प्रउत को प्रगतिशील उपयोग तत्व (Progressive Utilization Theory) कहा जाता है। यह एक ऐसा दर्शन है जो श्री पी.आर. सरकार (प्रभात रंजन सरकार) द्वारा प्रतिपादित किया गया है। आज हम उसके समाज आंदोलन एवं एक आदर्श राजनैतिक दल के स्वरूप के संदर्भ में समझेंगे।
आज की सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में, जब प्रचलित प्रणालियाँ अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही हैं, एक मौलिक प्रश्न उभर कर सामने आता है: प्रउत (PROUT) – एक सरकार अथवा समाज? यह प्रश्न मात्र शब्दाडंबर का नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के भविष्य की दिशा तय करने वाला है। इसलिए, हमें अन्य सभी विषयों को रोककर, इस प्रगतिशील दर्शन की प्रकृति और विस्तार को गहराई से समझना होगा।
प्रउत का पूरा नाम प्रगतिशील उपयोग तत्व (Progressive Utilization Theory) है। प्रथम दृष्टया, 'उपयोग तत्व' शब्द का संबंध अर्थव्यवस्था से होने के कारण यह एक अर्थव्यवस्था के रूप में नजर आता है। इसका मुख्य उद्देश्य संसाधनों का अधिकतम उपयोग और तर्कसंगत वितरण सुनिश्चित करना है। लेकिन, प्रउत को केवल एक आर्थिक मॉडल मान लेना उसके साथ न्याय नहीं होगा। यह एक बहुआयामी दर्शन है जो आध्यात्मिक नैतिकता, सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक उत्थान और पर्यावरण संरक्षण को अपनी बुनियाद बनाता है। इसलिए, प्रउत को मात्र एक अर्थव्यवस्था या एक राजनीतिक व्यवस्था कहना अपूर्ण है; यह वास्तव में एक सम्पूर्ण व्यवस्था है।
प्रउत दर्शन पाँच मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है, जो इसकी व्यापकता को दर्शाते हैं:
उपयोग का सिद्धांत : संसार की सभी वस्तुओं (भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक) का उपयोग विवेकपूर्ण एवं अधिकतम होना चाहिए।
वितरण का सिद्धांत : संसार के संसाधनों का वितरण सभी मनुष्यों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के आधार पर होना चाहिए।
प्रगति का सिद्धांत : व्यक्ति और समाज की प्रगति एक साथ और समन्वित रूप से होनी चाहिए।
मनुष्य का आध्यात्मिक विकास : मनुष्य को अपने आंतरिक और आध्यात्मिक विकास के लिए पूर्ण अवसर मिलना चाहिए।
सामूहिक विकास : व्यक्ति और समाज की उन्नति के साथ-साथ सभी जीव-जंतुओं और प्रकृति का भी संरक्षण एवं विकास सुनिश्चित होना चाहिए।
ये सिद्धांत स्पष्ट करते हैं कि प्रउत केवल उत्पादन और वितरण की बात नहीं करता, बल्कि यह मनुष्य के अध्यात्मिक विकास और सर्वोच्च नैतिकता पर भी जोर देता है। नैतिकता के बिना अर्थशास्त्र एक शोषणकारी यंत्र बन सकता है, और केवल अर्थशास्त्र के बिना आध्यात्मिकता एकाकी हो सकती है। प्रउत इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह दर्शन इस बात पर बल देता है कि समाज और सरकार दोनों ही आध्यात्मिक मूल्यों से निर्देशित हों।
यह समझने के लिए कि प्रउत समाज और सरकार दोनों क्यों है, हमें इन दोनों संस्थाओं के मध्य के मौलिक संबंध को समझना होगा। सरकार शब्द का अर्थ है 'समाज को चलाने की एक सुव्यवस्था' (Good System of Governance)। वहीं, समाज का एक महत्वपूर्ण कार्य है कि वह सरकार को सुव्यवस्थित रखने का सशक्त साधन बने। यह संबंध एक द्विपक्षीय क्रिया है, जिसे एक प्रसिद्ध उक्ति में पिरोया जा सकता है: "जैसा समाज, वैसी सरकार; जैसी सरकार, वैसा समाज।"
यह उक्ति गहन सत्य को दर्शाती है। यदि समाज नैतिक, शिक्षित और जागरूक है, तो वह ऐसी सरकार का निर्माण करेगा जो जनहितैषी हो और कानून का पालन करे। इसके विपरीत, यदि समाज स्वार्थ, भ्रष्टाचार और अज्ञानता से ग्रस्त है, तो सरकार भी उसी चरित्र को प्रतिबिंबित करेगी, चाहे वह कितनी भी अच्छी नीयत से क्यों न चुनी गई हो।
