक इच्छाओं को लेकर आकृष्ट साधनों के आसपास मंडराते रहते हैं। उसके मन ओर अधिक उसकी ओर ले जाते हैं। 

(२) रक्ष :- युद्धेषणा, साहसिक शक्ति प्रदर्शन, शारीरिक बल प्राप्त इच्छा का परिणाम है। यह साहसिक वृत्ति, सैन्य शक्ति एवं करतब जीवी साधकों के आसपास मंडराते है तथा उनके मन को इस ओर अधिक वेग से खींचते है। 

(३) किन्नर :- यह शारीरिक सौंदर्य एवं सज्ज-धज्ज के शौकीन इच्छा का परिणाम है। यह इसी प्रकार की वृत्ति प्रेरित साधकों के मन घेरे रहते हैं। इनके मन को इस ओर तीव्र वेग से खींच लेते हैं। 

(४) गंधर्व : - संगीत, वाद्य तथा नृत्य इत्यादि अधिशेष इच्छा का परिणाम है। यह संगीत, वाद्य एवं नृत्य साधकों के मन को इस विद्या सिखने अधिक कारगर मदद करते हैं। इनका अधिकार क्षेत्र यहाँ तक मन रोके रखना है। 

(५) विद्याधर :- यह ज्ञान, विज्ञान, शोध, अनुसंधान की अधिशेष इच्छा का परिणाम है। यह बौद्धिक साधक, दार्शनिक, वैज्ञानिक साधक के लिए साहयता करने में आनन्द की अनुभूति करते हैं। 

(६) विदेहीलीन :- यह सिद्धियों की चाहत का परिणाम है। आध्यात्मिक शक्ति की चाहत रखने वाले साधकों के आसपास मंडराते है। 

(७) सिद्ध :- यह सबसे उन्नत वर्ग का अणुजीवत् है। यह आध्यात्मिक साधकों के लिए मदद करते हैं। इन्हें इस प्रकार के कार्य करना अच्छा लगता है। यह आध्यात्मिक शक्तियों की प्राप्ति की अधिशेष इच्छा का परिणाम है।  

(८) प्रकृतिलीन :- यह बहुत ही दुर्गम अवस्था है अथवा साधक की अधोगति है। प्रकृति उपासना, मूर्तिपूजा एवं जड़ साधना की अधिशेष इच्छा का परिणाम है। यह इस प्रकार के साधकों के आस पास रहते हैं।

(B) ऋणात्मक अणुजीवत् अर्थात दैत्य/पिशाच/प्रेत योनी :- इस के अणुजीवत् की सात श्रेणियों का ज्ञान होता है। 

(१) पिशाच :- जो लोग हर चीज़ को अपने भोग की वस्तु के रूप में देखते हैं, बिना यह सोचे कि वह खाने योग्य है या नहीं, मरने के बाद उन्हें यह दर्जा मिलता है। वे एक तरह के नकारात्मक माइक्रोवाइटा होते हैं।

(२) आकाश पिशाच :- जो लोग अपनी महत्वाकांक्षा के कारण सदैव विध्वंसकारी कार्यों में लगे रहते हैं, चाहे उनकी योग्यता कितनी भी हो, तथा जो अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए कोई भी जघन्य अपराध करने से पीछे नहीं हटते, उन्हें मृत्यु के पश्चात यह पद प्राप्त होता है।

(३) ब्रह्म पिशाच :- जो बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि का उपयोग रचनात्मक उद्देश्यों के लिए नहीं करते, बल्कि दूसरों को दबाने या दूसरों में हीन भावना पैदा करने के लिए अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करते हैं, उन्हें मृत्यु के बाद यह दर्जा प्राप्त होता है।

(४) दुर्मुख प्रेतयोनि :- गंदे मुख वाला प्राणी। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपनी शिक्षा की कमी या किसी अन्य कारण से दूसरों को मानसिक संघर्ष देते हैं। मृत्यु के बाद वे दुर्मुख प्रेतयोनि के रूप में दूसरों को मानसिक संघर्ष देना जारी रखना चाहते हैं। ये प्रेतयोनियाँ मृत्यु के पश्चात मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेती हैं।

(५) कबंध :- बिना सिर वाला पिशाच। जो लोग अपमान, मानसिक विकृति, कुंठा या अत्यधिक मोह, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि के प्रबल प्रभाव के कारण आत्महत्या करते हैं, उन्हें कबंधयोनि का दर्जा प्राप्त होता है।

(६) महाकपाल : - जो लोग अपने स्वार्थ को पूरा करने की कोशिश करते हुए दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं, जो विद्या तंत्र के नाम पर अविद्या तंत्र का अभ्यास करते हैं, और जो पापी, परपीड़क स्वभाव वाले हैं

(७) मध्य कपाल :- यह भी एक प्रकार का नकारात्मक अणुजीवत् है। 

इस प्रकार हमने धनात्मक(सकारात्मक) एवं ऋणात्मक(नकारात्मक) अणुजीवत् को देखा। यह प्राणी भी संसार में व्याप्त है। इनके जीवों के लिए पृथ्वी तत्व एवं जल तत्व की आवश्यकता नहीं है। अतः सजीवों सामान्य जैविक क्रिया इनके लिए आवश्यक नहीं है। लेकिन फिर भी यह जीवित प्राणी है। इनका भी संसार में अस्तित्व है। यह मानव मन को प्रभावित कर सकते हैं। सुख दुःख के कारण में सहयोगी बन सकते हैं। लेकिन फिर भी यह मानव से शक्तिशाली नही है। मानव की भांति संसार में कर्म नहीं कर सकते हैं। मनुष्य की भांति सूक्ष्म चिन्तन इनके पास नहीं है। मनुष्य की भांति शारीरीक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास नहीं कर सकते हैं। अतः यह अणुजीवत् देवयोनी में हो अथवा पिशाच योनी में कभी मनुष्य का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। यह कमजोर, दुर्बल, मोहग्रस्त, क्रोधी, भयभीत, कामी, लोभी, लालची, अंहकारी तथा जागतिक चाहत रखने वाले मनुष्य को अपने गिप्त में ले सकते हैं। अपने मुताबिक चला सकते हैं। लेकिन मजबूत तन, मन एवं संकल्प वाले के समक्ष यह कभी नहीं टिक सकते है। आध्यात्मिक साधक के आसपास भी उनकी इच्छा तथा उसकी सहायता करने के अतिरिक्त नहीं आ सकते हैं। अतः मनुष्य आत्मिक विकास के पथ‌ पर चलना चाहिए, मानसिक दृष्टि मजबूत होना चाहिए तथा शारीरिक ताकतवर भी होना आवश्यक है। 

बाबानाम केवलम का अर्थ (Meaning of Babanam Kevalam)


बाबानाम केवलम दो शब्द का अष्टाक्षरी मंत्र है। इसमें प्रथम शब्द बाबानाम तथा द्वितीय शब्द केवलम है। बाबानाम शब्द का परमब्रह्म तथा केवलम का अर्थ वही है। अर्थात बाबानाम केवलम का अर्थ हुआ परमब्रह्म ही है। यहाँ, वहाँ जहाँ तहाँ वही है। यत्र, तत्र एवं सर्वत्र वही है। यह दृष्टि ही बाबानाम केवलम है। अतः प्रभु के प्रेम में इतना डुब जाना कि प्रभु के अलावा कुछ भी नहीं दिखे, यही बाबानाम केवलम का अर्थ है।
सबकुछ परमब्रह्म का ही विकास है। अतः सब केवल परमपुरुष का ही नाम है। उसके अतिरिक्त कोई नाम नहीं है। भक्त के मन, तन एवं जीवन में एक मात्र परमपिता का ही नाम है। यही बाबानाम केवलम का अर्थ है। 
शब्द विकास का इतिहास कहता है कि बप्प्र से बप्प तथा बप्प से बाबा शब्द आया है। शब्द विन्यास बताता है कि बाबा शब्द का अर्थ बताता है कि 'प्रिय' अर्थात 'प्राणों से अधिक प्रिय'। भक्ति कहती है कि बाबा मेरे इष्ट का पुकारूँ नाम है। शिष्य कहता है कि बाबा मेरे गुरुदेव के लिए संबोधन है। भक्त कहता है कि यही मेरा जीवन है। इसलिए तो मैं गाता हूँ बाबानाम केवलम। यही बाबानाम केवलम का अर्थ है। 
इतिहास कहता है कि भक्त की अपने प्रियतम को मिलने की अहैतुकी भावना सभी अवरोध को दूर करने के लिए 'बाबा केवल' अथवा :केवल बाबा' की गुहार लगाता है तब प्रभु उसे अन्तरीक्ष में सुनाते हैं तो वह सुनता है बाबानाम केवलम एवं दुनिया को मिलता है - बाबानाम केवलम कीर्तन। यही बाबानाम केवलम का अर्थ है। 
दर्शन के आलोक में कीर्तन का अभ्यास कहता है कि जब भी मैं मेरे इष्ट जो कि मेरे गुरुदेव भी है, उनको पुकारता हूँ तो बाबा के नाम से पुकारता हूँ। इस अवस्था में नाम साइलेंट रहता है। लेकिन जब मैं इसको संगीतमय गाता हूँ तब नाम उच्चारण में आ जाता है। इसिलिए बाबा तथा नाम दो शब्द नहीं दोनों एक ही शब्द बाबानाम है। चूंकि यह सबद (शब्द) ही केवल हैं। इसलिए संगीतमय रुप में केवलम गाकर मेरे भावना को प्रकट करता हूँ। अतः मेरा कीर्तन बाबानाम केवलम है। यही बाबानाम केवलम का अर्थ है। 
लेखन विज्ञान कहता है कि बाबा एक नाम एक ही शब्द है तथा केवल व म एक ही शब्द है। अतः बाबा नाम केवलम नहीं बाबानाम केवलम कीर्तन का लेखन स्वरूप है। मेरा उच्चारण एवं गायन बाबानाम केवलम है तो बाबा नाम केवलम लेखन नहीं बाबानाम केवलम है। यही है बाबानाम केवलम का अर्थ। 
छंद, काव्य, गीत एवं संगीत विज्ञान कहता है कि स्वीकृत कीर्तन अष्टाक्षरी के दो शब्द में होता है। प्रथम शब्द प्रियतम का साक्षात्कार कराता है तथा द्वितीय शब्द महामिलन कराता है। यही तो कीर्तन का का सार है। अतः यही है बाबानाम केवलम का अर्थ। 
भावना एवं आध्यात्म विज्ञान कहता है कि बाबा नाम है, नाम बाबा है। अतः दो नहीं एक है। नाम क्या? - "बाबा", बाबा क्या ? - 'नाम' अत: बाबा व नाम पृथक नहीं बाबा व नाम 'बाबानाम' इसलिए मैं कहता हूँ बाबानाम केवलम। यही है बाबानाम केवलम का अर्थ।

 
बाबानाम केवलम 
के अर्थ के 
दर्शन करने वाला
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  [श्री] आनन्द किरण "देव"
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हम मध्यमपंथी है। [we are centrist (Middle path)]

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           आनन्द किरण
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(Man's thinking, conduct and life have been divided into two branches. First is left wing and second is right wing. Both left wing and right wing are not the basis of man's thinking, conduct and life. That is, no one can follow left wing or right wing in the pure sense. Hence, in reality man is a centrist(Middle path). 

