एक समय था, जिसके पास जितना गौवंश होता था वह व्यक्ति उतना ही बड़ा धनवान कहलाता था। उस समय गौधन, अर्थव्यवस्था के निर्माण बहुत बड़ा योगदान देता था तथा इसी से व्यक्ति की आर्थिक स्थिति नापी जाती है। आज समय ने करवट बदली, गौवंश को अवहेलित छोड़ दिया गया। जिससे गौवंश को अपने पेट भरने के लिए दरदर घूमना पड़ता है। कहीं बार तो चोरी छूपे भोजन जुटाना पड़ता है तो कभी डका भी डालना पड़ता है। गौवंश की यह अवहेलना कहती है कि गोवंश अब गौधन नहीं रहा। इसलिए स्वार्थी मनुष्य ने गौवंश का भाग्य के भरोसे छोड़ दिया। मैं नहीं जानता कि गाय में तैतीस कोटि देवता रहते है अथवा नहीं लेकिन इतना अवश्य जानता हूँ कि गौवंश ने हमारे पुरखों की बहुत सेवा की है। उनके बदौलत हम सभ्यता के इस युग में प्रवेश कर पाये है। इसलिए हम गौवंश के उपकार को नहीं भूल सकते हैं। अतः गौवंश के संरक्षण का बीड़ा कर्मवीरों नेे उठाया है। गौवंश के संरक्षण का यह उपाय गौशाला के रूप में अस्तित्व में आया है। यद्यपि गौवंश के संरक्षण एवं उनके उपकार का प्रतिफल देने का यह सही तरीका नहीं है क्योंकि गाय एवं गौवंश घर आंगन में शोभा देते हैं न कि गौशाला में तथापि कर्मवीरों के इस प्रयास की सराहना करनी होगी जिसे गौवंश को सरंक्षण प्राप्त हो रहा है। मैं नहीं जानता हूँ कि गौवंश की सेवा से पूण्य मिलता है अथवा गाय सभी शुभ शक्तियों की जननी है लेकिन मैं यह अवश्य जानता हूँ कि गाय में मातृत्व शक्ति है, जिसके बल पर इसने युगों युगों से मनुष्य की सेवा की है। इसका दूध पीकर मनुष्य अपने को तंदुरुस्त, स्वस्थ एवं निरोगी बनाया है। इसलिए गौवंश के प्रति हमारा दायित्व याद रखना हमारा कर्तव्य है। मैं भैंस, बकरी एवं अन्य दूधारू जन्तुओं की देन को किस भी प्रकार से कम नहीं मानता हूँ तथा इसको लेकर किसी रुग्ण धार्मिक मान्यता तथा गाय के लिए किसी अयुक्तिकर मान्यताओं को मनोमस्तिष्क स्थान नहीं देता हूँ लेकिन यह सत्य है कि गाय का दूध अन्य से अधिक गुणकारी है। मेरे कहने अर्थ यह नहीं है कि अन्य दूधारू पशुओं का दूध मूल्यहीन है। तुलनात्मक दृष्टि से गौवंश के उत्पाद अच्छे है। इसके चलते इन पशुओं सात्विक, राजसिक एवं तामसिक में वर्गीकृत करने वाली कपोल कल्पित मान्यताओं को बढ़ावा नहीं देता हूँ। गौवंश व अन्य जीवजंतु, नव्य मानवतावादी मूल्यों की रक्षा के लिए मनुष्य के प्यार के अधिकारी है। जो लोग अपने जठराग्नि की शांति के लिए इनका भक्षण करते है, उनके किसी भी तर्क का मैं समर्थन नहीं करता हूँ। जीवजंतु हमारे स्नेह व ममतत्व के अधिकार है। यह हमारे वृहद परिवार के सदस्य है। इसलिए इनका ख्याल रखना हमारा कर्तव्य है। मनुष्य ने जब जब भी अपने काम नहीं आने वाले जीवजंतुओं के प्रति अपने कर्तव्य में चूक करता गया है तब तब वह प्रजाति लुप्त होती गई है। गाय जैसा उपयोगी पशु लुप्त नहीं हो इसलिए गौवंश के संरक्षण की जिम्मेदारी हमें ही लेनी होगी। गौवंश को पुनः गौधन के रूप में स्थापित कर दे तो यह बहुत बड़ा काम होगा। मैं ऐसा कहकर विज्ञान की प्रगति का विरोधी नही हूँ। विज्ञान की प्रगति के साथ गौवंश को गौधन के रूप में सृजन किया जा सके तो हम गौवंश की सेवाओं की सही पहचान कर पाएंगे।
