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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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मधुविद्या साधना का दूसरा लेकर लेशन है। जिसे आनन्द मार्ग के आचार्य निशुल्क सिखाते हैं लेकिन इससे पूर्व प्रथम लेशन सिखना अनिवार्य है। मधुविद्या साधक को अपने आपको परमतत्व से जोड़ने की सर्वोत्तम विद्या है। इसलिए आज हम मधुविद्या साधना पर चर्चा करेंगे।
मधुविद्या शब्द का शाब्दिक मधु+विद्या है। जिसका शब्दार्थ है कि कर्म को मधुमय बनाने की कला है। लेकिन भावार्थ है कि कर्ता, क्रिया,कर्म व करण इत्यादि को ब्रह्ममय बनाने की कला को मधुविद्या कहते हैं। जब तक साधक के कृत का अभिमान रहेगा तब तक साधक बंधक मुक्त नहीं होगा। इसलिए अपने कृत का मान व भान में ब्रह्मत्व बिठाने की कला मधुविद्या है।
मधुविद्या की प्रक्रिया आचार्य सिखाते हैं। जिसको साधक व्यवहार में लाता है। ब्रह्म भाव का आरोपण मधुविद्या के नाम दिया गया है। निश्चित रूप यह विद्या साधना का ही अंग है। मनुष्य की इष्ट की ओर गति करने की शिक्षा को विद्या तथा जड़त्व की ओर गति को अविद्या साधना कहते हैं। यहाँ प्रश्न है कि क्या अविद्या साधकों का भी कोई इष्ट होता है। निस्संदेह उनका इष्ट एक काल्पनिक सत्ता होती है। जिसका निर्माण एक अविद्या साधक द्वारा अपनी स्वार्थ सिद्ध के लिए करता है। यह एक ऋणात्मक माइक्रोविटा के अलावा कुछ नहीं है। बाद में उसको प्रतिष्ठित करता है। वास्तव में वह कोई ब्रह्म नहीं होता है। एक ऋणात्मक माइक्रोविटा के अलावा कुछ नहीं है। विद्या साधक का इष्ट ब्रह्म है। मधुविद्या उस ब्रह्म को सर्वत्र देखने की कला है।
व्यक्तिगत संपर्क (PC) - गुरु के साथ शिष्य का व्यक्तिगत संपर्क को संक्षेप में पीसी कहते हैं। जब साधक भौतिक रूप गुरु से बहुत अधिक दूर होने पर इस प्रकार की व्यवस्था दी जाती है। जिसमें साधक गुरुदेव से मिलता है तथा गुरुदेव उनके कल्याण के जो कुछ जरुरी होता है, प्रदान करते हैं। जिससे साधक में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है जो अनन्तकाल तक साधक के संजीवनी का काम करता है। वस्तु पीसी में भक्त एवं भगवान का मिलन होता है। सदगुरु के भौतिक शरीर के परित्याग के बाद व्यक्तिगत संपर्क की सुगम व्यवस्था तो नहीं है लेकिन असंभव भी नहीं है। वस्तु जगत में ऐसा करना संभव नहीं है लेकिन आध्यात्मिक जगत में ऐसा होना असंभव नहीं है। लेकिन इसकी चाहत के लिए साधना नहीं की जाती है।
मधुविद्या मनुष्य की साधना को रस एवं भावमय बनाती है। मधुविद्या का आनन्द लेने के ईश्वर प्रणिधान में प्रगाढ़ होना आवश्यक है। अतः ईश्वर प्रणिधान मधुविद्या से पहले सिखाया जाता है। ईश्वर प्रणिधान के संदर्भ में चर्चा आगामी आलेख में करेंगे। फिलहाल मधुविद्या ही करते हैं। सदैव ब्रह्म के साथ संयुक्त रहना मधुविद्या सिखाती है। इसलिए इसमें एक गुरुमंत्र होता है। सभी गुरुमंत्र साधक को सर्वत्र ब्रह्म ही दिखाते हैं।
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करणसिंह
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