ब्रह्म ( Bramhm)

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श्री आनन्द किरण "देव"
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           ब्रह्म
         (परम तत्व) 
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आनन्द सूत्रम अध्याय प्रथम सूत्र 1 से 4 तक ब्रह्म तत्व को समझाता है। ब्रह्म शिव तथा शक्ति मिलित नाम है। शिव परम पुरुष तथा शक्ति परमा प्रकृति है। पुरुष परम चैतन्य आत्मा है। जो सर्वप्रतिसंवेदी है।इसे साक्षी चैतन्य भी कहते हैं। प्रकृति सत्व, रज व तम नामक तीनों गुणों के संचालन करने वाली शक्ति है। शक्ति पूर्णतया पुरुष की आश्रिता है। वह उनकी इच्छा से ही कार्य करती है। इसकी सिद्धि अर्थात प्रकाश संचर व प्रतिसंचर काल में ही होता है। संचर एवं प्रतिसंचर को केन्द्रतींगा तथा केन्द्रनुंगा से समझा जा सकता है। इन दोनों के पथ से सृष्टि चक्र अथवा ब्रह्म चक्र का निर्माण होता है। उसका प्राण केन्द्र परम शिव पुरूषोत्तम के नाम से जाना जाता है। 

पुरुष एवं प्रकृति के आपसी सहयोग ब्रह्म को समझने में मदद करता है। जब प्रकृति अप्रकट अवस्था होती है, उस अवस्था को गुणाधीश अवस्था कहते हैं, गुण रहित नहीं;  ब्रह्म की इस अवस्था निर्गुण ब्रह्म है। जब प्रकृति प्रकट अवस्था में उस स्थित में पुरुष गुण बंधन में रहते है, उसे सगुण ब्रह्म कहा जाता है। यह एक ही ब्रह्म है। आनन्द सूत्रम प्रथम अध्याय का सूत्र  25 तारक ब्रह्म के दर्शन कराता है, बताता है कि भाव(सगुण ब्रह्म) भावातित ( निर्गुण ब्रह्म) के सेतु स्थापक बिन्दु तारक ब्रह्म है, जो महासभूति काल में साकार दिखता है। 

 आनन्द सूत्रम प्रथम अध्याय का सूत्र 7 समझता है कि पुरुष दृक तथा प्रकृति दर्शन हैं। जो देखता है वह पुरुष तथा जो दिखता है वह प्रकृति है। दृष्टाभाव पुरुष है जबकि जो दृश्य है वह लीला है। साधना साधक को शिव बनाती है प्रकृति नहीं। इसलिए शाक्त उपासना मनुष्य जड़ साधना है, यह प्रगति का पथ नहीं है। पुरुष एवं प्रकृति तथा शिव तथा शक्ति लौकिक विचार के स्त्री पुरुष नहीं है। यह आध्यात्मिक भाषा की शब्दावली है। इसलिए लौकिक पुरुष व स्त्री से इन्हें नहीं लेना चाहिए। 

आनन्द सूत्रम द्वितीय अध्याय का सूत्र 4 कहता है कि आनन्द ही ब्रह्म है। आनन्द को ज्ञानियों ने विशेषण लगाकर परमानंद भी कहा है। आनन्द को समझना एवं पाना ही मनुष्य का पथ है। अतः विशुद्ध विचार से सभी मनुष्य आनन्द मार्गी है। नन आनन्द मार्गी नामक का कोई नहीं है। जो आनन्द को खंड में देखता है वह भ्रम में तथा जो आनन्द को अखंड में देखता है वह ब्रह्म है। इसलिए यह कहता है मैं ब्रह्म हूँ, सबकुछ ब्रह्म है। भ्रम को ब्रह्म दिखना ही आनन्द मार्ग का कर्तव्य है। 

वास्तव में ब्रह्म ही है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। उसके अतिरिक्त यदि कोई दिखाता है, वह उनका सपना है। अतः कहा जाता है ब्रह्म सत्य है। जगत यद्यपि ब्रह्म का स्वप्न है तथा भी मिथ्या नहीं है साथ यह शास्वत सत्य भी नहीं है इसलिए इसे आपेक्षिक सत्य कहा गया है। अतः मनुष्य का एक उद्देश्य होना चाहिए आत्म मोक्ष एवं जगत हित। जो जगत की अवहेलना कर मात्र ब्रह्म भाव की ओर चलते हैं। वे सुपथ का वरण नहीं करते हैं। इसलिए जगत के प्रति कभी भी नकारात्मक भाव मत आने दे। जगत की सेवा करना साधक का कर्तव्य है। इस कर्तव्य पथ को नहीं छोड़ना ही ब्रह्म का आदेश है। 
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श्री आनन्द किरण "देव"
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