परमपुरुष एक, नाम एक- बाबानाम केवलम (ONE GOD, ONE NAME - BABANAM KEVALAM)


[श्री] आनन्द किरण "देव" की कलम से

मध्यकालीन‌ भक्ति आंदोलन ने नाम जप की महिमा चित्रित किया था। सही कहा जाए तो इन संतों की साधना ही नाम जप थी। इससे पूर्व शंकराचार्य, बुद्ध एवं महावीर ने ज्ञान के मंथन को को आध्यात्मिक यात्रा का आधार बताया था। उससे भी पूर्व ब्राह्मणों ने यज्ञ एवं हवन को ईश्वरीय बल माना था। सुदूर अतीत की ओर जाए भक्ति एवं कर्म साधना पूर्णत्व का आधार था। भारतवर्ष का आध्यात्मिक इतिहास ज्ञान, कर्म एवं भक्ति के बल पर लिखा गया है। वर्तमान युग में योग साधना ने विश्व जन का मन जीत लिया है। यद्यपि योग साधना तंत्र व भक्ति के बिना एकाकी है तथापि तंत्र ने समाज में मान्यता प्राप्त नहीं की है। इसका मूल कारण है कि तंत्र के संदर्भ में समाज बहुत भ्रम व्याप्त है। चूंकि यह हमारा विषय नहीं है इसलिए इस पर चर्चा नहीं करेंगे। हमारी चर्चा का मुख्य फोकस भक्ति जगत रहेगा। भक्ति जगत अब सर्वमन को आकर्षित नहीं कर पाया है लेकिन सभी के मन में  भक्ति के प्रति आदर बनाने में सफल रहा है। भक्ति जगत की एक बहुमूल्य विरासत 'नाम महिमा' रही है। आज हम उसी पर चर्चा करने जा रहे हैं। 

नाम जप की साधना में तीन नाम एवं पांच नाम की परिपाटी चल रही है। अधिकांश संतमत पांच नाम जप को मान्यता देते हैं। यद्यपि उनके द्वारा बनाएं गए आध्यात्मिक अनुशासन के चलते हम उन पांच नामों को सार्वजनिक नहीं कर सकते हैं तथापि उस पर मंथन कर  रुहानी यात्रा को समझने का प्रयास करेंगे। नामदानी संत कहते हैं कि आज्ञाचक्र व सहस्त्राचक्र के बीच साधक को  मन के पांच कोषों की यात्रा करनी होता है। इन्हें यह अपनी भाषा में पांच लोक अथवा पांच आसमान अथवा पांच खण्ड इत्यादि कहते हैं। उनके अनुसार इन पांच लोकों का एक एक नाम है। वे सिमरन, श्रवण एवं दर्शन के माध्यम से सचखंड अथवा सत्य लोक तक पहुँचने तथा पहुंचाने का दावा करते हैं। योग विज्ञान के अनुसार इन संतों द्वारा परिकल्पित सचखंड सहस्त्राचक्र का आंतरिक हिस्सा गुरुचक्र है। मेरा सदैव इन से प्रश्न रहता था कि मालिक एक है तो मालिक के नाम पांच क्यों? इनके पास कोई सटीक उत्तर नहीं होने के कारण प्रश्न को इधर उधर घूमाकर गुमराह करने का पूर्ण प्रयास करते हैं। मनोविज्ञान का दर्शन बताता है कि  पंचकोषात्मिका जैवीसत्ता कदली पुष्पवत् है तथा सप्तलोकात्मकं ब्रह्म मन: है। इसके अतिरिक्त आध्यात्मिक मनोविज्ञान कहता है कि मनुष्य जीवन त्रिस्तरीय है- भौतिक लोक, मानसिक लोक एवं आध्यात्मिक लोक। इन सबके आधार पर आलेख के विषयानुकूल अध्ययन तैयार किया जाए तो मूलाधार चक्र से विशुद्ध चक्र तक भौतिक लोक की यात्रा है। इस यात्रा को मंत्र एवं मधूरभाव से भरकर मानसाध्यात्मिक बनाई जाती है। विशुद्ध चक्र से गुरुचक्र के बीच मानसिक लोक है तथा गुरुचक्र एवं उससे उपर पूर्णतया आध्यात्मिक लोक जिसके बारे महापुरुष लिखते है - 'गिरा अनयन नयन बिन बानी'। इसका विश्लेषण है कि  नमक गुड़िया समुद्र की गहराई नापने गई एवं उसी समा गई। चूंकि हमारे विषय का मूल मानस लोक में नाम महिमा को समझना है।इसलिए आध्यात्मिक ज्ञान की चर्चा न कर नाम साधना पर ध्यान केंद्रित करेंगे। 

