प्राचीन भारतवर्ष के लिए एक अलंकार सोने की चिड़िया भी है। केवल सोने की चिड़िया समझने लेने से हम उत्तरदायित्व से मुक्त नहीं हो जाते है। हमारा उत्तरदायित्व 'भारतवर्ष को सोने की चिड़िया क्यों कहते थे?' को जानने तथा 'क्या हम पुनः भारतवर्ष को सोने की चिड़िया बना सकते हैं' का उत्तर पाने तक ही नहीं। भारतवर्ष को पुनः सोने की चिड़िया बनाने तक में निहित है।
उपरोक्त उत्तरदायित्व निवहन करने के क्रम में भारत एक सोने की चिड़िया था को समझने के लिए निकल पड़ते हैं। भारतवर्ष का सोने की चिड़िया होना - भारतवर्ष की व्यष्टि एवं समष्टि अर्थव्यवस्था के साधन संपन्न होने में निहित है। आज के विश्व में संयुक्त राज्य अमेरिका की अर्थव्यवस्था सबसे मजबूत एवं विकसित मानी जाती है। फिर भी संयुक्त राज्य अमेरिका को आजके युग की सोने चिड़िया नहीं कहा जाता है। इसका अर्थ है कि प्राचीन भारतवर्ष की अर्थव्यवस्था निश्चित ही संयुक्त राज्य अमेरिका एवं युरोपीय देशों से मजबूत रही होगी इसलिए भारतवर्ष उक्त उपमा मिली होगी। भारतवर्ष की व्यष्टि एवं समष्टि अर्थव्यवस्था की ओर चलते हैं।
शास्त्रों का अध्ययन बताता है कि भारतवर्ष की आर्थिक शक्ति वैश्य वर्ण के नियंत्रण एवं नियमन में थी। राज्य अपना खर्च कर से निकालता था जो वैश्य वर्ग की ओर से मिलता था। इसके साथ विप्र एवं शूद्रों का भार भी वैश्य द्वारा उठाया जाता था। लेकिन इतिहास का अध्ययन बताता है कि समाज में युग विशेष वर्ण की प्रधानता बदलती रही है। इन दोनों ही अध्ययन पत्र के आधार पर यह निर्णय रहा की कोई ऐसी आदर्श व्यवस्था रही है जो चार वर्ण के कार्य विभाजन सुनिश्चित करती थी। उस संस्था 'प्रउत अर्थशास्त्र' सदविप्र बोर्ड नाम दिया है। प्राचीन भारतीय समाज में शिक्षा, चिकित्सा अभियांत्रिकी सेवा तथा नीति विशेषज्ञ व्यवस्था विप्रों के नियंत्रण में थी तथा कर का एक भाग इनको हस्तान्तरित हो जाता था, सैन्य, पुलिस, न्याय एवं प्रशासनिक व्यवस्था क्षत्रिय के नियंत्रण में थी कर के एक भाग द्वारा संचालित थी। वैश्य के पास उत्पादन, व्यापार एवं वाणिज्यिक व्यवस्था थी तथा शूद्रों को सेवा का उत्तरदायित्व दिया गया था। वितरण का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व सदविप्र संस्था के पास था। यही सभी संस्थान अपने में स्वतंत्र थी। इसे ही आर्थिक लोकतंत्र कहा जाता है। जिसमें सभी संस्थान स्वतंत्र एवं जिम्मेदार बनकर काम करती थी। यही आदर्श भारतीय अर्थव्यवस्था को सोने की चिड़िया बनाने वाला सूत्र था।
आज के युग में भी इस प्रकार के शक्ति पृथक्करण का सूत्र स्थापित कर व्यष्टि एवं समष्टि अर्थव्यवस्था को समृद्ध, सम्पन्न एवं सुखद बनाई जा शक्ति है।
(१) अर्थ एवं राज शक्ति का पृथक्करण - अर्थ एवं राज शक्ति एक ही व्यक्ति अथवा वर्ग के नियंत्रण में रहने पर न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था का निर्माण नहीं हो सकता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो सोने की चिड़िया झपटा झपटी में अपने प्राण पंखेरु उड़ा देंगी।
(२) शिक्षा एवं सेवामूलक संस्थान का राज एवं अर्थ शक्ति के नियंत्रण से मुक्त होना आवश्यक है - सोने की चिड़िया के दर्शन के क्रम में शिक्षा, चिकित्सा, विज्ञान एवं कला मनोरंजन पर राजकीय अथवा आर्थिक शक्ति का नियंत्रण कदापि न हो। यदि ऐसा नहीं हुआ तो समाज निर्माण की नब्ज टूट जाएगी तथा सोने की चिड़िया प्राणहीन हो जाएगी।
(३) आर्थिक लोकतंत्र बनता है सोने की चिड़िया - राजनैतिक लोकतंत्र कभी आदर्श राज्य का निर्माण नहीं कर सकती है। आदर्श व्यवस्था के आर्थिक लोकतंत्र आवश्यक है। जिसमें प्रत्येक क्रिया अपने स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक बनकर कार्य करें। विशेष कर जिनके पास आर्थिक क्रिया का भार है, उन पर विशेष कर लोकतंत्र स्थापित करना आवश्यक है। प्राचीन भारतवर्ष में कबीलों का लोकतंत्र आर्थिक जगत में अच्छी श्रेणियाँ एवं व्यवस्था दे पाया था। आर्थिक जगत में लोकतंत्र न तो पूंजीवाद के विकराल जबड़ों समाज को जाने देता है तथा न ही साम्यवाद के दोष में समाज को धकेलता है। इस प्रकार सोने की चिड़िया वाला भारतवर्ष बनाया जा सकता है।
(४) सेवा का सम्मान भी सोने की चिड़िया के भारतवर्ष में आवश्यक है - जब तक मजदूर एवं सहायक एवं शारीरिक सेवा देकर समाज की व्यवस्था में सहयोगी बनने वालो के उद्धार की व्यवस्था नहीं होगी तब सोने की चिड़िया के पैर हाड़ मांस के रहेंगे। अतः इनके कल्याण में सोने की चिड़िया के सम्पूर्ण दर्शन कराती है।
(५) सदविप्र व्यवस्था सोने की चिड़िया के प्राण है - भारतवर्ष निर्जीव सोने की चिड़िया नहीं था, वह एक संजीव सोने की चिड़िया थी। सदविप्र संस्था का नहीं होने पर सोने की चिड़िया तो बनाई जा सकती है लेकिन प्राणविहिन अत: सदविप्र व्यवस्था को लागू करना आवश्यक है।
[श्री] आनन्द किरण 'देव'
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