(Let us understand the movements of left wing, right wing and centre wing(Middle path) in different areas of society.) 

(१) सामाजिक क्षेत्र में (in social field) :- सामाजिक क्षेत्र में रुढ़िवादी एवं परंपरागत ढंग से चलना दक्षिण पंथ है। जबकि सब कुछ को परिवर्तन करते हुए चलना, वाम पंथ है। मध्यम पंथ सद् परंपरा को आधुनिक बनाकर ग्रहण करता है जबकि रुढ़, रुग्ण एवं बोझिल मान्यताओं को छोड़कर नूतन एवं उपयुक्त व्यवस्था का सृजन करता है। अतः कहा जा सकता है कि मध्यम पंथ वैज्ञानिक एवं क्रांतिकारी पथ है। (In the social sphere, following a conservative and traditional path is the right wing. While following everything by changing it is the left wing. The centrist wing(Middle path) adopts the good tradition by making it modern while leaving behind the orthodox, sick and cumbersome beliefs and creates a new and suitable system. Hence, it can be said that the centrist wing(Middle path) is a scientific and revolutionary path.) 

(२) आर्थिक क्षेत्र में (in the economic field) :- आर्थिक क्षेत्र में वामपंथ संसाधनों पर राज्य का अधिकार मानकर चलता है। जबकि दक्षिण पंथ व्यक्ति का अधिकार सिद्ध करता है। मध्यम पंथ बड़े एवं सार्वजनिक महत्व के संसाधनों पर समाज का तथा छोटे एवं व्यक्तिगत महत्व के संसाधनों पर व्यक्ति का अधिकार को मान्यता देता है। मध्यम तथा जन महत्व के संसाधनों पर सहकारी संस्था के महत्व को स्वीकार करता है। (In the economic sphere, the left wing believes that the state has the right over resources, while the right wing proves the right of the individual. The centrist wing(Middle path) recognises the right of society over resources of large and public importance and the individual over resources of small and personal importance. It accepts the importance of cooperative institutions over resources of medium and public importance.) 

(३) धार्मिक क्षेत्र में (in the belief field) :- वामपंथ‌ ईश्वर एवं ईश्वरीय वस्तु का मान्यता नहीं देता है तथा विध्वंसकारी छवि बना रखी है।जबकि दक्षिण पंथ भावजड़ता को मान्यता देता है तथा अंधविश्वास को मानकर चलता है। मध्यम पंथ ईश्वर को स्वीकार करता है तथा प्रगतिशील विचारधारा का समर्थक हैं। (The left wing does not accept the existence of God or divine things and has created a destructive image. Whereas the right wing accepts dogma and believes in superstition. The centrist wing (Middle path) accepts the existence of God and is a supporter of progressive ideology.) 

(४) राजनैतिक क्षेत्र में (in the political field) :- राजनैतिक क्षेत्र में वामपंथ समतावाद, समाजवाद एवं साम्यवाद का हिमायती है जबकि दक्षिण पंथ व्यक्तिवाद, पूंजीवाद एवं बोझिल विचारधारा को ढ़ो कर चलता है। मध्यम पंथ प्रगतिशील उपयोग तत्व तथा नव्य मानवतावाद को अंगीकार करता है। (In the political field, the left wing advocates egalitarianism, socialism and communism, while the right wing carries individualism, capitalism and cumbersome ideology. The centrist wing(Middle path) adopts Progressive utilization theory and Neo-humanism.) 

(५) सांस्कृतिक एवं साहित्यक क्षेत्र में (in the cultural and literary field) :- यहाँ वाम पंथ अश्लीलता, नग्नता एवं खुलापन को बढ़ावा देता है। जबकि दक्षिण पंथ लकीर का फकीर बनकर पुरातन के मोह को उठाकर चलता है। मध्यम पंथ यहाँ सांस्कृतिक एवं साहित्यक मूल्यों पुनर्जागरण पर बल देता है। (Here the left wing promotes obscenity, nudity and openness. While the right wing remains a stickler for tradition and follows the fascination for the past. The centrist wing (Middle path) here emphasizes on the renaissance of cultural and literary values.) 

(६) वैज्ञानिक क्षेत्र में (in the scientific field) :- वाम पंथ अंध वैज्ञानिककरण का समर्थक हैं। जबकि दक्षिण पंथ वैज्ञानिककरण मन से नहीं मजबूरी में अंगीकार करता है। मध्यम पंथ विज्ञान को समाज मित्र मानता है तथा मानव हित विज्ञान को बढ़ाने की सलाह देता है। (The left wing supports blind scientification. Whereas the right wing does not accept scientification willingly but out of compulsion. The centrist wing (Middle path) considers science a friend of society and advises to promote science for the benefit of mankind.) 

(७) कला के क्षेत्र में (In the field of art):- वामपंथ यहाँ अनियंत्रित एवं धनामुखी दृष्टिकोण रखता है जबकि दक्षिण पंथ अति मान्यतावादी दृष्टिकोण रखता है। मध्यम पंथ कला मानवीय भावना के विकास समाज हित में विकास की ओर ले चलता है। (The left wing here has an uncontrolled and money-oriented approach while the right wing has a very religious approach. The centrist wing (Middle path) leads towards development in the interest of society and development of art and human feelings.) 

(८) मनोरंजन के क्षेत्र में (In the field of entertainment) :- वाम पंथ मनभावन, कामुक तथा भावनात्मक मनोरंजन की धारा में चलता है। जबकि दक्षिण पंथ परंपरागत मनोरंजन को तो लेकर चलता है नव परिवर्तन में संदेह रखता है। मध्यम पंथ‌ मनोरंजन की आदर्श विधा को स्थापित करता है। जिसमें मनुष्य का हित एवं सुख निहित हो। (The left wing moves in the direction of pleasing, sensual and emotional entertainment. While the right wing moves forward with traditional entertainment but is skeptical about new changes. The centrist wing (Middle path) establishes the ideal mode of entertainment in which human welfare and happiness are inherent.) 

(९) आध्यात्मिक क्षेत्र में (in the spiritual realm) :- वाम पंथ की आध्यात्मिक क्रिया अविद्या तंत्र मूलक होती है। यह प्रकृति को खुली चुनौती देता है तथा प्रकृति के विरूद्ध चलते हैं। जबकि दक्षिण पंथी अंधविश्वास, पाखंड, आडंबर एवं अवांछित पूजा पद्धति को आध्यात्म मानता है तथा कठोर तप, व्रत, यज्ञादि को लेकर चलते हैं। मध्यम पंथ विद्या तंत्र, योग, भक्ति एवं धर्म साधना को अंगीकार करता है। (The spiritual practices of the left wing are based on ignorance(Avidhya) tantra. It openly challenges nature and goes against nature. Whereas the right wing considers superstition, hypocrisy, ostentation and unwanted worship methods as spirituality and follows strict penance, fasts, yagna etc. The centrist wing (Middle path) accepts knowledge, norance (Vidhya) tantra, yoga, devotion and Dharm sadhana (spiritual practice. )

(१०) ईश्वर के मामले में (In the case of God) :- वाम पंथ नास्तिक है, ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता है। दक्षिण पंथ आस्तिक है, ईश्वर को मानता है लेकिन जानता नहीं है। मध्यम पंथ ईश्वर को मानता भी है तथा जानता भी है, इसलिए पूर्णत्व की साधना करता है। (The left wing is atheist, does not believe in the existence of God. The right wing is theist, believes in God but does not know Him. The centrist wing (Middle path) believes in God and also knows Him, hence strives for perfection.) 

(११) सृष्टि के संदर्भ में (In the context of creation) :- वाम पंथ के दर्शन सृष्टि निर्माण में प्रकृति को प्रधान तत्व मानता है अथवा इसके संदर्भ एक नकारात्मक धारणा है‌‌। दक्षिण पंथ‌ सृष्टि को ईश्वर कृत मानता है तथा इसके संदर्भ मत मतांतर की धारणा को अधिक मान्यता देता है‌। मध्यम पंथ ईश्वर को सृष्टि आदिकारक मानते हुए, एक वैज्ञानिक व व्यवहारिक दर्शन प्रस्तुत करता है। जिस पर चलने आनन्द मिलता है। (The philosophy of the left wing considers nature to be the main element in the creation of the universe or there is a negative perception in this context. The right wing considers the universe to be created by God and gives more importance to the concept of differences in opinion in this context. The centrist wing (Middle path) considers God to be the originator of the universe and presents a scientific and practical philosophy, which gives pleasure to follow.) 

(१२) ज्ञान एवं कर्म के संदर्भ में (in the context of knowledge and action) :- वाम पंथ का ज्ञान एवं कर्म जड़ वादी तथा पदार्थ प्रधान होते हैं। भौतिकवादी ज्ञान एवं कर्म इनका विषय है। जबकि दक्षिण पंथ के ज्ञान एवं कर्म का आधार भावजड़ता (डोगमा) होता है। रिलीजनल एवं साम्प्रदायिक ज्ञान एवं कर्म इनकी विषयवस्तु है। मध्यम पंथ के ज्ञान एवं कर्म का आधार ईश्वर केन्द्रित है। आत्मज्ञान एवं आत्मसाक्षात्कार इनका प्रधान विषय है। (The knowledge and actions of the left wing are materialistic and materialistic. Materialistic knowledge and actions are their subject. Whereas the basis of the knowledge and actions of the right wing is dogma. Religious and communal knowledge and actions are their subject matter. The basis of the knowledge and actions of the centrist wing (Middle path) is God-centred. Self-knowledge and self-realisation are their main subjects.) 


(१३) मनोविज्ञान के क्षेत्र में (in the field of psychology) : - वाम पंथ का मनोविज्ञान मानवीय भावनाओं का बाहरी प्रदर्शन पर आधारित है। जबकि दक्षिण पंथ का मनोविज्ञान मान्यता एवं आस्था पर आधारित होता है। मध्यम पंथ का मनोविज्ञान मन को सम्पूर्ण रूप से समझने के आधार पर विकसित होता है। (Leftist psychology is based on the outward display of human emotions. Whereas rightist psychology is based on belief and faith. centrist (Middle path) psychology develops on the basis of understanding the mind as a whole.) 

(१४) सिद्धांत के क्षेत्र में (in the field of theory) :- वाम पंथ के सिद्धांत प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं। जबकि दक्षिण पंथ के सिद्धांत का आधार धारणा है। मध्यम पंथ के सिद्धांत थोड़ा गहरा है, वह वास्तविकता, आदर्श एवं सत्यता को प्रमाण मानकर चलता है। (The left wing theory considers direct perception as evidence. Whereas the right wing theory is based on perception. The centrist wing (Middle path) theory is a little deeper, it considers reality, ideal and truth as evidence.)

