प्रथम विषय - ध्यान की गहराई में कैसे जाएँ? (Primary Topic - How to enter the depth of DHYAN?)

         आओ साधना करते हैं
प्रथम विषय - ध्यान की गहराई में कैसे जाएँ?


       ध्यान शब्द का मूल अर्थ ध्येय के साथ एकीकार होना है। ध्यान के अर्थ को सार्थक करना ही ध्यान की गहराई है अथवा यही गहराई तक ले जाता है। इसलिए प्रश्न है कि ध्यान गहराई में कैसे जाए?


यह प्रश्न आज मुझे एक पुराने साधक ने किया।तो मैंने बताया कि ध्येय के प्रति समर्पण से ही ध्यान की गहराई की ओर चलते हैं। तो उन्होंने कहा कि मैं कितना समर्पण करूँ? जितना मेरा सामर्थ्य था, उतना तो समर्पण कर चुका हूँ, फिर भी अब तक मेरे चित्त के चिंतन से निर्मित ध्येय ही मेरे समक्ष बैठे हैं। मैंने कहा कि चिंतन की गति को रोक दीजिये तथा भक्ति में उतर जाइए। तब उन्होंने कहा कि यही तो मुझे नहीं आता है। मैं भक्ति में कैसे उतरूँ? तो मैंने कहा कि परमपुरुष से एकांतिक प्रेम करने से ही भक्ति का जागरण होता है।

तब उन्होंने कहा कि मैं ध्येय से खूब प्रेम करता हूँ, उसके अतिरिक्त मेरे लिए कुछ कार्य नहीं है। उनके फोटो को नित्य सजाता हूँ, माल्यार्पण करता हूँ, उनके अवदानों को स्मरण करता हूँ, उनके भौतिक जीवन से संबंधित प्रत्येक स्थान की यात्रा करता हूँ तथा उनसे प्रेम करता हूँ। और बताएँ, कैसे प्रेम करूँ? मैने कहा, यही तो गड़बड़ी है। उनसे प्रेम करने का अर्थ हर सांसारिक एवं परमार्थी कार्यों में उन्हें देखना, एक पल भी यदि उन्हें भूल गए तो प्रेम शब्द में नागा (चूक) हो जाता है। वे फोटो, तीर्थ एवं उनके अवदानों में जितने हैं, उतने सब में हैं। अतः भूलकर भी मात्र फोटो, स्थान और अवदान में उन्हें समझने की भूल मत करना, यह भूल ही हमारे प्रेम में छेद कर देती है तथा हम उससे भटक कर धर्म के स्थान पर मजहब की राह पकड़ लेते हैं। सब कुछ तो उन्हीं का है, किस एक को उन्हें समझकर रखोगे तथा किसको उन्हें नहीं समझने की भूल करोगे?

तब उन्होंने तपाक से कहा, "तब उनका ध्यान कैसे होगा?"  मैंने कहा कि प्रेम का अर्थ अपने प्रियतम को आनन्दमूर्ति समझना एवं जानना होता है। तो उन्होंने कहा कि वे आनन्दमूर्ति कैसे हैं?मैंने कहा, आनन्दमूर्ति समग्र में है, अतः समग्र में उनको देखना है।


तब उन्होंने कहा कि यह कैसे संभव है? मैंने कहा कि उसने अपने को समग्र में रखा, उसने जो कुछ बनाया वह समग्र में बनाया है, तब समग्र में देखना असंभव कभी नहीं हो सकता है।


उन्होंने कहा कि मुझे दार्शनिक जाल में मत ले जाओ, सीधे-सीधे मूल विषय पर ही ले चलो!
मैंने कहा कि समग्र को देखने की क्षमता हमारी समग्रता में निहित है।


हम समग्रता को सूक्ष्मता में बिंदु के रूप तथा विराटता में प्रकाश के रूप में देख सकते हैं। अतः साधक बिंदु से लेकर प्रकाश तक अपनी क्षमता को फैलाने के क्रम में ध्यान विभिन्न प्रकार से केंद्रित करता है।


इसी क्रम में ध्यान का सर्वश्रेष्ठ तरीका गुरु ध्यान में है। गुरु ध्यान ही समग्रता का ध्यान है। अतः गुरु को कभी भी व्यक्ति अथवा व्यक्तित्व समझने की भूल मत करना। गुरु ब्रह्म है। उनके अतिरिक्त मनुष्य का कोई गुरु हो ही नहीं सकता है।


उन्होंने कहा कि इसको थोड़ा अच्छे से समझाओ। मैंने कहा कि मैं कोई समझाने वाला नहीं हूँ। मैं तो मेरी बात रखता हूँ, आप उसको कैसे समझो अथवा नहीं समझो, यह आपका विषय है।


