आत्मनिर्भर भारत (self-reliant india)


   🌻 श्री आनन्द किरण "देव"  🌻
हमारे प्रधानमंत्री कहते हैं कि भारतवर्ष आत्मनिर्भर बने लेकिन उनकी कोई भी योजना आत्मनिर्भर भारतवर्ष बनाने की ओर नहीं जाती है। इसलिए विषय लिया गया है कि हम मिलकर आत्मनिर्भर भारतवर्ष के लक्ष्य को कैसे प्राप्त कर सके? 

आत्मनिर्भर भारतवर्ष की ओर जाने वाला मार्ग सरल है लेकिन कठिन परिश्रम के बल पर ही इस राह पर चला जा सकता है।

(१) संस्कृत भाषा एवं आत्मनिर्भर भारतवर्ष - भारतवर्ष बहुभाषी राष्ट्र है लेकिन भारतवर्ष की सभी क्षेत्रिय भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा है। संस्कृत के बल पर हम आत्मनिर्भर भारतवर्ष की ओर चलने के क्रम में सबसे पहला कार्य संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित कर सभी स्थानीय भाषाओं के विकास की यात्रा से स्थानीय लोगों में अपनत्व तथा प्रेम को जागृत करता है। जब तक अपनत्व एवं प्रेम नहीं होता तब तक एक दूसरे की लूट का भाव रहेगा। यह भाव एक सुन्दर समाज नहीं बनने देता है। जब तक सुन्दर समाज नहीं तब तक आत्मनिर्भर भारतवर्ष एक कल्पना ही है। संस्कृत राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोकर रखते तथा स्थानीय भाषा आत्म उत्थान की जननी है। व्यक्ति राग, द्वेष रहित होकर वसुधैव कुटुबकम में लग जाता है। संस्कृत की जानकारी उस तथ्य को खोजने में मदद करती है जिसके बल कि भारतवर्ष सोने चिड़िया बना था तथा घी दूध की बहती नदियों का देश बना था। यह  जाने एवं समझे बिना भारतवर्ष को आत्मनिर्भर बनाने का चिन्तन अपने साथ किया जाने वाला हास्य है। 

(२) भागवत धर्म एवं आत्मनिर्भर भारतवर्ष - भारतवर्ष का प्राण धर्म आध्यात्म है। आध्यात्म का निवास स्थान भागवत धर्म में है। भागवत धर्म नर को नारायण बनाने वाली विधा है। अतः अविलंब भागवत धर्म को राष्ट्र धर्म घोषित करना चाहिए। जब तक मनुष्य वृहद बनने की यात्रा पर नहीं निकलता है तब तक वह चलना नहीं सिखता है। जब वह चलना ही नहीं जानता है तो आत्मनिर्भर कैसे बन अथवा बना सकता है? भागवत धर्म विस्तार, रस, सेवा एवं तदस्थिति नामक चतुष्पाद के माध्यम से मनुष्य पूर्णत्व प्रदान कराता है। विस्तार मनुष्य को फलने फूलने तथा फैलने का अवसर देता है जो मानव विकास के लिए जरूरी है। रस मनुष्य के जीवन को आनन्द से भर देता है। इससे उसकी यात्रा सुफल, सुगम एवं सरल बना देती है। सेवा मनुष्य अनन्त से जोड़ती है। उस से अपना पराया का भेद भूलकर सर्वेभवंतु सुखिनः की ओर अग्रसर होता है तथा तदस्थिति मनुष्य उसके जैसा अर्थात परमात्मा बनाता है। इसलिए आत्मनिर्भर भारतवर्ष के पथिक को मानवधर्म भागवत धर्म मानकर एवं अपनाकर चलना चाहिए। भागवत धर्म हिन्दू शब्द अथवा अन्य किसी साम्प्रदायिक शब्द में नहीं समाता है। हिन्दी में इसके लिए मानव धर्म शब्द तथा अंग्रेजी में Neo Humanism  शब्द उपयुक्त रहेगा। 

(३) विराट आदर्श एवं आत्मनिर्भर भारतवर्ष - आत्मनिर्भर बनने के लिए विराट आदर्श को स्वीकारना आवश्यक है। जब तक मनुष्य का आदर्श खंड होगा तब तक वह महान नहीं बन सकता है। महान बने बिना आत्मनिर्भर की परिकल्पना संभव नहीं है। अतः मनुष्य को विराट आदर्श को खोजना चाहिए तांकि उसके छोटे से दिमाग में सारी सृष्टि समा जाए। विराट आदर्श खंड साधना में नहीं अखंड में निहित है। अतः मनुष्य को परमतत्व को विराट आदर्श के रूप में अंगीकार करना चाहिए। इससे भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक प्रमा संतुलित होती है। 

