आज वैश्ययुग चल रहा है। समाज चक्र के अनुसार जब वैश्यों का शोषण पराकाष्ठा पर पहुँचता है। तब यदि स्वभाविक परिवर्तन में देर होती है, तो विक्षुब्धशूद्र विप्लव के बल पर वैश्यों की प्रभुसत्ता खत्म हो जाती है तथा उसके बाद शूद्रों की को सुव्यवस्थित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था नहीं होने के समाज की प्रभुसत्ता क्षत्रियों के हाथ में आ जाती है।
वैश्य युग अर्थात पूँजीवाद ताश के पन्नों का साम्राज्य है, जो किसी भी क्षण बिखरने वाला है, उसके बाद क्षत्रिय युग की प्रतिष्ठा होगी। क्षत्रिय युग में अर्थ शक्ति नहीं शारीरिक शक्ति एवं भौतिक शक्ति का प्रभाव दिखाई देता है। इस युग में व्यक्ति की कीमत पैसों के बल पर नहीं व्यक्ति की कीमत उसके साहस, शौर्य एवं समाज हित में किये गए कठोर निर्णय से होती है। समाज के सही संगठन के लिए राजनैतिक लोकतंत्र की नहीं आर्थिक लोकतंत्र की आवश्यकता होती है। वैश्यों द्वारा की गई अव्यवस्था के दर्द को पहचान कर एक सुस्पष्ट आदर्श पर नूतन समाज को स्थापित करते है। इसलिए एकबार फिर समाज क्षत्रिय युग का स्वागत करने को आतुर है।
क्षत्रिय शब्द का अर्थ - क्षत अर्थात नाश से बचाने वाला पुरुष क्षत्रिय पद वाच्य है।
"क्षतात्किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः ।
राज्येन किं तद्विपरीतवृत्तेः प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा॥" - रघुवंशी राजा दिलीप
(नाश करने वाली व्यवस्था से तारण के करने वाले के लिए क्षत्रिय शब्द रूढ़ किया गया है। अर्थात नाश से बचाने वाला क्षत्रिय है। जो इसके विपरीत कार्य करने वाला पुरुष राज्य एवं अपकृति से मलिन हुई प्राणों के समान है।)
क्षत्रिय शब्द का अर्थ एवं परिभाषा में जातिगत एवं वंशानुगत शब्द छिपा हुआ नहीं है। अतः यह पदवी जातिगत नहीं है। वे सभी व्यक्ति क्षत्रिय है, जो कुव्यवस्था के विरुद्ध लड़ते हैं तथा सुव्यवस्था की प्रतिष्ठा करते हैं। अतः क्षत्रिय युग को समाज सुनहरे भविष्य के रुप में अंगीकार करता है।
विक्षुब्धशूद्र शब्द का अर्थ - जो स्वभाव से नहीं, परिस्थिति के दबाव में शूद्रवृत्ति को धारण किया है, उन्हें विक्षुब्ध शूद्र कहा गया है। इसमें वे लोग आते हैं, जो स्वभाव से क्षत्रिय अथवा विप्र होते हैं। इसमें भी जाति बोधक एवं वंश बोध नहीं होता है। वैश्य युग में पूँजीपति वर्ग शोषण करने लग जाते हैं। जिसके कारण वक्त की मारे क्षत्रिय एवं विप्र वृत्ति के लोग शूद्र वृत्ति अपनाने को मजबूर हो जाते हैं, यह विक्षुब्ध शूद्र कहलाते हैं। यह लोग शोषण की पराकाष्ठा के स्तर पर विप्लवी बन जाते हैं। विक्षुब्धशूद्र का यह विप्लव वैश्य व्यवस्था को मिटा देते हैं तथा शारीरिक बल संपन्न क्षत्रिय अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित करने में सफल हो जाते हैं। इनके यह सफलता क्षत्रिय युग का आगमन कहलाता है।
देखा गया है कि वैश्य युग चौधराट विप्रों की कुशाग्र बुद्धि एवं क्षत्रियों की ताकत के बल पर चलते हैं। जब यह ताकत किसी मालिक की हित साधना के स्थान पर समग्र समाज की हित साधना में लग जाती है, तब वैश्य अपनी अस्मिता बचाने के लिए अवांछित हथकंड़ो का उपयोग करते हैं। उनके इस पापाचार दुनिया पहचान जाती है तथा वैश्य युग का पटाखा फूट जाता है तथा समाज चक्र के अनुसार इस नूतन युग की बागडोर क्षत्रिय अपने हाथ में ले लेते हैं। आज हम उस मोड़ पर खड़े है, जहाँ से क्षत्रिय युग पदचाप स्पष्ट सुनाई दे रही है। साहसी लोग व्यवस्था परिवर्तन की ओर बढ़ रहे हैं। वैश्य अधर्मी हथकंडो के बल पर साहसी लोगों की आवाज दबाने का पुरा प्रयास कर है। लेकिन वे काल की गति को रोक नहीं पाएंगे, समाज उनके कुचक्र को पहचान कर इन साहसियों अपना नैतिक बल देंगे, जिसके बल पर यह दकियानूसी व्यवस्था चकनाचूर हो जाएगी।