आचार्य द्वारा बताई गई ध्यान पद्धति के अनुसार ध्यान मुद्रा में बैठकर, उनकी समग्रता को निहारते रहें तथा अपनी समग्र क्षमता को उसमें छोड़ते जाएँ। तब तक ऐसा करते जाएँ, जब तक एक अभाव की स्थिति का बोध नहीं हो। जब अभाव की स्थिति का बोध होने लगेगा, तब गुरु में खो जाइए। वहाँ जो कुछ भी मिलेगा, वह हमें ध्यान की गहराई में ले जाएगा। उसके आगे राही स्वयं ही जानता है कि उसने पूर्णत्व को कितना अंगीकार किया है।


सरल शब्दों में कहा जाए तो अपने 'मैंपन' को छोड़ते जाओ, जिससे ब्रह्म का 'मैंपन' हमें मिलता रहेगा।


प्रस्तुति: आनन्द किरण


English Translation (अंग्रेजी अनुवाद)


🧘 Let's Practice Sadhana (Spiritual Discipline)


Primary Topic - How to enter the depth of DHYAN?
The original meaning of the word 'Dhyana'  is to become one with the object of contemplation (Dhyeia). To realize the meaning of meditation is the depth of meditation, or this is what leads to that depth. Therefore, the question is: How does meditation enter the depth?
An old seeker asked me this question today.
So, I told him that it is only through surrender to the object of contemplation that we move towards the depth of meditation.
He then asked how much he should surrender. He said, "I have already surrendered as much as I was capable of, yet the object of contemplation, which is merely a creation of my mind's thoughts, still sits before me."
I said, "Stop the momentum of thought, and descend into devotion (Bhakti)."
He then said that this is exactly what he does not know how to do. "How do I descend into devotion?"
I replied that devotion awakens only through exclusive love for the Supreme Being (Parampurush).
He then said that he loves the object of contemplation very much; he has no other work besides that. He adorns their photo daily, offers garlands, remembers their contributions, travels to every place associated with their physical life, and loves them. He asked, "Tell me, how else should I love?"
I said, "This is the mistake. Loving them means seeing them in every worldly and spiritual action; if you forget them even for a moment, the word 'love' becomes incomplete (or breaks). They are present in the photos, pilgrimages, and their contributions only as much as they are in everything (the totality). Therefore, do not make the mistake of assuming they are only in the photo, the place, or the contributions; this mistake creates a breach in our love, and we stray from the path of 'Dharma' (righteousness) and end up on the path of 'Mazhab' (sectarian religion). Everything belongs to them. Which single thing will you hold onto as them, and which thing will you mistakenly assume is not them?"
He quickly retorted, "Then how will I meditate on them?"
I said that love means understanding and knowing your beloved as the embodiment of bliss (Anandmurti).
He asked, "How are they the embodiment of bliss?"
I replied, "The embodiment of bliss is in the totality; therefore, you must see them in the totality."
He then asked, "How is this possible?"
I said that He placed Himself in the totality, whatever He created, He created in the totality; therefore, it can never be impossible to see Him in the totality.
He said, "Do not trap me in philosophical complexities; take me directly to the core subject!"
I said that our ability to see the totality is inherent in our own wholeness (Samagrata).
We can see the totality in its subtlety as a point and in its vastness as light. Therefore, a seeker focuses their meditation in various ways while expanding their capacity from a point to light.
In this sequence, the best method of meditation is Guru Dhyana (Meditation on the Guru). Guru Dhyana is the meditation on the totality. Therefore, never make the mistake of understanding the Guru as merely a person or a personality. The Guru is Brahman (the Absolute Reality). Man can have no other Guru besides Him.
He asked me to explain this a little better.
I said that I am not one to explain. I merely present my viewpoint; how you understand it or not is your concern.
According to the meditation method taught by the Acharya: Sit in a meditation posture, keep gazing at His totality, and keep dissolving your entire capacity into it. Continue doing this until you perceive a state of absence (A-bhaav). When the state of absence begins to be perceived, then lose yourself in the Guru. Whatever is found there will take us into the depth of meditation. Beyond that, the traveler himself knows how much he has embraced perfection.
In simple words, keep letting go of your 'I-ness' (sense of separate self), and you will continue to receive the 'I-ness' of Brahman.


Presented by: Anand Kiran



Marwari Translation (मारवाड़ी अनुवाद)


            आवो साधना करां
पे’लो विषय - ध्यान री गैराई में क्यूँकर जावां?


ध्यान सबद रो मूळ अरथ है ध्येय रै सागै एक होवणो। ध्यान रै अरथ ने साँचो करणो ही ध्यान री गैराई है, या ई गैराई तांई ले जावै है। अतरांसू सवाल है के ध्यान गैराई में क्यूँकर जावै?