(४) नव्य मानवतावाद की आधारशिला एवं आत्मनिर्भर भारतवर्ष - राष्ट्र को भौम अथवा सामाजिक भावप्रवणता पर रखकर आत्मनिर्भर निर्भर नहीं बनाया जा सकता है। उसके नव्य मानवतावाद पर स्थापित करना आवश्यक है। नव्य मानवतावाद मनुष्य से ही नहीं जीव जगत व पर्यावरण सहित सृष्टि के कण कण से प्रेम करना सिखाता है। पशु एवं जीव जन्तु मानव के भक्षण की वस्तु नहीं है। यह मानव के संरक्षण के अधिकार है। कांटी चुभ जाने से उसके वंश को नष्ट करने की साधना में लग जाना मनुष्य का मार्ग नहीं है। मनुष्य का मार्ग उदारता का है। जिन पशुओं ने दूध, सेवा इत्यादि से मानव जाति की सेवा की है। उन्हें युग परिवर्तन की अंधी चाहत में आवारा नहीं छोड़ सकते हैं। गाय एवं गौवंश ने हमारे पुरखों सेवा प्रदान की उनका सरंक्षण मनुष्य की जिम्मेदारी है। गाय, भैंस, बकरी इत्यादि मातृ पशु है। यह अपने दूध से मनुष्य मातृत्व प्रदान करते हैं। नव्य मानवतावाद इनके कल्याण की शिक्षा देता है। अतः सर्व कल्याणकारी दर्शन पर देश रखकर आत्मनिर्भर की ओर चलता है। 

(५) कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था देंगी आत्मनिर्भर भारतवर्ष - "जब खेती फलती फूलते है तब उद्योग धंधें हस्ते मुस्कराते है। भूमि के बंजर रहने की स्थिति में उद्योग धंधें बेजान हो जाते हैं।" अर्थशास्त्र के इतिहास के पन्नों में अंकित यह कहावत अर्थव्यवस्था के मजबूती की भविष्यवाणी है। अर्थव्यवस्था का निर्माण उद्योगों से करने की नीति एक आदर्श समाज की रचना नहीं कर सकती है। इसलिए कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था का निर्माण आवश्यक है। इसके लिए प्रथम कार्य कृषि को उद्योग का दर्जा देना तथा उसी के आधार पर सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का संगठन करना में आत्मनिर्भर भारत बसता है। जब तक किसान एवं मजदूर स्वावलम्बी नहीं बनते तब आत्मनिर्भर भारत मूर्ख के चुटकुले हा माना जाएगा। 

(६) सामाजिक आर्थिक इकाइयों का संरक्षण एवं आत्मनिर्भर भारत - लोकल की वोकल अरबपति भारतीय की आवाज़ नहीं है। यह सम्पूर्ण भारतवर्ष के विकास की आवाज है। जब तक सरकार स्थानीय उत्पादों के वितरण की हद नहीं बनाएगी तब तक पूंजीपति शोषण का चक्र चलाते रहेंगे। समान आर्थिक समस्या एवं समान आर्थिक संभावना का एक मानचित्र नस्लीय समानता एवं भावनात्मक एकता के मध्य से नहीं गुजरेगा तब तक आर्थिक इकाई सामाजिक इकाई नहीं बन सकती तथा सामाजिक इकाई आर्थिक इकाई नहीं बन सकती है। आर्थिक एवं सामाजिक इकाइयों का पार्थक्य संसाधनों की लूट को नहीं रोक सकता है। यह कुव्यवस्था सम्पूर्ण तंत्र को बिखरे देती है। आत्मनिर्भर भारत का संकल्प तीन तेरह हो जाता है। अतः सामाजिक आर्थिक इकाई को एक समाज के रूप में विकसित करना आवश्यक है। इन समाजों का प्रबल एवं मजबूत करना आवश्यक है।

(७) आत्मनिर्भर भारत की पहचान - व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकता ( अन्न, वस्त्र, आवास, चिकित्सा एवं शिक्षा) की गारंटी मिले, शतप्रतिशत रोजगार युक्त समाज हो तथा क्रयशक्ति का मूल अधिकार प्राप्त हो। आत्मनिर्भर भारत यही नहीं रुकेगा, समाज का मान वर्धमान हो, गुणीजन का आदर हो, धन संचय पर समाज की लगाम तथा विवेकपूर्ण वितरण का सिद्धांत लागू हो। यदि इसके बिना आत्मनिर्भर भारत कहा जाए तो अविवेकी मापदंड होगा। 

आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना बहुत अच्छी है लेकिन उपरोक्त मापदंड के बिना कच्ची है। यह संकल्पना कचरा नहीं बन जाए इसलिए प्रगतिशील उपयोग तत्व को अर्थव्यवस्था में स्थापित करें।

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            Karan Singh 
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