80 बार गिनकर इष्ट मंत्र के जप का एक रहस्य (A secret of Ishta Mantra Jap by counting 80 times)

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[श्री] आनन्द किरण "देव"
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आनन्द मार्ग ईश्वर प्रणिधान में भूत शुद्धि, आसन शुद्धि एवं चित्त शुद्धि के बाद इष्ट चक्र पर बिन्दु ध्यान करते हुए अहम् ब्रह्मास्मि का भाव युक्त इष्ट मंत्र का पहले 80 बार गिनकर जप करने का प्रावधान है। उसके बाद यथावत अनगिनत अजपाजप इष्ट मंत्र के जप का प्रावधान है। इसका उल्लेख चर्याचर्य में भी मिलता है। 80 बार गिनकर जप करने का क्या विज्ञान है? इस रहस्य को समझने की कोशिश करते हैं।

 इस प्रश्न का एक और सरल उत्तर है, 'गुरु आदेश की अनुपालना'। इसके अलावा जो भी तर्क अथवा युक्ति है वह शायद मानसिक उपक्रम ही है। लेकिन एक साधक के मन में प्रश्न तो आता ही है कि गिनती का आंकड़ा 80 बार ही क्यों कहा गया है? चूंकि गुरु आदेश पर संदेह नहीं किया जाता है अथवा भक्ति इस पर अधिक माथापच्ची करने का इजाजत नहीं देती है। अतः सबसे मजबूत तर्क है 'गुरु आज्ञा ही सर्वोपरि'। इसका रहस्य वे जानें, हमारा काम तो सिर्फ आज्ञा का पालन है। आलेखन तो यही पर समाप्त हो जाता है। इसके आगे लिखने का अर्थ है, अपनी बुद्धि लगाना। 

गुरुदेव का निर्देश है कि अपनी बुद्धि को अनुसंधानात्मक बनाना एक अच्छा कार्य है। मैंने सोचा कि क्यों न अपनी बुद्धि को अनुसंधान की ओर जाने दूँ जिससे वह कुछ न कुछ तो खोजकर ही लौटेगी। इस विषय पर कुछ लिखने से पूर्व मैं कीर्तन के घूर्णन में अटकी मेरी बुद्धि को मेरे अन्त:करण ने जो जबाब दिया उससे अवगत कराता हूँ। एक बार मेरी जिज्ञासा ने मुझसे प्रश्न किया कि अखंड कीर्तन में हम वामावर्त अर्थात एन्टी क्लॉक वाइज घूमते हैं तथा आवर्त कीर्तन में दक्षिणावर्त अर्थात क्लॉक वाइज घूमते हैं। ऐसा क्या रहस्य है? शास्त्र में इसका कोई विज्ञान नहीं मिला। इसलिए गुरु भाइयों व बहिनों से चर्चा की तो सभी अपने अपने सामर्थ्य से जबाब दिया लेकिन मेरे मन को संतुष्ट करने वाला जबाब नहीं मिला। इसलिए कभी कभी अपने अन्त:करण से यह प्रश्न कर देता था। एक दिन उसका जबाब आया जिसने मेरी आकूति को संतुष्ट कर दिया। मैं वह जवाब अपनों के साथ साझा करता हूँ। अखंड कीर्तन में लक्ष्य बिन्दु के चारों ओर घूर्णन गति होती है। इसमें वामावर्त घूमने की संतुष्ट मेरे अन्त:करण ने मुझे दी की हमारे शरीर का वाम अंग लक्ष्य के नजदीक रहता है। इस वाम अंग में मनुष्य का हृदय होता है। हृदय को दिल भी कहते हैं। भावना का विज्ञान बताता है कि भावनाओं की जन्मस्थली दिल है। दिल से महादिल का मिलना भावनात्मक सत्कार है। यद्यपि हमारे क्षुद्र भाव का वृहद भाव में मिलने के लिए किसी शारीरिक स्थित की जरूरत नहीं होती है तथापि कीर्तन की भक्ति भाव को दिल के विज्ञान से सहमत बताने के लिए यह उत्तर संतुष्ट देता है। ठीक इसी प्रकार आवर्त कीर्तन में साधक अपनी धुरी पर दक्षिणावर्त घूमता है। उस समय उसका लक्ष्य बिन्दु उसके चारों ओर होता है तथा दक्षिणावर्त घूमने समय वाम अंग की परिधि दक्षिण अंग अधिक होती है। इसलिए दिल से महादिल मिलने में वही समीकरण  संतुष्ट हो जाता है। दिल लक्ष्य की ओर होना। मेरे अन्त:करण से मिला उत्तर मेरे जिज्ञासा के लिए पर्याप्त सिद्ध हुआ। इसी प्रकार 80 बार जप में मुझे अन्त:करण ने एक जबाब दिया है। उसे भी साझा कर देता हूँ। मेरे अन्त:करण का जवाब, आवश्यक नहीं है कि सर्वमान्य हो। फिर भी इस जबाब को सबके सम्मुख रखना मेरा कर्तव्य है। 