आ सवाल आज म्हारै सूं एक पूरणो साधक पूछ्यो। तो मैं बतायो के ध्येय रै प्रति समर्पण सूं ही ध्यान री गैराई कांनी चाल्यां जावां।
तो उणां पूछ्यो के मैं कतरों समर्पण करूँ? जतरो म्हारै में सामरथ हो, उतरो तो कर चुक्यो हूँ, फेर भी अबार तांई म्हारै चित्त रै चिन्तन सूं बण्योड़ो ध्येय ही म्हारै सामनै बैठ्यो है। मैं कयो के चिन्तन री चाल ने रोक दीज्यो अर भक्ति में उतर जावो।


तब उणां कयो के आ ई बात तो म्हाने कोनी आवै है। मैं भक्ति में क्यूँकर उतराँ?
तो मैं कयो के परमपुरुष सूं एकांत प्रेम करणै सूं ही भक्ति जागै है। तब उणां कयो के मैं ध्येय सूं घणो प्रेम कराँ हूँ, उणसूं सिवाय म्हारै सारू कोई काम कोनी है। उणां री फोटू ने नित सजाऊँ, माला पेराऊँ, उणां रा अवदान याद कराँ, उणां रै भौतिक जीवन सूं जुड़्योड़ी हर ठौड़ री जातरा कराँ अर उणां सूं प्रेम कराँ। अर बतावो, क्यूँकर प्रेम कराँ?


मैं कयो, आ ई तो गड़बड़ी है। उणां सूं प्रेम करणो को अरथ हर सांसारिक अर परमार्थी कामां में उणां ने देखणो, एक पल भी जद उणां ने भूलग्या तो प्रेम सबद में चूक (नागो) हो जावै है। वे फोटू, तीरथ अर उणां रै अवदानां में जतरा है, ऊतरा सगळां में है। इण खातर भूलर भी मातर फोटू, ठौड़ अर अवदान में उणां ने समझण री भूल मत करज्यो, आ भूल ही आपणै प्रेम में छेद कर दै है अर आपां उणसूं भटक'र धरम रै ठौड़ मजहब रो मारग पकड़ लेवाँ हां। सगळो तो उणां रो ही है, किस एक ने उणां समझ'र राखोगा अर किस ने उणां कोनी समझण री भूल करोगा?
तब उणां तपाक सूं कयो, "तो उणां रो ध्यान क्यूँकर होसी?"
मैं कयो के प्रेम रो अरथ आपणा प्रियतम ने आनन्दमूर्ति समझणो अर जाणणो होवै है।
तो उणां कयो के वे आनन्दमूर्ति क्यूँकर है?
मैं कयो, आनन्दमूर्ति समग्र में है, अत: समग्र में उणां ने देखणो है।
तब उणां कयो के आ क्यूँकर संभव है?
मैं कयो के उण आप'नै समग्र में राख्यो, उण जो कुछ बणायो वो समग्र में बणायो है, तब समग्र में देखणो असंभव कदैई कोनी हो सकै है।
उणां कयो के म्हाने दार्सनिक जाळ में मत ले जावो, सीधो-सीधो मूळ बात पर ही ले चालो!
मैं कयो के समग्र ने देखण री ताक़त आपणी समग्रता में ही है।
आपॉं समग्रता ने सूक्षम रूप में बिन्दु रै रूप में अर विराट रूप में परकास रै रूप में देख सकां हाँ। अत: साधक बिन्दु सूं लेर परकास तांई आपणी ताक़त ने फैलावण रै क्रम में ध्यान न्यारा-न्यारा तरीकां सूं केंद्रित करै है।
ईस क्रम में ध्यान रो सबसूं बड़ो तरीको गुरु ध्यान में है। गुरु ध्यान ही समग्रता रो ध्यान है है। अत: गुरु ने कदैई भी ब्यक्ति या ब्यक्तित्व समझण री भूल मत करज्यो। गुरु ब्ह्म है। उणां सूं सिवाय मानख रो कोई गुरु हो ही कोनी सकै है।
उणां कयो के इन थोड़ो चोखो समझावो।
मैं कयो के मैं कोई समझावणियो कोनी हूँ। मैं तो म्हारी बात राखूँ, थे उणने क्यूँकर समझो या कोनी समझो, यो थारो काम है।
आचार्य द्वारा बताई जावै ध्यान री विधी रै मूजब ध्यान मुद्रा में बैठ'र, उणां री समग्रता ने निहारता रैवो अर आपणी समग्र ताक़त ने उणमें छोड़ता जावो। जब तांई यूँ करता जावो, जब तांई एक अभाव री स्थिती रो बोध कोनी हो जावै। जद अभाव री स्थिती रो बोध होवण लागसी, तब गुरु में खो जावो। बठै जो कुछ भी मिळसी, वो आपांने ध्यान री गैराई में ले जासी। उणसूं आगै राही आप ही जाणै है के उण पूर्णत्व ने कतरों अंगीकार करयो है।
सीधा सबदां में कयो जावै तो आपणै 'मैंपण' ने छोड़ता जावो, जिके सूं ब्ह्म रो 'मैंपण' आपांने मिळतो रैसी।

देणवाळो: आनन्द किरण

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