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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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मनुष्य को उसका जीवन लक्ष्य साधना से प्राप्त होता है। साधना के लिए तन एवं मन को तैयार करने के लिए शुद्धि की भूमिका का रहते हैं। आज हम इन्हीं शुद्धियों की बात करेंगे। आनन्द मार्ग के आचार्य शुद्धि करने का तरीका निशुल्क सिखाते हैं। लेकिन उसके लिए हमें साधना मार्ग पर चलने के लिए तैयार होना होता है।
शुद्धि शब्द का अर्थ शुद्धता अथवा पवित्रता होता है। जिसका अर्थ तन एवं मन की मलिनता अथवा जड़ता को दूर करना होता है। सर्वात्मक शौच, व्यापक शौच अथवा स्नान के द्वारा शरीर तो शुद्ध कर लेते हैं लेकिन मन की शुद्धता यम-नियम, पंचदश शील, षोडश विधि एवं आचरण संहिता से होती है। आध्यात्मिक जगत में मन को भौतिक एवं बौद्धिक परिवेश हटाकर आत्मिक परिवेश में प्रतिष्ठित करने को शुद्धि कहते हैं। साधना कभी भी भौतिक उपकरण एवं पांडित्य बुद्धि के विकास से नहीं होती है। साधना करने के निर्मल मन की आवश्यकता है। मन को निर्मल से निर्मलतम बनाने के शुद्धि की जाती है।
मनुष्य का मन प्रथमतः भौतिक परिवेश अथवा अपने बौद्धिक क्रिया में लगा रहता है। अतः प्रथमतः भौतिकता एवं बौद्धिकता में रत मन को स्वतंत्र करने का प्रयास किया जाता है। इस प्रयास अथवा प्रक्रिया को भूत शुद्धि कहते हैं। भूत शुद्धि की प्रक्रिया बताने का विशेषाधिकार तो आचार्य का है। भूत शब्द का है - पंचभूत सृष्ट जगत। अतः हम जगत से मन को कैसे दूर ले जा सकते हैं। यही भूत शुद्धि की विषय वस्तु है।
जगत से मन को दूर करने के बाद मन को आत्मिक पट तक ले जाने की यात्रा को आसन शुद्धि कहते हैं। आसान शुद्धि भी आचार्य ही सिखाते हैं। मन को जगत से हटाकर अनन्त में यूँ ही नहीं छोड़ देना है। उसे उस स्थान तक ले जाना है, जहाँ जाने पर वह साधना कर सकता है। इसे आसन शुद्धि कहते हैं। आसन शुद्धि का स्वभाविक अर्थ होता है। मन को आसन देना।
मन को इष्ट चक्र तक ले जाना ही साधक का कार्य नहीं है। यहाँ साधक को अपने चित्त की शुद्धि कहनी होती है। जब तक हम अणु चित्त को लेकर घूमते रहेंगे तब काम नहीं बनेगा। अतः चित्त को विराट बनाने की कला का नाम चित्त शुद्धि है। चित्त शुद्धि करने तरीका आचार्य सिखाएंगे।
यम-नियम - मन को शुद्ध एवं पवित्र बनाने की सर्वोत्तम कला का नाम यम-नियम है। यम नियम की दीक्षा देने का अधिकार आचार्य को है। नियम का कार्य मन को नियमित करना तथा यम का कार्य मन स्व: भाव में स्थापित करना अथवा जमाना।
मन को नियम के माध्यम नियमित करने के क्रम में प्रथम शौच किया जाता है। शौच के माध्यम शुद्ध तन एवं मन होता है तथा संतोष के द्वारा तृप्त कि जाता है। तत्पश्चात तप के माध्यम से मन को दृढ़ता दी जाती है। उसके बाद स्वाध्याय के माध्यम मन पवित्रता प्रदान की जाती तथा अन्त में ईश्वर प्रणिधान मन को पूर्णता देता है। शुद्धता, तृप्तता, दृढ़ता, पवित्रता एवं पूर्णता मन को नियमित हो जाता लेती है।
मन स्व: भाव अथवा वास्तविक स्वरूप में स्थापित करने यम का पाठ पहले पढ़ाया जाता है। मन को उसके वास्तविक स्वरूप में स्थापित करने के लिए यम लाए गए हैं। मन को मूल स्वरूप देने का प्रथम कार्य अहिंसा करती है। इसके विनष्ट का भाव न रहने से मन अपने स्व: भाव की ओर लौटता है। सत्य मन स्व:भाव की ओर ले जाने का दूसरा प्रयास इससे अनित्य से दूर रहता है। अस्तेय मन को स्व:भाव में लाने का तीसरा प्रयास है। पर द्रव्य की ओर आकृष्ट इससे मन में अपने में स्थिरता का विकास होता है। चतुर्थ प्रयास है ब्रह्मचर्य, जो मन को मूल स्वभाव पूर्णत्वमुखी में ले चलता तथा अन्तिम प्रयास अपरिग्रह मूल स्वभाव से दूर नहीं जाने देता है। इस प्रकार विनष्ट से दूर रहकर नित्य की ओर चलते हुए अपने में स्थिर रहकर पूर्णत्व की गतिमान होता है तथा कभी भी उसे विमुख नहीं होता है।
पंचदश शील, षोडश विधि एवं आचरण संहिता में आदर्श मानवता के साथ आत्मिक कल्याण का बीज भी निहित है। आत्मिक कल्याण की भावधारा में आदर्श मानवता का निर्माण होता है। यह मनुष्य का नैतिक कर्तव्य है। यद्यपि नीतिमता लक्ष्य नहीं है तथापि आध्यात्मिक पथ के राही लिए आवश्यक अंग है।
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करणसिंह
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