(१५) मान्यता के क्षेत्र में (in the area of ​​recognition) :- वाम पंथ की मान्यता का आधार दृश्य का है। जो देखा अथवा जो दिखता वही सत्य है। जबकि दक्षिण पंथ की मान्यता आस्था में प्रवाहित है। जिस पर आस्था है, वही सत्य है। मध्यम पंथ‌ की मान्यता विज्ञान एवं आध्यात्मिक पर आधारित है, जिस प्रगति निहित होती है। (The basis of the left wing's belief is the visible. Whatever is seen or what is visible is the truth. Whereas the right wing's belief is based on faith. Whatever is believed in is the truth. The centrist wing's (Middle path) belief is based on science and spirituality, in which progress is inherent.) 

(१६) भक्ति के क्षेत्र में (in the field of devotion) :- वाम पंथ भक्ति व्यक्तिगत एवं समुदायगत है। जबकि दक्षिण पंथ भक्ति के क्षेत्र रूढ मान्यता है, जिसमें अविज्ञान हो सकता है। मध्यम पंथ के पास भक्ति का विशुद्ध विज्ञान है। जो आत्म मोक्ष एवं जगत हित का उद्देश्य लेकर चलता है। (Left wing devotion is personal and community based. Whereas right wing devotion has traditional beliefs in the field of devotion, which may contain misunderstanding. The centrist wing (Middle path)has a pure science of devotion. Which moves forward with the objective of self liberation and welfare of the world.)

मनुष्य वास्तव एक न तो वामपंथी है तथा न ही दक्षिण पंथी है। वह तो मध्यम मार्गी है। वाम मार्ग व दक्षिण मार्ग पर जो भी चलता है। वह अहितकर जीवन पथ का वरण करता है। मनुष्य तो चाहकर भी वाम पथ अथवा दक्षिण पथ पर नहीं चल सकता है लेकिन अन्य को वामपंथी अथवा दक्षिण पंथी करार दे सकता है। (In reality, man is neither a leftist nor a rightist. He is a middle path. Whoever walks on the left or right path, chooses an unfavorable path of life. Man cannot walk on the left or right path even if he wants to, but he can label others as leftists or rightists.
नव्य मानवतावाद (Neo humanism)

श्री आनन्द किरण "देव" का आलेख
मनुष्य के चलने, सोचने एवं जीने की दिशा तय करने के लिए विचारक सदैव प्रयत्नशील रहे हैं। मनुष्य की बुद्धि सेन्टिमेंट एवं विचारपूर्ण मानसिकता के द्वारा संचालित होती है। सेन्टिमेंट अथवा भाव प्रवणता मनुष्य की अपनी नहीं परिवेश एवं परिस्थितियों से उत्पन्न बाहरी शक्ति है, जो मनुष्य को अंदर से झकझोर कर विवेक को किसी खंड में आबद्ध कर देता है, जिसके कारण वह अपने स्वतंत्र एवं समग्र विचार शक्ति उस खंड में बांधकर रख देता है। यह मनुष्य की बुद्धि की अमुक्ति की अवस्था है‌। वही विचारपूर्ण मानसिकता (rational mentality) मनुष्य की अपनी धरोहर है, जो मनुष्य एक स्वतंत्र बौद्धिक शक्ति प्रदान करती है; जिसके कारण मनुष्य अंधभक्त नहीं बनता है। ऐसे लोग मनुष्य कहलाने के अधिकरी है।

आओ हम जानते हैं कि मनुष्य ने अब तक अपने चलने, सोचने एवं जीने के क्या-क्या रास्ते तय किये है? इस खोज में चलने से पूर्व हम उनके दिशा को वर्गीकरण कर लेते हैं, जिससे अध्ययन करने में सुविधा होगी। मनुष्य के चिन्तन की प्रथमधारा को‌ भूमि केन्द्रित मानसिकता, दूसरी गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता,तीसरी मनुष्य केन्द्रित मानसिकता तथा चौथी समग्र मानसिकता है। हम प्रत्येक वर्ग में आने वाले चिन्तन का परिचय लेते हुए विषय के मूल में जाएंगे।

भू केन्द्रित चिन्तन में मुख्यतः साम्राज्यवाद, राष्ट्रवाद एवं उपनिवेशवाद आते हैं। इसके अलावा क्षेत्रवाद व अन्य खंडवाद को ले सकते हैं। राजा, नरेश, महाराजाओं, किंग, सुल्तान, नवाब एवं बादशाहओं की साम्राज्यवादी नीति ने बहते रक्त की धार पर विश्व भूगोल बनाया एवं बिगाड़ा है। उसके जबाब में राष्ट्रवाद आया, वह आया तो था अपने राष्ट्र को सत्यम् शिवम् सुन्दरम बनाने लेकिन जन्म दे दिया उपनिवेशवाद को जिसके चलते एक नये साम्राज्यवाद उदय हुआ। उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद सभी बुरा समझते हैं लेकिन राष्ट्रवाद में कमी नजर नहीं आती है। इसलिए हम राष्ट्रवाद को चर्चा में लेते हैं। राष्ट्रवाद मूलतः एक भावप्रवणता है। देश की भौगोलिक सीमा बदलते ही राष्ट्रवाद की परिभाषा बदल जाती है। जो कल तक ब्रिटिश इंडिया को अपना एक राष्ट्र समझते थे, वे आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमार, बाग्लादेश, श्रीलंका इत्यादि नामों अलग-अलग नेशनलिज्म को परिभाषित करते हैं। अतः मातृभूमि, पितृभूमि की परिभाषा राजनीति की सीमारेखा निर्धारित करती है। जैसे एक समय कराची के नागरिक की मातृभूमि हिन्दुस्तान थी, आज उनकी मातृभूमि हिन्दुस्तान तो बिलकुल नहीं। राष्ट्रवाद का मूल स्वराज को सत्यम् शिवम् सुन्दरम में प्रतिष्ठित करना, लेकिन उसमें प्रदेशवाद अपने प्रदेश को सत्यम् शिवम् सुन्दरम में बदलने के लिए बाहरी प्रदेश अथवा शेष देश की जानमाल को अपने प्रदेश में रोक ले तो राष्ट्रवाद की नींव हिल जाती है। गतिविज्ञान के नियमानुसार राष्ट्रवाद में क्षेत्रवाद जन्म लेना स्वभाविक है। राष्ट्रवाद खंड पर स्थापित है, इसलिए उसमें भौतिकवाद भी जन्म ले लेता है। यह भौतिकवाद कहता है कि मेरा भारत महान है तो मेरा नागालैंड महान क्यों नहीं? यदि पंजाब मेरी महान मातृभूमि है तो मुझे भारतमाता की आवश्यकता क्या? मैं तो मेरा कश्मीर अलग ही बना दूंगा। यह अलगाववाद जन्म ले लेता है। अतः राष्ट्रवाद सफलता राजनैतिक धारणा नहीं है। अतः भू केन्द्रित मानसिकता व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में सहायक नहीं है तथा समाज शब्द के अर्थ राष्ट्रवाद बैठने योग्य नहीं है। 

गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता जातिवाद, नस्लवाद, रंगभेद, साम्प्रदयवाद, मजहबवाद, मतवाद, पंथवाद, रिलिजनलिस्ट तथा नक्सलवाद इत्यादि के नाम से चिन्हित है। इसने मानवता को काल्पनिक आधार में विभाजित करके रखने के लिए धरती माँ को अपने पुत्र, पुत्रियों के रक्त से नहलाया है। ईसाई राष्ट्र, इस्लाम राष्ट्र, हिन्दूराष्ट्र, यहुदीराष्ट्र, सिख राष्ट्र (खालिस्तान), बंगालिस्तान इत्यादि धारणा मानवता को खून के ही आंसू देंगे, इसलिए यह सामाजिक भावप्रवणता को जन्म देता है। जो सम्पूर्ण मनुष्यत्व का विकास होने नहीं देती है। संस्कृतिवाद के नाम से गोष्ठी केन्द्रित नव मानसिकता का विकास हुआ है। जो संस्कृति के वैश्विक स्वरुप विकसित नहीं होने देता है। संस्कृति के नाम भाव जड़ता (Dogma) को अधिक पोषित होता है। टोपी पहनता, दाढ़ी रखना, मुछ काटना, तिलक लगाना, जनैऊ धारणा करना, शिखा बढ़ना, क्रोस पहनना, पगड़ी इत्यादि भौगोलिक विविधता से निखरने वाले अंश है। यह मनुष्य की अपनी संस्कृति नहीं है। मनुष्य की संस्कृति का संबंध सीधा सदवृत्ति एवं मानवीय गुणों से संबंधित है। जो सम्पूर्ण धरा के लिए समभाव सिखाती है। अतः संस्कृति को गोष्ठी में देखना मनुष्य की भूल है तथा ऐसा भाव गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता है। संघवाद, संस्थावाद, समुदायवाद समाज नहीं गोष्ठीवाद का नया नामान्तर है।

समाजवाद, उदारवाद, भूमंडलीयवाद इत्यादि मनुष्य केन्द्रित मानसिकता है, जो मानववाद, एकात्म मानववाद एवं मानवतावाद का चिन्तन देते हैं। लेकिन यह चिन्तन भी पूर्ण नहीं है। यद्यपि भू केन्द्रित व गोष्ठी केन्द्रित मानसिकता से थोड़ा उच्चा है लेकिन इसने भी विश्व के साथ न्याय नहीं किया है। यह धरती, आसमान मनुष्य अकेले की बपौती नहीं है, यह अजीव, जीव, जन्तु, पेड़, पौधे, लतागुल्म, पशु, पक्षी, पर्यावरणीय अन्य सभी घटकों की साझा संपदा है। इसलिए मात्र मनुष्य को केन्द्रित कर चिन्तन का विकास जगत के साथ न्याय नहीं कर सकता है। पर्यावरणीय सोच, रिडिकल अथवा नव मानववाद (Radical or new Humanism), सर्व कल्याणकारी चिन्तन इत्यादि भी मनुष्य से उपर उठकर चिन्तन देते हैं लेकिन यह भी विश्व के न्याय किये बिना ही अतीत के अंधकार में समा जाते हैं। इसने अवश्य मनुष्य को सबके बारे सोचने का अवसर दिया लेकिन सबका कल्याण नहीं कर पाए। 

