भारतवर्ष में घी दूध की नदियाँ बहती थी, उसकी धारा से सर्वजन हित एवं सर्वजन सुख का समाज बनाने का संकल्प पत्र लिखा गया था। आज हम उसी को समझने की कोशिश करेंगे।
घी दूध की नदियाँ किसी पहाड़ से बहकर समुद्र में नहीं गिरती थी। यह नदियाँ हर घर से निकल कर समाज में खुशहाली की कहानी लिखती थी। व्यक्ति को भौतिक समृद्धि, मानसिक ऋद्धि तथा आध्यात्मिक सिद्धि प्रदान करती थी। इसलिए इस नदियों स्नान करने वाले सर्वे भवन्तु सुखिनः का गीत गाता था।
घी दूध की नदी शब्द एक लक्षणा शब्दशक्ति है। जो व्यक्ति की प्रमा त्रिकोण के संतुलन को दर्शाता है। भारतीय संस्कृति सदैव भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास की बात कहती है। अतः घी दूध की नदियों का देश कहकर भारतवर्ष भौतिक समृद्धि की कहानी नही कही जा सकती है। इसमें मानसिक एवं आध्यात्मिक ऋद्धि सिद्धि को देखना आवश्यक है। घी दूध एक सांकेतिक शब्दावली है। जो आदर्श व्यक्ति, परिवार एवं समाज निर्माण के लोक कल्याणकारी राज्य की योजना का प्रतीक है। यह योजना वह है कि एक घर मांगने जहाँ हर घर से सहायता के लिए आगे आए। एक सुख सभी के लिए सुख गिना जाए, जिसमें सच्चे मन से खुशी मनाए तथा एक का दु:ख सभी के लिए दु:ख माना जाए, जिसमें सम्पूर्ण माधुर्य उड़ेल कर निदान किया जाए। यही घी दूध की नदियों का अर्थ है।
(१) भौतिक समृद्धि अथवा शारीरिक सुदृढ़ में घी दूध की बहती नदीयाँ - व्यक्ति का पहला सुख निरोगी काया तथा मजबूत शरीर है तथा परिवार का पहला सुख समृद्धि है। घर में पैसों की तंगी अथवा आवश्यक सामग्री की कमी न हो तथा दूसरों की सहायता करने को भी तैयार रहे। वह परिवार सदैव सुखी रहता है। ऐसा परिवार ही घी दूध की नदियाँ बहा सकता है, जिसकी धारा से समाज विकसित होता है। यदि समाज में एक भी घर गरीबी में जिता है तो यह सम्पूर्ण समाज के लिए कलंक है। इसलिए व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यक तथा उसके अन्दर के गुणों के सम्पूर्ण विकास की जिम्मेदारी समाज को लेनी ही होगी। समाज के संचालन करने वाली संस्था को एक ऐसा बांध बनना होगा, जहाँ से आवश्यकता पड़ने पर घी दूध की नहर निकाल उपयुक्त परिवार को सिंचा जा सकें तथा किसी घर में आवश्यक से अधिक जलराशि जाकर दलदल न बनाए; इसका ध्यान रखना भी समाज प्रबंधकों कर्तव्य है। इसलिए व्यक्ति की संचयवृति की लगाम समाज को अपने हाथ में रखनी ही होगी। घी दूध की नदीधारा को अनवरत बहाने के लिए समाज मानक स्तर युग के अनुरूप रखना होगा तथा स्थूल,सूक्ष्म एवं कारण जजगत में जो भी संपदा है उसका चरमोत्कर्ष कर विवेकपूर्ण वितरण की बागडोर समाज के हाथ में होना आवश्यक है। व्यष्टि व समष्टि की शारिरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक क्षमता का चरम एवं सुसंतुलित उपयोग कर सामाजिक न्याय प्रस्तुत करना तथा देश,काल व पात्र के अनुसार उपयोगिता को परिवर्तनशील रखकर प्रगतिशील होने का परिचय देने से ही भौतिक जगत में घी दूध की नदियाँ बहा ही जा सकती है। एक शब्द में कहा जाए तो प्रउत की स्थापना में बिना भौतिक जगत में घी दूध की नदियाँ बहाना असंभव है।
