आनन्द मार्ग एक सामाजिक - आध्यमिक विचारधारा है( Anand Marg is a socio-spiritual ideology)


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श्री आनन्द किरण "देव"
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आनन्द मार्ग एक क्रांतिकारी सामाजिक-आर्थिक विचारधारा लेकर आया है। इसलिए आनन्द मार्ग को एक सामाजिक-आध्यमिक विचारधारा कहा जाता है। आनन्द मार्ग का उद्देश्य आत्म मोक्ष एवं जगत हित निर्धारित किया गया है। इसके तहत आध्यात्मिक एवं सामाजिक विचारधारा को साथ लेकर चलता है। आध्यात्मिक विचारधारा के तहत समस्त मानवों में मुक्ति मोक्ष का बीजारोपण किया जा रहा है। जैसे जैसे यह बीज मनुष्य की मानसभूमि मजबूत होता जाता है वैसे वैसे मुक्ति मोक्ष के उद्देश्य की सिद्धि होती जाएगी है। उसी प्रकार जगत हित के उद्देश्य की सिद्धि के लिए सामाजिक विचारधारा काम करती है। इसके तहत एक अखंड अविभाज्य मानव समाज का निर्माण करना है। जो समाज के प्रत्येक घटक को सर्वजन हितार्थ, सर्वजन सुखार्थ से साक्षात्कार कराएगा है। अतः सुस्पष्ट समझने के लिए विस्तार में कहा जाए तो आनन्द मार्ग एक सामाजिक - आध्यमिक विचारधारा है; न कि मजहब, रिलिजन अथवा सम्प्रदाय है। 

अब इसको समझने की कोशिश करते हैं। 

(१) मजहब
प्रश्न - कोई विचारधारा कब मजहब बन जाता है? 
उत्तर - कोई विचारधारा तब मजहब बन जाती है, जब विचारधारा को मानने वाले अपनी विचारधारा से अधिक प्रवर्तक को बल देने लग जाते है। निस्संदेह विचारधारा के प्रवर्तक आदरणीय, सम्मानीय, नमनीय, वंदनीय तथा पूजनीय होते है लेकिन उनका आदर, सम्मान, नमन, वंदन तथा पूजन तब अधिक सार्थक हो जाता है जब उनके अनुयायी पूर्णतया उनकी विचारधारा पर चलते हैं। क्योंकि प्रवर्तक एवं प्रणेता अपने आप को अपनी विचारधारा एवं मिशन में मर्ज कर देते हैं। अतः प्रर्वतक से अधिक उनकी विचारधारा को बल मिलता रहेगा तब तक विचारधारा मजहब नहीं बन सकती है। ऐसा करने से प्रवर्तक सदैव खुश होते हैं।  प्रर्वतक इष्ट है तथा विचारधारा आदर्श है। यदि व्यक्ति को इष्ट एवं आदर्श में से किसी एक को चुनने की अग्नि परीक्षा देनी पड़े तो आदर्श का चयन करना चाहिए। यही मनुष्य का धर्म है। जहाँ धर्म है, वहाँ इष्ट है। इसलिए आदर्श का चयन करते ही  इष्ट अपने आप आते है तथा ऐसा देखकर इष्ट अति अधिक प्रसन्न होते हैं। 

(२) रिलिजन
प्रश्न - कोई विचारधारा कब रिलिजन बन जाता है? 
उत्तर - कोई विचारधारा तब रिलिजन बन जाती है, जब मनुष्य के विचार रुढ़ मान्यता में आबद्ध हो जाते हैं। जैसे  इष्ट की जन्म स्थली, कर्म स्थली एवं विचार, सिद्धांत, देन एवं कार्य योजना की सृजन स्थली को तीर्थ मानने लग जाते हैं तथा उसके आधार पर एक सेन्टीमेंट  का निर्माण करने लग जाता है। यह अवस्था विचारधारा को धीरे धीरे रिलिजन में बदल देता है। रिलिजनी जन के मन में विचारधारा के अनुकूल कार्यक्रम एवं विचार तब कर्कश लगने लगते हैं जब उनका सृजन उनके अपने रिलिजन से न हुआ‌ हो।  यह पर्यटन स्थल रहे तब तक कुछ नहीं जब यह तीर्थ स्थल बन जाते हैं तब धर्म की ग्लानि होती है। पर्यटन स्थल ज्ञान, कर्म एवं भक्ति में वृद्धि होती है जबकि तीर्थस्थल बनने से यह रुग्ण हो जाते है। पर्यटन स्थल भी पवित्र एवं आस्था के प्रतीक होते हैं लेकिन इष्ट को उसमें ही नहीं देखते हैं जबकि तीर्थस्थल इष्ट को उनमें ही कैद करते तथा उससे आडंबर पनपता है। 