 मनुष्य एवं मनुष्योत्तर चिन्तन से भी उपर एक सर्वांगीण चिन्तन की आवश्यकता थी, जो लेकर आए युग के महानायक श्री प्रभात रंजन सरकार जिन्होंने सबके, सर्वांगीण कल्याण के लिए नव्य मानवतावाद (Neo humanism) का चिन्तन दिया। यह रिडिकल मानववाद से प्रभावित नहीं है। यह एक विशुद्ध नया चिन्तन है। अतः हम श्री प्रभात रंजन सरकार के नव्य मानवतावाद को समझने की कोशिश करते हैं। नव्य मानवतावाद अणु-परमाणु, जीव-अजीव तथा विश्व ब्रह्माण्ड के स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण सभी घटकों के लिए चिन्तन है। जब तक इन सभी अवयवों के साथ उचित न्याय नहीं किया जाता है तब मनुष्य के चलने, सोचने एवं जीने का कोई भी चिन्तन मनुष्य को मानव कहलाने का हक नहीं दिला सकते हैं। जीवदया जीवों के साथ न्याय नहीं है, अपितु जीव-अजीव को उसका उचित अधिकार देना जगत के साथ न्याय है। नव्य मानवतावाद सेवा को नारायण सेवा का रुप प्रदान करता है। जिससे सेव्य एवं सेवक में भेद नहीं रहता है। इसलिए नव्य मानवतावाद सृष्टि के भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक तीनों पहलूओं को लेकर आगे बढ़ता है‌। मानवेन्द्र नाथ राय के रेडिकल मानववाद जिसे नव मानववाद कहा जाता है ने भौतिक एवं नैतिक पक्ष को तो महत्व दिया लेकिन आत्मिक पक्ष को छोड़ देने के कारण वैश्विक कल्याण नहीं कर पाये। नव्य मानवतावाद जीव-अजीव में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है। अतः नव्य मानवतावाद मनुष्य का ही नहीं समग्र सृष्टि के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कल्याण का चिन्तन प्रस्तुत करता है। व्यष्टि के रूप सभी घटक के व्यष्टिगत तथा समष्टि के रूप में समष्टिगत कल्याण का चिन्तन देते हैं। अतः नव्य मानवतावाद के संदर्भ में सबसे बड़ी बात लिखी जा सकती है कि यह एक पिपिलिका एवं एरावत के दर्द एवं हीत का समान अनुभव करता है। अतः निर्विवाद एवं निर्विघ्न कहा जा सकता है कि नव्य मानवतावाद केवल मनुष्य का ही हितकारी एवं सुखकारी चिन्तन नहीं है। यह सभी के हित एवं सुख को मध्य नज़र रखकर प्रदान किया गया है। यह बात सही है कि इसको अब मनुष्य ही समझ पाता है लेकिन वह दिन अधिक दूर नहीं है कि इसकी समझ अन्य में भी विकसित होगी।

नव्य मानवतावाद अकेले पर बहुत कुछ लिखा जाना है लेकिन आलेख के सारांश यही लिखा जाएगा कि भू, गोष्ठी, मनुष्य, मनुष्योत्तर केन्द्रित चिन्तन बुद्धि की मुक्ति की अवस्था नहीं है। बुद्धि की मुक्ति की अवस्था मात्र एवं मात्र नव्य मानवतावाद है। यही नव्य मानवतावाद का गागर में सागर समावेश है। आलेख को विराम देने की वेला है लेकिन नव्य मानवतावाद के बारे एक बात लिखे बिना आलेख को समाप्त कर दिया तो स्वयं नव्य मानवतावाद के साथ न्याय नहीं है। नव्य मानवतावाद ईश्वर केन्द्रित चिन्तन है। इसका ईश्वर जगतपिता, जगतपति और जगतगुरु है, इसलिए यह जीव में शिव का दर्शन कराता है। यही नव्य मानवतावाद के संदर्भ सबसे बड़ी एवं चोखी बात है।
बुद्धि की मुक्ति (liberation of the intellection)
 
         
मनुष्य की बुद्धि, जहाँ अटक कर रह जाती है। वहाँ जकड़ जाती है। इसलिए मनुष्य को अपनी बुद्धि की मुक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए। इस पाठ में जानना चाहिए कि हमारी बुद्धि कहाँ कहाँ अटक कर रह सकती है तथा उस अटकन से क्या क्या परिणाम निकलते हैं? तत्पश्चात बुद्धि की मुक्ति का अन्तिम पाठ 'मुक्ति' कैसे? पढ़ने की आवश्यकता है। अतः बिना विलंब किये बुद्धि की मुक्ति का पाठ पढ़ने की ओर चलते हैं। 

बुद्धि की मुक्ति का पाठ पढ़ने निकले हैं, तो यह भी देखना होगी कि हमसे पहले इस पाठ किसी ने पढ़ा है? उनका अध्ययन पत्र क्या बताता है? बुद्धि पर दुनिया में ढ़ेरों अध्ययन पत्र लिखें गए लेकिन बुद्धि की मुक्ति का एकमात्र अध्ययन पत्र श्री प्रभात रंजन सरकार द्वारा तैयार किया गया। इसलिए श्री प्रभात रंजन सरकार के अध्ययन पत्र को आधार मानकर हम बुद्धि की मुक्ति पाठ पढ़ने को चलेंगे। उनके अध्ययन पत्र से मिलता है कि मनुष्य की बुद्धि के विकास की यात्रा सामाजिक भावप्रवणता (Socio sentiment) एवं भौम भावप्रवणता (Geo sentiment) के आपेक्षिक तत्वों के बीच से होकर गुजरती है। अतः उस पर सामाजिक भावप्रवणता एवं भौम भावप्रवणता के छींटे लगते है। जब मनुष्य के समक्ष कोई विराट आदर्श नहीं होता है तब मनुष्य की यह बुद्धि सामाजिक भावप्रवणता एवं भौम भावप्रवणता में अटक कर रह जाती है। इसलिए बुद्धि की मुक्ति का एक अभियान चलाने की आवश्यक है। 

भावप्रवणता (sentiment) से बुद्धि की मुक्ति की ओर :- मनुष्य जैसे उन्नत चैतन्य युक्त प्राणी की बुद्धि का भावप्रवणता की ओट में गोते खाते रहना निस्संदेह दुखद विषय है। भावप्रवणता सामाजिक हो अथवा भौगोलिक हो दोनों ही मनुष्यत्व के विकास को अवरुद्ध कर देती है। इसलिए ऐसी स्थिति को गाढ़ देना ही मनुष्य का कर्तव्य है। बुद्धि की मुक्ति यात्रा को कुछ समय के लिए यहाँ रोक कर सामाजिक भावप्रवणता एवं भौम भावप्रवणता की भयानक तस्वीर को देख लेते हैं।

सामाजिक भावप्रवणता एक गोष्ठी में मनुष्य की बुद्धि को आबद्ध कर देती है। यह गोष्ठीगत बुद्धि ने इतिहास में कई लहूलुहान पृष्ठ को लिखे है, जिसने मनुष्य की विकास यात्रा को दूषित किया है। अतः सामाजिक भावप्रवणता की भयानक तस्वीर मनुष्य के समक्ष रखना आवश्यक है। जाति एवं सम्प्रदाय की यह लड़ाइयाँ विकास की नहीं अवनति की कहानियाँ लिखती हैं, जो मनुष्य के मस्तिष्क पर एक कलंक का काला टिका लगाती है। अतः इस दैत्यो चित्त तस्वीर फाड़ देना ही होगा। जाति एवं सम्प्रदाय मनुष्य के नैसर्गिक गुण नहीं है, यह‌ परिस्थितियों से उत्पन्न मानवता पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव है। इसने मानवता को ग्रहण लगाने का काम किया है। इन राहु-केतु के हाथों मानवता को बचाना ही बुद्धि की मुक्ति की यात्रा का प्रथम चरण है। जब मनुष्य जाति अथवा सम्प्रदाय की ओट में अपनी पहचान खो देता है तब वह स्वधर्म को छोड़कर परधर्म में खो जाता है। उसकी दशा हड्डी चबाते श्वान जैसी हो जाती है, जो अपने ही रक्त का रसास्वादन कर खुशी का एहसास करता है। यह दृश्य मनुष्य को परम शांति अर्थात आनन्द नहीं दे सकता है। अतः मनुष्य की बुद्धि को रुग्ण करने वाली इस मानसिकता के विरुद्ध मनुष्य को लड़ना ही होगा। जातिवाद एवं साम्प्रदायिकता की जहर को उगलने वाले इन विषधर नागों के फन कुचल देने होगें। इससे लड़कर मनुष्य को आगे बढ़ना ही होगा। अन्यथा मानव के वेश में हमें शैतान मिलेगा। 

भौम भावप्रवणता भी सामाजिक भावप्रवणता जैसा ही दूसरा दैत्य है। जो गोष्ठी की बजाए भूमि में समाया होता है। भूमि केन्द्रित मानसिकता को लेकर यह बुद्धि अपने कुएँ को ही समुद्र मान लेते हैं। उसकी रंगरोगन में दूसरे कुओं की बालू मिट्टी खोद खोदकर सुखा देते हैं। उदाहरण के लिए उग्र राष्ट्रवाद ने उपनिवेशवाद को जन्म दिया था। इस उपनिवेशवाद ने मानवता को अपने पैरों तले कुचल डाला था।यह उपनिवेशवाद आज भी मरा नहीं है। यह नया रूप लेकर अपने आपको आर्थिक जगत में स्थापित कर दिया है। उसके जरीये उसने सामाजिक आर्थिक इकाइयों के स्व:निर्भर होने की जिजीविषा को ही खत्म करने में आतुर है। इसके चलते भौम भावप्रवणता ने सामाजिक भावप्रवणता से भी खतरनाक तस्वीर बना दी है। इससे बुद्धि को मुक्त होने के लिए बहुत अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता है। यह देशप्रेम जैसे आदर्श को मनुष्य के समक्ष रखकर अपने शोषण के यंत्र चलाते रहते हैं। मैं देशप्रेम का विरोधी नहीं हूँ लेकिन देशप्रेम की उक्ति देकर दूसरे देश के प्रति जहर उगलना तथा दूसरे देश प्रदेश के संसाधनों का हित में प्रयोग करना निस्संदेह बुद्धि के साथ किया जाने वाला दुष्कर्म है। कभी कभी तो यह वैश्विककरण का नाम देकर निजी कंपनियों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नाम पर मानव मस्तिष्क में उतारकर स्थानीय उत्पाद को शून्य में धकेल देती है तथा स्थानीय बाजार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर देती है। जिससे स्थानीय जनता का जीवन नौकर सा बनकर रह जाता है और स्थानीय पूंजी एवं संसाधनों का दोहन निजी कंपनियाँ जो तथाकथित तौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ कहलाती है, वे अपने हित में करती है‌। यहाँ मनुष्य की बुद्धि किसी भी रुप से मुक्त नहीं है। अतः बुद्धि की मुक्ति के अभियान को यहाँ रोकने से नहीं चलेगा। उसे आगे बढ़ना ही होगा। अपनी सामाजिक आर्थिक इकाई को सभी दृष्टि से सशक्त बनाना ही होगा लेकिन इस तस्वीर को बनाते समय सार्वभौमिक चिन्तन को अवरुद्ध करने से काम नहीं चलेगा। 