मनोविज्ञान में भक्ति ज्ञान बताता है कि मन के प्रत्येक स्तर के साक्षी पुरुष को एक नाम दिया गया है। मन के तीन स्तर है- स्थूल मन, सूक्ष्म मन एवं कारण मन। अत: नाम विज्ञान के अनुसार साक्षी पुरुष के तीन नाम होते है।‌ लेकिन रुहानी यात्रा में बाल की खाल निकालने वाले यात्रियों ने तीसरे स्तर कारण मन के भी प्रत्येक कोष का एक एक नाम देकर  कुल पांच नाम बना दिए है। यद्यपि पांच नाम का आधार विज्ञान सहमत नहीं है फिर मान्यता के आधार स्वीकार कर चलते हैं। साक्षी पुरुष के नाम एकाधिक होने पर भी वह तो एक ही है। यह मात्र मन स्तर के अनुसार उनकी पहचान सुनिश्चित करने के लिए ज्ञान मार्ग में  समझाया जाता है। उस परमपुरुष में मूलाधार से लेकर सहस्त्रा तक के भक्ति रस में कोई भेद नहीं है। वे सदैव पूर्ण हैं।

पुनः थोड़ा विशुद्ध चक्र से गुरु चक्र के बीच वाले मानस लोक पर ध्यान केंद्रित करते हैं। मानस लोक की आधारभूमि आज्ञाचक्र है। जिसकी गहराई में एक ललना चक्र है तथा उँचाई में मुक्ति का मार्ग है। विशुद्ध चक्र भौतिक लोक का चरम बिन्दु है तथा गुरुचक्र आध्यात्मिक लोक का निम्न बिन्दु है। जैसे ही विशुद्ध चक्र पार किया मानस लोक शुरू होता है तथा गुरुचक्र में पहूँचते ही आध्यात्मिक लोक आरंभ हो जाता है। इसके बीच आज्ञाचक्र की परिधि हैं। जिसने कुछ लोग सत्व, रज एवं तमोगुण के आधार पर महेशपुरी, विष्णुपुरी एवं ब्रह्मापुरी भी कहते हैं। जो पूर्णतया काल्पनिक हैं।  पुनः विषय की ओर लौटते हैं - आज्ञाचक्र मन की वासभूमि है। मन महत्त, अहम एवं चित्त का सामूहिक स्वरूप है। चित्त को अवस्था के आधार पर स्थूल मन (काममय कोष), सूक्ष्म मन ( मनोमय कोष) एवं कारण मन (अतिमानसमय, विज्ञानमय एवं हिरण्यमय कोष) में देखा जाता है। साधक की आध्यात्मिक यात्रा इन पंच कोष में होकर पूर्णत्व प्राप्त करती है। इसलिए नाम जप के साधकों ने यहाँ स्वामी को पांच नाम देकर पांच नाम का महिमा मंडन करते हैं। वे यहाँ सबसे बड़ी भूल यह करते हैं कि नाम एवं मंत्र में अंतर है। मंत्र का संबंध किसी सत्ता के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक आधार से होता है। इसलिए इन्हें बीज मंत्र के रूप में देखा जाता है। नाम का संबंध कीर्तन एवं भजन से होता है। जहाँ साधक अपने भावों को शब्दों में पिरोकर रखता है उसे भजन कहते हैं। जहाँ परमपुरुष के भाव में समाहित होने का स्वरूप है उसे कीर्तन कहते हैं। नाम मूलतः कीर्तन है। अतः इसमें शाब्दिक स्पंदन का रहना आवश्यक है। नाम के शाब्दिक स्पंदन के इसका वाचनिक स्वरूप होना आवश्यक है। इसलिए साधक एक नाम की धुन में मस्त हो जाता है।  साधक को सिखाया जाता है कि मन के तीनों स्तर की अलग अलग धुन है लेकिन यह मध्यकालीन भक्ति संत सिखा दिया कि पांच नाम है। हर धुन में नाम तो सदैव एक ही रहता है, पांच कदापि नहीं। जो भी नाम अपने परमपुरुष का प्रथम दृष्टि में प्राप्त करता है वही अंतिम दृष्टि तक रहता है। अतः पांच नाम नहीं एक नाम का सिमरन, श्रवण एवं दर्शन करना साधक के हित में है। नाम को कीर्तन के रूप लेना चाहिए इसलिए सस्वर नाम संकीर्तन आवश्यक है। चूंकि नाम शरीर, मन एवं आत्मा हिलोर लाता है। इसलिए कीर्तन करते समय शरीर हिलते रहना आवश्यक है। अतः सदगुरु कीर्तन को  नृत्यमय करना सिखाते हैं। 