सनातन मत में माला अथवा जप की 108 बार की मान्यता प्रचलित है। इसमें 27×4 तथा 12×9 का दो विज्ञान पढ़ने को मिला था। पहला 27 नक्षत्र एवं चार दिशा तथा द्वितीय 12 राशि एवं 9 ग्रह को चित्रित करके बताया गया है। चूंकि यह मेरा विषय कभी नहीं रहा इसलिए इस विषय पर अधिक विचार नहीं किया। लेकिन इसी आधार को लेकर मेरे अन्त:करण ने 16×5 करके समीकरण को संतुष्ट कर दिया। पंच (5) नाम परमेश्वर का लौकिक प्रतीक चिह्न है तथा सोलह आना (16) सम्पूर्णत्व का लौकिक प्रतीक चिह्न है। चूंकि साधना में किसी गिनती की आवश्यकता है, लेकिन मन की एकाग्रता में गिनती का विज्ञान संभवतया सहायक सिद्ध होता है। अतः गिनकर जप करने की व्यवस्था दी जाती रही है। 16×5 का विज्ञान संभवतया 80 के समीकरण को संतुष्ट करता है। 16 में 5×3+1 का भी एक गणित है। 5 तत्व तथा तीन गुण का भौतिक शास्त्र एक आध्यात्मिक भूगोल है। ऐसे पंच कोष का मनोविज्ञान (5×3+1) × 5 = 80 के अंकगणित को समझकर मेरा मन पूर्णतया संतुष्ट हो गया।

यह उत्तर किसी भी प्रकार से शास्त्र द्वारा प्रमाणित नहीं है। अथवा ऐसा उल्लेख आनन्द मार्ग के किसी भी साहित्य में नहीं है तथा ऐसा कोई भी आचार्य नहीं समझाते हैं। इसलिए इसको मैं प्रमाणित नहीं करता हूँ। सिर्फ मेरे मन में उत्पन्न जिज्ञासा को अन्त:करण से मिली स्वप्रेरणा है जिसे आपसबों के साथ साझा कर रहा हूँ। हाँ, आप सहमत हो भी सकते हैं अथवा नहीं भी, यह आपका विशेषाधिकार है।

एक और जबाब भी मिला था 5×8×2 का। जिसमें पंच तंमात्रा व आठों प्रहर का बहिर्मुखी एवं अन्तर्मुखी गति को 80 का आंकड़ा संतुष्ट करता है। 

जो भी हो 80 बार जप एकमात्र रहस्य 'मंत्र मूलम् गुरु वाक्यं' है। गुरु का आदेश है इसलिए इसके आगे सभी विज्ञान निष्फल है। माथापच्ची करें बिना गुरु आज्ञा मानकर चलना ही शिष्य के लिए कल्याणकारी है। अतः इष्ट मंत्र से पहले गिनकर 80 बार जप करो, अखंड कीर्तन वामावर्त एवं आवर्त कीर्तन दक्षिणावर्त करते रहें। यही सार है, यही मक्खन है, शेष पंडितों वाला मट्ठा है।
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