मनुष्य बुद्धि की मुक्ति की क्रमिक यात्रा सामाजिक भावप्रवणता (Socio sentiment) तथा भौम भावप्रवणता (Geo sentiment) के हाथों स्वयं को किसी न किसी रुप से बचाकर मानववाद अथवा मानवतावाद में लटक जाता है। श्री प्रभात रंजन सरकार का शोधपत्र कहता है कि यहाँ भी बुद्धि की मुक्ति नहीं है। मानववाद, एकात्मक मानववाद एवं मानवतावाद मनुष्य की बुद्धि को मनुष्य तक सीमित करके रख देते हैं। जीव‌जन्तु, पर्यावरण तथा विश्व ब्रह्माण्ड में पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़े हुए हैं। मनुष्य की बुद्धि की मुक्ति के लिए मानववाद, एकात्मक मानववाद तथा मानवतावाद कारगर नहीं है। इसके लिए एक नूतन अवधारणा नव्य मानवतावाद की आवश्यकता है।

मानववाद सीधा मानव को ही प्राथमिकता देता है, जबकि मानवतावाद मानवीय गुणों को लेता है। फिर भी मानवतावाद मनुष्य के साथ न्याय नहीं करता है। इसका उद्देश्य मानववाद के तुल्य ही होता है। मानववाद सीधा मानव तक ही ले जाता है जबकि मानवतावाद घुमा फिरा कर मानव तक ही सीमित रखता है। अब यदि एकात्मक मानववाद को देखा जाए तो यह मनुष्य को सपना बड़ा दिखाकर मानव में लाकर पटक देता है। यह ब्रह्माण्ड अवश्य ही दिखाते हैं लेकिन चैतन्य में प्रतिष्ठित करने की बजाएं जड़ भौतिक अवस्था में ही मनुष्य को बिठा देता है। अतः एकात्मक मानववाद भी बुद्धि की मुक्ति नहीं दे सकता है। 

नव्य मानवतावाद में बुद्धि की मुक्ति होती है। यह शास्वत चैतन्य में मनुष्य प्रतिष्ठित करने के लिए ले चलता है। यह सभी मनुष्य को सामाजिक भावप्रवणता,भौम भावप्रवणता, मानववाद, एकात्मक मानववाद तथा मानवतावाद से बुद्धि को मुक्त करने के साथ बौद्धिक मायाजाल से स्वतंत्र करता है। नव्यमानवतावाद यही नहीं रुकता है। यह मनुष्य को परम चैतन्य में भी अधिष्ठ करने के लिए आनन्द मार्ग पर ले चलता है। जब तक मनुष्य के एक विराट आदर्श नहीं होता है तब मनुष्य की मुक्ति कई अटक रह जाती है। अतः सप्रमाण सिद्ध होता है कि एक मात्र नव्यमानवतावाद में ही बुद्धि की मुक्ति प्रदान करता है।
तिथि एवं तिथिकरण  (Date and Dating)
आज विषय मिला है, तिथि एवं तिथिकरण। जिसका आध्यात्म से कोई मतलब नहीं लेकिन यह ज्योतिष शास्त्र का विषय है। मुझे ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान नहीं है। लेकिन चेष्टा करता हूँ कि इस विषय पर कुछ तो लिखूँ, क्योंकि मैं किसी की आशा को तोड़ नहीं सकता हूँ। मैं कोशिश करूँगा की इस विषय चमत्कार एवं रहस्य लोक में नहीं ले जाऊँ, फिर भी यह विषय उस ओर मुड़ जाता है तो एक संयोग मात्र है। तो चलो बिना किसी विलंब के विषय की ओर मुड़ जाते हैं। 


वस्तुतः दोनों अलग है लेकिन शाब्दिक दृष्टि से दोनों दिन के लिए प्रकट होती है। तिथि शब्द का प्रयोग भारतीय पंचाग के दिवस के लिए होता है जबकि दिनांक का प्रयोग अंग्रेजी पंचाग के होता है। भारतीय पंचाग चन्द्रमा की गति विज्ञान पर चलता है जबकि अंग्रेजी पंचाग सूर्य की गति पर। अतः दोनों को साथ लेकर तिथि एवं दिनांक को तो समझा जा सकता है लेकिन तिथिकरण को समझना क्लिष्ट है। अतः हम अंग्रेजी पंचाग पर चर्चा किये बिना ही विषय को आगे लेकर चलेंगे। 


अब हम मूल विषय पर आ गए हैं। भारतीय पंचाग में तिथि का निर्धारण का मूलाधार चन्द्रकला है। यह कलाएँ घटती बढ़ती रहती है। अतः तिथि का समय एकसा नहीं रहता है। इसलिए तिथिकरण की आवश्यकता होती है। कौनसे दिन को कौनसी तिथि रहेगी इसी को तिथिकरण नाम दिया गया है। तिथिकरण का शाब्दिक अर्थ तिथि का निर्धारण है। इतिहास में किसी घटना अथवा तथ्य का समय निर्धारण तिथिकरण कहलाता है। यहाँ इतिहास हमारा विषय नहीं होने के कारण तिथिकरण का ऐतिहासिक अर्थ नहीं लेंगे। 


भारतवर्ष तिथिकरण का एक सिद्धांत लिया गया था कि जिस तिथि में सूर्य उदय होगा, वह दिन उस तिथि के नाम से जाना जाएगा। इसलिए कोई तिथि टूट जाती है तथा कोई तिथि दो हो जाती है। लेकिन वस्तुतः कोई तिथि न तो टूटती है तथा न ही दो होती है। वास्तव में तिथि काल के गर्भ में चलती है। इसको साधारण भाषा में घड़ी में तिथि कहते हैं। किसी तिथि का समय चौबीस घंटे से कम होने पर संयोगवश उस तिथि में कोई सूर्य उदय नहीं होने के कारण तिथि गणना में इसको लुप्त मान लिया जाता है। ठीक इसीप्रकार किसी तिथि का समय चौबीस घंटे से अधिक होने पर एक ही तिथि में कभी कभी दो सूर्य उदय हो जाते हैं। इसलिए उस दोनों दिनों का नामकरण उसी तिथि के आधार पर कर दिया जाता है। यह तो तिथिकरण का सिद्धांत समझा। लेकिन यहाँ तिथिकरण विज्ञान समझना भी आवश्यक है। 


आधुनिक युग के महान ज्योतिष ज्ञाता एवं महान आध्यात्मिक पुरुष श्री प्रभात रंजन सरकार ने तिथिकरण के इस सिद्धांत को त्रुटि पूर्ण बताया तथा तिथिकरण का एक विज्ञान ढूंढ लिया। आओ इस सरलतम विज्ञान को समझते हैं - श्री सरकार ने बताया कि एक दिन अर्थात एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय के मध्य जिस दिन में तिथि के कुल समय का अधिकांश समयांश रहता है। उस दिन वह तिथि को मानना चाहिए‌। जैसे एक तीन 26 घंटे की है तो 13.0^1 से अधिक जो भी समय अवधि जिस दिन है। वह उस दिन उस तिथि के नाम से जाना जाएगा। ठीक उसी प्रकार 19 घंटे की तिथि में 9.50^1 से अधिक का समय जिस दिन में वह उस तिथि में माना जाएगा। श्री प्रभात रंजन सरकार ने तिथि में सूर्य उदय के सिद्धांत के स्थान पर अधिकतम समय का विज्ञान दिया है। जो एकदम व्यवहारिक है। सूर्य उदय के सिद्धांत में सबसे बड़ा दोष सूर्य उदय के एक सैकंड बाद भी यदि तिथि बदल जाती है तो उस दिन परवर्ती तिथि का प्रभाव होने पर भी पूर्ववर्ती तिथि का भार लेकर चलना होता है। श्री सरकार का सुझाव लेने पर तिथिकरण का विज्ञान यथार्थ बन जाता है। 

तिथि का निर्धारण - ज्योतिष शास्त्र में तिथि की गणना करने का सूत्र = {(चंद्र देशांतर - सौर देशांतर)+360} / 12 
उदाहरण यदि चन्द्र देशांतर 287.858 है तथा सौर देशांतर 333.364 है तो तिथि निर्धारण
{(287.858 -333.364) +360}/12
 = {- 45.779 + 360} / 12
= 314.221÷12
 = 26.185
चूंकि 15 से बड़ा अंक है। अतः कृष्ण पक्ष है। 
तिथि = 26.185 - 15 
= 11.185
पूर्णांक 11 है अर्थात कृष्ण पक्ष की एकादशी लगभग 19 घंटे की होगी। 

तिथि का प्रभाव - चन्द्र एवं सौर की दशा से तिथि का सीधा संबंध है। अतः इसका प्रभाव पृथ्वी पर पड़ना निश्चित है। यह प्रभाव किसी क्षण किसी स्थान विशेष पर विशेष दिखाई देने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। आरंभिक ज्योतिष शास्त्र इसकी गणना कर पृथ्वी, शरीर एवं समाज को चलाने के लिए बनाया गया था। कालांतर में ज्योतिष शास्त्र ने उन्नति की तथा नक्षत्र तथा राशि के प्रभाव को भी विश्लेषित कर दिया। जिससे ज्योतिष शास्त्र और अधिक जटिल बन गया। हम तिथि एवं समय प्रभाव को देखकर खाद्य, आदत एवं व्यवहार में सुधार कर तिथि का प्रभाव जीया जा सकता है। उदाहरणार्थ एकादशी, पूर्णिमा एवं अमावस्या को उपवास रखकर भौतिक कर्म न्यूनतम तथा आध्यात्मिक कर्म अधिकतम कर इसके प्रभाव को सफलतम जीया जा सकता है। 

तिथि एवं सकारात्मक ऊर्जा - आध्यात्मिक जगत का यात्री नकारात्मक ऊर्जा को भी सकारात्मक ऊर्जा में बदलने की कला में दक्ष होता है तथा सकारात्मक ऊर्जा का सदुपयोग भक्त से अधिक कोई नहीं कर सकता है। अतः तिथि के सकारात्मक एवं नकारात्मक परिणाम भक्त को सदैव सकारात्मक ऊर्जा का भंडार ही दे सकता है। आध्यात्मिक यात्री के लिए एक समय तो कोई भी भौतिक व मानसिक प्रभाव विचलित नहीं कर सकता है। अतः भक्त बनना अथवा भक्ति मार्ग पर चलना सबसे सफलतम जीवन का एक लक्षण हैं। सदैव प्रफुल्लित रहना ईश्वर की सर्वोत्तम भक्ति बताई गई है। यही मनुष्य का आनन्द मार्ग है। आनन्द मार्ग मनुष्य शारीरिक, (पर्यावरण संचेतना,सामाजिक व आर्थिक), मानसिक (सांस्कृतिक, मनोरंजनात्मक व बौद्धिक) एवं आध्यात्मिक जीवन को व्यवहारिक एवं प्रगतिशील बनाकर आनन्दमय जीवन शैली सिखाता है तथा आनन्द की प्राप्ति करता है।  

आओ आनन्द मार्ग के आदर्श को जीवन का अंग बनाते तथा सभी प्रकार चिन्ताओं से मुक्त होकर जीवन लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। 
ॐ मधु ॐ मधु ॐ मधु
मानव निर्माण की नींव - यम-नियम           (The foundation of human creation - Yama-Niyama)
 
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          आनन्द किरण
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मनुष्य का जीवन निर्माण की आधारशिला यम-नियम है। जब तक मनुष्य को यम-नियम के पालन का पाठ नहीं पढ़ाया जाता है, तब तक मनुष्य के निर्माण के सभी दावे खोखले है। अतः मनुष्य के जीवन अथवा चरित्र निर्माण पर काम करने वालों को उनका बुनियादी पाठ्यक्रम (basic course) में यम-नियम को स्थापित करना चाहिए। इसके बिना मनुष्य को कोई भी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक जिम्मेदारी देने का अर्थ है कि जानबूझकर समाज को रसातल की ओर ले जाना है। इसलिए अब प्रश्न उठ रहा है कि यम-नियम क्या है? 