प्राचीन भारत का उदाहरण इस सत्य की पुष्टि करता है। जब भारतीय समाज नैतिक और धार्मिक मूल्यों पर आधारित था, तब वहाँ की राजव्यवस्था, जिसे 'रामराज्य' कहा जाता था, भी उत्कृष्ट थी। इसका अर्थ यह हुआ कि समाज और शासक वर्ग दोनों ही एक-दूसरे के पूरक थे।
अतः, जो लोग यह सोचते हैं कि केवल सरकार को ठीक कर देने से समाज स्वयं ही ठीक हो जाएगा (जैसे, केवल कानून बदलने से), वे अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाते। इसी प्रकार, जो केवल समाज को अच्छा बनाने की बात करते हैं और सरकार की संरचना एवं शक्ति पर ध्यान नहीं देते (जैसे, केवल आध्यात्मिक उपदेशों से क्रांति लाना चाहते हैं), वे भी सफल नहीं होते।
प्रउत इन दोनों एकांगी दृष्टिकोणों को नकारता है और एक एकीकृत दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है।
प्रउत के दर्शन में सद्विप्र (Sadvipra) की अवधारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है। 'सद्विप्र' वह व्यक्ति है जो:
* आध्यात्मिक विकास के पथ पर अग्रसर हो।
* नैतिक आचरण से युक्त हो।
* सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत हो।
* शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक बल से संपन्न हो।
प्रउत का लक्ष्य है ऐसे सद्विप्रों का एक समाज तैयार करना। यह समाज केवल निष्क्रिय आध्यात्मिकों का समूह नहीं, बल्कि एक गतिशील, न्यायप्रिय और संघर्षशील समूह होगा जो सामाजिक और आर्थिक शोषण का विरोध करेगा। यह सद्विप्र समाज ही प्रउत की आत्मा है। साथ ही, प्रउत यह भी मानता है कि सत्ता की बागडोर भी इन्हीं सद्विप्रों के हाथों में होनी चाहिए। इसलिए, प्रउत एक ऐसी सरकार की परिकल्पना करता है जो सद्विप्रों द्वारा चलाई जाए। यह सरकार जनता के हितों की संरक्षक होगी और धन-शक्ति या बाहुबल के बजाय नैतिक-शक्ति के आधार पर शासन करेगी।
इस प्रकार, प्रउत एक सद्विप्र समाज भी है, जो प्रगतिशील विचारों की नींव रखता है, और प्रउत सद्विप्रों की सरकार भी है, जो उन विचारों को क्रियान्वित करती है। यह समाज और सरकार का एक आदर्श संतुलन है।
यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रउत को केवल एक फ्रेम में कैद करना संभव नहीं है। यह एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया है जहाँ आंतरिक शुद्धि (समाज) और बाहरी व्यवस्थापन (सरकार) दोनों साथ-साथ चलते हैं।
प्रउत की स्थापना के लिए दोहरे प्रयास आवश्यक हैं:
समाज आंदोलन (Social Movement) : सद्विप्रों को संगठित करना, लोगों में नैतिक-आध्यात्मिक चेतना जगाना, उन्हें शोषण के विरुद्ध शिक्षित करना और आर्थिक न्याय के लिए स्थानीय स्तर पर प्रयास करना। यह समाज की नींव को मजबूत करने का कार्य है।
राजनैतिक प्रयास (Political Effort) : सद्विप्रों को सत्ता के केंद्र में लाना, ताकि वे प्रउत के सिद्धांतों को कानून, नीतियों और प्रशासनिक सुधारों के माध्यम से लागू कर सकें। यह सरकार की संरचना को बदलने का कार्य है।
जब ये दोनों प्रयास — जनचेतना और सत्ता नियंत्रण — समन्वित रूप से आगे बढ़ेंगे, तभी प्रउत का दर्शन अपनी पूर्णता को प्राप्त कर सकेगा। प्रउत एक आशा का प्रतीक है, जो हमें यह विश्वास दिलाता है कि मनुष्य केवल भौतिक सुखों के लिए नहीं बना है, बल्कि वह एक न्यायपूर्ण, शोषण-मुक्त और आध्यात्मिक रूप से उन्नत समाज की स्थापना कर सकता है। प्रउत एक सम्पूर्ण क्रान्ति है जो समाज और सरकार दोनों के मूल चरित्र को बदलने का आह्वान करती है।
प्रस्तुति : आनन्द किरण
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