(२) मानसिक मजबूती में बहती घी दूध की नदियाँ - प्रउत की स्थापना से भौतिक जगत में घी दूध की नदियाँ बहने लगेगी लेकिन यदि मानसिक जगत में दिवालियापन है तो भौतिक जगत की समृद्धि धराशायी हो जाएगी। अतः मानसिक ऋद्धि की स्थापना करना आवश्यक है। मन किसी भी प्रकार की रूढ़ मान्यताओं एवं अविवेकपूर्ण व अवैज्ञानिक पथ का अनुसरण नहीं करें इसलिए मनुष्य की बुद्धि की मुक्ति का एक अभियान छेड़ना होगा तथा मनुष्य की बुद्धि को नव्य मानवतावाद में प्रतिष्ठित करनी ही होगी। भौम भाव प्रवणता एवं सामाजिक भाव प्रवणता तथा तथाकथित मानवतावाद तक ही बुद्धि आबद्ध नहीं रखना मन के विकास को रोकना है। अतः मनुष्य विवेकपूर्ण मानसिक तथा सत साहित्य के अध्ययन, स्वाध्याय व सतसंग द्वारा मनको अपने विकास के उपरोक्त शत्रुओं से मुक्त कराके ही दम लेना होगा। मन को स्वाध्याय व नव्य मानवतावादी सोच के माध्यम से कुंठा मुक्त कर बैकुंठ बनाना ही ऋद्धि है। यह ऋद्धि ही मानसिक जगत की घी दूध की बहती नदियाँ हैं। बहती नदियाँ कहती है कि मन को बैकुंठ बैठाया रखना ही मन का विकास नहीं मन को प्रगति के पथ चलयमान रखते भूमामन की ओर ले जाना ही सुपथ है। मन को सत पथ खुराक मिलने से वह घी दूध की धारा का रसास्वादन करता रहेगा।
(३) आध्यात्मिक जगत में घी दूध की नदियाँ बहाना - समृद्धि एवं ऋद्धि भौतिक एवं मानसिक जगत को हृष्टपुष्ट बनाता है तथा सिद्धि आध्यात्मिक हृष्टपुष्टता का नाम है। बिना सिद्धि के ऋद्धि एवं समृद्धि पंगु बन जाती है। इसलिए आध्यात्मिक जगत की अग्रसर रहना ही इस जगत में घी दूध की नदियों का रसास्वादन करना है। आध्यात्मिक विकास के बिना मानसिक एवं भौतिक विकास, विकास नहीं है अथवा क्षणभंगुर है। अतः मन को आनन्द के अथाह समुद्र में ले जाना ही आध्यात्मिक पथ है। जिस प्रकार प्राचीनकाल ऋषि मुनि एवं देवता गण जिस प्रकार साधना, सेवा एवं त्याग के मार्ग पर चलकर जीवन लक्ष्य को पाया उसी प्रकार हमें भी जीवन लक्ष्य की ओर बढ़ना होगा। इसी में मनुष्य का कल्याण है।
वास्तव में घी दूध की नदियाँ आनन्द के शिखर से निकल आनन्द के सागर में विलिन हो जाती है। इसी के बीच व्यष्टि एवं समष्टि जगत में भौतिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्तर घी दूध की नदियाँ बहती रहती है। समृद्धि, ऋद्धि एवं सिद्धि का त्रिवेणी संगम का बनना ही प्रमा संतुलन है। यह प्रमा संतुलन ही घी दूध की बहती नदियों का भारतवर्ष है।
[श्री] आनन्द किरण 'देव'
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