पांच नाम व तीन नाम पर एक नाम भारी है इसलिए नाम साधना में एक नाम के चयन को सिखते हैं। परमपुरुष भक्त के संरक्षण हैं चाहे वह सखा, प्रियतम, पिता अथवा अभिभावक के रूप में ही क्यों न हो। वे सदैव भक्त आश्रयदाता हैं। आश्रयदाता रूप आदरणीय होता है इसलिए एक आदरणीय नाम को परमपुरुष के संबोधन में चुना जाता है। आध्यात्मिक यात्रा के साक्षी पुरुष के ज्ञान विज्ञान में अलग अलग नाम से समझाने पर भी भक्ति रस में एक ही नाम से संबंधित होते हैं। संबोधन एवं पुकारु नाम भौतिक जगत में अवस्था के अनुकूल दिए जा सकते हैं लेकिन मानसाध्यात्मिक जगत में एक ही होता है - वह है 'बाबा'। यदि वह सखा है तो भी बाबा, प्रियतम है तो भी बाबा है, पिता है तो भी बाबा है। यहाँ वात्सल्य भाव में भी परमपुरुष भक्त के लिए बाबा ही है। इसलिए बाबा को किसी आकृति में कैद करके नहीं रखा जाता है। अतः ऐसे साधक उसके निराकार स्वरुप में लीन रहते हैं। अतः नाम साधना के परिपेक्ष्य में बाबानाम केवलम ही रहता है।अतः साधक कह सकता है एक ही नाम - बाबानाम केवलम। 

बाबा शब्द संस्कृत के बप्र से प्राकृत बप्प, प्राकृत बप्प से खड़ी बोली का बप्पा, खड़ी बोली के बप्पा से आधुनिक भाषा बाबा शब्द बनकर जगत के सामने आया है। जिसका अर्थ जान से ज्यादा प्रिय। जिसके समक्ष अपना जीवन भी कुछ नहीं वही है बाबा। चूंकि परमपुरुष जगत पिता एवं जगत गुरु हैं इसलिए बाबा गुरु एवं परमपुरुष का एक मात्र पुकारु नाम है। अतः हम गुरु एवं परमपुरुष को बाबा नाम से संबोधित करते हैं। कीर्तन के रूप में बाबानाम केवलम का गान, सिमरन, श्रवण एवं दर्शन करते हैं। जबकि जप के रूप में इष्ट मंत्र का मानसिक जप करते हैं। आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक कर्म करते समय गुरु मंत्र का उपांशु जप करते हुए स्मरण करते हैं। 

नाम का वाचनिक जप करते हुए भी साधना सिखाई जाती थी। लेकिन जब हमारे पास इष्ट मंत्र है तो नाम के वाचनिक जप वाली साधना करने से अच्छा नाम को कीर्तन के रूप में ही गाना चाहिए। आओ बाबानाम केवलम का कीर्तन करते हैं। नाम की सच्ची महिमा गाते है। 

नाम महिमा के आलोक की अतिवृष्टि करते हुए कभी अभिवादन में तथा अभिवादन के प्रति उत्तर में नाम का प्रयोग न करें। क्योंकि इससे नाम बहुत अधिक सामान्यकरण में चला जाता है। उसका विशिष्ट्य सदैव बनाए रखना साधक एवं भक्त का कर्तव्य है।

कीर्तन का भौतिक समृद्धि, मानसिक रिद्धि एवं आध्यात्मिक सिद्धि की उद्देश्य साधना नहीं, न ही विश्व शांति, रोग निवारक, अकाल निवारण, युद्ध रोकने तथा न ही किसी की स्मृति में किया जाता है। कीर्तन मात्र आध्यात्मिक भावधारा में मन को बहा ले जाने के लिए जिसका एक मात्र उद्देश्य परमपुरुष है। किसी जागतिक उद्देश्य के लिए कीर्तन करना आध्यात्मिक अनुशासन नहीं है। 
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