गौवंश का भोजन चारा तथा संतुलित पौष्टिक पदार्थ है। अतः उनके भोजन का यह विज्ञान समझकर उन्हें खाद्य देना चाहिए। आस्था के नाम पर बहुत अधिक अथवा अन्य मिष्ठान देकर हम देकर गौवंश के आहार के साथ न्याय नहीं करते हैं। गाय पूजा, गौ दर्शन तथा गाय को प्रणाम व वंदन करने वाली मान्यता को मैं अपनी आध्यात्मिक पूंजी में स्थान नहीं देता हूँ, लेकिन मुझे किसी की भी आस्था पर चोट करना अधिकार नहीं हूँ। इसलिए मैं गाय पर आस्था रखने वालों का विरोधी नहीं हूँ। यह सत्य है कि इससे मनुष्य की आध्यात्मिक प्रगति होगी अथवा मुक्ति मोक्ष की प्राप्ति होगी, यह धारणा आध्यात्मिक विज्ञान सहमत नहीं है। इसलिए मैं मनुष्य को इस ओर जाने का उपदेश नहीं दूंगा। गौवंश की सेवा में इन मान्यताओं का कोई स्थान नहीं है। यह मान्यताएँ मनुष्य को बहुत अधिक जटिल बनाते हैं तथा कभी कभी इसको लेकर कर्मकांड व्यवसायी प्रारंभ होना सुखद नहीं है। गौवंश की सेवा उसका पूजन नहीं अपितु गौवंश की सेवा उसको गौधन के रूप में स्थापित करना है।
गौशाला में गौवंश को गौधन में स्थापित करने के प्रयोग चल रहे है। गौ उत्पादों को आर्थिक दृष्टि सशक्त रूप से विकसित किया जा रहा है। वह दिन अवश्य ही शुभवेला होगी जब गौशाला शुद्ध रूप से गाय के उत्पाद की आय से संचालित होगी। उस दिन गौवंश गौधन में स्थापित हो जाएगा। तब तक मनुष्य को गौवंश के सरंक्षण का दायित्व लेना ही होगा। गौवंश गौधन क्यों था इसे जानने के लिए प्राचीन अर्थव्यवस्था को टटोलना होगा। सभी प्राचीन अर्थव्यवस्थाओं में प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था आदर्श थी। प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था से गौवंश के लिए गौधन शब्द लिया गया है। प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि को उद्योग के रूप में संचालित किया जाता था। कृषि उद्योग का अर्थ है - कृषि सहायक, कृषि एवं कृषि आधारित गतिविधियों का संचालन औधोगिक रुप से करना है। प्राचीन काल में कृषि सहायक उद्योग, कृषि एवं कृषि आधारित उद्योग के संचालन की धूरि कि किसान था। सुथार-लुहार जो किसान को हल व कृषि उपकरण की आपूर्ति करता था तथा तेली-बुनकर जो कृषि आधारित उद्योग संचालित करते थे जोतदार को अपना नेता मानता था। उसी के नेतृत्व में अपनी आय का विवेकपूर्ण वितरण करते थे। उस समय जोतदार जमींदार नहीं होता था। जमीन राज्य की सामान्य सम्पत्ति थी। कालांतर में राजतंत्र ने जमींदार और जोतदार के मध्य पार्थक्य की रेखा खिंचते ही प्राचीन अर्थव्यवस्थाओं का दिवाला निकल गया। प्राचीनकाल में पशु, किसान के संरक्षण में रहते थे। गोपाल एवं पशुपालक किसानों खाद की आपूर्ति करते थे उसके बदले में किसान उनकी न्यूनतम आवश्यक पूर्ण करने का वचन देता था तथा यह वर्ग शेष उत्पाद से अपनी समृद्धि लिखते थे। जिस समय राजतंत्र की जमींदारी प्रथा का आगमन हुआ अर्थव्यवस्था की यह प्राचीन कड़ी टूट गई। समाज में क्लेश होने लगा। किसानों एवं पशुपालक में जंग होने लगी। जिसका प्रभाव अर्थव्यवस्था पर पड़ा। अतः गौवंश को गौधन में रूपांतरित करने के लिए अर्थव्यवस्था के इस विज्ञान को समझना होगा।
आधुनिक युग के महान अर्थशास्त्री श्री प्रभात रंजन सरकार ने आधुनिक अर्थव्यवस्था को आदर्श रूप में स्थापित करने के लिए "प्रउत" नामक विचारधारा का सृजन किया है। प्रउत अर्थात प्रगतिशील उपयोग तत्व उपयोग तत्व को प्रगतिशील बनाने की विधा का नाम 'प्रउत' है। उपयोग तत्व सभी अर्थव्यवस्था की धूरि है। लेकिन उपयोग तत्व को प्रगतिशील बनाने का काम प्रउत ने किया है। केवल 'उपयोग' ही अर्थव्यवस्था की विषय वस्तु नहीं है। अर्थव्यवस्था का विषय 'प्रगतिशील उपयोग' है। उपयोग को प्रगतिशील बनाने के क्रम अधिकतम उपयोग, चरम उपयोग, सच संतुलित उपयोग तथा परिवर्तनशील उपयोग तत्व को समझना होता है। खैर यह अभी हमारा विषय नहीं है। इसकी चर्चा प्रसंगवश करनी पड़ी। कृषि को उद्योग दर्जा दिये बिना ऐसा करना गौवंश को गौधन में स्थापित करना एक दुष्कर कार्य है। उद्योगपति, व्यापारी एवं अधिकारी वर्ग धनदान कर सकते हैं लेकिन किसान धन व श्रम दोनों दान कर सकता है।
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