यम-नियम एक विधा है, जो मनुष्य के जीवन निर्माण के लिए अति आवश्यक है। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इसके बिना मनुष्य का निर्माण असंभव है। इसलिए आज हम यम-नियम की शिक्षा पाएंगे। 

           यम (Yama) 

यम, मनुष्य के अंदर के उन संवेगों का नियंत्रण की शिक्षा देता है, जो मनुष्य को पशुत्व से प्राप्त हुए हैं, अथवा पशुत्व की ओर ले जाते हैं। सरल अर्थ में कहा जाए तो यम, मनुष्य के अंदर पाश्विक संवेगों को मानवीय संवेगों में बदलने की कला का नाम है। इसको उदाहरण द्वारा समझने की कोशिश करते हैं। हिंसा मनुष्य के अंदर पाश्विक जगत से आती है, यदि यह मनुष्य में यथावत बनी रहती है तो यह मनुष्य को न केवल पशु बनाती है अपितु पशु से अधम असुर, दानव, राक्षस, दैत्य, हैवान, शैतान एवं पिशाच बना सकती है। अतः मनुष्य अपने मनुष्यत्व से गिर जाता है, इसलिए अहिंसा प्रथम यम बनकर मनुष्य को पशुत्व की श्रेणी में जाने से रोकता है।  दूसरा यम सत्य है। असत्य अथवा झूठ की दुनिया में मनुष्य को जीवन खोखला तथा चरित्र अव्यवहारिक बनकर उभरता है, इसलिए सत्य उस पर पहरा बिठा दिया है ताकि मनुष्य अवास्तविक बनकर नहीं रह जाए। तीसरा यम अस्तेय है, जो मनुष्य को चौर्य वृत्ति से दूर रखता है। चोरी करना सामाजिक एवं वैधानिक अपराध है। यह मनुष्य में लालस के कारण जन्म लेता है तथा मनुष्य की सम्पूर्ण प्रतिष्ठा को धूमिल कर देते हैं। अतः अस्तेय अर्थात चोरी नहीं करने की शिक्षा मनुष्य के लिए बहुत जरूरी है। व्यर्थ के चिन्तन से बचने के लिए चतुर्थ यम के रूप में ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाती है। ब्रह्मचर्य का अर्थ मन को ब्रह्म भाव में रत रखना है। इसके अभाव में व्यर्थ एवं अवांछित चिन्तन की ओर ले जाती है। अपरिग्रह का अर्थ आवश्यक से अधिक वस्तुओं का संग्रह नहीं करने के नाम है। अपरिग्रह मनुष्य को सामाजिक प्राणी के रूप में स्थापित करने की एक मजबूत विधा है। इसलिए पांचवे यम के रूप में मनुष्य को अपरिग्रह की शिक्षा दी जाती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह का संयुक्त नाम यम है। अतः यम, सामाजिक शुचिता बनाये रखने तथा मनुष्य में दैवीय गुणों के विकास के लिए आध्यात्मिक पाठशाला में नैतिकता के प्रथम पाठ के रूप में पढ़ाया जाता है। यम का संबंध मन, वचन एवं कर्म तीनों की विधा से है। यद्यपि वैधानिक जगत में कर्म में परिणित को ही अपराध की श्रेणी में रखा गया है तथापि वचन से उत्पन्न अशुचिता सामाजिक दृष्टि में बुराई अथवा अन्याय कर्म में रखा गया है। मन के अंदर उत्पन्न यम विरोधी तत्व को आध्यात्मिक, नैतिक एवं धार्मिक दृष्टि पाप की श्रेणी में गण्य है। यद्यपि मन में उत्पन्न हिंसा, झूठ, चौर्य भाव, व्यर्थ चिन्तन एवं परिग्रह वृत्ति समाज की क्षति नहीं करते हैं तथापि मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में बाधक है तथा मनुष्य की ब्रह्मत्व प्राप्ति की यात्रा में अवरोध पैदा करते हैं। अतः यम-नियम विरोधी आचरण पाप है। 

यम को शास्त्र में मृत्यु का देवता बताया गया है। जबकि यम विधा के रूप में मनुष्य को मनुष्यत्व, दैवत्व, ईश्वरत्व एवं ब्रह्मत्व में प्रतिष्ठित करने की यात्रा का प्रथम द्वार है। अतः शास्त्र एवं विज्ञान के भाव को समझना बहुत जरूरी है। शास्त्र का यमराज एक धर्मराज भी है, जो मनुष्य के कर्मों का हिसाब करता है। हम जानते हैं कि धर्म मनुष्य को सत्पथ पर ले चलाता है। अतः यम अमंगल का प्रतीक नहीं अपितु जीवन का प्रथम एवं अन्तिम सत्य है। यम के बिना मनुष्य ही नहीं रहता है। अतः यम की शरण में मनुष्य को जाने से डर नहीं है, यम से वह डरता है, जिसको मनुष्योचित कर्म करने में भय है। जो जीवन भर यम से पृथक रहकर चलता है, उसे मृत्यु के बाद यम का हिसाब देने के लिए यमराज मृत्यु के देवता के रूप में स्थापित किया है। अर्थात यह बताया गया है कि मनुष्य के यम से बचने का कोई उपाय नहीं है। अतः बुद्धिमान मनुष्य जीवन भर यम को मानकर चलता है। 

                नियम (Niyama) 
नियम मनुष्य परिवेश से प्राप्त अवांछित कृत्य के हाथों सुरक्षात्मक उपाय है। शौच मनुष्य को गंदगी फैलाने से बचाता है तथा  स्वास्थ्य एवं स्वच्छता की ओर ले चलता है। संतोष मनुष्य को तृष्णा व अतृप्ति से बचाकर संतुष्टि, शांति एवं आनन्द की ओर ले चलता है। तप मनुष्य को गैरजिम्मेदार एवं निष्ठुरता से बचाकर मानवीय संवेदना की ओर ले चलता है। इसी प्रकार स्वाध्याय मनुष्य को सत्पथ की निर्देशना देता है तथा ईश्वर प्रणिधान मनुष्य को ईश्वरत्व प्राप्ति की ओर ले चलता है। इस प्रकार नियम के बल पर मनुष्य बाहरी अच्छाइयों को ग्रहण करता है तथा बुराइयों को अंदर प्रवेश नहीं कर देने की शिक्षा पाता है।

 मनुष्य के स्वास्थ्य एवं स्वच्छता के प्रति सजग रहने के लिए शौच को प्रथम नियम के रूप स्थापित किया है, संतोष की द्वितीय नियम में रुप में तृप्ति की ओर ले जाकर तड़पन एवं बैचेनी से बचाती है। इस प्रकार शौच शारीरिक, मानसिक स्वच्छता के लिए है तो संतोष सम्पूर्ण रूप से मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए। तप मनुष्य का मानसाध्यात्मिक स्वास्थ्य एवं स्वच्छता को सुरक्षित करता है। अर्थात मनुष्य साधुत्व का पाठ पढ़ाता है। दूसरों का दु:ख देखकर जिसका दिल द्रवित नहीं होता, वह मनुष्य कहलाने से चूक जाता है। इसलिए तृतीय नियम के रूप तप की शिक्षा दी जाती है। स्वाध्याय को चतुर्थ नियम बताया गया है, यह सत्पथ की निर्देशना के लिए आवश्यक है, इसके अभाव में मनुष्य के सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, नीति-अनीति तथा धर्म-अधर्म में भेद करना असंभव हो जाता है। अतः स्वाध्याय को नियमित अभ्यास के रूप में स्थापित किया है। अतः आध्यात्मिक मानसिक की स्वच्छता एवं स्वस्थता के लिए आवश्यक है। इसके अभाव में मनुष्य अधर्म को धर्म तथा धर्म को धर्म नहीं समझ सकता है। ईश्वर प्रणिधान पंचम नियम के रूप में मनुष्य को पूर्णत्व की प्राप्ति की ओर ले चलता है। बिना पूर्णत्व के मनुष्य अपना जीवन उद्देश्य सफल नहीं कर सकता है। अतः ईश्वर प्रणिधान मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक है। यह आध्यात्मिक स्वच्छता के लिए आवश्यक है। 


नोट - यम-नियम की शिक्षा लेने के लिए श्री श्री आनन्दमूर्ति जी कृति जीवन वेद को पढ़े।
ब्राह्मण जन्म से नहीं कर्म से बनता है            (A brahmin is made by his deeds, not by birth)

11 मई 2025 रविवार को अखिल भारतीय ब्राह्मण महासभा ने मुझे विप्र कुलभूषण सम्मान प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया। मैंने हमारे जयपुर के स्थानीय गृही आचार्य श्री रामफूल जी से अनुमति लेकर इस सम्मान को प्राप्त करने के लिए गया। उस कार्यक्रम में चर्चा ब्राह्मणत्व विषय पर चर्चा हो रही थी। सभी वक्ता ब्राह्मण के स्वभाव, कर्तव्य एवं सिद्धांत पर अपने अपने विचार रख रहे थे। मैंने भी इसी विषय पर आनन्द मार्ग की धारणा को समझाया। वह पाठकों के समक्ष रखकर अपने कर्तव्यों निर्वहन करता हूँ। 

उद्बोधन के मुख्य बिन्दु

(१) आध्यात्मिक नैतिकता सद्विप्र का प्रथम परिचय होता है - मैंने कहा कि भारतीय शास्त्रों में वर्णित सप्तर्षि मंडल के सबसे महत्वपूर्ण ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपने आध्यात्मिक नैतिकबल से पहचान बना लिए थे। वही कही जाते थे, उनकी परिचय उनकी आध्यात्मिक नैतिकता की शक्ति दे देती थी। इसलिए सद्विप्र बनने की यात्रा में निकले राही को अथवा अपने को ब्राह्मण अथवा सद्विप्र मानने वाले को आध्यात्मिक नैतिकता को धारण करना ही होगा। 