समाज चक्र - समाज की गति एक चक्र के अनुसार है, जिसमें समाज के आरंभ अव्यवस्थित समाज शूद्रों का प्रभुत्व देखा गया था, तत्पश्चात शक्तिसंपन्न क्षत्रियों ने समाज की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी। क्षत्रियों की कमजोरी का लाभ उठाते हुए, विप्रों ने समाज में अपना प्रभुत्व स्थापित किया। चर्च की प्रभुसत्ता, मजहब उलमा की प्रधानता एवं ब्राह्मणवाद को बोलबाला विप्र प्रधानता के उदाहरण है। विप्रों की कमजोरी का फायदा उठाकर वैश्यों ने समाज अपने आगोश में दबोच लिया। इस प्रकार प्रउत दर्शन के प्रवर्तक श्री प्रभात रंजन सरकार बताते हैं कि समाज चक्र क्रमशः शूद्र, क्षत्रिय, विप्र एवं वैश्य मानसिक की प्रधानता के क्रम में घूमता रहता है। इस चक्र के केन्द्र सद् चरित्र सद्विप्र रहते हैं। जो आवश्यकता पड़ने पर क्रांति, विप्लव, विक्रांति तथा प्रतिविप्लव के बल पर समाज चक्र द्रुति अथवा परिवर्तन लाते हैं।
सद्विप्र - सद्विप्र, वे आध्यात्मिक सैनिक है, जो कुशाग्र बुद्धि, सत्साहस, जगत के प्रति अपनी निष्ठा एवं जिम्मेदारी उठाने में सक्षम तथा सेवावृत्ति से भरपूर होते हैं। इसलिए सद्विप्र को एकसाथ अच्छा विप्र, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र भी कहा जाता है।
वर्ण - समाज चक्र में वर्ण का जिक्र किया गया है, भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद का द्योतक नहीं है, यह आर्थिक वृत्ति एवं मानसिकता के प्रतीक है। सम्पूर्ण मनुष्य की आर्थिक क्षमता एवं गुणधर्म को चार भाग में विभाजित कर सकते हैं। इसे ही वर्ण कहा गया है, उसका जन्मगत गुण से कोई संबंध नहीं है।
शारीरिक सामर्थ्य संपन्न वर्ण
(१) शूद्र - यह मानसिक शक्ति का प्रयोग मात्र शारीरिक आवश्यकता के लिए करने में सक्षम में इनमें शौर्य, बौद्धिक तथा कुशलता का अभाव होता है। इसलिए यह मात्र सेवा कार्य अथवा किसी के निर्देशन में काम कर सकते हैं। ऐसे लोगों सभी वर्ग पाए जाते हैं इसलिए जातिगत संबंध कहना अनुचित है।
(२) क्षत्रिय - सहासी एवं शौर्यवान शारीरिक शक्ति संपन्न व्यक्ति हैं। यह भी सर्वत्र विद्यमान है इसलिए जातिगत बंधन में रखता मूढ़ता है।
वैचारिक सामर्थ्य संपन्न वर्ण
(३) विप्र - बौद्धिक कौशल का उपयोग ज्ञान विज्ञान में करने वाले, इस श्रेणी में है। यह भी सर्वत्र देखे जाते हैं। अतः धार्मिक व्यवसायी अथवा जातिगत भाव आरोपित करना उपयुक्त नहीं है।
(४) वैश्य - अपने बुद्धि का उपयोग विषय व्यवहार में कर धनार्जन करने वाली श्रेणी वैश्य कहलाती है। यह अपने कौशल का उपयोग उत्पादन एवं व्यापार वाणिज्य में करते हैं। इस श्रेणी के लोग भी सभी जगह है, इसलिए जातिबोधक मानना गलत है।
नोट - मूल चिन्तन श्री प्रभात रंजन सरकार है, उसके आधार पर लेखक का विस्तार है।
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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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