साधना का प्रथम लेशन - ईश्वर प्रणिधान (First lesson of Sadhana - Ishwar Pranidhan)

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  [श्री] आनन्द किरण "देव"
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ईश्वर का प्रणिधान करना ही ईश्वर प्रणिधान है। यम नियम की इस विधा को साधना का प्रथम लेशन कहा जाता है। ईश्वर प्रणिधान करने की प्रक्रिया आनन्द मार्ग के आचार्य निशुल्क सिखाते हैं लेकिन इससे पूर्व यम नियम की दीक्षा आवश्यक है। 

ईश्वर का प्रणिधान करना ही ईश्वर प्रणिधान है। ईश्वर शब्द का अर्थ नियंता अथवा इष्ट के रूप में स्वीकारा गया है। प्रणिधान का अर्थ आश्रय लेना। ईश्वर को अपने आश्रय के रूप में स्वीकार करना अथवा ईश्वर का आश्रय लेना ईश्वर प्रणिधान है। आश्रय का छत्रछाया है। ईश्वर की छत्रछाया में रहना अथवा ईश्वर को अपने छत्रक के रूप में धारणा करना ईश्वर प्रणिधान है। ईश्वर के बाहर एक कदम भी रखने से ईश्वर प्रणिधान की मर्यादा भंग हो जाती है। इसलिए एक पल भी ईश्वर को नहीं भूलना ही ईश्वर प्रणिधान की सार्थकता है। 

ईश्वर का प्रणिधान  कैसे किया जाता है? - इसकी प्रक्रिया तो आचार्य सिखाते हैं। लेकिन स्वयं को ईश्वर में बिठा देना ईश्वर प्रणिधान का सरल एवं सहज रास्ता है। यह सोचना कि मैं ही ईश्वर अथवा ब्रह्म हूँ। इस भाव में विचरण करते करते मनुष्य ईश्वर में प्रतिष्ठित हो जाता है तथा ईश्वर प्रणिधान हो जाता है। इस प्रकार ईश्वर ही साधक के कवच कुंडल बन जाते हैं। उनको किसी प्रकार साधक से अलग नहीं किया जा सकता है। ईश्वर को साधक से अलग करने का साधक की मौत है। इस प्रकार स्वयं ईश्वर है, यह भाव साधक को वृहद बनाता है। अतः ईश्वर प्रणिधान के सभी मंत्रों का एक भाव है अहम् ब्रह्मास्मि। ईश्वर प्रणिधान करने से सविकल्प समाधि लग जाती है अथवा सगुण ब्रह्म की अवस्था को प्राप्त कर लेता है। इसे आध्यात्मिक भाषा में मुक्ति का जाता है। ईश्वर प्रणिधान के बल पर साधक मुक्त पुरुष बन जाता है तथा वह संकल्प लेने की स्थिति में आ जाता है। इसलिए व्याख्याकार ईश्वर की संकल्पना को भी ईश्वर प्रणिधान कहते हैं। 

धर्म समीक्षा - गुरु द्वारा अपने शिष्यों के शारीरिक,मानसिक व आध्यात्मिक जीवन का अवलोकन एवं निरिक्षण करना धर्म समीक्षा की परिधि में है। गुरु का दायित्व होता है कि अपने शिष्य का कल्याण करना अतः गुरुदेव एक निर्धारित समय पर शिष्य को अपने पास बुलाते हैं अथवा स्वयं जाते हैं तथा उसको उलट पलट के देख लेते हैं कि शिष्य उनके द्वारा बताई पथ निर्देशना में चूक तो नहीं कर रहा है। गुरु के भौतिक शरीर के अवसाद होने पर गुरु नित्य शिष्य की धर्म समीक्षा करते हैं। अतः शिष्य को सावधान रहना चाहिए कि वे किसी रुप में तुम्हारे पास आ सकते हैं। कई बार गुरु आकर धर्म समीक्षा करके भी जाते हैं लेकिन शिष्य को मालूम नहीं होता है। अतः परीक्षा देने के लिए सदैव तैयार रहे हैं। 

ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानने वाला नास्तिक कहलाता है। लेकिन वह भी नास्तिक है जो ईश्वर प्रणिधान नहीं करते हैं। क्योंकि ईश्वर का अस्तित्व साधक के जीवन में ईश्वर प्रणिधान से ही सिद्ध होता है। इसके अभाव में तो एक उक्ति है कि ईश्वर है। ईश्वर को अपने से अलग मानकर ईश्वर को मानते चलना अथवा उसकी आरती, स्तुति, आराधना, वंदना, प्रार्थना करना ईश्वर प्रणिधान नहीं है। अतः  यह यात्री एक विशेष कोटि की नास्तिकता लेकर ही चलते हैं। यदि हम आस्तिक है तो ईश्वर प्रणिधान ही सिद्ध करेगा कि हम आस्तिक है। 

ईश्वर का स्वरूप सत्य एवं आनन्द है। अथवा सत्य एवं आनन्द ही ईश्वर है। जो सत्यनिष्ठ(नीति प्रयाण) एवं आनन्द मार्गी है। वही ईश्वर प्रणिधान कर सकता है। इसके अभाव उसकी ईश्वर प्रणिधान दिखावा मात्र रह जाती है। अतः साकार ईश्वर अथवा किसी व्यक्ति विशेष अथवा किसी मूर्ति, तस्वीर व फोटो विशेष को ईश्वर नहीं मानना नास्तिकता नहीं है। नास्तिकता सत्य एवं आनन्द को अस्वीकार करना अथवा सत्य एवं आनन्द सामान्य प्रक्रिया समझना है।  अतः निराकार, अनन्त एवं सर्वव्यापी सत्ता में विश्वास रखने वाला ही ईश्वर प्रणिधान कर सकता है। ईश्वर प्रणिधान शुद्ध मन से किया जाता है इसलिए शुद्धि के विषय में आगामी आलेख में जानने की कोशिश करेंगे। 
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            करणसिंह
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