(२) केवल आध्यात्मिक ही आध्यात्मिक नैतिकतावान होना होगा - रामायण का पात्र रावण बहुत बड़ा आध्यात्मिक पुरुष बताया गया है। वह अष्ट सिद्धि एवं नव निधि का धनी होते हुए भी नैतिकता के अभाव में मारा गया। ऐसा ब्राह्मण होना भी धिक्कार है। ज्ञान के अभिमान के विप्र पतनोन्मुखी होने सैकड़ों उदाहरण है, इसलिए ज्ञान को पचाने आध्यात्मिक नैतिकता का जागरण करना एक सद्विप्र की पहचान है। केवल आध्यात्मिक ही नहीं नैतिकतावान भी होना आवश्यक है। केवल नैतिकतावान होने पर भी द्रोणाचार्य एवं कृपाचार्य की भांति अधर्म के हाथों ठगे जाओगे। अतः आध्यात्मिक नैतिकतावान व्यक्ति सद्विप्र की दीक्षा प्राप्त कर सकता है। 

(३) आध्यात्मिक नैतिकतावान होना ही पर्याप्त नहीं पाप शक्ति का दमन करने का साहस भी जरूरी है - परशुराम सभी ऋषियों में भगवान की उपाधि प्राप्त करने वालों की श्रेणी में अग्रणी थी। उनको आज का युवा अपना आदर्श मानता है क्योंकि उन्होंने आध्यात्मिक नैतिकता के साथ पाप को दमन करने का साहस दिखाया था। अतः सद्विप्र को सदैव पाप शक्ति के विरुद्ध अविराम संघर्ष जारी रखना ही होगा। चाणक्य ने अपने धर्म का निर्वहन किया था तथा अनैतिक शक्ति के समूल नाश का संकल्प धारण किया था। अतः आध्यात्मिक नैतिकता के साथ पाप के विरुद्ध संघर्ष करने की शक्ति ही सद्विप्र बनाती है। 

(४) ब्राह्मण अथवा सद्विप्र जन्म से नहीं कर्म से बनते हैं - शास्त्र कहता है कि जन्म से सभी शूद्र है, संस्कार ही मनुष्य को दूसरा जन्म देकर वैश्य, क्षत्रिय, विप्र एवं ब्राह्मण बनाते हैं। श्लोक के अनुसार वेद पाठी विप्र कहलाता है तथा ब्रह्म को जानने वाला ब्राह्मण कहलाता है। यम नियम में प्रतिष्ठित भूमाभाव का साधक, जो पाप शक्ति के विरुद्ध संघर्ष करता है, वह सद्विप्र कहलाता है। अतः जन्मगत ब्राह्मण का अभिमान एवं सिद्धांत छोड़कर कर कर्मगत ब्राह्मण बनने के लिए निकल पड़ो। यही सच्चा मनुष्य धर्म है। बाल्मीकि जन्म से ब्राह्मण नहीं थे, विश्वामित्र भी जन्म से ब्राह्मण नहीं थे फिर भी उन्होंने कर्म के बल ब्राह्मणत्व अर्जित किया। 

(५) ब्राह्मणत्व के लिए ब्रह्म ज्ञान की आवश्यकता है, शिखा, तिलक एवं जनैऊ की आवश्यकता नहीं - मैं अपने वक्तव्य के अन्त: में वैदिक प्रमाण को सामने रखकर गर्व के साथ उद्घोषित करना चाहूंगा कि ब्रह्म प्राप्त की साधना में निकले व्यक्ति को बाहरी शिखा, जनैऊ एवं तिलक को छोड़कर आत्म ज्ञान की शिखा, आत्मसाक्षात्कार की जनैऊ तथा आत्मसमर्पण का तिलक धारण करना होगा। आत्मज्ञान, आत्मसाक्षात्कार एवं आत्मसमर्पण का तीन सूत्र धारण करने होगे, यही ब्रह्मत्व प्राप्त कराएगा। 


शांति संग्राम का परिणाम है।  (Peace is the result of struggle.)


महान दार्शनिक श्री प्रभात रंजन सरकार ने कहा है कि शांति संग्राम का परिणाम है। संग्राम का अर्थ युद्ध अथवा लड़ाई ही नहीं होता है। संग्राम का अर्थ कुव्यवस्था के विरुद्ध सुव्यवस्था का प्रहार है। जब तक कुव्यवस्था रहेगी तब तक सुव्यवस्था स्थापित नहीं होगी। इसलिए सुव्यवस्था को कुव्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष करना ही होता है। यह संघर्ष शांति पूर्ण भी हो सकता है तथा शक्ति संचय के द्वार उग्र भी हो सकता है तथा तीव्र शक्ति संपात के द्वारा रक्तरंजित भी हो सकता है। अतः सत्पुरुषों को संघर्ष से दूर नहीं रहना चाहिए। 

सुव्यवस्था जब कुव्यवस्था को पराजित कर देती है तब उसे सुव्यवस्था होने का परिचय देने के लिए समाज की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि को सुनिश्चित करना आवश्यक है। समाज की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि व्यक्ति अथवा नागरिक की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि में निहित है। व्यक्ति राष्ट्र के प्रति तब तक समर्पित रहेगा, जब तक राष्ट्र अथवा समाज उसके अभिभावक के रूप में सामाजिक आर्थिक संरक्षण प्रदान करता है। अतः व्यक्ति राष्ट्र के लिए है तथा राष्ट्र व्यक्ति के लिए है। इस बात को भूले बिना नहीं चल सकता है। 

जब सुव्यवस्था व्यक्ति की समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि के लिए चिन्तन करता है तब उसे सबसे पहले सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में जो असंतुलन दिखाई देता है, उसे खत्म करना चाहिए। व्यक्ति के सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियों के क्षेत्र अलग-अलग होंगे तब तक असंतुलन बना रहेगा, जब यह असंतुलन खत्म कर दिया जाएगा तब सुव्यवस्था का शुभारंभ होगा। सरल शब्दों में समझा जाए तो व्यक्ति की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि में पार्थक्य नहीं होना चाहिए। जो जन्मभूमि है वही व्यक्ति की कर्मभूमि भी हो, यह सुव्यवस्था का प्रथम सूत्र है। जब व्यक्ति की जन्मभूमि एवं कर्मभूमि में पार्थक्य है तब तक व्यक्ति दोहरी जिन्दगी जीनी पड़ती है। दोहरी जिन्दगी किसी के लिए लाभप्रद नहीं होती है। अतः व्यक्ति को रोजगार मातृभूमि पर ही मिले, यह सफलता एवं सुव्यवस्था का प्रथम सूत्र है। मातृभूमि के संसाधनों, प्रशासनिक व्यवस्था एवं राजनैतिक व्यवस्था पर स्थानीय लोगों का ही प्रतिनिधि होना चाहिए। यही से सुव्यवस्था अपने द्वार को खोलती है। 

सुव्यवस्था का द्वितीय सूत्र स्थानीय लोगों की न्यूनतम आवश्यक को पूर्ण करना व्यक्ति का नहीं सम्पूर्ण समाज का दायित्व है। जब तक रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा एवं शिक्षा के लिए व्यक्ति मारामारा घूमता रहेगा तब तक सुव्यवस्था नहीं बन सकती है। अतः व्यक्ति को राष्ट्र की ओर क्रयशक्ति का मूल अधिकार मिलना चाहिए। कम से कम इतनी न्यूनतम आय प्राप्त करने का व्यक्ति को मूल अधिकार है कि वह अपने अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की व्यवस्था कर सके। 

सुव्यवस्था का एक ओर संदेश है कि जिस देश में चिकित्सा एवं शिक्षा का व्यवसायीकरण होता है। चिकित्सा एवं शिक्षा बिकती है, वह देश कुछ भी हो सकता है लेकिन महान एवं विश्व गुरु नहीं हो सकता है। भारतवर्ष इतिहास में महान था तथा विश्वगुरु था, उसके तीन आधार थे, शिक्षा एवं चिकित्सा का बाजार नहीं सजता था, रोटी, कपड़ा, मकान के लिए व्यक्ति मारामारा नहीं घूमता था तथा समाज में आध्यात्मिक नैतिकतवान व्यक्ति को प्रभुत्व था। 

अतः सभी सोचना चाहिए कि यदि राष्ट्र उपरोक्त दिशा में चल रहा है तो सुरक्षित हाथों में है, अन्यथा राष्ट्र को सुरक्षित हाथों में होना चाहिए। इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षित हाथ ढूंढ़ना चाहिए।



✒️करण सिंह शिवतलाव की कलम से

सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है।                           (Only Sadvipra is the future of the world.)

                     आनन्द किरण
विश्व जिस द्रुतगति से आगे बढ़ रहा है, उस देखकर ही पता चलता है कि उस संभालने वाले व्यक्ति को साधारण व्यक्ति से कुछ विशेष ही नहीं अति विशिष्ट होना आवश्यक है। इस धरा का यह अति विशिष्ट व्यक्ति सद्विप्र है। जिसमें एक साथ शूद्रोचित्त सेवा, क्षत्रियोचित वीरता, विप्रोचित बौद्धिकता एवं विश्योचित्त कौशल है। यह यही नहीं रुकता इसमें आध्यात्मिक नैतिकता एवं पाप का दमन करने का भाव निहित है। अतः 'हमें सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है', विषय पर अवश्य ही चर्चा करनी चाहिए। 

विश्व भौतिक दृष्टि से वसुधैवकुटुम्बकम् में परिणत हो गई है, मानसिक स्थिति उसे वसुधैवकुटुम्बकम् से दूर रखकर बैठी है। जब मनुष्य यह बौद्धिक स्थित खत्म हो जाएगी तब वह मानवता से अपना नाता जोड़ेगा तथा अपना बौद्धिक दिवालियापन त्याग कर मन से मन जोड़ देगा। इसलिए अधिक से अधिक विश्व नागरिक बनाने की आवश्यकता है। इस महायज्ञ में आहुति तभी पडेगी, जब मनुष्य सद्विप्र के बारे में समझेगा। यद्यपि कौशल का सम्मान है तथापि आज का युग ऑलराउंडर व्यक्ति है। सद्विप्र एक ऐसा ही व्यक्तित्व है, जो कला कौशल, बौद्धिक क्षमता, शारीरिक बल एवं सेवा को एकसाथ धारण किया हुआ है, जो समय आने पर सभी प्रादर्श की भूमिका निभा सकता है। सद्विप्र यहाँ तक नहीं रुकता है, उसके अंदर व्याप्त आध्यात्मिक नैतिकता एवं शोषण के विरुद्ध अविराम संघर्ष का भाव उसे अतिविशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करता है। उसे व्यक्ति कप्तान कहा जाता है। अपनी टीम को नेतृत्व, प्रशासन एवं गुणवत्ता देने के टीम का गुरुत्व बिन्दु बन जाता है। ठीक उसी प्रकार सद्विप्र भी समाज चक्र का प्राण केन्द्र है। इसलिए सद्विप्र के अध्याय में तीन शब्द का अध्ययन किया जाता है। सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज। आज हम तीनों बिन्दुओं को समझकर 'सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है' विषय को पूर्णता प्रदान करेंगे। 