(३) सम्प्रदाय
प्रश्न - कोई विचारधारा कब सम्प्रदाय बन जाता है? 
उत्तर - कोई विचारधारा तब सम्प्रदाय बन जाती है, जब विचारधारा के अनुयायी जाति, स्थान, गुट एवं व्यक्तिगत संबंध में बंद हो जाते हैं। इसलिए मनुष्य को जियो व सोसियो सेन्टीमेंट, गुटबाजी तथा व्यक्ति विशेष की आस्था से दूर रहना चाहिए। ऐसा नहीं कर एक विचारधारा को पढ़ाने वाले शिक्षक जनमन को पूर्ववर्ती तथ्यों की ओर ले चलता है अथवा इस ओर जाने से नहीं रोकता है तो वह धीरे धीरे अपनी विचारधारा को सम्प्रदाय बनाने की ओर ले चलता है। 

(४) मतवादी 
प्रश्न - कोई विचारधारा कब मतवाद बन जाता है? 
उत्तर - कोई विचारधारा तब मतवाद बन जाती है, जब व्यक्ति एवं समाज अपनी विचारधारा को विज्ञान, तर्क एवं युक्ति कसौटी में न कसकर, अंधविश्वास बढ़ता ही जाता है तब ऐसी की विचारधारा मतवादी हो जाती है। उसके लिए अपना मत ही अच्छा होता है चाहे उसमें त्रुटि ही क्यों न हो। 

(५) पंथवादी
प्रश्न - कोई विचारधारा कब पंथवादी बन जाता है? 
उत्तर - कोई विचारधारा तब पंथवादी बन जाती है, जब व्यक्ति अपने ही पथ को श्रेष्ठ मानकर दूसरे के प्रति अविचार रखता है अथवा ईर्ष्या, जलन व हास्य परिहास रखता है तब पंथवादी दलदल का अंग बन जाता है। 

इस प्रकार हमने एक विचारधारा को अधर्म के रास्ते पर चलने की संभावना को देखा है।  कदापि यह विचारधारा का रास्ता नहीं है। विचारधारा का पथ धर्म का पथ है। धर्म मनुष्य एवं समाज की अपनी संपदा है। आनन्द मार्ग की विचारधारा 'मानव धर्म जिसका संस्कृत में भावगत नाम भागवत धर्म है' को लेकर चलती है। यहाँ सनातन, पुरातन, शास्वत जैसे शब्द नहीं होते हैं। धर्म की एक ही पहचान होती है - सत्य। सत्य ही धर्म है, धर्म ही सत्य है। इसलिए आनन्द मार्ग सत् पथ है। 

विषय ओर अधिक समझने के लिए इतिहास की ओर जाते हैं। इस संसार को सुन्दर बनाने की कल्पना प्राचीन संस्कृति में निहित है जो सर्व भवन्तु सुखिनः तथा वसुधैव कुटुंबकम लेकर आई थी। यह मनुष्य के लिए आदर्श का काम कर सकती है। व्यवहार में विश्व को सुन्दर बनाने की परिकल्पना लेकर महावीर, बुद्ध, आदि शंकराचार्य, महात्मा ईसा तथा हजरत मुहम्मद चले थे। उन्हें प्रकृति ने फलने फूलने के‌ पर्याप्त अवसर दिये। महात्मा बुद्ध अपना परचम लहराया पाये, महात्मा ईसा का परचम तो पांच महाद्वीप में फैला रहा है। हजरत मुहम्मद को भी मध्य एशिया एवं पश्चिम दक्षिण एशिया तक अवसर दिया गया। महावीर स्वामी एवं आद्य शंकराचार्य इत्यादि को भी अवसर मिला तथा उन्हें भी प्रकृति ने पर्याप्त स्थान दिया। लेकिन इनमें कोई भी सुन्दर सृष्टि की रचना नहीं कर पाये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी अन्य संस्थानों जैसे आर्य समाज, ब्रह्म समाज, रामकृष्ण मिशन इत्यादि को अवसर मिला तथा मिल रहा है। यदि वे ऐसा कर पाती अथवा कर पायेंगे तो सफल माने जाते अथवा माने जाएंगे। लेकर उनकी कार्यपद्धति को देखकर दूर तक इस प्रकार की संभावना नहीं दिखाई देती है। 

आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के पास भी यह अवसर आया है। धरती को सुन्दर, सुसंस्कृत एवं सुखी बनाना है। यही इस युग का धर्म है। सर्वे भवन्तु सुखिनः, विश्व बंधुत्व, एक मानव समाज, सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय एवं नव्य मानवतावाद इत्यादि सभी इस धरा को प्राचीन संस्कृति में निहित आदर्श की ओर ले चल रहे हैं। इसके साथ यह सभी मनुष्य धर्म की ओर ले चलते हैं। अतः आनन्द मार्ग एक सामाजिक सामाजिक-आध्यमिक विचारधारा है, जो एक आदर्श समाज एवं सुन्दर, खुशहाल एवं प्रगतिशील पृथ्वी का निर्माण करने के लिए आयी है।
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