 
समाज का पहला प्रश्न है कि हमारा नेता कैसा हो? उसका उत्तर है - सद्विप्र नेतृत्व। नेता जब तक नीति निपुण, आध्यात्मिक एवं शोषण के विरुद्ध संग्रामशील मानसिकता नहीं होगा तब नेतृत्व सत्ता एवं शक्ति के मद में मदहोश होकर अपने दायित्व को अपने सांसारिक ऐश्वर्य में लेकर समाप्त हो जाएगा। अतः नेतृत्व का सद्विप्र होना आवश्यक है। 


समाज का द्वितीय प्रश्न है कि हमारा राज कैसा हो? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है - सद्विप्र राज। जिस प्रकार सद्विप्र नेतृत्व समाज की आत्मा थी, उसी प्रकार राज समाज का मुखमंडल है। यदि वह कुपात्र से निर्मित होगी तो राजव्यवस्था रसातल में चली जाएगी, इस विपरीत राजव्यवस्था में सुपात्र का स्थान होगा तब धरती पर स्वर्ग दिखाई देने लगेगा। आज की अवस्था का मूल कारण है राजव्यवस्था में सद्विप्र का स्थान नहीं होना है। मनुष्य अपने अंहकार तथा स्वार्थ में बहकर राजव्यवस्था को बिगाड़ दी है। इसलिए सद्विप्रों का राज जगत में आवश्यक है। 

सद्विप्र समाज   (sadvipra society) 
समाज का तृतीय प्रश्न है कि हमारा समाज कैसा है? उत्तर है - हमारा समाज सद्विप्र समाज है। न केवल नेता अथवा राजशक्ति में काम करने वाले व्यक्ति ही सद्विप्र नहीं होंगे अपितु सम्पूर्ण समाज ही सद्विप्र होगा। जब समाज में अच्छे व्यक्ति बनाने की व्यवस्था नहीं होती है तब समाज अपने मूल अर्थ में चरितार्थ नहीं होता है। अतः समाज का स्वरूप सद्विप्र के बिना संभव नहीं है। सबका साथ, सबका विकास मात्र राजनैतिक नारा ही नहीं एक समाज की संरचना है, जो जातिधर्म एवं प्रदेश के बंधन से उपर सर्व भवन्तु सुखिनः में परिणत है। यह सद्विप्र समाज के बिना संभव नहीं है। 

पुनः विषय की ओर लौटते हैं। सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है। समाज को सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज की आवश्यकता है तब विश्व का भविष्य सद्विप्र को छूए बिना कैसे रह सकता है। यदि विश्व तथा वैश्विक समाज को बचाना है तो सद्विप्र नेतृत्व, सद्विप्र राज एवं सद्विप्र समाज की आवश्यकता है। अतः बिना किसी संदेह के कहा जा सकता है कि सद्विप्र ही विश्व का भविष्य है। 

                 सद्विप्र कौन?  
             (Sadvipra who?

- जो प्रश्न विषय के प्रथम बिन्दु पर ही आना चाहिए था, वह बिन्दु विषय के अन्त में लेने का कारण है कि भूख लगे बिना भोजन दे देना भोजन के महत्व को चिन्हित नहीं करता है। अतः सद्विप्र कौन प्रश्न का उत्तर देने का ही वक्त है। 


इसका अर्थ है: "जन्म से सभी शूद्र होते हैं, लेकिन संस्कार से द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) बनते हैं। वेद के अध्ययन से विप्र (शिक्षित) और ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण बनते हैं". 


भावार्थ‌ 
जन्म से सभी मनुष्य शूद्र होते हैं। अतः समाज शूद्र के आलावा कोई भी कौशल जन्म नहीं लेता है। उस निर्माण किया जाता है। जो व्यक्ति यह कहते हैं कि ब्राह्मण, विप्र, क्षत्रिय, वैश्य, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहुदी इत्यादि जन्म लेते हैं तो वह मिथ्या बोल रहा है। केवल एवं केवल शूद्र ही जन्मता है। उसका कर्म ही उसे वैश्य, क्षत्रिय इत्यादि में परिणत करता है। श्लोक कहता है कि यद्यपि जन्म से सभी शूद्र है, लेकिन संस्कार उसे दूसरा जन्म देकर द्विज बनाता है। संस्कार आते ही वह कौशल से शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य होने पर भी एक मनुष्य के रूप द्विज बनाता है। यदि संस्कार नहीं है तो कर्म कौशल के अनुसार आर्थिक श्रेणी में चला जाएगा लेकिन सच्चरित्र नहीं बन पाता है। अतः द्विज बनने के लिए संस्कार का होना आवश्यक है‌। श्लोक तृतीय में कहा गया है कि वेद का ज्ञान अर्थात आत्मज्ञान, अपौरुषेय ज्ञान प्राप्त करने से वह विप्र बन जाता है। विप्र का विशेष प्रज्ञा युक्त व्यक्ति। अन्त में कहा गया ब्रह्म को जानने वाला ही ब्राह्मण है। जब ऐसे व्यक्ति समाज के सामाजिक आर्थिक संगठन पर अपनी निगाहे केन्द्रित करते हैं तब सद्विप्र बनकर समाज में सत्य विप्र है, वह कभी भी जातिगत, वंशगत, कुल, गोत्र, सम्प्रदाय से बंधित अथवा निर्मित नहीं होते हैं। उसकी एक मात्र पहचान मनुष्य, मनुष्य एवं मनुष्य है। उसका लक्ष्य ब्रह्म संप्राप्ति एवं जगत सेवा है। अतः सद्विप्र को यम नियम में प्रतिष्ठित भूमाभाव साधक बताया गया है। जो सदैव धर्म प्रतिष्ठा में लगा रहता है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता बनाम प्राकृतिक बुद्धिमत्ता ( AI vs NI)
कृत्रिम बुद्धिमत्ता बनाम प्राकृतिक बुद्धिमत्ता
(Artificial Intelligence vs. Natural Intelligence) 
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            करण सिंह
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आजकल AI ने तहलका मचा रखा है। यह बहुत से पब्लिक सेक्टर में प्रवेश करने के कारण NI को चुनौती मिलने जा रही है। इसलिए AI को लेकर चिंता भी है तो खुशी भी जाहिर की जा रही है। हमें धरा के भविष्य के विषय में चिन्तन करना है। इसलिए इस विषय को चर्चा में लाया जा रहा है।

धरातल पर रहने वाले सभी लोगों के अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा की व्यवस्था करना समाज उत्तरदायित्व है। यदि समाज इस उत्तरदायित्व का निवहन नहीं करता है तो उस समाज कहलाने का अधिकार नहीं है। अतः मनुष्य को घबराने की जरूरत नहीं है, AI के हस्तक्षेप से समाज उनकी रक्षा करेंगे। इसलिए AI पर बुद्धि लगाने से अधिक महत्वपूर्ण कार्य समाज का संगठन करना है। यह NI का AI को प्रथम जबाब होगा। वह एक ऐसे प्रगतिशील समाज की रचना करेगा, जो मनुष्य की न्यूनतम आवश्यक की जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेगा तथा मनुष्य उसकी गुणवत्ता निखारने का पूर्ण अवसर देता है। 

पूर्णत्व प्राप्त करना, मनुष्य का का प्रथम कर्तव्य है। इसके मनुष्य को आध्यात्मिक पथ पर चलना होगा। AI के युग में मनुष्य को मिलने वाली सुविधाओं का फायदा लेते हुए अपने को आत्मिक पथ पर ले चलना होगा, यह NI को AI का दिया जाने वाला एक ओर अच्छा जबाब है। अतः AI से घबराएं बिना, उसको अपना सहायक मानकर अपने को आध्यात्मिक शक्ति से भर लेना होगा। AI एक यांत्रिक मानसिक शक्ति है। मानसिक शक्ति को आध्यात्मिक शक्ति द्वारा नियंत्रित की जाती है। चूंकि AI एक यांत्रिक मानसिक, उसका नियंत्रण मनुष्य की विशेष मानसिक शक्ति से ही हो रहा है। जब यह उसकी सीमा से पार हो जाएगा, तब आध्यात्मिक शक्ति AI को भी नियंत्रित कर लेगी। अतः मनुष्य की बुद्धिमत्ता यह है कि AI को चुनौती माने बिना AI का सांसारिक कार्यों में अधिकतम सहयोग लेते हुए अपने को अधिक से आध्यात्मिक जगत की ओर ले चलना है।

मानवीय संवेदना को संजोय रखना मनुष्य का स्वभाव है। इनको जीवन निर्माण लगाकर इसका सदुपयोग करना मनुष्य का कर्तव्य भी है। यह संवेदना शक्ति उसे सजग भी बनाती है। उसके बल पर वह नैतिकता में प्रतिष्ठित होता है। नैतिकता का पथ मनुष्य पकड़ रखना है तथा देखना है कि समाज एवं विज्ञान की व्यवस्था कभी भी अयोग्य लोगों के हाथों में नहीं चली जाए। यह व्यवस्था देकर AI का पूर्ण नियंत्रण सद्चरित्र व्यष्टियों के हाथ में देना ही होगा ताकि AI का कोई भी MI दुरूपयोग नही कर सकें। अतः अपनी संवेदना को अपनी दुर्बलता नहीं बनानी, उसे अपनी शक्ति बनाकर AI के काल्पनिक एवं सैद्धांतिक भय को कभी भी यथार्थ नहीं बनने देना है। 

AI कभी भी मानवीय बुद्धिमत्ता (HI) से बढ़कर नहीं होती है। मनुष्य के अंदर तो ईश्वर बुद्धिमत्ता (GI) का जागरण करने की क्षमता है। अतः कभी AI, NI से प्रभावशाली नहीं हो सकती है। AI के पास सीमित शक्ति स्रोत है, जबकि NI के पास असीम शक्ति स्रोत है। अतः सीम कभी असीम पर भारी नहीं हो सकता है। यदि AI मनुष्य की बुद्धिमत्ता को दबोचने की कोशिश करेंगीं तो NI असीम से शक्ति जुटाकर उसे उस प्यास को धूमिल कर देगी।

अन्त में हर AI पर भारी है NI. 
मनुष्य ही अपनी कलाकृति से डरने लगेगा तो उसको मनुष्य होने पर विश्वास नहीं। अतः AI के खेल से बचने के लिए मनुष्य आध्यात्मिक नैतिकता के पथ कर एक प्राकृत अर्थ युक्त एक अखंड एवं अविभाज्य मानव समाज की रचना करनी ही होगी।